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"कलाकार निराकार को साकार करता हैं।"
साहित्यकार एक तरह से कलाकार हैं और इनसें अपूर्व सृजन होते हैं । दोनों मिलकर ऐसा रचते है कि दुनियां सम्मोहित और चमत्कृत हो जाते हैं। इनकी बनिस्पत तख्तो- ताज व सत्ताएं तक मिलती हैं। अनेक तरह की इबारते लिखी व मिटाई जाती हैं।
सच कहे तो रचयिताओं ने इतिहास भूगोल सब कुछ बदल कर रख देते हैं। दिखते वह अदना सा पर कमायत लाने की माद्दा रखता हैं। भले जीते जी उपेक्षित रहे और अपने व परिजनों के लिए कुछ कर न सके पर कलान्तर में यही लोग प्रवर्तक के रुप में जाने - माने जाते हैं। कुछेक तो सौभाग्यशाली होते है कि छप कर ख्याति पाते है और यदा -कदा चहेतों में सम्मानित हो पूज लिए जाते हैं।
पर इस महादेश की संस्कृति में दुर्जन मरकर सज्जन ही क्यो देवता तक हो जाते है ।तब यह लोग जनमानस में अमरत्व भाव पा जाते हैं ।
एक उक्ति है-" चंद्रगुप्त विक्रमादित्य सम्राट था और कालिदास कवि है ।
बहरहाल साहित्यकार अक्षरों व शब्दों को तराशकर जोड़कर वाक्य संरचना कर निराकार (अमूर्त) भाव को साकार ( मूर्तमान) करता हैं।
कलाकार शब्द प्राय: चित्रकार, मूर्तिकार ,कारीगर ,संगीतकार ,नर्तक ,अभिनेता आदि के लिए रुढ़ हो गये हैं।और कवि,गीतकार ,कथाकार नाटककार ,व्यंग्यकार निबंधकार आदि साहित्यकार मान लिए हैं।
जबकि यह वर्ग भी कलाकार की श्रेणी में ही हैं। तो दोनो कलाकार ही हुये ।
कबीर ,जायसी ,सूर, तुलसी , रैदास ,रसखान केशव घनानंद के दोहे ,सवैये कवित्त में शब्दों को नगीने की तरह जोड़कर कलात्मक रुप में गढ़े गये प्रतीत होते हैं। एक शब्द भी इधर -उधर कर के देखिए लगता है कि किसी अन्य कारीगर से पूर्व बने हार या कंगन में हुए टूट - फूट को पुन: रसवाए या जोड़े गये हैं । इसी तरह मूल रचना में छेड़छाड़ किये गये है यह स्पष्ट: झलकता हैं। अभी भी कुछेक नई रचना में कलात्मक और अपूर्व भाव दिख जाते हैं।
इस तरह देखे तो "साहित्यकार और कलाकार का काम अव्यक्त को व्यक्त करना हैं। यानि निराकार भाव को शब्दों / रेखाओं -रंगों / सुरों- तालों /अभिनयादि द्वारा साकार करना हैं।"
उक्त कथ्य को सुक्तबद्ध करे तो -
कलाकार निराकार को साकार करता हैं।
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