कंठी तो फांसी भये ,तिलक भये तलवार ।
सतनाम महुरा भये ,जोत पीये चतुर सुजान।।
सतनाम पंथ में बहुप्रचलित यह साखी उलट बांसी हैं ।इनके अपने विशिष्ट अर्थ हैं। समय- समय पर साधक साधु संत व आचार्य गण इस संदर्भ में गहन मनन- चिंतन करते ही रहते हैं। सच कहे तो साधारण सा दिखने वाला कंठी तिलक कैसे फांसी और तलवार हो जाएगा और अमृतयमय सतनाम महुरा कैसे हो जाएगा ?यह गुढ़तम बातें उक्त उलटबांसी में अन्तर्ध्वनित हैं।
सामान्यत: गुरुमुखी जन साधारण कनफुक्का गुरु से कान फूकाकर कंठी धारण करना और माथे पर चंदन तिलक लगाना और नित्य सतनाम जपना इन लोगों के लिए क्रमश: फांसी तलवार और महुरा यानि जहर की तरह हो जाते है। सहजतापूर्वक मिथ्या व आडंबर से भरा संसार जीवन निर्वहन कठिन हो जाते हैं। इसलिए ऐसा कथ्य या मंतव्य चल पड़ा हैं।
आधी -अधुरी जानकारियाँ और प्रतीकों के बिना सही उद्देश्य जाने समझे बगैर धारण करना मुस्किल ही नहीं संकट जन्य होते हैं।
यह संत और साधु वेष का प्रतीक हैं। इसे जल्दबाजी में या फैशन में धारण कर लेने से धारक के लिए फांसी तलवार व जहर की तरह कष्टदायक और हंसी के पात्र बन जाते हैं। जैसे लालची आमिष आहारी देखादेखी जोश में आकर सात्विक होने कंठी पहन लिए तो आमिष चीजों को देख ललचते रहेगा और पावन कंठी को फांसी समझ लेगा। तिलक उनके लिए तलवार सदृश्य हो जाएन्गे । इसी तरह झुठ फरेब से काम लेना वाला सत्यनिष्ठ होने की ढोंग करते ऊपर से ही सतनाम सतनाम जपेगा उनके लिए वह विष की तरह हो जाएगा।
चतुर सुजान तो वह है जो कंठी की फांसी (जैसे कि जन मानस कहते है ) तिलक की तलवार और सतनाम जो अमृत है (जन साधारण सच बोलके मरोगे क्या? कह) को जहर कह लेते हैं, इसे बड़ी श्रद्धा व सहजता से धारण कर इनके जोत अर्थात् चमक/ तेज को पीकर बडे ही तेजस्वी हो जाते हैं।
जबकि कच्चे और अति साधरण लोग जल्दबाजी देखादेखी या फैशन में पड़कर कठिनाई में फस जाते है ।उनके लिए कंठी , फांसी तिलक तलवार,और सतनाम जो अमृत है वह जहर बन जाते हैं।
साधना और आचरण गत व्यवहार करके पहले काबिल बनना चाहिए ।संत वृत्ति व समदर्शी भाव जागृत होना चाहिए तब इन प्रतीकों को धारण करे तभी इनकी महत्ता है । अन्यथा नादान और ना समझ के लिए यह क्रमशः फांसी तलवार और जहर ही है। इसलिए वे इनसे दूर रहते और भागते है।
यही इस उलटबासी साखी का असल भावार्थ हैं।
सतनाम
-डाॅ. अनिल भतपहरी
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