Monday, October 26, 2020

कंठी तो फांसी

कंठी तो फांसी भये ,तिलक  भये  तलवार ।
  सतनाम महुरा भये ,जोत पीये चतुर सुजान‌।।

सतनाम पंथ में बहुप्रचलित  साखी उलट बांसी  हैं इनके अपने विशिष्ट अर्थ हैं। 
  गुरु से कान फूकाकर कंठी धारण करना और माथे पर चंदन तिलक लगाना  और नित्य सतनाम जपना साधारण लोगों के लिए  क्रमश: फांसी तलवार और महुरा यानि जहर की तरह हो जाते  है। 
   आधी -अधुरी जानकारियाँ और प्रतीकों के बिना सही उद्देश्य  जाने समझे  बगैर धारण करना मुस्किल ही नहीं संकट जन्य होते  हैं। 
यह संत और साधु वेष का प्रतीक हैं। इसे जल्दबाजी में या फैशन में  धारण कर लेने से  धारक के लिए फांसी तलवार व जहर की तरह कष्टदायक और हंसी के पात्र बन जाते हैं। 
   चतुर सुजान तो वह है जो कंठी की फांसी (जैसे कि जन मानस कहते है ) तिलक की तलवार और सतनाम जो अमृत है (जन साधारण सच बोलके मरोगे क्या? कह) को  जहर कह लेते हैं, इसे बड़ी श्रद्धा व सहजता से धारण कर इनके जोत अर्थात् चमक/ तेज को पीकर बडे ही तेजस्वी हो जाते हैं।
जबकि कच्चे और अति साधरण लोग जल्दबाजी देखादेखी  या फैशन में पड़कर कठिनाई में फस जाते है ।उनके लिए कंठी , फांसी  तिलक तलवार,और सतनाम जो अमृत है  जहर बन  जाते हैं।
     साधना और आचरण गत व्यवहार करके पहले काबिल बनना चाहिए ।संत वृत्ति व समदर्शी भाव जागृत होना चाहिए  तब इन प्रतीकों को धारण करे तो महत्ता है । अन्यथा नादान और ना समझ के लिए यह क्रमशः फांसी तलवार और जहर ही है। इसलिए वे इनसे दूर रहते और भागते है।  
   यही इस उलटबासी साखी का असल भावार्थ हैं। 
     सतनाम
                     -डाॅ. अनिल भतपहरी

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