Monday, December 9, 2019

रोज

"रोज "

      ऐसा अक्सर रोज होता है जब कोई महिला गोद में बच्चा लिए बस में चढ़ती है और सीट नही मिलने पर उसे खड़ी देख कोई पुरुष ही अपनी सीट देकर खड़े हो जाते है।
    आज भी ऐसा ही वाकिया हुआ।वो ठीक मेरे सामने आकर बच्ची पकड़ी खड़ी हो गई। और मुझे उनके लिए सीट छोड़ने उठना हुआ  कि वह मना करते कहने लगी ... "नहीं सर ! यह तो हमारा रोज का काम है। डेली अप -डाउन और भागम- भाग वाली जिन्दगी ।आज आप दया- दृष्टि दिखाकर सीट दे रहे कल कोई थोड़े न देगा ! "
     मुझे उनकी बातों से और कुछ जानने जिग्यासा होने लगे ... पूछ  ही लिया.... वे एक सांस मे कहने लगी -"शहर से दूर ५०-५२ कि मी एक गांव मे शिछा कर्मी है  ।उनके मि. शहर के प्राइव्हेट बैंक में पर्सनल लोन फाइनेंसर है उनके काम-काज व व्यस्तता के चलते उन्हे ही यह संधर्ष करने होते है।"
   मैनें सदाशयता पूर्वक उन्हे बैठने कहा और पास खड़ा हो गया । सामान्यत: उनसे इस तरह चंद बातें होने लगे - "आजकल लोगों के बीच से संवेदनाएं सुप्त सा हो गये है पर चंद आप जैसे लोग यदा -कदा उसे जागृत कर रह है! वे कही
हमने कहां -"ऐसी कोई बात नही!यह तो सामान्य लोकाचार है।"

"ऐसा करने के लिए भी प्रतिस्पर्धा के इस युग में हिम्मत चाहिए।"
   उनकी इस कथन से मुझे वो समझदार ही नही विचारवान भी लगी। पर वहां इत्मीनान से बैठी महिलाओं को शायद नागवर गुजरी वे लोग अजीब निगाह से देखने लगी ... जो हमारे समझ से परे था! पर ओ अभ्यस्त थी कहने लगी ... बहुत लोग नही चाहते, कोई हमारे समकछ हो!
   ऐसा क्यो?
इसलिए कि जब ओ खड़ी होती है और तब कोई बैठ होते है। उन्हे कोई दयावान नही मिलते !
   और ओ खिलखिलाकर रहस्यमय हंसी बिखेरी ...
उनकी अर्थपूर्ण हंसी में अपना हल्का सा मिलाते हमने कहां -"क्यों नही बच्चे के स्कूल जाते तक यही गांव मे रहती?आपके मिस्टर आते- जाते। कुछ पैसे बचते और आपको आराम ,आगे सुखद जिन्दगी के लिए।"

वो कही- "नही ! गांव अब रहने लायक है कहां? वहां शराबियों-  जुवाड़ियों और जात -पात वालों के अड्डे है! फिर किराए की व सुविधायुक्त एक अदद मकान तक नही।"
हां यह तो है ,शायद इसलिए पढ़े- लिखे लोग तेजी से शहरों में बसते जा रहे है। मेरा कहना हुआ कि वे कह उठी - "यहां केवल बुजुर्ग बीमार और निठ्ठ्ले लोग रह गये है।"

    " क्या पढ़े लिखे लोगों के न रहने से ही गांव बदतर होने लगे है।"
  हां वे रहते तो बात अलग था ! कुछ तो फर्क पड़ते ।

  पहले तो अपढ़ ही रहते पर गांव सरग जैसा लगता था।
   वह कल्पना है सर !
  क्या आप गांव से है ?
हां मेरा गांव  मेरे लिए आज भी स्वर्ग की तरह है ।
     तो आप वहां क्यो नही रहते ...
मतलब स्वर्गवासी हो जाए ! हां हां हां ...
      आप तो हमे यही कह रहे है ? और वह भी हंस पड़ी ।
गोद की बच्ची कुलबुलाने लगी ।उसे सम्हालती कही
    सचमूच तमाम मूलभूत  सुविधाओं से रहित आजकल गांव में रहना कितना कष्टकर है ।
    पर जिनके पास आय का कोई नियमित श्रोत न हो उनके लिए गांव सचमूच स्वर्ग है।
    सबकी अपनी अपनी सोच है सर । वे मुझसे खुलकर बहस सी करने लगी ।
   मुझे लगा यह तर्क भी करती है। मैने एजुकेशन पुछा -
बी ए एल एल बी है
वकालत क्यो नही
  वहां कोई भविष्य नही
  तो यहा कौन सा है?
नियमित वेतन तो है ...
   पढ़े लिखे लोग वेतन भोगी होकर संतुष्ट है। और ऐसे ही  लोगो के चलते गांव सुविधाओं से रहित भी क्योकि वे सुखमय जीवन के लिए गांव छोड़ते जा रहे है।
   भले गांव की कमाई से शहर पल रहे हो
  हम दोनो की इस तरह की वार्तालाप से  इत्मीनान से बैठे हुए लोगों की  की दृष्टियां  कुछ कुछ भेदती- चिरती  हुई हमारे तरफ आने लगी ... सभी अपने में खोए- उलझे  चुप और कुछ पुरुष जो आखें बंद किए झपकी मे मग्न है ऐसे लोगों को यह वार्तालाप  खलल पड़ते देख उस मौन और रोज के परीचित दैनिक यात्रियों के साथ गंतव्य की ओर चलना हुआ....
    ‌बीच में ओ उतर गई फिर .... कुछ छुटते हुए सा हम भी कुछ पाने की चाह लिए अपनी सीट पर बैठें कि बस आगे बढ़ने लगी ...
    -डा. अनिल भतपहरी
   ९६१७७७७५१४

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