Monday, December 9, 2019

रामनामियों की दशा

।।रामनामियों की दयनीय दशा ।।
सतनाम संस्कृति के एक अंग रामनामी में  सतनाम‌ के स्थान पर हृदय मन में रमने वाले निर्गुण  रामनाम को सुमरने और धारण करने की प्रथा (गुरुघासीदास के पुत्र  गुरुबालकदास के शहादत १८६० के बाद )  १८९० के आसपास  चल पड़े को दशरथ सुत श्रीराम की भक्ति  समझ कर मूल्यांकन करने की अजीब परिपाटी विकसित हो गई है।
      और तो और  महज इसलिए श्रीराम को रोम -रोम में  बसा लेने की ऐतिहासिक साक्ष्य के रुप में इन रामनामियों को प्रस्तुत किए जा रहे हैं।जबकि इनके साथ  कथित रामभक्त सदैव दोयम दर्जे और भेदभाव करते रहे हैं। अब मौका है कि इन्हे केवल मुख्यधारा ही नही बल्कि रामाश्रय आधारित हिन्दूत्व में इन्हे  सर्वोपरि स्थान दें। क्योकि इस क्षेत्र में कोसिर नामक ग्राम है जिसे श्री राम के माता कौशल्या की मायका समझे जाते है।छत्तीसगढ़ में राम को भांजा मानकर उस रिश्ते को  पूजने की परंपरा है ,तथा कुछेक संस्थाएं एंव उनके प्रतिबद्ध  लेखकगण  इन्हे रामायण कालीन संस्कृति होने की बातें सिद्ध करने में लगे  हुए हैं।
   बहरहाल यह  कौतुहल व अन्वेषण का विषय हो सकते है । पर उनकी दयनीय दशा और सामाजिक वर्जनाओं का दंश झेलते इनकी हालात पर भी दृष्टिपात होनी चाहिए 
     अन्यथा यह रामनामी प्रथा एकाद दशक बाद १९३० तक विलिन हो जाएन्गे।
         केवल १५० के आसपास बुजुर्ग बचे है , कुछ संस्थाए संरक्षण के नाम पर अनुदान या सहयोग देकर इनकी वार्षिक भजन मेला को प्रोत्साहन दे रहे है ।तथा इन्ही में से कुछ लोलुप वर्ग कपड़े मे रामनामी ओढ़कर धनार्जन व जीवकोपार्जन  करने की माध्यम बना लिए है।
     ऐसी जानकारियां समय समय पर उन लोगों से मिलती रहती हैं।
      विगत कुछ वर्षों से इन्हे अनु जाति वर्ग का जाति प्रमाण पत्र बनवाने में भी परेशानियां उठाने पड़ते है। फलस्वरुप शासकीय योजनाओं के लाभ से वंचित रहे ।तथा हिन्दूओ से दुराव और सतनामियों से भी अलगाव का दंश भी झेलते आ रहे थे।परन्तु १९८४  बसपा के अभ्युदय के बाद इनके युवा वर्गों में सतनाम संस्कृति और बौद्ध धर्म के प्रति रुझान जागृत हुए ।इस तरह देखे तो अब पहले से बेहद सजग और विकास की ओर अग्रसर यह रामनामी परिक्षेत्र है।

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