सावधान पथिक !
जब तक थको नही
चलते रहों
अब चलने मे भी
थकना क्या ?
दौड़ तो नहीं रहे हो
सदियों से पथिक हो
पहुंचे हुए पहुना नही
कि कोई तुम्हे परघाएं
बिठाकर तखत में
खिलाए छप्पन भोग
दे मान- सम्मान रोज
सौप दे राज -पाट
दे अपनी ठाट-बाट
अरे भाई!
हमे कोई चाह नही
बस राह कटीली न हो
और कोस दो कोस में
छांह मिल जाय
पानी की परवाह नही
वह भरा हुआ हैं
हममें लबालब
इसलिए तो चल रहे हैं
और लड़ रहे हैं
ताकि कोई पहुंचा हुआ
रच न सके सडयंत्र
छीन न ले अभिनव मंत्र
बमुश्किल सिरजे हैं पंथ
चलने लगा हैं तन-मन
तब किसी के कहने
चंद सुविधा पाने
भभकाने से
जो पगडंडी है
उसे भी वे न उजाड़ दे
जो कुछ बना है
उसे न बिगाड़ दे
इसलिए चलते रहो
हरदम हरतरफ
देखते है दम
कि वे कितनी
पगडंडियां उजाड़ते हैं
कितने को बिगाड़ पाते हैं
यदि वे ठान ही लिया बिगाड़ना
तो याद रखना
तुम कभी न जुड़ना
तुम्हारे उनसे जुड़ने
तुमसे उनके जुड़ने
सच ! इसी से
टंगली की बेंठ सें
जंगल उजाड़ते हैं
और उजड़ते ही
पगडंडी विलिन हो जाते हैं ...
तब होगा कैसा निर्वाह तेरा
पगडंडी रहा तो
सबकूछ रहेगा
राजपथ के लोभ में
जो है उस से भी
बेदखल हो जाओगे
सच में !
हाथ मलते रह जाओगे!
सावधान पथिक
छले जाओगे!!
डा. अनिल भतपहरी,रायपुर
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