Wednesday, March 20, 2024

मुक्ति के पट

विचार विन्यास 

       नववर्ष की प्रथम सप्ताह में ‌भोजनोपरांत गुनगुनी धूप में  जुगाली करते यह विचार अक्समात जे़हन में कौंधा कि नववर्ष की स्वर्णिम किरणें  कोरोना से  मुक्ति के पट खोल रहें हैं यह अभिनंदनीय हैं। पहले दिन से ही रोज नई -नई वैक्सीन और उनके माक ड्रील/  ट्रायल का खबर से समाचार गुलज़ार हो रहे हैं। नित नये सकरात्मक समाचार से आमजन में तो नही कह सकते पर अपने में आत्मविश्वास व आत्मबल भी तेजी से बढ़ने लगा है ।हालाँकि अन्नदाता  किसान आन्दोलित हैं ,उन्हे तारिख उपर तारिख मिल रहे हैं। किसान होने के कारण थोड़ी नैराश्य भाव है कि कब इनके दिन बहुरेन्गे ? क्योंकि आजादी के बाद बेचारे अब भी अपनी उत्पाद की कीमत लगाने या बेचने की स्वतंत्रता नहीं पा सके है।
       बहरहाल बात  एक विचार के जे़हन में कौधने से आरंभ हुआ और वह बात -चित में कही ओझल होने को तत्पर हैं। अनगिनत विचार आते हैं और युं ही चले जाते हैं। कुछ व्यक्त होते हैं कुछ अभिव्यक्त  ,कुछ दफ्न हो जाते हैं। कुछ तो मनो -मतिष्क को  मथते रहते हैं।
    यह विचार व्यक्त नहीं हो पा रहा है न दफ़्न ! अपितु मथे जा रहे हैं  कि अब कोरोना काल के बाद आर्थिक विकास की दर क्या होगी?  धर्म -अध्यात्म का क्या हाल- चाल रहेगा ?  इनके आड़ में दान दक्षिणा से  पलने वाले वर्ग का क्या होगा ?  हमारे करुणा के स्त्रोत तलाशने व उद्गारने वाले कवि  लेखक कलाकार  उनका सार्वजनिक प्रदर्शन तथा उनसे उनकी रोजी- रोजगार  कैसे पटरी पर आएन्गे? और तो और हमारी शिक्षा पर्यटन तीर्थ मेले का क्या होगा ?  सरकारी कर्मचारी तो अपने बिना महंगाई भत्ते इंक्रीमेंट व एरियर वाली  वेतन में जी खा रहे  है।पर नीजि जगत में मंदी के चलते रोजगार विहिन लोग और इन उद्योगों में खप रहे मजदूर जो अपने गांव चले चले वे कब लौटेन्गे ? लाकडाउन में थमे जन जीवन गतिमान कैसे होन्गे ?
       सच कहे यह वर्ष संताप का रहा  बीस वाकिय में मानवता के लिए विष सदृश्य हो गये थे। सही प्रबंधन और व्यवस्थाओं के चलते  हालाँकि उबरे पर लोमहर्षक मंजर रोगटे खडे होने वाला भी रहा । जातिय व धार्मिक उपद्रव भी छिटपुट रहा है। राजनैतिक उठा पटक और रस्साकशी अपेक्षाकृत कमतर रहा पर शह मात का गेम बदस्तूर चल ही रहा है। 
    आम जन जीवन ठहरा सा हैं और उनमें हलचल जारी हैं। बहुत कुछ नई धारणाओं का  विकास हुआ है। खान -पान, रहन -सहन में तेजी से  बदलाव आया और लोगों में लापरवाही या बेफिक्री कम हुई हैं।
   एक बात स्पष्टतः दृढ़ हुई कि जीना महत्वपूर्ण है कैसे जीए यह महत्वपूर्ण नहीं हैं। फलस्वरुप फैशन और दिखावे की जगह अब स्वस्थ जीवन शैली विकसित होने लगा है। सेहत की चिन्ता अब सर्वोपरि हो गये हैं। शिक्षा आन लाइन होकर व्यक्तिक हो गये । सरकारी नौकरियां ही अब प्रथम प्राथमिकता नहीं रहा न मेरिट बल्कि इल्म हुनर और स्वरोजगार व नीजि संस्थान की ओर आकर्षण बढने लगा है हालाँकि यह प्रक्रिया एक दशक से जारी है पर कोरोना काल ने इसे बहुत अच्छी तरह प्रतिस्थापित किया है। 
     रचनाधर्मी लोग बाहर नहीं तो अपने मोबाईल के माध्यम से कक्ष के भीतर और चलते फिरते धुमते सक्रिय हो गये हैं। मोबाईल इस दारुण समय में पथ प्रदर्शक की ही तरह नहीं अपितु अभिन्न मित्र की तरह लोगों के जीवन में स्थान बना लिए हैं। इनके द्वारा वे हर तरह से अपडेट हो रहे हैं। और सतर्क भी।
     विचारों का  विन्यास इसी तरह फैलती जाती हैं भले उनपर अमल हो न हो ।मानव मन विचारों के अजायबघर हैं जहाँ मूर्त -अमूर्त  विचार सागर की  लहरों के मानिंद उठते हैं। झझकोरते हैं अशांत उद्विग्न होकर  उद्वेलित  करते हैं तो यदा कदा  शांत धीर गंभीर भी करते हैं । संतुष्ट असंतुष्ट भाव भी विचार प्रवाह में किसी कश्ती के मानिंद हिचकोलें खाते हैं।
   बहरहाल जो विचार कौंधा वह यह है कि "  अच्छे दिन आएन्गे या युं ही संधर्ष चलता रहेगा । संधर्ष से हार -जीत  मिलती हैं। पर सभी जीत से सुख शांति समृद्धि  मिले यह नहीं कह सकते ।अशोक कलिंग जीत कर अशांत हो गये ! और शांति के लिए सत्य या  बुद्ध के मार्ग का अनुशरण किया। उसी तरह कोरोना को जीत कर क्या व्यक्ति  सुखी होन्गे? हमें ऐसा नहीं लगता हां संकट से राहत जरुर मिलेगी । शांति तो उन्हे  प्राकृतस्थ जीवन यापन करने या सत्य या बुद्ध के मार्ग का अनुशरण से ही संभाव्य हैं। दावा नहीं ।अत एव   यह यक्ष प्रश्न  अनुत्तरित बचा रहेगा। 
     कुछ बचा रहता हैं तभी चक्र चलता हैं।  यह समय चक्र ऐसा ही हैं। उत्थान- पतन ,हार -जीत और  पाना- खोना यह नियति हैं। यह स्वभाविक भी इसलिए निरंतर श्रमण अवस्था में गतिमान रहे हमारी यात्रा गुफा कंदरा से  सैंधव काल की भव्यतम जीवन स्तर से अब पांच सितारा लाईफ तक आ चुके हैं। मैट्रोपोलिश सिटिज़ में सेवन स्टार कल्चर डेवलप हो चुके हैं। अनंत भोग और उनके अनंत आनंद के  पारावर  छलक रहे हैं।  बावजूद एक अतृप्त मन व्याकूल क्यो और किसलिए  हैं? 
           बहिर्यात्रा और अन्तर्यात्रा भी जारी हैं अनगिनत पथिक चल रहे हैं। एक ऐसी मंजिल की ओर जहाँ कुछ भी नहीं हैं। शुन्य गगन बीच बासा हो जहाँ सतनाम प्रकाशा हो कह कर हमारे संतों गुरुओं ने मार्ग निर्दिष्ट किया पर सवाल यह है कि वे लोग भी वहाँ पहुँच सकें ? वे बताए चेताए इसलिये बड़े बुजुर्ग की तरह अपनत्व भाव लिए पूज्यनीय हैं। उन्हे मिथकीय पात्र न बनावें। ताकि उनकी अमृतवाणी सागर मंथन में अमृत की मानिंद सुर- असुर की  झप्पटे और महामोहिनी की नर्तन आदाओं वाली बंटवारे में कही छलक या गिर न जाय ... फिर जुटते रहना तलाशने !  संगमों  के इर्द-गिर्द उन्मत्त । 
        भीड़ मन को रंजित करता हैं । पर भीड़ संक्रमित करने के कारण अब जमवाड़ा को विसर्जित करने होन्गे क्योंकि मनोरंजन से अधिक महत्वपूर्ण जीवन हैं। जीवन के मनोरंजन हेतु  नये विकल्प तलाशने होन्गे  सार्वजनिक सभा जुलुश यात्रा आदि अब सुखद नहीं दुखद और संकटग्रस्त हैं। यह देर सबेर सबको समझना ही होगा। क्योंकि केवल एक कोरोना नहीं है इनके पीछे  उनके अनेक कुनबा हैं । अति सर्वत्र वर्ज्येत या मध्यम मार्ग ही संत का सच्चा मार्ग हैं। यही सतपंथ हैं। सस्टनेलेबल डेवलपमेंट  कहे या संतुलित विकास या जीयो और जीने दो कह ले। हमे वर्चस्व वादी मनोविकार पर प्रभावी नियंत्रण करना ही होना यही असली वैक्सीन है जो दुनियां को केवल  बचाएगी ही नहीं बल्कि और भी खूबसूरत करेगी। 
             हमारी छत्तीसगढ़ी में एक हाना है "एक से एक्काइ हो" एक्काइस मतलब इक्कीस मतलब "एक आगर एक कोरी" इसका अर्थ हैं बरकत/ उन्नति होना ।हमसबके जीवन में  आशा की न ई किरण लाए सबकी उन्नति हो इनके  लिए मंगलकारी  मंगलकामनाओं के साथ नव वर्ष इक्कीस की  मंगलमय बधाई ।
   जय जय ...वंदे भारत !

डॉ॰ अनिल भतपहरी 
9617777514

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