#anilbhatpahari
एक साहित्यिक चिंतन
बोली ,भाषा /साहित्य किसी की बपौती नहीं हर मानव समुदाय के बोली /भाषा और उनकी साहित्य आदि प्राय: समृद्ध ही होते हैं। वे उतने पर ही जीवन निर्वाह कर सकते हैं। हां सत्ता पद प्रतिष्ठा के लिए इनका उपयोग औपनिवेशीकरण जैसा होता रहा हैं।
बहरहाल यह लिपिबद्ध हो या न हो यह अलग बात हैं।
पर कथित लिपिबद्ध वाले या कहें अधिक प्रचारित -प्रसारित वाले यह दंभ पालते हुए मुगालते में रहते हैं कि उनकी ही श्रेष्ठतम हैं !
चलिए श्रेष्ठतम होते होन्गे तो उनकी सामान्य परीक्षण कर ही ले - क्या वे मानवीय आवश्यकताओ ,दु:ख -दर्द से रहित हैं या हो जाते हैं? उनके अराध्य या मत ,पंथ धर्मादि उन्हें सशरीर मोक्ष या मुक्ति प्रदान करते हैं या देते आ रहे हैं।
प्राय: साहित्य दर्शन आदि खाए- पीए अघाए लोगो के लिए महज जुगाली जैसा है। कला के लिए कला की होड़ में लौकिक तत्व के स्थान पर अलौकिक व अप्रतिम की चाह में मृग -मरीचिका हैं। या कहे ऊँचाई पर पहुँच लोग आक्सीजन (प्राण ) रहित या गुरुत्वाकर्षण के कमी से ऊपर ही लटक जाया करते हैं। धरती ( प्रकृति व लोक तत्व ) से कटकर असह्य वेदना के दंश झेलते कटी पंतग सा हो कर रह जाते हैं।परन्तु क्षुधित हैं उनके लिए तो सारा जंगल पड़ा हैं।एक अदद कौर अर्जित करने के लिए वह सक्रिय और जींवत हैं। उनके समक्ष सारा आकाश हैं उनके सक्षम लौकिक चीजें ,जिसे वह रोज -रोज अर्जित कर मगन भी रहते हैं।
जुगाली वाले आत्ममुग्ध है,उनकी यह अवस्था भी सोया हुआ सा ही है ।प्रयास तो उन्हे भी जागृत करने का है। सोये हुए को जगाना आसान है परन्तु इन्हे जगा पाना बेहद कठिन हैं। सच तो यह है कि मदमस्त लोग जागते कहां हैं ? और वे लोग किसी को जगाने भी नहीं देते हैं।
असल समस्या तो यह है जिनके हल तलाशना शेष हैं।
- डॉ॰ अनिल भतपहरी / 961777514
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