Sunday, June 16, 2019

देवी शक्तिपीठों में सतनाम जागरण

"देवी शक्तिपीठो मे गुरुघासीदास का सतनाम जागरण "
       सत्रहवी सदी मे  समकालीन छत्तीसगढ  विभिन्न मत मतान्तरो के मध्य समन्वय और एक दूसरे की अच्छाई -बुराई को ग्राह्य- अग्राह्य के रुप मे भी जाने जाते है।
   धर्म कर्म मे व्याप्त अराजकता और मराठा भोसले व पिडारियो और अंग्रेजो के दमन शोषण और लूटपाट से भी बचने और उनके प्रभावी प्रतिकार के लिए संधर्ष का  ऐतिहासिक कालखंड रहा है।
समाज मे  धार्मिक राजनैतिक व आर्थिक चेतना लगभग मिली‌जुली रुप मे हर पल साथ साथ चलते है।
   और हर समय लोग  धर्मनिष्ठ  प्रभावशाली  और वैभवशाली होने के लिए प्रयत्न करते रहते है।
धर्म निष्ठता  उनकी आस्था व भक्ति भाव से आते है।अराध्य जो भी हो उनके प्रति निष्ठा और समर्पण होते है।तथा मन वचन कर्म से उन्हे मानते है।
   दूसरा प्रभाव के लिए व्यक्ति  राजनीति मे संलग्न होकर इसे प्राप्त करते है यथा राजतंत्र होने से उनके अंग मंडल गौटिया मालगुजार जमीन्दार व राजा जैसे पद को पाने प्रयत्न करते है। अब लोकतंत्र मे मतदान प्रक्रिया से पंच सरपंच विधायक संसद चुन मंत्री आदि बनते है।
    तीसरा आर्थिक चेतना है जो व्यक्ति को   वैभवशाली व ऐश्वर्यवान करते है इसके लिए कृषि व्यापार नौकरी आदि है।
   इन तीनो अवस्थाओ को पाने कठोर परिश्रम करने होते है। और उसी आधारपर या कही संयोगवश इन्हे अर्जित करते है।
     इन तीनो को साधने से व्यक्ति समृद्ध सुखी व कीर्तिवान होते है।
        बाहरहाल समकालीन छत्तीसगढ मे राजतंत्र था और राजा अपनी वंशपरंपरा और वैभव एंव ऐश्वर्य को कायम रखने धर्म तंत्र और आर्थिक तंत्र को अपने हाथो मे थामकर  जनमानस को नियंत्रण मे रखे थे और उनके ऊपर राज करते आ रहे थे। उनके अपने अपने आराध्य देवी देव थे और वहा पर विचित्र कर्मकांड रचे गये थे अनेक पुरोहित व सामंत उन कर्मकांड को करते जनता के ऊपर हुकुमत करते ईश्वरीय विधान या दैवीकृपा के रुप मे प्रचारित करते काव्य महाकाव्य लोक गाथा वृतांत गीत भजन गल्प या दंत  कथाओ को जनमानस मे योजना बद्ध तरीके से प्रचारित करवा कर रखे गये।ताकि जन आस्था उन पर गहरी रहे और वे राज व्यवस्था के ऊपर कोई हस्तछेप न कर पाए कोई परिवर्तन  नवजागरण या आन्दोलन आदि न  छेड पाए ।
           परन्तु जब किसी  क्रिया के अनवरत होते रहने या कर्मकांड के निरंतरता से कही न कही उनमे आशिंक या अमूलचूल परिवर्तन हेतु स्वस्फूर्त कही न कही से कलान्तर मे अभियान नवजागरण या आन्दोलन आदि होकर रहते है।चाहे वह प्रखर व उग्र रुप मे या धीरे धीरे जन मन मे विचार ,मत  या दर्शन के रुप मे हो। छत्तीसगढ मे ऐसे ही जनमानस के हृदय और अन्तर्मन मे अपेछित परिवर्तन हेतु सतनाम संस्कृति का प्रवर्तन समर्थगुरु घासीदास के अभियान से प्रारंभ हुआ। और धीरे धीरे यह युगान्तरकारी महाप्रवर्तन मे परीणित हो गये!
     समकालीन छत्तीसगढ मे चारो दिशाओं मे ४ शक्तिपीठ स्थापित थे और इन स्थलों मे राजा सांमत  पुरोहितों  और समर्थ जनो  द्वारा विशिष्ट प्रकार से उनकी अपनी हैसियत के अनुरुप बलिप्रथा ( छै दत्ता यानि कि युवा पाडा बकरे मुर्गे इत्यादी पशु पछी इत्यादि ) का निम्न जगहो पर  प्रचलन मे  थे।
    पूर्व दिशा मे चन्दरसेनी देवी  ( चंद्रहासिनी चंद्रपुर  )
     पश्चिम बम्बलाई ( बंमलेश्वरी डोंगरगढ)
उत्तर महामई  ( महामाया रतनपुर )
  दछिण मे दंतेसरी ( दंतेश्वरी दंतेवाडा )
    गुरु घासीदास का इन्ही जगहो पर  रावटी लगाकर सतनाम  जागरण हुआ और निरन्तर उपदेशना करते जनमानस मे धर्म कर्म मे सुचिता लाने  हेतु सत्य और  अहिंसा का प्रचार प्रसार किया।  क्योकि जहा बलि होते वहा मांसाहार स्वभाविक है ।मांस है तो मदिरा है और जहा मांस मदिरा है वहा मैथुन और मुद्रा नाच पेखन मेले ठले खेल  तमाशे होन्गे।  इन पंचमकार की विकृत साधना और यौनाचार के विरुद्ध गुरु घासीदास का सतनाम जागरण आरंभ हुआ।उनके सप्त सिद्धान्त मे सत्याचरण के पश्चात  मांस मदिरा और स्त्री सम्मान प्रमुख उपदेश है। इन उपदेशो और निन्तर उनके प्रचार प्रसार से समाज मे  परस्पर सामाजिक सौहार्द्र स्थापित करने का महाअभियान चला। महाप्रसाद भोजली जवारा मितान गंगाजल  जैसे मैत्री भाव स्थापित करने  वाली प्रथाओ का सूत्रपात भी हुआ। फलस्वरुप संपूर्ण छत्तीसगढ मे एक सामजस्यपूर्ण वातावरण का निर्माण हुआ जो शेष भारत से अलग से रेखांकित होते है।शांति की टापू एंव सौख्य की भूमि के नाम से यह छत्तीसगढ विभूषित हुई ।परिश्रम युक्त श्रमण सतनाम संस्कृति के चलते वन भूमि कृषि भूमि मे परिणित होकर  "धान का  कटोरा " के नाम से ख्यातिनाम हुआ।
    हर समाज जो जाति गोत्र फिरका मे बटे नव चुल्हो वाली संस्कृति मे विभ . क्त परस्पर एक दूसरे का छुआ और पक्की भोजन नही करते वहा चुल खनन करवाकर भोजन पकवाकर एक बर्तन मे परोस कर पान प्रसाद बनवाने के लिए 

चुल्हापाट मे पालो नाडियल रखकर सांझा चुल्हा पंगत प्रथा चला। और पंगत उपरान्त संगत एंव संगत के उपरान्त स्वैच्छिक रुप से अंतिम सोपान अंगत रुप मे इच्छूक जातियों के जाति को विलिन करते सत के अराधक अनुयाई को  सतनामी बनाये जाते।दीछा व नाम पान दिए जाते।गुरुघासीदास एंव उनके सुपुत्रों द्वारा यह अभियान १७९५ - १८५० तक लगभग ५५ वर्षों तक निरन्तर चला। १८५० मे सद्गुरु घासीदास के बाद इस अभियान को तीव्र गतिमान करने लाने और बाबा जी के स्वप्न को शीध्र पूर्ण करने राजा बन चुके गुरुबालकदास ने सतनाम जन जागरण को सतनाम आन्दोलन के रुप मे परीणित किया।वे तेजी से इसे जनमानस मे विस्तारित करने लगे।
    परन्तु यथास्थिति वादियो और सुविधाभोगियों ने इस  आन्दोलन को थामने  १८६० गुरु पुत्र राजा गुरु बालकदास के सडयंत्र पूर्वक हत्या कर दिए गये।उनके बाद आन्दोलन थम सा गया सतनाम जागरण  मे ठहराव आ आया।
     और जो सतनामी बन चुके थे उन्हे शुद्धिकरण कर पुनश्च अपनी अपनी जातियों मिलाने भी लग गये।
       पुनश्च बलिप्रथा धार्मिक कर्मकांड आरंभ हुआ। सतनामी  के जगह रामनामी  और सूर्यनामी या सुर्यवंशी जातिगत समुदाय का गठन होने लगे....
   इस तरह गुरुघासी दास और  सतनाम जागरण कुछ विद्वान उसे आन्दोलन भी कहते  का छत्तीसगढ मे व्यापक असर हुआ और उनके अनुयाई लाखो मे पहुच गये।
        आज चैत शुक्ल पछ एकम से नवम तक छत्तीसगढ मे जोत जवारा पछ है इनका शुभारंभ गुरुघासीदास ने डोगरगढ रावटी द्वारा आरंभ किए।वर्तमान मे  दैवी अराधना या शक्तिपूजा मे जो सात्विकता और पावनता दिग्दर्शन होते है वह संत संस्कृति के कारण संभाव्य हुआ ।
जय सतनाम - जय अम्बे
     " सतनाम "
डा. अनिल भतपहरी

No comments:

Post a Comment