वेद उपनिषद
पुराणादि भी
मानव मेघा की
ऊपज अनुपम है
स्मृति योग मिमांशाएं
दार्शनिक
विचारों की समागम है
राज्य विस्तार की
रोचक दास्तान
है वाल्मिकी कृत
रामायण
जहां प्रजातियों का
समागम और संधर्ष है
मानव मन की द्वंद्व का
शानदार विचार विमर्श है
एक्शन इमोशन थ्रीलर
रहस्य रोमांच का दास्तान
महाभारत व्यास मंडल
रचयिताओं का
है अनोखा वृतान्त
त्रिपिटक बीजक सिद्ध वाणी
गुरु ग्रंथ सतनामायण गुरुवाणी
विषैले मानस सागर में टपकते
अमृत बुन्द है
काव्य जगत व कवि के लिए
विधिध रत्न भरे समुन्द्र है
-डा. अनिल भतपहरी
Wednesday, October 31, 2018
रत्न भरे समुद्र
महाभारत
महाभारत एक्शन थ्रीलर इमोशन और मेडीटेशनल एपिक है ।और यह सच नही बल्कि व्यास मंडल रचयिताओं की सामूहिक हाइपोथिसिस उपक्रम है।
Tuesday, October 30, 2018
ये सुपारी किलर
"ये सुपारी किलर "
बस की सीट पर बैठ इत्मीनान से पाकेट से मोबाइल निकाल अपनी श्रीमती के वाल में कुछ टाइप करने की सोचा(क्योकि ऐसा कर हम आलेख दोनो मो सेट मे बिना सेव किए संरछित कर लेते है ) ही था कि एक शख्स बड़ी गर्मजोशी से नमस्कार महोदय कहते हाथ मिलाने बढ़ाए .. मै असमंजस में कि वे कौन है ? और इस तरह प्रगल्भतापूर्वक हमारे खास लंगोटियार भी मिलने से कतराते है या यु कहे लिहाज आदि करते है या उम्र के साथ चढ़ी चेहरे पर गांभीर्य भाव उन्हे ऐसा करने रोकते है ।पर वह खिलंदड़ा कौन है ?
मै देर तक उन्हे देखने और समझने पर उनसे अनजान न होने की मिलीजुली भाव से हाथ मिलाते व उनके न छोड़ने उनके संग हिलाते ही रह गया ....
अब वह हो -हो कर हंसने भी लगे और पीछे मुड़ कर जो उनके साथ में थे शायद देख रहे है कि नही ...अंदाज लगा और भी निकटस्थ होने की रौ मे बहे जा रहे थे ।
ऐसा नही कि हम ऐसे ही खड़ुस टाइप का आदमी है बल्कि कभी-कभी खडुसता को जानबूझकर ओढ़ने पड़ते है। सो आजकल यही करते आ रहे है। अति विनम्र व मिलनसार होने का दंश विगत कई वर्षों से झेलते आ रहे है बल्कि कहें तो लोगों के इस्तेमाल होते आ रहे है।चाहे गैर हो कि अपने! ...अपने ही बच्चें और पत्नी तक भी धुड़क देते है कि आपको कितनी आसानी से दूसरे लोग पप्पु बना देते है।
कभी कभी पूछ बैठता और आप लोग .... वे आखें तरेरती कहती .... घर में बधवा लहुट जथस ... मय उनकी इस झुठी ही सही कथन से स्वयं को शेर होने की शान से ग्रसित होने की कोशिश में लगता। पर छोटा बेटा ( उनके बेफिक्र अंदाज कि परीछा अभी बाकी है लो ना उस समय पढ़ लेन्गे ... अभी से क्यो? )तो पप्पु ही कहते है ए !पप्पु २ ०० दो। गाड़ी मे पेट्रोल डलाना और ममोस खाना है ।आजकल १०० के जगह सीधे २०० का डिमांड करते ... दरवाजे के पीछे हेंगर में टंगे "पैंट एटीम "से कैश निकाल लेते और डायनिंग टेबल की चाबी स्टेण्ड से चाबी निकाल उनमें छल्ले को ऊंगली में फंसा गोल- गोल धूमाते अपनी न बर्दाश्त करने वाली तीक्छण डियों की गंध के साथ बाहर एवेन्जर से छू ..लंबा हो जाते ...
उनके इस तरह चले जाने के बाद किचन से प्रवचन आरंभ होती लो न आंख के सामने चला गया रोक कर देखो उसे ... अब उलाहना पाठ लंका काण्ड की तरह उनकी मम्मी बांचने बैठ जाती और चाय बिस्कुट परोसकर .... दिन भर की महाभारत श्रवण कराने लगती।
बड़ा लड़का तब ट्युशन से लौटते अपनी संकोची प्रवृत्ति से बचने का उपक्रम करते कुछ समझदार होने का आभास सा देने लगे है । परन्तु दोनो डेढ़ दो साल के अंतर हम उम्र सा एक दूसरे को मित्र वत गधा और दोस्तों के चक्कर में एक दूसरे को दादी श्री की उपाधि से " परबुधिया" कहते! परबुधिया वंश है दादा से बेटे अब नाती लोग इस वंश की प्रवृत्ति का सुन्दर निर्वहन कर रहे है ..उनकी मम्मी हां हां मिलाते कहती आखिर गुण- धर्म तो मिलेन्गे ही! ४० के बाद बहुए सास बनने की तैय्यारी मे जोर शोर से लगने लगी है।
बाहरहाल श्रीमती जी कुछ यग्य मे चढ़ाने की आंकाछा लिए पुरोहित सी खड़ी आकलन करने लगती कितना दछिणा यजमान चढ़ाते है ?
तो इस तरह सात्विक यग्य वाले घर में "बलि का बकरा" बेचारा यह "पप्पू" बनते आ रहे है और मुझे यकीनन ऐसा बलिदान हो जाना घर परिवार के मनभावन लगता भी है ।इसलिए बड़े बेटे कहते-" पापा को अब पप्पू बनाने में वो मजा नही रहा ।वे जानबूझकर बनने लगते है।" तब मुझे मिलिंद वाकिय में समझदार हो रहे है ऐसा लगने लगते ।
सच ! साहब उस दिन आपके सुपुत्र ने कहां कि पापा ही तय करेन्गे कि घर किराए से देना है कि उसे बेचना है । मै ये दोनो काम करता हूं... बल्कि आप गांव की जमीन निकालिए भला अब खेती किसानी कौन करेन्गे ।यह अपढ़ गवारों का काम रहा। आप की ३ पीढ़ी साछर व सछम है ।खेत निकाल शहरों में फैल्ट या प्लाट में इन्वेस्ट करे अच्छा होगा ... शुक्र है ..अच्छा हुआ कि आप मिल गये ।कल आपके पास आने ही वाला था ... पीछे एक पार्टी है ! चाहे तो मिल ले ....
सब कूछ एक सांस में कह उसने हमें उतरने और उनकी कार से आगे गंतव्य की ओर जाने निवेदन करने लगा ... कि एक जमीन के काम से आपके कालेज की ओर ही जाना हो रहा प्लीज आइए .... वह व्यक्ति जो कद- काठी से लंबे तगड़े , गोरे-चिट्टे और विरासत से धनी लग रहा था ... अनुनय विनय करते उनके पीछे हमारी बस तक आ गये ।
एक पल के लिए सोचा कि इतने विनम्र व जरुरत मंद अमीरजादे क्यों हमारी जमीन को लेने उद्दत है ।
छण में पता चला कि विगत कुछ सप्ताह से आन लाइन प्रपर्टी खरीदी बिक्री डाट काम में उक्त जानकारी देखे .... और आज ही उनमें दिए संपर्क मोबाइल नंबर पर इंक्यावरी से पता चला कि ८-३० वाली बलौदाबाजार जाने वाली बस में पापा जी मिलेन्गे ... नीली धारी वाली चेक शर्ट पहने गोल्डन फ्रेम की चश्मे में मोबाइल चलाते मिलेन्गे । शायद उन्हे हमारा फोटो वाट्साप कर भी दिए गये थे।
कुछ दिनों से हमारे लैपटाप में भी कथित तेजी से बढ़ते ग्रोथ करते स्कीम के अन्तर्गत जमीन मकान बेचने क्रय करने वाली बेबसाईट का एप्प बच्चे लोग डाउन लोड कर रखे है। ओह ! तो
इस तरह ये लोग हमे पेशेवर "सुपारी किलर "सरीखे हमे घेरने आ धमके ।
ले दे कर उनसे पीछे छुड़ाया और यह कहकर टाला कि अभी चुनाव तक हमें फूर्सत नही ।उनके बाद जरुर इस बारे में बात करेन्गे ।बेचना तो है २२०० सौ स्क्वायर फीट एरिया मे नीचे १५०० ऊपर १००० कुल २५ सौ स्क्वायर फीट में तीन ब्लाक निर्मित पास कालोनी में शानदार मकान यहां की हिसाब से ४० लाख है ।आगे बैठने पर बातें होगीं । वे लोग नम्बर लिए और हमारी उनके कार मे बैठ संग जाने से मना करने से कुछ मायुस सा नीचे उतर गये .... बस आगे बढ़ने लगी।
"आजकल नोट बंदी के कारण सर्वत्र मंदी का दौर है ।बढती महंगाई से जीवन जीना मुहाल है तब कोई प्रापर्टी वह भी जमीन मकान आदि खरीदना आसान नही है।" यह बातें गायत्री मंत्र की तरह पुरी बाजार में व्याप्त है।फिर कालोनीनाइजरों की ढेर सारा आफर एसी कार विदेश ट्रीप आदि से स्थनीय बस्ती में बने मकान का री सेल वैल्यु धटा दिए ... और जमीन की कीमत भले बढ़े ..मकान की ढ़ाचा का लागत निरंतर धटते जाते है व धीरे धीरे १०-१५ साल बाद वह ढ़ाचा जर्जर मलबे सदृश्य हो जाते है।उनका मूल्य नही रह जाते ।
इसलिए समय रहते बेच दो या निरंतर उनकी मरम्मत कराते रहो किराएदार है तो ठीक अन्यथा ठीक ठाक सुने घर दो चार माह में ही खंडहर लगने लगते है। इसलिए जब रहना नही तो जल्दी समेटो ...
इस तरह अनेक ख्यालात मन में उमड़ते धुमड़ते ३ साल बीत गये अच्छी कीमत मिलने की आस में ... पर अब बड़े शहर में बढ़ती आसमान छुती महगांई में टिक पाना दूर वापस उसी पहले की पाई पाई जोड़ अपने हाथो से एक एक ईट कील रखते स्वप्न का घर बनाए जहां इनके बचपन और हमारी सबसे सुकून वाली जिन्दगी गुजरी उससे विलग हो जाय यह भी मन नही करता ।
ऐसा लगता है कि इस मकान को बेच बड़े शहर में दो छोटी- छोटी मकान लेकर दोनो बच्चों से विलग हो जाने का अंदेशा या डर भी किसी कोने छिपा रहता है।
दोनो हमारे जीवन तक साथ रहे और यह तब है जब एक ही आशियाना रहे .!... पर तेजी से बदलती और एकाकी होते दुनिया में व्यवहारिक बन कर ही सुकून मिल सकते है ।दोनो अलग पर एक ।थोड़ी दूरी पर नजदीकी बनी रहे। यह नही कि एक घर के क ई कमरों बिल्कूल अलग -थलग ! और यह भी नही कि दो अलग अलग घरों मे रह बिल्कुल अनजान ।
बाहरहाल कभी- कभी चालाकी तेजतर्रारी और समझदारी भी कोई काम का नही इससे भी बहुत सारे बिखराव है। और नासमझी और सरल्य भाव या पप्पूपना ही श्रेष्ठतम है क्योंकि इससे सब सहजता से मजाक -सजाक करते हंसी -ठठ्ठा से बंधे रहते ... दया -मया के बंधना भी है ! ......जहां नैकु सयानप बांक नही है।
हमें बार -बार पापा से पप्पू हो जाने और कहलाने की बाते भीतर से आनंदित करने लगे। और उस आतुर खरीददार को न बेचने की बातें दृढ़ता से कह अपने पप्पू पन से निजात पा गये .दुनी खुशियों के पंख लगा घर में .प्रवेश किए कि यह क्या घर में आते ही कुछ प्रपर्टी एजेन्ट महानगर मे विकसित सर्व -सुविधा से युक्त मल्टी फ्लेक्स सिनेमा थियेटर जीम स्वीमिन्ग पूल वाली बहुमंजिला इमारत इम्प्रेशिया और गोल्डन टांवर में फ्लैट दिखाने व उपलब्ध लैपटाप लेकर बैठे हमारे दोनों बेटों से इन्गलिश में गिटपिटियाते एक अति आत्म विश्वास से लवरेज गर्ल्स व बायज पप्पू बनाने में लगे है। और श्रीमती जी उन सबके लिए ओवन में माईक्रोनी व मैगी बनाने में लगी है।
हमे देख सभी सर हिलाकर विश किए ... और हम बैग उतार लंबी सांस लेकर काउच जो खाली थे जहां बीच -बीच मे आकर श्रीमती बैठ उन्हे कौतुहल से देखती उस जगह चैन से बैठकर बेटों को पप्पू बनने से रोकने मन ही मन उक्ति अजमाने लगे ....
थोड़ी देर बाद वह अजनबी जो बस में लंगोटिया यार की तरह मिले थे वह दरवाजे ठेल कर प्रकट हुआ । सच उसे देख हम तो आवाक् ही हो गये ....ये अलग तरह के सुपारी किलर लोग कही ..नये ढंग से प्रेम पूर्वक हलाली का काम कार्पोरेट स्टाइल से हम जैसों वेतन भोगी व मध्यम वर्गीय लोगों और परिजनों को बहला- फूसला कर उनके मन में कथित इन्टरनेशल लाईफ स्टाईल का सब्ज बाज दिखाकर ...हलाल न कर दे ... पप्पू न बना दे।
-डा. अनिल भतपहरी
९६१७७७७५१४
Monday, October 29, 2018
संधर्ष और कल्याण
संधर्ष और कल्याण
व्यक्ति एक प्राणी हैं और प्राणियों में प्रतिद्वंद्विता उनकी प्रवृत्ति हैं।वह अपने परिजनों से भी संधर्ष करते हैं। अतः यह कहना कि वे गैर से प्रेम और सौहार्दपूर्ण व्यवहार करे या करते रहेन्गे यह हो ही नहीं सकते ।हा इसे नीति नियम या संविधान द्वारा उन्हे मनवा तो सकते हैं पर उनकी इस प्रवृत्ति को बदल नहीं सकते ।समय अवसर आने पर उनका प्रकटीकरण होकर रहता हैं। पति पत्नी से पिता पुत्र से भाई भाई से एक परिवार दूसरे परिवार से एक जाति दूसरे जाति से एक मत वाले दूसरे मतवाले और एक धर्म पंथ मजहब वाले दूसरे धर्म पंथ मजहब वालों से प्रतिद्वंद्विता रखते हैं,संधर्ष करते हैं, और सुनियोजित ढंग से एक दूसरे की अवहेलना करते लोगों को अपने अपने खेमों में रख अनुयाई बनाते हैं। यह देश दुनिया सब पर कब्जा चाहता है। मानवता प्रेम करुणा सद्भाव की नारे सभी लगाते हैं। लेकिन व्यवहार में नहीं लाते ।
धर्म पंथ मत विचार धाराए आदि संधर्ष और प्रतिद्वंद्विता का सामूहिक संस्थान हैं।यह आदिम होकर भी आज तक प्रासंगिक हैं। इन्हे और भी सशक्त और सुदृढ़ किए जा रहे ताकि बेहतर ढंग से एक दूसरे से लड़ सके और अपनी श्रेष्ठता साबित कर सके । देश दुनिया में सत्ता कायम कर सके । राजतंत्र धर्म मत के प्रचारक होकर और भी सुदृढ हुआ ।कलान्तर में लोकतंत्र आने पर अनेक राजनैतिक पार्टियां इन्ही विचार धाराओ धर्मो मतो पंथो के अधीन हो गये इनके लिए अकुत संपदाएं एकत्र किए जाने लगे यह संपदा उसी रोटी और जीजीविषा से लड़ते आदमी के परिश्रम के अंश होते जिससे उनके प्रबंधक व प्रचारक ऐश करते हैं।
आज इन्ही संधर्ष के लिए आणविक अस्त्रों से दुनिया लैस हो चुकी है। और तृतीय युद्ध कभी भी छिड़ सकते है।बावजुद सुख शांति त्यागकर मूर्ख गंवार उनकी तैय्यारी लगा हुआ है केवल वर्चस्व ऐश्वर्य के समान एकत्र मर -खप जाते हैं। उन्हें मिलता क्या है? हमारी छत्तीसगढ़ी में कहावत है - सांप चाबिस फेर उन ल काय मिलिस ? न उनके पेट भरते हैं न पुरखे तरते हैं। वर्तमान में चंद लोगों के अधीन समस्त संधाधन होते जा रहे हैं। और उन लोगों के अधीन मानव प्रजाति।
लड़ना मानव की प्रवृत्ति हैं। उन्हे किससे और क्यो लड़ना चाहिए का बोध होना चाहिए यदि वह अपनी अज्ञानता से शोषको से लडे तो उनका और घर -परिवार व समुदाय का कल्याण हो सकता हैं।
Sunday, October 28, 2018
ये सड़क की मोड़
सड़क की मोड़ पर ..
रविवार के बावजूद आज चुनावी ड्युटी के चलते आराम हराम हो गया और रास्ते में बाल- बाल बचा!
हुआ युं कि अवकाश के आदत पड़ जाने एकाध धंटे बाद नींद खुली ।हड़बहाट में जल्दी निकले क्योकि अभी नौकरी करना नही बचाना जो है।
बाहरहाल जैसे चौंक में मोटर साईकिल पहुंची कि स्मृत हुआ मोबाइल घर में छूट गये ... "दुब्बर बर दु असाढ़" जैसे स्थिति एक पहले से लेट दूसरे और भी लेट करने होन्गे !खाना पानी यहां तक परीचित से रुपये मिल भी सकते है पर मोबाइल नही! और आज डिजिटल युग मे इनके बिना गुजारा मुश्किल ... लत आदि तो नही.. बल्कि पल पल सुचनाओं के लिए यह आवश्यक है।
वापस घर की ओर मुड़ना ही हुआ कि चौक में मंदिर के पास एक घरघराती कार पीछे से टक्कर दे मारी तिलक लगाए हाथ में मौली सूत्र बांधे वह शख्य धार्मिक .और जल्दी में लगा .. और हम भी ... कहां-सुनी का समय ही कहा? जो हुआ सो हुआ ! बस में बैठे मोबाइल के सिवा यदा कदा ही यात्रियों मे आजकल वार्तालाप हो पाते है डेली अप डाउन वाले तो इनके चलते अब दुआ सलाम तक छोड़ दिए जिसे देखों सम खोए और उसी मे उलझे है ... हम भी ।सफर काटने का यह नया और सर्वोत्तम तरीका भी है।
अब रेल्वे बस स्टेण्ड मे पत्र पत्रिकाएं बुक स्टाल नही अपितु मो चार्जर इयर फोन सेल्फी स्टीक मेमोरी कार्ट की दुकाने सजे धजे है।
येशुदास की गोरी गांव तेरा प्यारा ... हो या चांद जैसे मुखड़े पे ... कितने बार सुन लो मन नही अधाते ... और और सुनने का मब करता है ... इसलिए हर बस वाले जिनके पास स्टोरियों सिस्टम है जरुर बज जाते है । क्योकि बस ड्राइव्हर प्राय: मैच्योर ड्राइव्हर है और इस देश के मैच्योर लोग चाहे किसी कम्पनी या शास आफिस का डायरेक्टर हो या बस कंडक्टर सबको ७०-८० के दशक का फिल्मी गीत ही प्रिय है। हां यदा -कदा लोक गीत गर्मी में बारिश की फुहार की मानिन्द या ठंड मे चुभती चिरती हवा में गर्म झोंके सा बज उठते है। एक परीचित के ड्राइव्हर को चंदैनी गोंदा के गीत रखने कहा ... पर राजधानी के बस ड्राइव्हर व कंडेक्टर छत्तीसगढिया नही है। भले ये लोग छत्तीसगढिया सवारी से उनके गंतव्य के किराया लेने और स्टेशनों के नाम याद कर लिये पक्के छत्तीसगढ़िया जैसे दाई माई गोठिया ले पर है यु पी बिहारी ।
छत्तीसगढ़िया केवल लेवर गिरी के लिए बना है जान पड़ते है। दिवाली व चुनाव समीप आने से देश भर के शहरों में राजमिस्त्री लेवर व ईट भठ्ठे में ईट बनाते परिवार उछाहित झुंड के झुंड बाल बच्चों सहित लौट रहे है।
इनकी भीड़ व आव्रजन -पलायन देखा तो वह मंजर याद आने लगे जब हम कोसरंगी हाईस्कूल में पढ़ रहे थे।तब एक रात्रि खरोरा से आगे पेंड्रावन जलाशय के समीप पाइटेक इंजीनियरिंग कालेज के पास पर सिमेन्ट से भरा ट्रक और उन पर बैठ कर जीविकोपार्जन हेतु पलायन करते मजदूर सहित रात्रि में मुरामोड़ पर उलट गये और४-६ लोग दब कर मर गये व गंभीर रुप से धायल हो गये .... दूसरे दिन राजदूत से तीन सवारी हम मित्रगण यहां वह मंजर देखने आए... ट्रक उलटा पड़ा और सिमेन्ट की बोरियां यत्र- तत्र बिखरे खुन से सने मिले ।लोमहर्षक दृश्य देख हृदय द्रवित हो गये ....
कुछ दिन बाद वहां मंदिर बन गये हर नवरात्रि व अवसर पर जोत जवारा भजन पूजन चलने लगा ... वह शक्ती पीठ जैसे चर्चित होने लगे मनोकामना कलशों की संख्या बढ़ती जा रही है।
आज उसी मोड़ पर बस पहुचते ही अचानक जोर से ब्रेक पड़ा ... और खड़े हुए यात्री गण एक दूसरे पर लद भिड़ गये।बैठे हुए लोग सामने सीट से टकराए ... मेरा तो ऊपरी ओठ सामने सीट मे लगे हाथ रखने के हत्थे से टकरा चोटिल हो गये .रुमाल से खून पोंछा ..नीचे गिरे मोबाइल उठाया और फ्रंट कैमरे से देखा सूज गये है दर्द से हाल- बेहाल .... रविवार है और नौकरी बचाना है ..और लोगों को गंतव्य की ओर जाना है। यह नौबत तब आया जब एक मोटर साईकिल चालक मंदिर के आगे हेंडिल छोड़ हाथ जोडने लगे व लड़खड़ाकर गिर गये उसे बचाने बस चालक ब्रेक लगाए .... ओ गाडी वाला चमत्कार मान और लेट गये । बस ड्राइव्हर व पीड़ित यात्रियों का समवेत स्वर उसे गालियों का आशीष देते आगे बढ़ गये ।
हर गली चौक- चौराहे ,तिराहे मोड़ पर धार्मिक स्थलों की निर्माण और जनमानस की उनपर आस्था , वाहन चालकों का हैंडिल छोड़कर दोनो हाथ से प्रणाम ....व पल भर आंखे बंद कर ध्यान भक्ति कौन सी नवीन भक्ति अराधना की विधी है! जिससे अराध्य की कृपा मिलते है? यह जरुर धर्म अध्यात्म व दर्शन साहित्य जगत में अन्वेषण का विषय है।और यातायात विभाग वालों की कैसी रहमों- करम है यह भी विचारणीय है ।
लोग कहते है कि सड़क किनारे शराब दूकान के कारण दुर्धटनाएं धटती है ,आज हमे लगा वह जो हो पर इन सड़कों के किनारे ,मोड़,चौक- चराहों पर धार्मिक जगहों के कारण बड़ी -बड़ी दुर्धटनाएं धट रही वह क्यो लोगों को नजर नही आते ?
धार्मिक कार वाले से बच कर बस में बैठ हुए मोटर साइकिल वाले की अन्यय भक्ति से धायल अनिल ... सच में विवश और बेबश है कि इन सबका क्या किया जाय ।
-डा. अनिल भतपहरी
Friday, October 26, 2018
थोड़े में बहुत
"थोड़े में बहुत "
पता नही क्यों.. समान विचार-धारा या मंतव्य रखने वालों के प्रति नेह होने लग जाते है। चाहे वह समलिंगी या विषमलिंगी हो।
या ऐसा भी कह सकते है कि विचारधारा में लिंगभेद नही होते । मिलने पर सभी संगी हो जाते है ।
हुआ युं कि अल सुबह बस में बैठते ही एक ९-१० साल की बालिका शनि देव की फोटो रखी भिछाटन हेतु आई ... बिना कुछ बोले चुपचाप यात्रियों के समछ धुमाने लगी ... लोग यथाशक्ति रुपये देने लगे जैसे ही मेरे पास आई मैने कहा - "स्कूल क्यो नही जाती ?" पढ़ने के वक्त भीख ! सहयात्रियों की निगाहे चिरती - भेदती आड़ी -तिरछी होने लगे।
वे भी बड़ी- बड़ी आंखें तरेरते गुस्से से कुछ न बोली और पीछे सीट की ओर बढ़ गई ।
थोड़ी देर पीछे दरवाजे से उतर ही रही थी कि हमने खिड़की से देखा कि उसकी मां , बुआ या जो हो काले रंग की साड़ी मे सजी-धजी एक और शनि महराज को टोकनी नुमा कमंडल में रखी एक स्कुटर सवार से भिछा मांगने लगी.. वे तमतमाते कह रहे थे -"शर्म नही आती जवान होकर मांगती -फिरती हो !"
गंदा काम करती हो !
बच्चों को पढ़ना -लिखना छुड़वाकर उनसे भीख मंगवाती हो!
ओ कही अच्छा काम क्या है ?
परिश्रम !
हाथ नचाती मोहक अंदाज से ओ कही-" यहु म बड़ मिहनत लगथे !
वो इस तरह के प्रश्नों से अभ्यस्त थी और जवाब देना जानती थी।
वे मंद -मंद मुस्काने लगी..दान .देना न इ देना तोर मरजी
पल भर में हमारा नेह उस अजनबी से जुड़ गये ...और बहुतों का नेह पल भर में उस शनि पूजारन से जो काली रंग की साड़ी में बला की खुबसूरत लग रही थी ।लोग कौतुहल व अन्य भाव से उनकी ओर दया तो नही पर मया वाली दृष्टि से टुकुर- टुकुर देखने लगे .... दो चार समर्थन में स्वर उठने लगे यही लोग हमारी संस्कृति के रखवाले है ।हमें उन्हे आदर देना चाहिए .... बस तो चल पड़ी पर ऐसा कहने वालों से हमारी बहस शुरु हो गये कि -"क्या ये लोग संस्कृति के संवाहक है और क्या इससे देश कीर्तिमान होन्गे?" .... वृतांत लंबी है पर इसे "थोड़े में बहुत "समझना ।
-डां. अनिल भतपहरी
9617777514
Thursday, October 25, 2018
रोज
"रोज "
ऐसा अक्सर रोज होता है जब कोई महिला गोद में बच्चा लिए बस में चढ़ती है और सीट नही मिलने पर उसे खड़ी देख कोई पुरुष ही अपनी सीट देकर खड़े हो जाते है।
आज भी ऐसा ही वाकिया हुआ।वो ठीक मेरे सामने आकर बच्ची पकड़ी खड़ी हो गई। और मुझे उनके लिए सीट छोड़ने उठना हुआ कि वह मना करते कहने लगी ... "नहीं सर ! यह तो हमारा रोज का काम है। डेली अप -डाउन और भागम- भाग वाली जिन्दगी ।आज आप दया- दृष्टि दिखाकर सीट दे रहे कल कोई थोड़े न देगा ! "
मुझे उनकी बातों से और कुछ जानने जिग्यासा होने लगे ... पूछ ही लिया.... वे एक सांस मे कहने लगी -"शहर से दूर ५०-५२ कि मी एक गांव मे शिछा कर्मी है ।उनके मि. शहर के प्राइव्हेट बैंक में पर्सनल लोन फाइनेंसर है उनके काम-काज व व्यस्तता के चलते उन्हे ही यह संधर्ष करने होते है।"
मैनें सदाशयता पूर्वक उन्हे बैठने कहा और पास खड़ा हो गया । सामान्यत: उनसे इस तरह चंद बातें होने लगे - "आजकल लोगों के बीच से संवेदनाएं सुप्त सा हो गये है पर चंद आप जैसे लोग यदा -कदा उसे जागृत कर रह है! वे कही
हमने कहां -"ऐसी कोई बात नही!यह तो सामान्य लोकाचार है।"
"ऐसा करने के लिए भी प्रतिस्पर्धा के इस युग में हिम्मत चाहिए।"
उनकी इस कथन से मुझे वो समझदार ही नही विचारवान भी लगी। पर वहां इत्मीनान से बैठी महिलाओं को शायद नागवर गुजरी वे लोग अजीब निगाह से देखने लगी ... जो हमारे समझ से परे था! पर ओ अभ्यस्त थी कहने लगी ... बहुत लोग नही चाहते, कोई हमारे समकछ हो!
ऐसा क्यो?
इसलिए कि जब ओ खड़ी होती है और तब कोई बैठ होते है। उन्हे कोई दयावान नही मिलते !
और ओ खिलखिलाकर रहस्यमय हंसी बिखेरी ...
उनकी अर्थपूर्ण हंसी में अपना हल्का सा मिलाते हमने कहां -"क्यों नही बच्चे के स्कूल जाते तक यही गांव मे रहती?आपके मिस्टर आते- जाते। कुछ पैसे बचते और आपको आराम ,आगे सुखद जिन्दगी के लिए।"
वो कही- "नही ! गांव अब रहने लायक है कहां? वहां शराबियों- जुवाड़ियों और जात -पात वालों के अड्डे है! फिर किराए की व सुविधायुक्त एक अदद मकान तक नही।"
हां यह तो है ,शायद इसलिए पढ़े- लिखे लोग तेजी से शहरों में बसते जा रहे है। मेरा कहना हुआ कि वे कह उठी - "यहां केवल बुजुर्ग बीमार और निठ्ठ्ले लोग रह गये है।"
" क्या पढ़े लिखे लोगों के न रहने से ही गांव बदतर होने लगे है।"
हां वे रहते तो बात अलग था ! कुछ तो फर्क पड़ते ।
पहले तो अपढ़ ही रहते पर गांव सरग जैसा लगता था।
वह कल्पना है सर !
क्या आप गांव से है ?
हां मेरा गांव मेरे लिए आज भी स्वर्ग की तरह है ।
तो आप वहां क्यो नही रहते ...
मतलब स्वर्गवासी हो जाए ! हां हां हां ...
आप तो हमे यही कह रहे है ? और वह भी हंस पड़ी ।
गोद की बच्ची कुलबुलाने लगी ।उसे सम्हालती कही
सचमूच तमाम मूलभूत सुविधाओं से रहित आजकल गांव में रहना कितना कष्टकर है ।
पर जिनके पास आय का कोई नियमित श्रोत न हो उनके लिए गांव सचमूच स्वर्ग है।
सबकी अपनी अपनी सोच है सर । वे मुझसे खुलकर बहस सी करने लगी ।
मुझे लगा यह तर्क भी करती है। मैने एजुकेशन पुछा -
बी ए एल एल बी है
वकालत क्यो नही
वहां कोई भविष्य नही
तो यहा कौन सा है?
नियमित वेतन तो है ...
पढ़े लिखे लोग वेतन भोगी होकर संतुष्ट है। और ऐसे ही लोगो के चलते गांव सुविधाओं से रहित भी क्योकि वे सुखमय जीवन के लिए गांव छोड़ते जा रहे है।
भले गांव की कमाई से शहर पल रहे हो
हम दोनो की इस तरह की वार्तालाप से इत्मीनान से बैठे हुए लोगों की की दृष्टियां कुछ कुछ भेदती- चिरती हुई हमारे तरफ आने लगी ... सभी अपने में खोए- उलझे चुप और कुछ पुरुष जो आखें बंद किए झपकी मे मग्न है ऐसे लोगों को यह वार्तालाप खलल पड़ते देख उस मौन और रोज के परीचित दैनिक यात्रियों के साथ गंतव्य की ओर चलना हुआ....
बीच में ओ उतर गई फिर .... कुछ छुटते हुए सा हम भी कुछ पाने की चाह लिए अपनी सीट पर बैठें कि बस आगे बढ़ने लगी ...
-डा. अनिल भतपहरी
९६१७७७७५१४