"ये सुपारी किलर "
बस की सीट पर बैठ इत्मीनान से पाकेट से मोबाइल निकाल अपनी श्रीमती के वाल में कुछ टाइप करने की सोचा(क्योकि ऐसा कर हम आलेख दोनो मो सेट मे बिना सेव किए संरछित कर लेते है ) ही था कि एक शख्स बड़ी गर्मजोशी से नमस्कार महोदय कहते हाथ मिलाने बढ़ाए .. मै असमंजस में कि वे कौन है ? और इस तरह प्रगल्भतापूर्वक हमारे खास लंगोटियार भी मिलने से कतराते है या यु कहे लिहाज आदि करते है या उम्र के साथ चढ़ी चेहरे पर गांभीर्य भाव उन्हे ऐसा करने रोकते है ।पर वह खिलंदड़ा कौन है ?
मै देर तक उन्हे देखने और समझने पर उनसे अनजान न होने की मिलीजुली भाव से हाथ मिलाते व उनके न छोड़ने उनके संग हिलाते ही रह गया ....
अब वह हो -हो कर हंसने भी लगे और पीछे मुड़ कर जो उनके साथ में थे शायद देख रहे है कि नही ...अंदाज लगा और भी निकटस्थ होने की रौ मे बहे जा रहे थे ।
ऐसा नही कि हम ऐसे ही खड़ुस टाइप का आदमी है बल्कि कभी-कभी खडुसता को जानबूझकर ओढ़ने पड़ते है। सो आजकल यही करते आ रहे है। अति विनम्र व मिलनसार होने का दंश विगत कई वर्षों से झेलते आ रहे है बल्कि कहें तो लोगों के इस्तेमाल होते आ रहे है।चाहे गैर हो कि अपने! ...अपने ही बच्चें और पत्नी तक भी धुड़क देते है कि आपको कितनी आसानी से दूसरे लोग पप्पु बना देते है।
कभी कभी पूछ बैठता और आप लोग .... वे आखें तरेरती कहती .... घर में बधवा लहुट जथस ... मय उनकी इस झुठी ही सही कथन से स्वयं को शेर होने की शान से ग्रसित होने की कोशिश में लगता। पर छोटा बेटा ( उनके बेफिक्र अंदाज कि परीछा अभी बाकी है लो ना उस समय पढ़ लेन्गे ... अभी से क्यो? )तो पप्पु ही कहते है ए !पप्पु २ ०० दो। गाड़ी मे पेट्रोल डलाना और ममोस खाना है ।आजकल १०० के जगह सीधे २०० का डिमांड करते ... दरवाजे के पीछे हेंगर में टंगे "पैंट एटीम "से कैश निकाल लेते और डायनिंग टेबल की चाबी स्टेण्ड से चाबी निकाल उनमें छल्ले को ऊंगली में फंसा गोल- गोल धूमाते अपनी न बर्दाश्त करने वाली तीक्छण डियों की गंध के साथ बाहर एवेन्जर से छू ..लंबा हो जाते ...
उनके इस तरह चले जाने के बाद किचन से प्रवचन आरंभ होती लो न आंख के सामने चला गया रोक कर देखो उसे ... अब उलाहना पाठ लंका काण्ड की तरह उनकी मम्मी बांचने बैठ जाती और चाय बिस्कुट परोसकर .... दिन भर की महाभारत श्रवण कराने लगती।
बड़ा लड़का तब ट्युशन से लौटते अपनी संकोची प्रवृत्ति से बचने का उपक्रम करते कुछ समझदार होने का आभास सा देने लगे है । परन्तु दोनो डेढ़ दो साल के अंतर हम उम्र सा एक दूसरे को मित्र वत गधा और दोस्तों के चक्कर में एक दूसरे को दादी श्री की उपाधि से " परबुधिया" कहते! परबुधिया वंश है दादा से बेटे अब नाती लोग इस वंश की प्रवृत्ति का सुन्दर निर्वहन कर रहे है ..उनकी मम्मी हां हां मिलाते कहती आखिर गुण- धर्म तो मिलेन्गे ही! ४० के बाद बहुए सास बनने की तैय्यारी मे जोर शोर से लगने लगी है।
बाहरहाल श्रीमती जी कुछ यग्य मे चढ़ाने की आंकाछा लिए पुरोहित सी खड़ी आकलन करने लगती कितना दछिणा यजमान चढ़ाते है ?
तो इस तरह सात्विक यग्य वाले घर में "बलि का बकरा" बेचारा यह "पप्पू" बनते आ रहे है और मुझे यकीनन ऐसा बलिदान हो जाना घर परिवार के मनभावन लगता भी है ।इसलिए बड़े बेटे कहते-" पापा को अब पप्पू बनाने में वो मजा नही रहा ।वे जानबूझकर बनने लगते है।" तब मुझे मिलिंद वाकिय में समझदार हो रहे है ऐसा लगने लगते ।
सच ! साहब उस दिन आपके सुपुत्र ने कहां कि पापा ही तय करेन्गे कि घर किराए से देना है कि उसे बेचना है । मै ये दोनो काम करता हूं... बल्कि आप गांव की जमीन निकालिए भला अब खेती किसानी कौन करेन्गे ।यह अपढ़ गवारों का काम रहा। आप की ३ पीढ़ी साछर व सछम है ।खेत निकाल शहरों में फैल्ट या प्लाट में इन्वेस्ट करे अच्छा होगा ... शुक्र है ..अच्छा हुआ कि आप मिल गये ।कल आपके पास आने ही वाला था ... पीछे एक पार्टी है ! चाहे तो मिल ले ....
सब कूछ एक सांस में कह उसने हमें उतरने और उनकी कार से आगे गंतव्य की ओर जाने निवेदन करने लगा ... कि एक जमीन के काम से आपके कालेज की ओर ही जाना हो रहा प्लीज आइए .... वह व्यक्ति जो कद- काठी से लंबे तगड़े , गोरे-चिट्टे और विरासत से धनी लग रहा था ... अनुनय विनय करते उनके पीछे हमारी बस तक आ गये ।
एक पल के लिए सोचा कि इतने विनम्र व जरुरत मंद अमीरजादे क्यों हमारी जमीन को लेने उद्दत है ।
छण में पता चला कि विगत कुछ सप्ताह से आन लाइन प्रपर्टी खरीदी बिक्री डाट काम में उक्त जानकारी देखे .... और आज ही उनमें दिए संपर्क मोबाइल नंबर पर इंक्यावरी से पता चला कि ८-३० वाली बलौदाबाजार जाने वाली बस में पापा जी मिलेन्गे ... नीली धारी वाली चेक शर्ट पहने गोल्डन फ्रेम की चश्मे में मोबाइल चलाते मिलेन्गे । शायद उन्हे हमारा फोटो वाट्साप कर भी दिए गये थे।
कुछ दिनों से हमारे लैपटाप में भी कथित तेजी से बढ़ते ग्रोथ करते स्कीम के अन्तर्गत जमीन मकान बेचने क्रय करने वाली बेबसाईट का एप्प बच्चे लोग डाउन लोड कर रखे है। ओह ! तो
इस तरह ये लोग हमे पेशेवर "सुपारी किलर "सरीखे हमे घेरने आ धमके ।
ले दे कर उनसे पीछे छुड़ाया और यह कहकर टाला कि अभी चुनाव तक हमें फूर्सत नही ।उनके बाद जरुर इस बारे में बात करेन्गे ।बेचना तो है २२०० सौ स्क्वायर फीट एरिया मे नीचे १५०० ऊपर १००० कुल २५ सौ स्क्वायर फीट में तीन ब्लाक निर्मित पास कालोनी में शानदार मकान यहां की हिसाब से ४० लाख है ।आगे बैठने पर बातें होगीं । वे लोग नम्बर लिए और हमारी उनके कार मे बैठ संग जाने से मना करने से कुछ मायुस सा नीचे उतर गये .... बस आगे बढ़ने लगी।
"आजकल नोट बंदी के कारण सर्वत्र मंदी का दौर है ।बढती महंगाई से जीवन जीना मुहाल है तब कोई प्रापर्टी वह भी जमीन मकान आदि खरीदना आसान नही है।" यह बातें गायत्री मंत्र की तरह पुरी बाजार में व्याप्त है।फिर कालोनीनाइजरों की ढेर सारा आफर एसी कार विदेश ट्रीप आदि से स्थनीय बस्ती में बने मकान का री सेल वैल्यु धटा दिए ... और जमीन की कीमत भले बढ़े ..मकान की ढ़ाचा का लागत निरंतर धटते जाते है व धीरे धीरे १०-१५ साल बाद वह ढ़ाचा जर्जर मलबे सदृश्य हो जाते है।उनका मूल्य नही रह जाते ।
इसलिए समय रहते बेच दो या निरंतर उनकी मरम्मत कराते रहो किराएदार है तो ठीक अन्यथा ठीक ठाक सुने घर दो चार माह में ही खंडहर लगने लगते है। इसलिए जब रहना नही तो जल्दी समेटो ...
इस तरह अनेक ख्यालात मन में उमड़ते धुमड़ते ३ साल बीत गये अच्छी कीमत मिलने की आस में ... पर अब बड़े शहर में बढ़ती आसमान छुती महगांई में टिक पाना दूर वापस उसी पहले की पाई पाई जोड़ अपने हाथो से एक एक ईट कील रखते स्वप्न का घर बनाए जहां इनके बचपन और हमारी सबसे सुकून वाली जिन्दगी गुजरी उससे विलग हो जाय यह भी मन नही करता ।
ऐसा लगता है कि इस मकान को बेच बड़े शहर में दो छोटी- छोटी मकान लेकर दोनो बच्चों से विलग हो जाने का अंदेशा या डर भी किसी कोने छिपा रहता है।
दोनो हमारे जीवन तक साथ रहे और यह तब है जब एक ही आशियाना रहे .!... पर तेजी से बदलती और एकाकी होते दुनिया में व्यवहारिक बन कर ही सुकून मिल सकते है ।दोनो अलग पर एक ।थोड़ी दूरी पर नजदीकी बनी रहे। यह नही कि एक घर के क ई कमरों बिल्कूल अलग -थलग ! और यह भी नही कि दो अलग अलग घरों मे रह बिल्कुल अनजान ।
बाहरहाल कभी- कभी चालाकी तेजतर्रारी और समझदारी भी कोई काम का नही इससे भी बहुत सारे बिखराव है। और नासमझी और सरल्य भाव या पप्पूपना ही श्रेष्ठतम है क्योंकि इससे सब सहजता से मजाक -सजाक करते हंसी -ठठ्ठा से बंधे रहते ... दया -मया के बंधना भी है ! ......जहां नैकु सयानप बांक नही है।
हमें बार -बार पापा से पप्पू हो जाने और कहलाने की बाते भीतर से आनंदित करने लगे। और उस आतुर खरीददार को न बेचने की बातें दृढ़ता से कह अपने पप्पू पन से निजात पा गये .दुनी खुशियों के पंख लगा घर में .प्रवेश किए कि यह क्या घर में आते ही कुछ प्रपर्टी एजेन्ट महानगर मे विकसित सर्व -सुविधा से युक्त मल्टी फ्लेक्स सिनेमा थियेटर जीम स्वीमिन्ग पूल वाली बहुमंजिला इमारत इम्प्रेशिया और गोल्डन टांवर में फ्लैट दिखाने व उपलब्ध लैपटाप लेकर बैठे हमारे दोनों बेटों से इन्गलिश में गिटपिटियाते एक अति आत्म विश्वास से लवरेज गर्ल्स व बायज पप्पू बनाने में लगे है। और श्रीमती जी उन सबके लिए ओवन में माईक्रोनी व मैगी बनाने में लगी है।
हमे देख सभी सर हिलाकर विश किए ... और हम बैग उतार लंबी सांस लेकर काउच जो खाली थे जहां बीच -बीच मे आकर श्रीमती बैठ उन्हे कौतुहल से देखती उस जगह चैन से बैठकर बेटों को पप्पू बनने से रोकने मन ही मन उक्ति अजमाने लगे ....
थोड़ी देर बाद वह अजनबी जो बस में लंगोटिया यार की तरह मिले थे वह दरवाजे ठेल कर प्रकट हुआ । सच उसे देख हम तो आवाक् ही हो गये ....ये अलग तरह के सुपारी किलर लोग कही ..नये ढंग से प्रेम पूर्वक हलाली का काम कार्पोरेट स्टाइल से हम जैसों वेतन भोगी व मध्यम वर्गीय लोगों और परिजनों को बहला- फूसला कर उनके मन में कथित इन्टरनेशल लाईफ स्टाईल का सब्ज बाज दिखाकर ...हलाल न कर दे ... पप्पू न बना दे।
-डा. अनिल भतपहरी
९६१७७७७५१४
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