Saturday, January 16, 2021

सतनाम -बौद्ध संस्कृति

सिरपुर मेरा गांव है पुरखों की जमीन व घर अब भी विद्यमान है।  प्राकृतिक विपदा के पश्चात  नदी के पार  जुनवानी बरछा गोटी डीह उजित पुर  में भट्टप्रहरी वंश आबाद हैं। हमारे कुल देवता नाग और ठेंघादेव यानि शस्त्र देव  हैं।  जो कि हमारे पूर्वजों के किलानुमा घर के सामने नीम पेड़ पर स्थापित हैं। जिसकी पूजा अर्चना ग्रामवासी करते हैं। हमारे खेतों खलिहानों में प्राचीन महलों घरों के ईट पत्थर बिखरे पड़े हैं। पुरातत्व के अन्वेषक आकर यह सब देख -समझ सकते हैं। सोलहवीं सत्रहवीं शताब्दी में परिक्षेत्र में बौद्ध संस्कृति प्रचलन में रहा है। ऐसा लोग कहते भी है।
  ( भट्टप्रहरी का अर्थ ही है राजवंश का शस्त्र धारक श्रेष्ठ रक्षक । अपभ्रंश में अब भतपहरी लिख रहे हैं। )
     गुरुघासीदास के गुरुद्वारा भंडारपुरी और सिरपुर महज १० कि मी हैं। जिसमें मध्य में हमारा ग्राम तेलासी जुनवानी हैं। यह दोनो ग्राम किलानुमा है ।तेलासी गढ़ तो जल दूर्ग ही हैं। जिसके मध्य में प्रसिद्ध  भव्यतम "सतनाम बाडा़" स्थापित है।  तपोभूमि गिरौदपुरी को सामंती आतंक के चलते  त्यागकर गुरुघासीदास बाबा जी यही आश्रय लिया हमारे पूर्वजों ने उसे बसाए हमारे गांव की पत्थरों व कारीगरों द्वारा ही  भव्यतम   मोती महल गुरुद्वारा बना।
   वहाँ के गुरुगद्दी आसन में पंच नाग फेन शिल्पांकित हैं। यह प्रसिद्ध लक्ष्मणी बुद्ध विहार ( लक्ष्मणदेवाला ) की बुद्ध प्रतिमा से ही प्रेरित है। ‌
क्योंकि पंच  नाग छत्र बुद्ध व सिद्ध महापुरुष जिनके कुंडली जागृत रहते हैं के ऊपर शिरोछत्र‌ होते   हैं।

बहरहाल  नीचे प्राचीन तथ्य पर ध्यान आकृष्ट कर 
वर्तमान सतनाम पंथ और प्राचीन श्रमण सत संस्कृति व बौद्ध धम्म पर अन्तर्संबंध स्थापित कर अध्ययन मनन चिंतन करे।
आर्यों और बुद्ध  पूर्व श्रमण सत  संस्कृति  में दो ही वर्ग थे ।  स्वामी और सेवक ।
   यह कोई भी हो सकता था। बुद्ध ने मझ्झिम निकाय में अस्लायन को संबोधित करते लिखा भी हैं।
    ऐतरेय में भी उल्लेख मिलता हैं सत्वंत प्रजाति जो न आर्य थे न द्रविड़ मध्यदेश के वासी प्रकृति पूजन श्वेत ध्वज वाहक हैं। 
    अत: सदवहन या सतवहन या सत्वंत लोग अरावली से सतपुड़ा तक सिन्धु से महानदी तक आबाद रहे हैं। यही मध्यदेश है जिनका जिक्र बुद्ध ने किया था जहां कोई जाति भेद नहीं था। और लोग सत्य विश्वास और परस्पर सहयोग से जीवन निर्वहन करते थे।
जो गुणवान व  बलवान होते थे वह सेवक और जो प्रमादी व कमजोर होते वह सेवक ।
  स्वामी और सेवक में भी सौहार्द भाव मिलते हैं।
 आज भी छत्तीसगढ़ के  गांवो में गौटिया मंडल सौजिया बनिहार में प्रेम विश्वास व सौहार्द भाव मिलते हैं। 
   जनजीवन में श्रमण सत संस्कृति का अवशेष दर्शनीय हैं। भेदभाव जात पात ऊच नीच यह आर्यन संस्कृति के सम्मिश्रण व प्रभाव से ही आया।
   छत्तीसगढ़ में यह माराठो भोसलों और उप बिहार मारवाड आदि   शरणार्थियों के कारण हुआ।

No comments:

Post a Comment