Friday, May 3, 2019

सतनामी समाज और धर्मांतरण

गुरुघासीदास सांस्कृतिक भवन न्यू राजेन्द्र नगर रायपुर में प्रगतिशील छत्तीसगढ़ सतनामी समाज द्वारा आयोजित प्रदेश स्तरीय बैठक में निर्धारित विषय के अतिरिक्त एक सज्जन द्वारा वर्तमान में सर्वाधिक ज्वलंत मुद्दा समाज में हो रहे धर्मांतरण पर ध्यान आकृष्ट कराए गये और कहे कि आज समाज में चारो ओर बिखराव का दौर चल रहे है ।कोई ईसाई -इस्लाम  कोई बौद्ध सिख   आदि धर्म अंगीकृत कर रहे है।तो कोई अनेक मत संप्रदाय को मानने लगे है जिसमें राधा स्वामी  सतपाल निरंकारी गायत्री या अन्य संगठन में  समय और संधाधन लगा रहे है?
   उक्त विषय पर केन्द्रित हमने उपस्थित जन समूह के मध्य विनम्रता पूर्वक  अपनी  बाते रखे ताकि भोजन अवकाश पर सहज रुप से लोग इन पर परस्पर बात चीत करे और भोजनोपरान्त  या बाद में कोई निष्कर्ष निकले ।
     वाकिय में यह गंभीर समस्या हैं ।सतनाम धर्म के सभी घटक  गुरु संत महंत एंव अनेक संस्थाओं के पदाधिकारियों को सतनामियों की अस्तित्व रक्षा हेतु सार्थक पहल करने की आवश्यकता हैं। अभी तो छिटपुट यह धर्मांतरण  जारी हैं और इसे करने वाले अधिकतर हमारे साक्षर  व  सक्षम लोग है । जो शहरों में नियमित रोजी रोटी पाकर  वर्तमान में  उनकी परिस्थितियां ग्रामीण समुदाय से  बेहतर  हो चले है । अत: उनके अनुशरण  करते जरुरत मंद लग शैन: शैन: धर्मांतरित हो  जाएन्गे और ऐसा समय आएगा "अब  पछताए क्या जब  चीडिया चुग ग ई खेत " की स्थिति निर्मित हो जाएगें !वैसे भी बड़े व अन्तर्राष्ट्रीय धर्मों का यह एजेण्डा ही हैं कि संसार के  मानव समुदाय को अपने -अपने  पक्ष में रखे या अनुयाई बना ले।
       बहरहाल सबसे बड़ा सवाल हैं कि क्या सतनामियों के अपने धर्म है भी कि यह धर्मविहिन समाज हैं? क्योकि हम सरकारी दस्तावेज में हिन्दू तो लिखते हैं पर क्या हिन्दू जन हमें अपने आयोजनों यथा भागवत, रामायण उत्सव मेले व  धार्मिक कार्यक्रम में  आमंत्रण सहित भागीदारी बनाते  हैं? क्या हमें पांच पौनियों की सेवाएं मिलती हैं? जीते जी संग साथ तो नहीं मृत्युपरान्त भी शमसान धाट अलग हैं। इस तरह आज भी सामाजिक रुप से भेदभाव जारी हैं। अनेक कानून बने होने के बावजूद यह आबाध जारी हैं। भले व्यक्तिगत किसी का व्यवहार अच्छा हो पर आज भी सार्वजनिक व सामूहिक रुप से दूरियाँ कायम हैं। किसी भी दृष्टिकोण से सतनामियों को हिन्दू धोषित नहीं की जा सकती ।रीति -नीति संस्कृति उनसे बिल्कुल अलग थलग हैं। हां राजनैतिक दृष्टिकोण से संबंध बनाए जाने की कयावदे केवल मृग-मरीचिका सदृश्य हैं।
     ऐसे में जबरियां हिन्दू बने रहने का क्या औचित्य हैं? वाकिय में जिन्हें इन प्रश्नों का उचित समाधनान नहीं मिलते वे लोग बड़ी तेजी जहां आदर और सुविधाएं मिल रहे हैं वहाँ जा रहे हैं। संविधान द्वारा सभी देशवासियों को धार्मिक स्वतंत्रता का  मौलिक अधिकार प्राप्त हैं। इनपर कोई अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करते और न करना चाहिए।
         एक तरफ यह भी देखने मिलते हैं कि बहुत साधन सक्षम लोग जो बहुसंख्यकों के साथ हैं। उनके अनुशरण करते वही करने लगे हैं। जहां से हमारे  गुरुओं ने मुक्त करवाकर यहां तक लाए ।
   सतनाम के जितने भी अनुकरणीय सिद्धान्त हैं। वह तोता रटंत जैसे होकर रह गये हैं। हम उन्हे  कंठस्थ कर तो रहे हैं। पर उसे मन बुद्धि हृदय में धारण नहीं कर पा रहे हैं। और सभी प्राचारक उपदेशक बने बैठे आदेश निर्देश देने में लगे हुए हैं! या अपनी ढ़फली अपनी राग अलापे जा रहे हैं। अपने ही लोग ले देकर  स्थापित मान्यताओं व परंपराओं का अजीबोगरीब ढंग से या कही से प्रयोजित रुप से विरोध   किए जा रहे हैं। ताकि जो थोड़ा बहुत संगठित हैं। वह भी बिखर जाय। आरम्भ से सडयंत्र पूर्वक बिखराव हुआ हैं उसे और भी हवाएँ दिए जाने की कुत्सित प्रयास जारी है।
  बहरहाल क्या हमने अपनी संस्कृति को परिमार्जित करने और उन्हें निरतंर नव पीढ़ी को धारण करने आयोजन करते हैं?  या सतनाम को धर्म के रुप में परिष्कृत कर उनके व्यापक प्रचार प्रसार के कार्य निष्पादन कर रहे हैं? यदि जनमानस को आध्यात्मिक व धार्मिक रुप से संतुष्ट नहीं कर पाएन्गे तो वह उस आवश्यकता को पूर्ति करने अन्यत्र पलायन करेन्गे ही ।
     इसे रोकने  के लिए प्रतिबंध /दंड आदि करेन्गे तो यह गैर संवैधानिक कार्य होगा ।फलस्वरुप हम अपनी  आयोजनों को  बेहतर  और निरन्तर करने होन्गे! ताकि लोगों को पता चले कि सतनामियों के भी अपने विशिष्ट आयोजन व्रत उत्सव हैं।
      हमारी महिलाएँ जो अपेक्षाकृत पुरुषों से अधिक धार्मिक प्रकृति के होती है  के लिए कोई ऐसा व्रत उत्सव भी हो ताकि वह उसे मनाकर अपनी आध्यात्मिक व धार्मिक प्रवृत्तियाँ को पूर्ण कर सके ।ऐसा नहीं होने के कारण वे  अधिकतर उन्हें मानने विवश है जिससे हमारी अपनी कोई पहचान कायम नहीं होते और न ही अपेक्षित मान सम्मान ।बल्कि अवहेलना के शिकार होते है ,यह अजीब विडंबना हैं कि जो समुदाय हमसे  ईर्ष्या द्वेष भाव व तिरस्कार करते आ रहे उन्ही के अराध्यों और उनके ही व्रत उत्सव के लिए सतनामी समाज  अपना सर्वस्व न्योछावर करते आ रहे हैं।
     अब समय हैं कि अपनी आस्था व श्रद्धा के प्रतिमानों को निष्ठा पूर्वक ही नहीं उत्साह और शानो शौकत से माने ।
      सतनाम धर्म संस्कृति से संदर्भित वर्ष भर के लिए व्रत त्योहार मेले इसलिए प्रचलन में लाए गये हैं। समय- समय पर उसे पत्र -पत्रिकाओं में प्रचारित- प्रसारित भी किए जा रहे हैं। तथा समाज में इनके लिए सतयुग संसार व गुरुघासीदास कलेंडर भी प्रचलन में है  जिसमें इन सबका उल्लेख है। उसे घर- घर रखे और विधि विधान पूर्वक आयोजन करे।  तब कही जाकर हमारे समाज एंव पंथ  से लोग अन्यत्र पलायन नहीं करेन्गे अपितु अन्य जगहों से आकर  मिलेन्गे आत्मसात होन्गे। ‌
   कृपया कम लिखे को  अधिक समझे  और इसके ऊपर गहनतापूर्वक विचार करते अपनो के बीच विचरार्थ व जानकारी के निमित्त  शेयर करें । प्रतिक्रिया भी दे क्योकि यह मुद्दा वाकिय में  गंभीरता पूर्वक विचारणीय  हैं। हमें अपनी अस्मिता और पहचान कायम रखनी हैं जिसे सद्गुरु घासीदास ने कठोर तपस्या कर मानव कल्याण के निमित्त संसार को प्रदान किया हैं। जो जगत में सतनाम‌ पंथ के रुप में प्रवर्तित  एंव सतनाम धर्म के रुप में प्रतिष्ठित होने वाला  हैं।

        * संसार सतनाम मय हो *

          ।। जय सतनाम ।।
      -डा. अनिल भतपहरी

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