नमामि माटी पुत्र बस्तर
बस्तर के काष्ठ शिल्पी
के स्पर्श से बोलती
ये बेजान लकड़ी
सागौन खम्हार
की रेशे से फूटती
काव्य निर्झरणी
पर वे मजदूर
हैं बेचारे...
रोजी रोटी के लिए
खाते फटकार
तरसते सुनने
कोई कहे
भूल से कलाकार
तो भूल सभी संताप
त्वरित लग जाते
तराशने काष्ठाकार
खाकर मड़िया की भात
फूड़हर की जड़ में
उकेर दे गणेश
या बना दे बेलबुटे
चित्र सविशेष
बाजार या वन से
घर लौटती वनबाला की
अल्हड़ सौन्दर्य
तीर कमान युक्त माड़िया
लटकाएं काधें पर कुल्हाड़ियां
रचते दृश्य लगाए घात
समझाते आखेट का मर्म
निकला है अभी वन से बाहर
अपनी समझ से रचता संसार
उनके कला पर सम्मोहित शहर
मालामाल होते सेठ-साहूकार
रत अपने प्रिय कर्म पर
होकर निश्चिंत बेखबर
नमामि माटी पुत्र बस्तर
-डा. अनिल भतपहरी
No comments:
Post a Comment