Thursday, August 27, 2020

सतनामियों का उद्भव

जांऊ कहां बता ऐ दिल ...
जब भी मन उदास और विषाद से ग्रस्त होते हैं अक्सर  मुकेश के गीत सुनने से  सुकून मिलता  हैं। क्योंकि उनकी करुणामय स्वर डूबतें दिल को‌ ढांढ़स बंधाते हुए  निराशा में आशा का संचार करते हैं। उनके गाए अनेक‌ गीत कितनों को दु: ख के गर्त से ऊपर उठाते आ रहे हैं।
      आज पुण्यतिथि पर उन्हें नमन

सुनिए  उनकी ये प्रसिद्ध गीत - 

https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1664989023656271&id=100004355672502

Monday, August 24, 2020

संघर्ष और कल्याण

संघर्ष और कल्याण  

व्यक्ति एक प्राणी हैं और प्राणियों में प्रतिद्वंद्विता उनकी प्रवृत्ति हैं।वह अपने परिजनों से भी संधर्ष करते हैं। अतः यह कहना कि वे गैर से प्रेम और सौहार्द्र पूर्ण व्यवहार करे या करते रहेन्गे, यह हो ही नहीं सकते ।हां इसे नीति ,नियम या संविधान द्वारा उन्हे मनवा तो सकते हैं, पर उनकी इस प्रवृत्ति  को बदल नहीं सकते ।समय अवसर आने पर उनका प्रकटीकरण होकर रहता हैं। पति पत्नी से, पिता पुत्र से, भाई भाई से, एक परिवार दूसरे परिवार से। एक जाति दूसरे जाति से एक मत वाले दूसरे मतवाले और एक धर्म पंथ मजहब वाले ,दूसरे धर्म पंथ मजहब वालों से प्रतिद्वंद्विता रखते हैं।संधर्ष करते हैं, और  सुनियोजित ढंग से एक- दूसरे की अवहेलना करते लोगों को अपने -अपने खेमों में रख अनुयाई बनाते  हैं। वह साम्राज्यवादी की तरह  देश दुनिया सब पर कब्जा चाहता है। मानवता प्रेम करुणा सद्भाव की नारे सभी लगाते हैं। लेकिन व्यवहार में नहीं लाते ।
     धर्म पंथ मत  विचार -धाराए आदि संधर्ष और प्रतिद्वंद्विता का  सामूहिक संस्थान हैं।यह आदिम होकर भी आज तक प्रासंगिक हैं। इन्हे और भी सशक्त और सुदृढ़ किए जा रहे ताकि बेहतर ढंग से एक दूसरे  से लड़ सके और अपनी श्रेष्ठता साबित कर सके । देश दुनिया में सत्ता कायम कर सके । राजतंत्र धर्म मत के प्रचारक होकर और भी सुदृढ हुआ ।कलान्तर में  लोकतंत्र आने पर अनेक  राजनैतिक  पार्टियां  इन्ही विचार-धाराओ धर्मो मतो पंथो के अधीन हो गये ।इनके लिए अकुत संपदाएं  एकत्र किए जाने लगे यह संपदा  उसी रोटी और जीजीविषा  से  लड़ते  आदमी के परिश्रम के अंश होते जिससे उनके प्रबंधक व प्रचारक ऐश करते हैं।
आज इन्ही संघर्ष के लिए आणविक अस्त्रों से दुनिया लैस हो चुकी है।  तृतीय युद्ध कभी भी छिड़ सकते है।बावजुद सुख-शांति त्यागकर ,मूर्ख गंवार उनकी ‌तैय्यारी  में लगा हुआ है । केवल वर्चस्व /ऐश्वर्य के समान एकत्र मर -खप जाते हैं। उन्हें मिलता क्या है? हमारी छत्तीसगढ़ी में कहावत है - सांप चाबिस फेर उन ल काय मिलिस ? न उनके पेट भरते हैं न पुरखे तरते हैं। वर्तमान में चंद लोगों के अधीन समस्त  संधाधन होते जा रहे हैं। और उन लोगों के अधीन मानव प्रजाति। इन धनपति जो लाखों के हक अधिकार सुख सुविधा को छीनकर क्या अर्जित कर लेते हैं? या क्या वे लीगल-अनलीगल कमाएं अरबों की संपदा में से एक सिक्का तक  मरणोपरांत अपने संग ले जा सकते हैं?नहीं ! फिर ये गलाकाट प्रतिस्पर्धा क्यों ?
  लड़ना मानव की  प्रवृत्ति हैं। उन्हे किससे और क्यो लड़ना चाहिए का बोध होना चाहिए  यदि वह अपनी अज्ञानता से शोषकों से लड़े  तो उनका और घर -परिवार ,समाज का कल्याण हो सकते हैं।  जीत और ऊँचाई पहुँचने का जुनून व्यक्ति को सफलताएँ देती तो है साथ में तन्हाई और  डिप्रेशन भी देते हैं। यह जीवन का लक्ष्य नहीं । जीवन में  स्व के जगह लोक कल्याण हो उन्ही को सफल माने जा सकते हैं । हां यह सच है कि स्व कल्याण पहला स्टेज है, लोक कल्याण अंतिम ।पर लोग  अंतिम तक पहुँचते नहीं या पहुँचना ही नहीं चाहते  यही सबसे बड़ी विडंबना हैं। फिर ऐसे लोगों के विरुद्ध संधर्ष स्वस्फूर्त उठ खड़े होते हैं ।
       -डां अनिल भतपहरी   / ९६१७७७७५१४

Saturday, August 22, 2020

प्राची ज्ञान और अर्वाचीन विज्ञान

प्राचीन ज्ञान और  अर्वाचीन विज्ञान 

वर्तमान समय में आधे -अधुरे ढंग से  विज्ञान के नाम पर प्राचीन कला पूर्ण ज्ञान का तिरस्कार या अवहेलना तक किए जाते हैं यह उचित नहीं । हालांकि इन पर कुछ लोग अंध विश्वास आदि फैलाकर जीविकोपार्जन व लूटपाट तक करते रहें हैं। केवल इनके चलते इन तत्वों को खारिज नहीं किए जा सकते। अमुमन हर देश, काल, परिस्थितियों में अनुभव और विरासत की ज्ञान लोगों को प्रेरित करते आ रहे हैं।  मनुष्य उनसे न केवल विकास किए अपितु मानवीय गुणों के साथ  सुख- शांति और परस्पर सौहार्द्र तक संस्थापित किए गये। भले चंद शातिर लोगों की  महत्वाकांक्षी आदि के चलते अमानवीय और बर्बर रुप में देखने मिलते हैं,पर वह हमेशा  हो ऐसा भी नहीं रहा।
     बहरहाल कुछ ऐसी चीजें है जो अनदेखे अमूर्त रुप में भी घटते हैं। हर चीज पदार्थ हो यह जरुरी नहीं भावनाएँ भी होते हैं वह किसी यंत्र आदि के माप से परे  होते हैं हालांकि उनपर भी कहीं न कहीं ज्ञान +विज्ञान  समाहित रहते हैं पर लोग अनजाने में उन सुक्ष्मतम चीजों का अवलोकन नहीं कर पाते या समझना नहीं चाहते ।
फलस्वरुप अनेक अच्छी मान्यताओं का भी प्रबल विरोध करने लग जाते हैं। 
            ज्ञान के अनेक सोपान और विधाएँ है साथ ही व्यक्ति का दृढ़ निर्णय असीम संभावनाएँ के द्वार और दृष्टि खोलते हैं, और उन्हे सफल करते हैं। साधारण लोगों के लिए आश्चर्य तक हो जाते हैं। फलस्वरुप उन्हे महिमामंडन कर देते हैं,फिर उनके पर्दाफाश के लिए अधकचरे विज्ञानवादी आ जाते हैं। जो तर्क कम कुतर्क द्वारा उनकी अवहेलना करते हैं।
यही द्वंद चलते रहता हैं।

बहुत कुछ तो स्व अनुभव पर होते हैं।  एक ऊंचाई के बाद जीवन में ठहराव आते हैं। फिर वहाँ से पुनश्च अपने जड़ की ओर लौटने होते हैं जैसे बरगद की लाह ऊपर से नीचे आकर जड़ बन जाते हैं और फिर वह अधिक पुष्ट व मजबूत हो जाते हैं।
     सदियों की अनुभव भी कोई चीज होती हैं सब कुछ विज्ञान ही तय करे ऐसा भी नहीं है। हमें प्राचीन ज्ञान और. अर्वाचीन विज्ञान के साथ -साथ आगे चलना होगा ताकि मानव प्रजाति  का सर्वांगीण विकास  यात्रा निर्बाध चलता रहें।
          
             ।‌।सतनाम।।
 -डाॅ अनिल भतपहरी/ 9617777514

Thursday, August 20, 2020

अजूबा

अजूबा

संभला नही 
बस टूटते
बिखरते गया
इश़्क की 
दरियां में
डूबते-उतरते गया 
हुआ ऐसे 
कैसे कि 
भीतर से 
निखरते गया ...
  -डा.अनिल भतपहरी

सतनाम और सनातन

सतनाम और सनातन 

सतनाम संस्कृति श्रमण संस्कृति है और यह  सैंधव सभ्यता से अबतक  निर्बाध चला आ रहा है। सच्चनाम से  सतनाम  होते सत्य‌नाम तक की यात्रा की बड़ी लंबी प्राचीन वृतांत है,जिसे  सनातन कहे जा  रहे हैं वह भी सतनाम के समानांतर ही हैं। इस में  बुद्ध से लेकर गुरुघासीदास तक अनेक प्रज्ञावान प्रवर्तक  महापुरुष हो चुके हैं और आगे होते रहेन्गे ।
      देव-देवादि उनके अवतार लीला वृतांत  यह तो राजतंत्र के आविर्भाव से हुआ और  राजाओं /राजकुमारों को जो ऐश्वर्यवान हुए उन्हे ईश्वर तक धोषित किए गये। जब किसी को  शिखर तक पहुँचाए जाएन्गे तो किसी  न किसी को गर्त तक पहुचना या पहुचाना ही होगा । इस तरह राजतंत्र से ही भेदभाव जन्य जाति वर्ण शास्त्र आदि निर्माण हुआ। उनसे पूर्व से ही प्राकृतिक रुप से सतनाम संस्कृति रहा हैं। जिसे प्राकृत धर्म भी कहते हैं। उसे कोई राजाश्रय शास्त्रकार और महाकवि नहीं मिला। जो भी प्रतिभाशाली हुआ उनकी बातें लोगों को समझ आती ग ई  वह अलग मत पंथ के रुप से आकृति ग्रहण कर पृथक होते चले गये। 
    इस तरह हम देखते है कि सतनाम ( सनातन )जनमानस के परस्पर आचार ,विचार और व्यवहार से स्वस्फूर्त चलते आ  रहा हैं। इनके सूक्ष्म भेद के पचड़े में जन साधारण नहीं पड़ते उन्हे तो जीवन की जटिलताएं और कष्ट संताप से मुक्ति और आत्मवि चाहिए। यह सब उन्हें कुछ के  क्रियाएँ कर्मकांड या पूजा पद्धति में मिल जाते वह उन्ही के संग साथ लो लिए। हां उनकी इन सारल्य और अबोधता का भरपूर फायदे सुविधा भोगियों ने उठाते आया है उठा रहे हैं और उठाते रहेन्गे ।
               ।।सतनाम ।।
        -डाॅ. अनिल भतपहरी

बिसरे कहां तय जाके ...

बिसरे कहां तय जाके, आरों कछु नइ आवय 
तोर बिन संगी मोला ,सिरतों कछु नइ सुहावय

सुन्ना हे घर -दुवारी कुआं पार बियारा बारी 
डोहड़ी ह डोड़हाय रहिगे फूल फर ह नइ धरय ...

गे हस जब ले तयहर ,टप्प हे जम्मो बुता काम 
कलेचुप बोकबाय बइठे भुखपियास नइ जनावय 

आठो पहर चोबिस घड़ी बियाकुल    बिते हयरान 
मन हदरत हे तोर सुध,थोरकों नइ भुलावय ...
        -डाॅ. अनिल भतपहरी

सतनाम संकीर्तन कार सुकालदास भतपहरी

सतनाम संकीर्तन कार सुकालदास भतपहरी

बहुमुखी  प्रतिभा के धनि सुकालदास भतपहरी‌ का जन्म 20 -8-1948 को ग्राम जुनवानी के  समान्य कृषक रामचरण मां पीलाबाई सतवन्तीन के घर हुआ।बचपन से ही वह ग्राम में गठित संस्था के कार्यक्रम में शिरकत करने लगे थे।  आगे चलकर अध्ययन करते हुए  युवा अवस्था से ही अनेक सम सामयिक विषय के साथ -साथ मंत्री नकुल ढीढी (मामा जी ) और अपने चाचा महंत नंदू नारायण भतपहरी ( जो मंत्री की बहनोई थे  )के संयुक्त गुरुघासीदास जयंती अभियान(जो कि  1938 से चल रहा था) में  गुरुघासीदास चरित पर आधारित सतनाम संकीर्तन भजन का प्रणयन अध्ययन के दरम्यान अमीन पारा छात्रावास रायपुर में रहते हुए 1965 के आसपास करने  लगे। और प्रस्तुतियां भी देने लगे थे। 
     हमारे ग्राम जुनवानी मे महंत नंदू भतपहरी एंव 
मंत्री नकूलढीढी के मार्गदर्शन  गठित संस्था बालसमाज (1940) के द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों वे बाल्यावस्था से ही सक्रिय  थे।वे लोग समव्यस्क साथियों जिनमें सभी भाई -बंधु ,चाचा मामा ही थे के साथ लगे रहते।  और  गुरुघासीदास समारोह में उत्साह पूर्वक भाग लेते ,पंथी नृत्य गुरुचरित लीला एंव सतनाम संकीर्तन करके जनजागरण भी चलाते  । चाचा - मामा के  मार्ग दर्शन और आशीष तो मिलता ही था उनलोगो द्वारा आयोजित जयंती समारोह मे सम्मलित होकर सहभागिता तक निभाते थे।उनके सहयोगियों में अग्रज  मनोहर लाल भतपहरी , भुवनलाल भतपहरी ,भीष्मदेवढीढी का भीखु रामेश्वरम , रामचरण  सुखरुप्रसाद बंजारे  धनसिंग बंजारामेश्वर सोनवानी ,शोभाराम बंजारे आसी जोहनलाल  चंद्रबलि ,किशन अनिरुद्ध दयाल सायतोडे सुन्हर ढीढी  सेवक राम , जुगरुप्रसाद बंजारे , नेकराम बंजारे ,भागीरथी राय, पुरेना जी रमई फत्तेलाल रामलाल  बोधना ,डा उपराम बघेल कोंदा प्रसाद बधेल बिदुर बंजारे , मानसिंग सोनवानी , 
इत्यादि समव्यस्क लोग मिलते जुलते और अभियान के हिस्से दार व आयोजक प्रायोजक भी थे।
               इस दरम्यान 1969 में उच्च श्रेणी शिक्षक पद पर महासमुंद जिला के सबसे बड़ा ग्राम बुंदेली हाई स्कूल में  पदस्थ हो गये। वहाँ भी वह अपनी सांस्कृतिक व सामसजिक कार्य को अनवरत जारी रखा ।वहां नवयुवक समिति बनवाए  और आसपास के ग्रामों जैतखाम स्थापित करवाकर जयंती मनाए सर्व प्रथम सुप्रसिद्ध नाच पार्टी  दानी दरुवन को उस लरियांचल ले गये और उनकी आपार लोकप्रियता के चलते गुरुघासीदास जंयती महोत्सव पुरे परिक्षेत्र में सबसे बडा आकर्षण और उत्सव में परिणत हो गये।  वे शाम को भोजन के बाद 2-3 घंटा सतनाम संकीर्तन की प्रस्तुति देते फिर रात्रि 11 बजे नाच पार्टी आरम्भ होते इस बीच वे सामाजिक संगठन और सतनाम दर्शन को खुबसूरती से कला पूर्ण ढंग से उपस्थित आपार जन समूह को  समझाते थे ।

   इस बीच वे कलाप्रिय अपने सह शिक्षकों और विद्यार्थियो को लेकर  नवरंग नाट्यकला मंच 1975-76 में गठित किए  और चोर चरणदास ,  चांदी के पहाड राह का फूल , संगत  एक मुठा माटी के असरइया जैसे नाटकों का मंचन नवरंग ‌नाट्यकला मंच बनाकर करते व आसपास जयंती/ दुर्गा पूजा कार्यक्रम में करते रहे हैं। हमलोग बाल कलाकार फिर आगे चरणदास चोर में साधु और चांदी के पहाड में प्रमुख पात्र का अभिनय करने का अवसर मिला।
    वे सतनाम संकीर्तन कार ,नाटक लेखक‌ निर्देशक अभिनेता हारमोनियम वादक बांसुरी वादक के साथ साथ आदर्श शिक्षक और प्रभारी प्राचार्य तक रहे । शा हाई स्कूल गिधपुरी में सेवारत सन 2000 में नव गठित छत्तीसगढ़ राज्य के अस्तित्व में आने की खुशी से  मग्न बेहद प्रफुल्लित पिता श्री दीपावली के समय बीमार हो गये । जब नये राज्य अस्तित्व में आए वह रायपुर के हास्पीटल में थे अंततः एक माह बाद  दिनांक 4 दिसंबर 2000 को एम्स न ई दिल्ली में उनका आकस्मिक निधन हो गये ।भरा पुरा परिवार और अपने अदम्य न थकने वाली रचनात्मक ऊर्जा सृजनशीलता से परे न जाने किस लोक में उछिंद हो गये ।
       उनकी गीतो का कैसेट और किताब प्रकाशित है। तथा उनके प्रदेय व रचनाओं का एक संकलन "श्री सुकाल रचनावलि " के नाम पर शीध्र प्रकाश्य हैं। जो कि समाजिक सरोकार से युक्त पठनीय व संग्रहणीय हैं।
       आज जयंती अवसर पर उन्हे शत शत नमन 
                  ।‌।जय सतनाम ।।

Sunday, August 16, 2020

सतनाम धर्म कुछ ऐतिहासिक तथ्य

सतनामी समाज से संदर्भित कुछ वर्षों से कुछ लोग व संस्थाएँ  सोसल मीडिया में सतनाम पंथ गुरुघासीदास डाॅ अम्बेडकर उनकी रिपब्लिकन पार्टी और गुरु अगमदास संत- महंत कांग्रेस और मंत्री नकूल ढीढी महंत नंदू नारायण भतपहरी संबंधित  आधी -अधुरी  प्रक्षिप्त जानकारियाँ  दी जा रही हैं। यह सब  डाॅक्टर. अम्बेडकर और नकूल देव ढीढी के व्यक्तित्व व संबंध को प्रदुषित करने का कुत्सित प्रयास मात्र हैं।
   सच तो यह था कि समकालीन समय में सतनामी केवल हिन्दू धर्म की  एक अस्पृश्य जाति  मात्र है। उनके साथ अस्पृश्यता का व्यवहार आज पर्यन्त होते आ रहे हैं।
१९५४ मे डाक्टर अम्बेडकर  मिनीमाता जी के द्वारा सदन मे अस्पृश्यता बिल पास करवा लेने के बाद मंत्री जी  कानुनन थाने/ कचहरी  आदि में नाई -धोबी ,पौनी -पसारी लेने लड़ते रहे और डाॅक्टर अम्बेडकर के रिपब्लिकन पार्टी से जुड़कर समाज सेवा व  लोकसभा चुनाव गुरुओ के विरुद्ध लड़े। वे ऐसा नहीं करते तो समाज में स्वाभिमान व स्वालंबन आते ही नहीं और न ही सेवादार जातियाँ उच्च वर्गों के दबाव के चलते सतनामियों को सेवाएँ देते ।सच कहे तो आज भी सतनामियों के यहां मलनिया नाई नहीं लगते न कोई भी सुविधा भोगी सम्पन्न मालगुजार  / बडे अधिकारी सतनामी  मलनिया नाई लगा सका हैं। यहाँ तक कि घरेलु काम करने वाली रौताइन  बाई  तक सतनामी अधि कारी / कर्मचारी के यहां नही लगते। गांवो मे हमारे कर्मचारियों को किराए का घर तक नही मिलते  शमशान तक अलग है। क्या यह सब बाते पता नही ? बौद्ध धर्म और डाक्टर अम्बेडकर सतनामियों के कब से द्वेषी हो गये ? जबकि गुरु को हत्याकांड से बचाए यह तो सर्वज्ञ है न। और तो उनके बनाए  संवैधानिक प्रावधानों का लाभ वर्तमान में मिल‌ रहे हैं। (जबकि हमारे सक्षम व प्रभावशाली  गुरु जन तो सवर्ण व सामंत बने फिर रहे हैं। और सक्षम व कम प्रभावशाली वंशज गुरु   समाज के दान दक्षिणा पर ही निर्भर होने लगे हैं। )नाईयो से सेलुन में नगद नारायण सेवाएं  दाढ़ी बाल कटवाना /लेना व्यवसायिक  बात हैं। और यह भी १९७०  के बाद ही आया ।
     एक बात और कि नकूल देव ढीढी  व गुरु अगम दास रायपुर लोकसभा सीट के परस्पर प्रतिद्वंद्वी भी थे। बावजूद गुरु के प्रति उनकी निष्ठा रही। जबकि इन लोगों के प्रति  गुरुओ उनके राज महंतो आदि ने प्रखरतम विरोध करते रहे ।यहां तक उन्हे गुरुघासीदास जयंती तक मनाने नहीं देते ।
   बहरहाल डाॅक्टर अम्बेडकर के प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस थे न कि कांग्रेसी अनुजाति वर्ग के नेता जो कि प्राय: गुरु महंत आदि थे । यही  नेतागण   तत्कालीन समय में छग के  समस्त सतनामी  कांग्रेसी नेता जो गुरु महंत आदि थे वे  नकूल देव ढीढी के साथ साथ डॉ  अम्बडेकर के भी प्रखर विरोधी व द्वेषी हो गये। (डाॅक्टर अम्बेडकर के विरुद्ध सवर्ण नेता के बहकावे मे आकर सतनामी समाज की ओर से पर्चे छपवा कर दुष्प्रचार करते रहे उसे छत्तीसगढ़ आने पर प्रतिबंध भी तत्कालीन  शुक्ल सरकार ने किए। इनका साक्ष्य व पाम्लेट हमारे पास उपलब्ध हैं। ) उस समय और अब भी सतनाम धर्म का कोई अतित्व नहीं है। बल्कि आजादी के बाद  से अनवरत हिन्दुओं के विरोध व अमानवीय व्यवहार से छुब्ध होकर न ई पीढी  के पढे- लिखे  लोगो द्वारा विगत ३०-३५ वर्षो से  सतनाम धर्म की मांग होने लगी हैं।
    नकुल ढीढी कभी भी सतनाम धर्म में शामिल होने का प्रस्ताव लेकर डा अम्बेडकर के पास नहीं गये।इसका सवाल ही पैदा नहीं होता क्योंकि तब सतनाम धर्म ही नहीं था। न उनकी ऐसी कोई व्रत उत्सव त्योहार थे जो उन्हे अलग से प्रतिष्ठित करा सकते।
  पता नही किस प्रयोजन से कुछ लोग इस तरह झूठ और मनगंढत करके अनावश्यक भ्रम फैला रहे हैं जो आपत्तिजनक हैं। 
   ऐसा  लगता है कि इस तरह की दुष्प्रचार कुछ ब्रेन वास्ड अम्बेक्राइड और चंद सतनामी कट्टरपंथी लोग कर रहे हैं। फलस्वरुप समाज के नये एन्ड्राउड धारी युवा वर्ग अनावश्यक रुप  दिगभ्रमित हो रहे हैं। हमे इन्हे वास्तविक तथ्यों से अवगत कराने होन्गे ताकि जो सच है उनका उन्हें जानकारी हो सके। वास्तव में इन्ही लोगों से समाज में बिखराव के खतरे मंडराते नजर आते हैं। जबकि कुछ महत्वाकांक्षी  ऐतिहासिक धटना क्रमों को नजर अंदाज कर सतनाम धर्म के लिए सबको मिलजुल काम करना चाहिए।  
   आजादी के बाद १०४७ से  १९५६ तक का कालखंड का एक एक  महत्वपूर्ण घटनाओं का ऐतिहासिक दस्तावेज उपलब्ध है। यु ही किसी के आंखो में धूल नहीं झोका जा सकता ।
    ऐसे आलेख को न वायरल करे और न ही उन यकीन करे।
       डाक्टर अम्बेडकर भारत के समस्त अपृश्य समाज के मसीहा है उनके विराट व्यक्तित्व को ऐसे उलुल- जुलुल पोष्ट से  प्रभावित करने की कुचेष्टा व्यर्थ प्रलाप मात्र हैं।
              सतनामियों को अगर सतनाम धर्म लेना है तो डाक्टर अम्बेडकर व बौद्ध धर्म के विरोध करके नहीं लिया जा सकता अपितु सदियों से संग साथ रहकर शोषण दमन अत्याचार करते  आ रहे धर्म और उनके गुर्गों से बचकर रहने से संभव होगा। यह साधारण सी बातें मोटी अक्ल वालों को समझ कैसे नहीं आते यह जरुर विचारणीय हैं।
    
     डाॅक्टर अनिल भतपहरी / 9617777514

Thursday, August 13, 2020

नुमाइश

आपके वास्ते छकड़ी हमरी 
       नुमाइश 

बारिश राहत की और बाढ़ तबाही की
क्या  करामत हैं यार  लापरवाही  की
फिर भी जश्न -ए-शोर है वाहवाही की 
लगा  हैं मेला- मंजर  आवा-जाही की 
कुछ नुमाइश  जरुरी  हैं  राजशाही की
ताकि सनद रहे विकास की गवाही की

बिंदास कहे .  डाॅ. अनिल भतपहरी

Monday, August 10, 2020

करु- कसा 2

करु-कसा -2

।।विचारों की कीमागिरी ।। 

रविवार मुर्गे -बकरों की शामत का दिन है। आज शहर में बकरीद की मानिंद सैकड़ों बकरे-मुर्गे मच्छी  कटेन्गे और तकरीबन ८०-९०% घरों में पकेन्गे।  जब ये पकेन्गे तो इन्हे पचाने मदिरा तो आएन्गे ही आएन्गे ।
    बहरहाल इस आलम में जो अछूते हैं वही रियल में आजकल अछूत हैं। सरकारी नौकरी- चाकरी से लेकर दिहाड़ी करने वाले व  कुली -कबाड़ी  तक "जश्न ए संडे " में डूब जाते हैं। क्या गज़ब का अंग्रेज़ी तिहार है ।
    सुबह -सुबह चर्च के  प्रेयर से मुक्त होते माइकल  मुलायम बकरे की गोश्त  खरीदने के लिए साइकल चलाते शहर की पुरानी कसाई ख़ाना गये। सोचा कुछ कीमा लेते आए ,अर्सा हो गये कबाब खाए? लाकडाउन में होटले/ बिरयानी सेंटर  बंद है तो धर में ही पका -खा ले ।  दूर से एक बंदा शायद  जासुस सा, हाव- भाव देखते समझ गया और जोर से आवाज दिए-" ओय सर जी ! यही मिलेगा शानदार मक्खन जैसा  "करीम का कीमा " 
      पास साइकल खड़ा करते पुछे -"क्या भाव ?" 
"सर जी !७०० रुपये १०० रुपये तो कुटने का लगा रहे हैं। मेहनत बहुत है सर जी !
    अरे लूट रहे हो जी उधर हमारे तरफ तो ६०० में गोश्त लो या कीमा सब समान रेट हैं।
    अरे जनाब !क्या कह रहे हैं कसाई कभी बेईमानी नहीं करता।  उधर गड़ेरियें और हिन्दुओं की दूकानें है। भला वे लोग हमसे बेहतर कटिंग्स क्या जाने ? यहाँ क्वालिटी और कटाई -चुनाई का महत्व है,तभी तो जानकार टूट पड़ते हैं। फिर तौल झुकाकर देते हैं उनके तरह डंडी नहीं मारते जनाब!
    सच में खाल उतरे बकरे ,रस्सी से लटके करीने से सजे थे ।भले  उनमें मक्खियाँ भिनभिना रही थी, उसे हांकते और उनकी तरफ दिखाते कहे -"ऐसा सफाई और चुनाई ओ कर दे तो ,कसम मौला की !धंधे छोड़ दे और बकरियाँ चराने गड़रिये बन जाय !"
   "अच्छा यह तो अच्छी बात है! कसाई से गड़रिये यह तो पुण्य का काम है । ये मारना - काटना छोड़ पालना शुरु कीजिए ।
   अरे साहब! काहे नीच नराधम बनाने की सोच रहे हैं?हमारे ही लहु सने दिए पैसों  से, पलने वाले गड़रिये से हम ऊचे दर्जे का है। वे हमारे आगे गिड़गिड़ाते है। हमसे छोटे व नीच  हैं। 
    माइकल सोच मे पड़ गये -"ये ऊंच -नीच   कहा -कहां घुस गये हैं। उस दिन कबाड़ वाले देवार कह रहे थे कि हम नेताम आदिवासी देवार  सुअर पालने वाले शहरी  देवार से ऊंच है।  इसी तरह सूत -सारथी सफाई करने वाले घसिया  भंगी मेहतर से स्वयं को ऊंच कहते हैं। और  खाल छिलने वाले  मेहर  से खाल की जूते बनाने वाले मोची ऊंच बना बैठा है। मलनिया से ऊंच  सेलून में बाल काटने वाले नाई है और  बड़ी मच्छी मार नाविक  केवट से नीच छोटी मच्छी और उनकी सुक्सी बेचने वाले  ढीमर हैं। किसान के  बरदी चराने व गोबर बिनने वाले  राउत से बड़ा खुद के डेयरी चलाने ,दूध बेचने वाले यादव बने हुए हैं। इधर किसानो में कुर्मी -तेली बडहर व प्रतिष्ठित है और  वही  किसान  सतनामी ,लोधी अघरिया हिनहर कैसे हो गये हैं?शादी ब्याह व सत्यनारायण  कथा करने  वाले ब्राह्मण अंत्येष्टि  करने से ब्राह्मण से ऊंच बना हुआ हैं। और  पैदल सैनिक से बड़ा हाथी घोडे वाले क्षत्रिय बने  बैंठे है।"
       विचित्र मान्यताओं व संस्कृति वाले अजायबघर देश में मांस ,मदिरा, खान -पान वाले आमिष आहारी और निरामिष के बीच  सडयंत्र कर परस्पर एक- दूसरे को लडाने वाले छुआ-छूत, जात- पात को बढावा देने  प्रभावशाली हैं।तथाकथित सात्विक आहारी -विहारी उनके शास्त्र आदि को  यही कीमियागिरी  लोग  पूज्यनीय बना रखे है! जिनकी गाढ़ी कमाई और श्रद्धा के वही लोग सौदागर बने मजे लूट रहे हैं।
    इधर कुछ जातिविहिन समानता वादी  सिख, सतनामी, बौद्ध ,जैन आदि भी केवल उत्सवी बन‌कर रह गये हैं। और उनमें इनके देखा -देखी अनेक धड़े, फिरके बनने लगे हैं। 
    बहरहाल  ठोस विचारों की किमागीरी करते अपने रास्ते पैडल मारते माइकल आए ..और हमें देख फूट पड़े  ओ राइटर  महोदय ! कब इस देश से  जात -पात, ऊंच -नीच  भेदभाव जाएगा और  मानवता स्थापित होगा ? समानता का मार्ग कब प्रशस्त होन्गे ? उनके औचक प्रश्न व व्यवहार देख हम हतप्रभ सा रह गये!! 

    -डॉ. अनिल भतपहरी/9617777514

मज़ा और सज़ा

।।मज़ा और सज़ा ।।

कहते हैं वो कि उनकी ,मज़ा ही मज़ा हैं
पर सच कहे ज़िन्दगी, सज़ा ही सज़ा हैं

 दिखने लगा सब साफ़, चढ़कर ऊँचाई 
आए हाथ  दूर सब ,तन्हाई ही सज़ा हैं 

यकीन है दूर कर लेगें ,उनकी नाराज़गी 
हर अदा पर उनकी, दिल अपनी रज़ा हैं

उसे पता है कि ये ,आदमी है बेवकूफ़ 
पर न जाने क्युं, उनसे ही वफ़ा हैं

झुके थे सज़दे में तभी ख़बर आया 
आ रही ओ इस तरफ़ हो गई कज़ा हैं 

जैसा भी है अब तो मस्ती में मलंग है 
 आने से उनकी अब तो रंगीन ही फिज़ा हैं
  -डाॅ. अनिल भतपहरी

Sunday, August 9, 2020

जात-पात

करु-कसा -2

।।जात- पात।। 

रविवार मुर्गे -बकरों की शामत का दिन है। आज शहर में बकरीद की मानिंद सैकड़ों बकरे कटेन्गे और तकरीबन ८०-९०% घरों में पकेन्गे। और जब ये पकेन्गे तो इन्हे पचाने मदिरा तो आएन्गे ही आएन्गे ।
    बहरहाल इस आलम में जो अछूते हैं वही रियल में अछूत हैं। सरकारी नौकरी चाकरी से लेकर दिहाडी करने वाले व  कुली कबाडी तक "जश्न ए संडे " में डूब जाते हैं। क्या गजब का अंग्रेज़ी तिहार है ।
    सुबह -सुबह चर्च से प्रेयर से मुक्त होते माइकल  मुलायम बकरे की गोश्त  खरीदने के लिए साइकिलिंग करते शहर की पुरानी कसाई खाना गये। सोचा कुछ कीमा भी लेते आए अर्सा हो गये कबाब खाए? लाकडाउन में होटले/ बिरयानी सेंटर  बंद है तो धर में ही पका -खा ले ।  दूर से एक बंदा शायद  जासुस सा हाव भाव देखते समझ गया और जोर से आवाज दिए-" ओय सर जी ! यही मिलेगा शानदार मक्खन जैसा  "करीम का कीमा " 
      पास सायकल खड़ा करते पुछे -"क्या भाव ?" 
"सर जी !७०० रुपये १०० रुपये तो कुटने का लगा रहे हैं। मेहनत बहुत है सर जी !
    अरे लूट रहे हो जी उधर हमारे तरफ तो ६०० में गोश्त लो या कीमा सब समान रेट हैं।
    अरे जनाब !क्या कह रहे हैं कसाई कभी बेईमानी नहीं करता उधर गड़ेरिये और हिन्दुओं की दूकाने है। भला वे लोग हमसे बेहतर कटिंग्स क्या जाने ? यहाँ क्वालिटी और कटाई -चुनाई का महत्व है तभी तो जानकार टूट पड़ते हैं। 
    सच में खाल उतरे बकरे रस्सी से लटके करीने से सजे थे भले मक्खियाँ भिनभिना रही थी उसे हांकते और उनकी तरफ दिखाते कहे -"ऐसा सफाई और चुनाई ओ कर दे तो ,कसम मौला की !धंधे छोड़ दे और बकरियाँ चराने गड़रिये बन जाय !"
   "अच्छा यह तो अच्छी बात है! कसाई से गड़रिये यह तो पुण्य का काम है । ये मारना - काटना छोड़ पालना शुरु कीजिए ।
   अरे साहब! काहे नीच नराधम बनाने की सोच रहे हैं। हमारे ही लहु सने दिए पैसों  से पलने वाले गड़रिये से हम ऊचे दर्जे का है। वे हमारे आगे गिड़गिड़ाते है हमसे छोटे हैं। 
    माइकल सोच मे पड़ गये -"ये ऊच -नीच   कहा कहां घुस गये हैं। उस दिन कबाड़ वाले देवार कह रहे थे कि हम नेताम आदिवासी देवार  सुअर पालने वाले शहरी  देवार से ऊच है।  इसी तरह घसिया सूत सारथी सफाई करने वाले  भंगी मेहतर से  ऊच है कहते हैं। और  खाल छिलने वाले  मेहर  से खाल की जूते बनाने वाले मोची ऊच बना बैठा है। मलनिया से अधिक प्रतिष्ठित सेलून में बाल काटने वाले नाई है और  बड़ी मच्छी मार नाविक  केवट से नीच छोटी मच्छी और उनकी सुक्सी बेचने वाले  ढीमर हैं। किसान के  बरदी चराने व गोबर बिनने वाले  राउत से बडा खुद के डेयरी चलाने , कचरा करने वाले यादव बने हुए हैं। इधर किसानो में कुर्मी -तेली बडहर व प्रतिष्ठित है और लोधी अघरिया हिनहर कैसे हो गये हैं।शादी ब्याह व सत्यनारायण  कथा करने  वाले ब्राह्मण अंत्येष्टि  करने से ब्राह्मण से उच्च बना हुआ हैं।और पैदल सैनिक से बडा हाथी घोडे वाले क्षत्रिय बडा बना बैंठा है।"
       विचित्र मान्यताओं व संस्कृति वाले  अजायबघर देश में मांस ,मदिरा, खान -पान वाले आमिष आहारी और निरामिष के बीच  सडयंत्र कर परस्पर एक- दूसरे को लडाने वाले छुआ-छूत, जात- पात को बढावा देने  प्रभावशाली तथाकथित सात्विक आहारी -विहारी उनके शास्त्र आदि को  यही कीमियागिरी  लोग  पूज्यनीय बना रखे है! जिनकी गाढ़ी कमाई और श्रद्धा के वही लोग सौदागर बने मजे लूट रहे हैं।
    इधर कुछ जातिविहिन समानता वादी  सिख सतनामी बौद्ध जैन  ईसाई  भी केवल उत्सवी बन‌कर रह गये हैं। और उनमें इनके देखा -देखी अनेक धड़े, फिरके बनने लगे हैं। 
    बहरहाल  ठोस विचारों की किमागीरी करते अपने रास्ते पैडल मारते माइकल आए ..और हमें देख फूट पड़े  ओ लेखक महोदय ! कब इस देश से  जात -पात, ऊंच -नीच  भेदभाव जाएगा और  मानवता स्थापित होकर समानता का मार्ग प्रशस्त होन्गे ? उनके औचक प्रश्न व व्यवहार देख हम हतप्रभ सा रह गये।

    -डॉ. अनिल भतपहरी

Saturday, August 8, 2020

बस्तर के मंगलमय गान‌

विश्व आदिवासी दिवस पर आदिवासियों की भूमि से -

।। बस्तर के मंगलमय गान ।।

आम्र मंजरी चार मौर महुएं फूल का      
मादक महक चहुंओर परिव्याप्त हैं
सरई -सागौन से सजा -धजा बस्तर 
बांस की झुरमुट से झाकता हरित आफ़ताब हैं
पावन परब लक्षमी तीजा  जगार 
ककसाड़ मेले -मड़ई की बाहर हैं
गांव -गांव में सल्फी लांदा संग 
मुरगा लड़ाई और ढोल की ताल है
लया -चेलिक की खिलखिलाहट 
इंद्रावती जलधार  कलकल निनाद हैं 
आलोकित हो कुटुमसर परलकोट हो मुक्त 
निहारते  गुंडाधूर भूमकाल का महानाद हैं
मधुर गाती मैना - मंजुर थिरकते हिरण सा
सीखे माड़िया -भतरा की नृत्य -नाट गान है
पलाश सेमल से दमकता लाल रंग  चहुं ओर 
बस्तर की प्रेम त्याग का अनोखी शान हैं
दंतेसरी की कृपा चितालंका की रावटी 
गूंजे चिरई पदर से नित सतनाम हैं
शंखनी -डंकनी सी मिले झिटकू -मिटकी 
सदा प्रेम भरा जनजीवन में अनुराग हैं
कांकेर की कथा रुपई -सोनई की गाथा 
ढोलकन  बारसूर की मनोहर  भाग हैं
जीवन संगीत झरे तिरथगढ़ से निकल 
चितरकोट की झरना तक प्रवाहमान हैं
रत्न गर्भा धरती का दिन बहुरे हो सदभाव 
सौहार्द्र रहे कायम यह मंगलमय गान हैं
खाकर मेवे सा कंद -मूल तेंदू कोसम आदि
पुष्टिवर्धनम् मन तन सबल भरे स्वाभिमान हैं 

     -डा. अनिल भतपहरी/ 9617777514

चित्र- कुटुम्बर गुफा, तिरथगढ़ जलप्रपात  तेंदू बेचती आदिवासी महिला और राजमहल‌ जगदलपुर

सतनाम संस्कृति में बहुदिवसीय आयोजन

सतनामी समाज अभी ठीक से व्यवस्थित नहीं हुआ हैं वह अनेक रुप में विभक्त है। तकरीबन १०-११ तरह के विभेद  है उनमे ५-६ प्रकार तो स्पष्ट नजर आते हैं। और न ही जनजीवन बौद्धिक रुप से  परिपक्व हैं। छोटी- छोटी बातों में वाद- विवाद और  लडाई- झगडे हैं। प्रायः सभी गांवो में पांघर है। और परस्पर लडते झगडते हैं। समाज की संपदा थाने कचहरी में यु ही लुटा रहे हैं।
      नशे जुए और परस्पर छद्म प्रतिस्पर्धा और दिशाहीन राजनैतिक गलियारे में हमारी एनर्जी नष्ट हो रहे हैं। और तो और हम दूसरों की  धार्मिक मान्यताओं की आलोचना करते अपनी मान्यताओं के संबंध में जरा भी नहीं जानते समझते फलस्वरुप हमारे समाज की छवि केवल निंदक के हो कर रह गये हैं।
   महज साल में एक दिन जयंती और उसमे में नाच पेखन। दूसरे दिन  उसनिंधा काटने  शराब मांसाहार हमे धार्मिक कम केवल उन्मादी उत्सवी बना कर रख दिए हैं।
     अतएव जैसे सन १९८५-८६ में पलारी बलौदाबाजार परिक्षेत्र में  दस दिवसीय गुरु गद्दी पुजा महोत्सव (क्वार एकम से दसमी तक ) और जन से जून के बीच सुविधा अनुसार ३-५-७ दिवसीय सतनामायण समारोह सार्वजनिक रुप से मनाए जाते हैं। वैसे ही सर्वत्र आयोजन होना चाहिए। ज्ञात हो कि इसी परिक्षेत्र से १९३८ से गुरुघासीदास जयंती उत्सव  दिन मे सतनाम संकीर्तन प्रवचन के साथ  और रात्रि ज्ञान वर्धक  / मनोरंजक चोहल  से नाच  के साथ आरंभ हुआ था ।जो शैन शैन सर्वत्र फैल गये। भजन कीर्तन के जगह रात्रि में  केवल छैला व फूहड आर्केस्ट्रा ही रह गये हैं। फलस्वरुप १९८५ -८६  से नये तरह के आयोज‌न लाए गये 
      
     इस तरह  वर्तमान में  बलौदाबाजार पलारी आरंग परिक्षेत्र सांस्कृतिक नवजागरण का प्रभाव नजर आते हैं।राजधानी से लगे होने और गंगरेल सिचाई परियोजना के चलते आर्थिक व सांस्कृतिक व शिक्षा नौकरी आदि के  रुप से यह क्षेत्र समृद्धशाली भी है।
   अब तीजा में बेटिया लिवाई नहीं जाती बल्कि गुरुगद्दी पूजा या नामायण सामारोह में घर घर बेटिया लिवाई जा रही है व रिश्तेदार आ -जा रहे हैं। 
   यह दोनो बडा उत्सव हिन्दू समाज में कौतुहल का विषय है और वे लोग भी श्रद्धा पूर्वक कार्यक्रम में सम्मलित होने लगा है। 
      बिना कोई आयोजन और प्रतिबद्धता के कोई स्थाई प्रभाव नहीं पड़ता अत: गांव गांव में युवा वर्गो को आयोजन समिति गठित कर व्यवस्थित स्वरुप देने होन्गे।
        आप लोगों को यह बताते गर्वानुभूति होते हैं कि हमारे ग्राम से ही इस आयोजन की शुभारंभ हुआ। और हम  विगत २० वर्षो से पलारी कालेज में प्राध्यापक है और उधर अधिकतर ग्रामों में हमारे विद्यार्थियों के माध्यम से आयोजन समिति गठित करवाकर गांव -गांव में हंसा अकेला सत्संग प्रवचन करते आ रहे हैं। फलस्वरुप सैकड़ो  भजन टोलियां धीरे धीरे बनते गये। उनका असर न इ पीढी के बाल बच्चों में देखने मिलता है। 
   अन्यथा यही वह पलारी क्षेत्र है जिसे छत्तीसगढ़ का चंबल कहा जाता था ।और यह केवल सतनामी बाहुल्य और उनके बीच दर्दान्त अपराध वृत्ति के कारण रहा था। आज वह क्षेत्र सर्वांगीण विकास की ओर अग्रसर हैं।

    डाॅ. अनिल भतपहरी

Thursday, August 6, 2020

करु- कसा १

करु- कसा १ 

समाज भी प्राणियों का समूह हैं।उनके नेतृत्व कर्ता कभी नहीं चाहेगा कि उन्हे अपदस्थ करने उनके वंश कुल के अतिरिक्त कोई  आगे आए इसलिए सदियों तक राजतंत्र रहा। 
     अब लोकतंत्र स्थापित हो जाने से सुविधा भोगी वर्ग एन -केन- प्रकरेण नेतृत्व करते  आ रहें है। खुदा न खास्ता एकाध वंचित तबका  किसी तरह इलेक्टेड या सलेक्टेड हो भी जाय पर वह तंत्र के समक्ष असहाय और किंमकर्व्तविमूढ़म हो जाते हैं। 
       ऐसा सभी क्षेत्र में है चाहे वह राजनीति हो धर्म ,कला ,संस्कृति या कीमयागिरी भी हो। इनमें  लोग अपनी-अपनी जगह पगुराए हुए  बैठे- ठाढ़े हैं। सवाल यह है कि समान अवसर और समान व्यवहार कदाचार आचार विचार कब आएन्गे ? या यह केवल दिवा स्वप्न मात्र हैं।

चित्र- लक्ष्मण धारा अचानक मार बियावन ( पेड्रारोड-अमरकंटक )

Wednesday, August 5, 2020

सप्तपदी

।।सप्तपदी ।। 

सत्य नाम राम हैं
राम सत्य नाम हैं
सत्य राम नाम हैं
नाम सत्य राम हैं
राम नाम सत्य हैं
सत्य नाम सत्य हैं
सत्य ही  सत्य  हैं

 -डॉ.अनिल भतपहरी

Tuesday, August 4, 2020

भाग नथागिन‌

आपके वास्ते छकड़ी हमरी
 
भाग नथागिन 

बसुंदरा मन बांट-बांट जबरागिन 
अउ एमन जोड़-जुड़  छरियागिन
देखते देखत धनहा ह चपलागिन 
दंदोरत हे संसो सिरतोन गउकिन  
परबुध मान भई-भईअलगियागिन
करम छड़हा इनकर भाग नथागिन 

 बिंदास कहें - डाॅ. अनिल भतपहरी

समन्वय

समन्वय से सद्बुद्धि 
सद्बुद्धि से सदाचार 
सदाचार से सद्व्यवहार 
सद्व्यवहार से मानवता 
मानवता  से  सतनाम 
सतनाम से नायक नाम 
नायक नाम है बुद्ध कृष्ण राम
बुद्ध कृष्ण राम से भारत महादेश 
भारत महादेश में अनेक धर्म पंथ 
अनेक धर्म पंथ से सत की प्रचार 
सत की प्रचार से जन में  सदाचार 
सदाचार से ही लोक कल्याण
लोक कल्याण से युक्त संविधान 
संविधान हैं नायाब  समन्वय
 सदा समन्वय का हो जय जय  

     -डॉ. अनिल भतपहरी

Sunday, August 2, 2020

कुटुम्बसर

कुटुम्सर गुफा के अंदर 
    रहस्यमय अबुझमाड़ बस्तर ...

खूबसूरत देश खूबसूरत दृश्य

शिष्ट साहित्य के प्रणेता

"छत्तीसगढ़ी शिष्ट साहित्य के प्रणेता गुरुघासीदास "
      छत्तीसगढी लोक साहित्य पोठ हवय।मझोत मैदानी भाग जोन समतल मैदान अ उ खेतखार वाले ठ उर आय जिहा सबसे जादा मनसे मन के रहवास हवय उकर  परब  उत्सव सब के सब कषि सन्सकृति पर आधारित हे।अकती बिजबोनी , हरेली, भोजली तीजा -पोरा ,देवारी माथे मड ई जयन्ती  छेरछेरा होरी, जवारा परब अउ बर बिहाव करत फेर बिजबोनी अकती तिहार हबर जाथे।
     ये हर बछर बहुरत रथे।
ये जम्मा परब म गीत भजन नाचा  खेल रोटी पीठा पहनन ओढन के सुध्धर चलागन हवय।
    उत्तर सरगुजा अ उ दछिन म आदिवासी सन्सकृति म सरहुल करमा बार रीलो दसरहा जगार जात्रा के तको चलागन हवय जेमा
   लोक जीवन अपन जिनगी नाचत गावत हासत कुलकत कत्कोन अभाव पीरा ल झेलत पहावत हवय।उन्कर मीत मितान म मनसे ल कोन कहय पशु पछी जन्गल पहाड रख राई तको हवय।अब तक के विशिष्ट प्रयोजन म सिरजे साहित्य जेन ल शिष्ट साहित्य कथन ओमा सबले प्राचीन वैदिक साहित्य ल माने जाथे।फेर उनकर कतकोन प्राचीन ये लोक साहित्य हवय जोन नदियां के धार कस फरियर कलकल करत लोक कन्ठ ले बोहात चले आत हवय।
     साहित्य अ उ ससन्कृति हर  बोहात कहु ठहर जाथे त उन म कतकोन विकरिती तको आ जथे।ते पाय के उन म हलचल करे खातिर या नव धारा पनकाय खातिर समे समे म परवरतक अवतरथे।छग म ओ समे दुर्गम बीहड जन्गल म गुरु घासीदास के अवतरन होइस।जोन नवधारा बोहवाइस।अ उ लोक जीवन जोन असमंजस म ठहर रबक अ उ ठोठक गे रहीन त उनखर बर नवा रद्दा (सतनाम पन्थ )चत्वारिन येकरे परचार परसार बर उन छग के चारो कोन्हा म ९ जगा किन्दर बुलत रामत रावटी करिन ये जगा आय १ चिर ई पहर २ दन्तेवाड़ा ३ कान्केर ४ पानाबरस ५ डोन्गरगढ ६ भवरदाह ७ भोरमदेव ८ रतनपुर ९ दल्हापहाड।
      दल्हा पहाड म ।ये जगा म रीति नीति सन्सकृति  धर्म दीछा सन्सकार दिन मन्गल पन्थी भजन सत्सन्ग प्रवचन लोक गाथा दृटानत द्वारा जन मानस ल सिखोय पढोय गिस । आज. ये जगा सत्धाम बन गय हवय।
       छग म यदि प्रयोजन मुलक शिष्ट साहित्य सिरजिस ओमा १७. वी सदी म गुरु घासीदास के सतनाम सिद्धान्त उपदेश रीति नीति सन्सकृति  गीत कथा दृटान्त मन्त्र नाम पान आदि  मूल  छत्तीसगढी म  रहीस।बाबा जी हर मनखे के असल दुख पूरा ल बड तप कर के बुद्ध कस समझी। अ उ उन ल दुर करेब जनमानस के मझोत आके नव जागरण के सन्देश दिस जो।सत के उपर आधारित रहिस।
    उन हजारो हजार शिष्य साटिदार भन्डारी सन्त महन्त मन  कन्ठस्थ करिन