Monday, August 24, 2020

संघर्ष और कल्याण

संघर्ष और कल्याण  

व्यक्ति एक प्राणी हैं और प्राणियों में प्रतिद्वंद्विता उनकी प्रवृत्ति हैं।वह अपने परिजनों से भी संधर्ष करते हैं। अतः यह कहना कि वे गैर से प्रेम और सौहार्द्र पूर्ण व्यवहार करे या करते रहेन्गे, यह हो ही नहीं सकते ।हां इसे नीति ,नियम या संविधान द्वारा उन्हे मनवा तो सकते हैं, पर उनकी इस प्रवृत्ति  को बदल नहीं सकते ।समय अवसर आने पर उनका प्रकटीकरण होकर रहता हैं। पति पत्नी से, पिता पुत्र से, भाई भाई से, एक परिवार दूसरे परिवार से। एक जाति दूसरे जाति से एक मत वाले दूसरे मतवाले और एक धर्म पंथ मजहब वाले ,दूसरे धर्म पंथ मजहब वालों से प्रतिद्वंद्विता रखते हैं।संधर्ष करते हैं, और  सुनियोजित ढंग से एक- दूसरे की अवहेलना करते लोगों को अपने -अपने खेमों में रख अनुयाई बनाते  हैं। वह साम्राज्यवादी की तरह  देश दुनिया सब पर कब्जा चाहता है। मानवता प्रेम करुणा सद्भाव की नारे सभी लगाते हैं। लेकिन व्यवहार में नहीं लाते ।
     धर्म पंथ मत  विचार -धाराए आदि संधर्ष और प्रतिद्वंद्विता का  सामूहिक संस्थान हैं।यह आदिम होकर भी आज तक प्रासंगिक हैं। इन्हे और भी सशक्त और सुदृढ़ किए जा रहे ताकि बेहतर ढंग से एक दूसरे  से लड़ सके और अपनी श्रेष्ठता साबित कर सके । देश दुनिया में सत्ता कायम कर सके । राजतंत्र धर्म मत के प्रचारक होकर और भी सुदृढ हुआ ।कलान्तर में  लोकतंत्र आने पर अनेक  राजनैतिक  पार्टियां  इन्ही विचार-धाराओ धर्मो मतो पंथो के अधीन हो गये ।इनके लिए अकुत संपदाएं  एकत्र किए जाने लगे यह संपदा  उसी रोटी और जीजीविषा  से  लड़ते  आदमी के परिश्रम के अंश होते जिससे उनके प्रबंधक व प्रचारक ऐश करते हैं।
आज इन्ही संघर्ष के लिए आणविक अस्त्रों से दुनिया लैस हो चुकी है।  तृतीय युद्ध कभी भी छिड़ सकते है।बावजुद सुख-शांति त्यागकर ,मूर्ख गंवार उनकी ‌तैय्यारी  में लगा हुआ है । केवल वर्चस्व /ऐश्वर्य के समान एकत्र मर -खप जाते हैं। उन्हें मिलता क्या है? हमारी छत्तीसगढ़ी में कहावत है - सांप चाबिस फेर उन ल काय मिलिस ? न उनके पेट भरते हैं न पुरखे तरते हैं। वर्तमान में चंद लोगों के अधीन समस्त  संधाधन होते जा रहे हैं। और उन लोगों के अधीन मानव प्रजाति। इन धनपति जो लाखों के हक अधिकार सुख सुविधा को छीनकर क्या अर्जित कर लेते हैं? या क्या वे लीगल-अनलीगल कमाएं अरबों की संपदा में से एक सिक्का तक  मरणोपरांत अपने संग ले जा सकते हैं?नहीं ! फिर ये गलाकाट प्रतिस्पर्धा क्यों ?
  लड़ना मानव की  प्रवृत्ति हैं। उन्हे किससे और क्यो लड़ना चाहिए का बोध होना चाहिए  यदि वह अपनी अज्ञानता से शोषकों से लड़े  तो उनका और घर -परिवार ,समाज का कल्याण हो सकते हैं।  जीत और ऊँचाई पहुँचने का जुनून व्यक्ति को सफलताएँ देती तो है साथ में तन्हाई और  डिप्रेशन भी देते हैं। यह जीवन का लक्ष्य नहीं । जीवन में  स्व के जगह लोक कल्याण हो उन्ही को सफल माने जा सकते हैं । हां यह सच है कि स्व कल्याण पहला स्टेज है, लोक कल्याण अंतिम ।पर लोग  अंतिम तक पहुँचते नहीं या पहुँचना ही नहीं चाहते  यही सबसे बड़ी विडंबना हैं। फिर ऐसे लोगों के विरुद्ध संधर्ष स्वस्फूर्त उठ खड़े होते हैं ।
       -डां अनिल भतपहरी   / ९६१७७७७५१४

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