" जीने का मजा"
हर किसी को जीने की स्वतंत्रता और जीने की मजे लेने का नैसर्गिक अधिकार है । इसलिए व्यक्ति समाज और देश सभ्य सुखी व समृद्ध है। जहां ऐसा न हो वह जो हो पर सभ्य कतई नही ।
देश की संप्रभूताओं का असमान वितरण और भौतिक संशाधन का असमान उपभोग भी कही -कही हस्यापद या व्यंग्यार्थ लगते है।शायद इसलिए "अरहर की टट्टी गुजराती ताला" या "रेशमी कालीन में में टाट के पैबंद अशोभनीय होते है जैसे मुहावरे गढ़ लिए गये जो सच जैसा लगने लगे है।
पक्के और छत वाले घरों में एसी लगे ऐसी मनोधारणा को बदलने होन्गे। और शूट- बूट वाले ही कार और प्लेन में यात्राएं करेन्गे ऐसी मिथकों भ्रमों का रुढताओं को ध्वस्त करने होन्गे। शुक्र है उक्त चित्र में अग्यात गृह स्वामी एसी लगाकर यह कार्य आरंभ तो किया यह स्वागतेय है। शासन प्रशासन को चाहिए की जरुरत मंदो के लिए इस भीषण गर्मी से निजात देने पंखे कुलर एसी आसान किस्त या अनुदान से उपलब्ध कराने चाहिए। आखिर सुख -सुविधा किसी की बपौती नही है।और इन्हे अर्जित करना सबके अधिकार छेत्र मे होना चाहिए। अन्यथा यह कैसी बर्बर असभ्य व फूहड़पना रहा है कि कोई किसी के घर से बड़ा घर न बना सके। किसी के आगे छतरी जूते चप्पल न पहन सके।और तो और घोड़ी पालकी से अपनी दुल्हन न ला सके।कितनी वर्जनाओं विभीत्साओं और दारुण दु:खो को झेलते अभाव ग्रस्त जन जीवन रहा है। क्या उनके जीवन में उजाले न आए ... या उनके सूखी होने मात्र से ही देश या यहां की समाज की अधोपतन हो जाए या वज्राधात हो जाय!!
खैर अपेछित परिवर्तन होने से अब जाकर कही कही " लोगन मन सउक से झोपड़ी अउ काटेज मं रहे लगे हे प्रकृति के संग ! भलुक अमीरी- गरीबी के खाई साधन अउ सुविधा के विभेद ल पाटा जाय ।नही त मनखे मनखेच ल खाही अउ सरग असन धरती ल नरक कर देही ।
नव सांस्कृतिक जागरण का आगाज हो चूका है और प्रग्यावान लोग समानता की बाते हर तरफ करने लगे है। वैसे भी बोधिसत्व सदृश्य फैशन ही सही
अमीरी से उबे हुए पश्चिम जगत के लोग शौक से गरीबी को अपनाने लगे है,और जीवन का लुत्फ उठा रहे है। नव धनाड्य भारतीयों को उनसे प्रेरणा लेना चाहिए ।फैशन मे फटे -पुराने जींस चलन में है।और मोटे -सोटे लोग रुखी- सुखी खाने लगे है ।डायटिंग के नाम पर अल्पाहारी हो रहे है। भले कबख्त मर्सडीज व फरारी में घूमे । खैर गरीबी और अभाव में इंटरटेनिक मजा लेने के लिए अनेक एजेंसियां उद्यम कर मौका क्रियेट भी कर रहे है।जैसे कोई निर्जन द्वीप या जंगल के सेफ जोन में रसद पानी ले जाकर लडक़ी एकत्र कर चूल्हे से या पत्थर के तीन टुकडे मे लकडी जला कर खाना बना खा कर महीनो किसी भी कनेक्टीवीटी से कटकर, यहा तक बिना मोबाइल ,फोन, टीवी -रेडियो, समाचार पत्र के बिना प्रकृतिस्थ जीवन जीने लगे है। यह अनोखा पर्यटन पालिसी के रुप में प्रचलन होने लगा है।
बहरहाल कुछ लोग शौक से कैशलेश होकर मगन है।
मै भी सोचता हू कभी- कभी ऐसे ही जनजीवन व लोगों से महीनों कटकर किसी सागर तट या पहाड़ जंगल में डेरा डाल लू ।
पर साहस नही न इतनी लंबी छुट्टी नही .पर हां जब भी गांव जाता हूं और घूमने निकलता हूं तो पाकेट में बिना पैसा डाले तब कुछ बाल मित्रों का उपहास भी सुनकर आनंदित होते है (बड़ कंजूस हस भाई ) और जिद करते तब किसी दूकान वाले से उधारी कर शाम या अगले दिन चूका देते है। यह अलग बात है गांव निकासी और ग्राम प्रवेश के टेक्स पटाने की मीठी धमकी बालमित्रों / रिश्तों
..नीम या बबूल के दातुन घीसते स्नानादि हेतु महानदी जाना और काली मिट्टी लेप कर या रेत से रगड़ कर -नहाकर वापस तीव्र भूख सहते आकर हबर- हबर खाने और तृप्त होने का सुकून पाते है। सच कहे तो कुछ दिन ही सही गांव जुनवानी जाने और" प्रकृतितस्थ जीवन जीने का मजा आ जाता है। "हालांकि गांव में शहर की सारी सुविधाओं फैशन और पारंपरिक मंद नशा जुआ चालबाजी रुपी बिमारी सचर गये है। और पढे लिखे नौकरिहा सहित १०-१५ एकड़ जोतनदार मन एकाद दू एकड़ निकाल तीर तखार के शहर धरे के जोखा लगाय कहते फिरते है कि अब गांव नरक होत हे रहे के मन नई करत हे।
अब वाकिय में हम जैसे खोजने वाले कहां - कैसे सरग ढूंढे? सुख शांति सुकून तलाशे ?कोई तो गुरुमंतर बतावें! सूत्र दें... !
-डा. अनिल भतपहरी
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