सतनाम और सनातन
सतनाम संस्कृति श्रमण संस्कृति है और यह सैंधव सभ्यता से अबतक निर्बाध चला आ रहा है। सच्चनाम से सतनाम होते सत्यनाम तक की यात्रा की बड़ी लंबी प्राचीन वृतांत है,जिसे सनातन कहे जा रहे हैं वह भी सतनाम के समानांतर ही हैं। इस में बुद्ध से लेकर गुरुघासीदास तक अनेक प्रज्ञावान प्रवर्तक महापुरुष हो चुके हैं और आगे होते रहेन्गे ।
देव-देवादि उनके अवतार लीला वृतांत यह तो राजतंत्र के आविर्भाव से हुआ और राजाओं /राजकुमारों को जो ऐश्वर्यवान हुए उन्हे ईश्वर तक धोषित किए गये। जब किसी को शिखर तक पहुँचाए जाएन्गे तो किसी न किसी को गर्त तक पहुचना या पहुचाना ही होगा । इस तरह राजतंत्र से ही भेदभाव जन्य जाति वर्ण शास्त्र आदि निर्माण हुआ। उनसे पूर्व से ही प्राकृतिक रुप से सतनाम संस्कृति रहा हैं। जिसे प्राकृत धर्म भी कहते हैं। उसे कोई राजाश्रय शास्त्रकार और महाकवि नहीं मिला। जो भी प्रतिभाशाली हुआ उनकी बातें लोगों को समझ आती ग ई वह अलग मत पंथ के रुप से आकृति ग्रहण कर पृथक होते चले गये।
इस तरह हम देखते है कि सतनाम ( सनातन )जनमानस के परस्पर आचार ,विचार और व्यवहार से स्वस्फूर्त चलते आ रहा हैं। इनके सूक्ष्म भेद के पचड़े में जन साधारण नहीं पड़ते उन्हे तो जीवन की जटिलताएं और कष्ट संताप से मुक्ति और आत्मवि चाहिए। यह सब उन्हें कुछ के क्रियाएँ कर्मकांड या पूजा पद्धति में मिल जाते वह उन्ही के संग साथ लो लिए। हां उनकी इन सारल्य और अबोधता का भरपूर फायदे सुविधा भोगियों ने उठाते आया है उठा रहे हैं और उठाते रहेन्गे ।
।।सतनाम ।।
-डाॅ. अनिल भतपहरी
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