संधर्ष और कल्याण
व्यक्ति एक प्राणी हैं और प्राणियों में प्रतिद्वंद्विता उनकी प्रवृत्ति हैं।वह अपने परिजनों से भी संधर्ष करते हैं। अतः यह कहना कि वे गैर से प्रेम और सौहार्दपूर्ण व्यवहार करे या करते रहेन्गे यह हो ही नहीं सकते ।हा इसे नीति नियम या संविधान द्वारा उन्हे मनवा तो सकते हैं पर उनकी इस प्रवृत्ति को बदल नहीं सकते ।समय अवसर आने पर उनका प्रकटीकरण होकर रहता हैं। पति पत्नी से पिता पुत्र से भाई भाई से एक परिवार दूसरे परिवार से एक जाति दूसरे जाति से एक मत वाले दूसरे मतवाले और एक धर्म पंथ मजहब वाले दूसरे धर्म पंथ मजहब वालों से प्रतिद्वंद्विता रखते हैं,संधर्ष करते हैं, और सुनियोजित ढंग से एक दूसरे की अवहेलना करते लोगों को अपने अपने खेमों में रख अनुयाई बनाते हैं। यह देश दुनिया सब पर कब्जा चाहता है। मानवता प्रेम करुणा सद्भाव की नारे सभी लगाते हैं। लेकिन व्यवहार में नहीं लाते ।
धर्म पंथ मत विचार धाराए आदि संधर्ष और प्रतिद्वंद्विता का सामूहिक संस्थान हैं।यह आदिम होकर भी आज तक प्रासंगिक हैं। इन्हे और भी सशक्त और सुदृढ़ किए जा रहे ताकि बेहतर ढंग से एक दूसरे से लड़ सके और अपनी श्रेष्ठता साबित कर सके । देश दुनिया में सत्ता कायम कर सके । राजतंत्र धर्म मत के प्रचारक होकर और भी सुदृढ हुआ ।कलान्तर में लोकतंत्र आने पर अनेक राजनैतिक पार्टियां इन्ही विचार धाराओ धर्मो मतो पंथो के अधीन हो गये इनके लिए अकुत संपदाएं एकत्र किए जाने लगे यह संपदा उसी रोटी और जीजीविषा से लड़ते आदमी के परिश्रम के अंश होते जिससे उनके प्रबंधक व प्रचारक ऐश करते हैं।
आज इन्ही संधर्ष के लिए आणविक अस्त्रों से दुनिया लैस हो चुकी है। और तृतीय युद्ध कभी भी छिड़ सकते है।बावजुद सुख शांति त्यागकर मूर्ख गंवार उनकी तैय्यारी लगा हुआ है केवल वर्चस्व ऐश्वर्य के समान एकत्र मर -खप जाते हैं। उन्हें मिलता क्या है? हमारी छत्तीसगढ़ी में कहावत है - सांप चाबिस फेर उन ल काय मिलिस ? न उनके पेट भरते हैं न पुरखे तरते हैं। वर्तमान में चंद लोगों के अधीन समस्त संधाधन होते जा रहे हैं। और उन लोगों के अधीन मानव प्रजाति।
लड़ना मानव की प्रवृत्ति हैं। उन्हे किससे और क्यो लड़ना चाहिए का बोध होना चाहिए यदि वह अपनी अज्ञानता से शोषको से लडे तो उनका और घर -परिवार व समुदाय का कल्याण हो सकता हैं।
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