Saturday, May 4, 2019

भारतीय समाज की वर्तमान अवस्था

भारत जैसे कृषि प्रधान देश में औद्योगिकी करण से आए आर्थिक क्रांति और उनसे संयुक्त परिवार में आते बिखराव तथा कामकाज में लैंगिक असमानताएं की टूटन से  विकसित स्वच्छंद व  तेज रफ्तार जिन्दगी । नई पीढ़ी  व कामकाजी लोगो के लिए  
आने जाने के लिए तेज रफ्तार व्हीकल हो चौक चराहे पर  एटीम लगा हो  हाथ में मोबाइल और दुनिया से कनेक्टीविटी हो , इ मेल हवाट्साप और फेशबुक जैसी त्वरित सुविधाएं हो ।तब धैर्य किस चिड़िया का नाम हैं। बटन दबाव और बल्फ जले तो ठीक अन्यथा रिफ्लेस करो नया खरीदो।
      यह जामाना आ रहा है।
   कपडे  की तरह  लाइफ पाटनर बदलने का दौर हैं। जो ऐसा नहीं करेगा वह अनटरियर होन्गे ।उन्हे मानसिक रुप से पिछड़े और पुरातन पंथी समझे जाएन्गे।
    आजकल पानी नहीं एक्वा और बीयर पी रहे हैं।  विदेशियों से नव धनाड्यों  तक फिर वहां से मध्यम. वर्गो के  लाइफ स्टाइल में धीरे धीरे यह सब होने लगा है।
    यह सच है या गलत इनके पचड़े में न पड़ो बल्कि अपनी जीवन को जो एक बार मिला है। उसे बेहतर  जीयों ।यह नये अंदाज का दर्शन हैं।
       बड़े- बुजुर्ग दरवाजे में लटके ताले की तरह हो गये हैं। उनके बोल -बरजना सुहावन नहीं बल्कि नजर अंदाजन हो गये।उन्हें दवाई की पन्नी की जगह डाट और अधिक हुआ तो ओल्ड हाउस भेजने की धौंक से बेचारों की  कलेजे मुँह में आ रहे हैं। फलस्वरूप जो है सो चलने दे की स्थिति निर्मित होने लगे हैं। शाम की भोजन भी  अब किचन में भी यदा -कदा बनते हैं। रोज बाई बर्तन माजेंगी तो वे टिक नहीं पाएगी सो हप्ता में ३-४ दिन रेस्टोंरेंट से खाना और बुजुर्गो के लिए पैकिंग में आने लगे है या वे ही चावल दाल बनाकर आचार से खा लेते है।फिर स्वीजी , जमाटो एस के एफ जैसे घर पहुँच एंजेसी हाथ मुंह -धोकर डायनिंग टेबल में बैठने तक पहुँचा देन्गे। फलस्वरूप होटल रेस्त्रां पान ठेले टाइप गली कुंचे पर ऊग आए हैं। और इसी तरह ब्युटी पार्लर स्पा सेंटर और जिमों की बाहर हैं।
    भारतीय समाज के नगरीय मध्यमवर्गीय परिवार  में व्याप्त  ऐसी परिस्थितियों के ऊपर विमर्श करना तथा इन पर  प्रेरणीय सार्थक लेखन की आज सर्वाधिक प्रासंगिकता हैं। परन्तु इन सबसे बेखबर लोग सत्ता पद प्रभाव को अर्जित कर इसी कल्पित सुख की संधान में लगे हुए हैं। हमारे विचारक और मार्गदर्शक भी इस महारास में निमग्न दिखाई पड़ते हैं।
    किशोर अवस्था में हमने महानगरीय जीवन को देख  एक कविता लिखे थे -

यह नगर जो आधुनिकता से चमक दमक रहा है ईंट- कांक्रीट का कट कट जंगल होन्गे।
इक्कीसवीं सदी में शुटेट-बुटेट हम फिर आदिम  भिल्ल होन्गे ।
 
जो अवचेतन मन  में वह भाव रहे आज अपनी शहर में वह चीजें होते देख अपनी सच्ची  भविष्यवाणी के लिए हम मित्रों के मध्य  नास्त्रेदसम कहलाने लगे हैं।
    बहरहाल इन पर गहिर गुनान विद्वानों में होना चाहिए। हम अब भी धर्म जाति संप्रदाय में उलझे और अनेक तरह के विचार धाराओं में बहते अपने इर्दगिर्द मानवीय प्रवृत्तियों में  होते   बदलाव को नजर अंदाज किए हुए एक दूसरे को कोसने में, बड़े दिखने व होने की ऐब में हैं।स्वयं का  घर - परिवार बिखर रहे हैं पर  दूसरे की आंगन और न दिखने वाले रहस्यमय कमरें को झांक रहे हैं। चाहे वह कालोनियों के घर हो या मुहल्ले की या कबुतर खाने फैल्ट्स ही क्यों न हो?

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