८ मार्च महिला दिवस पर...हमारी वर्षो पूर्व लिखी कविता द्रष्टव्य है -
"लड़की"
महुंए की फूल है
न जाने कब टपक पड़े
खनाबदोश है
कब कहां डेरा पड़े
सच कहें तो
शीशी है इत्र की
ढीली हुई डांट
कि गंधाती उड़ पड़े
दहलीज़ फांदते ही
ऊग आतें हैं
असंख्य पर
उड़ना चाहती हैं
वह भी
स्वच्छंद आकाश पर
पर ,पर कतर दी जाती हैं
कहकर कि तुम
घर की इज्जत हो
तुम्हारे बाहर जाने से
किसी से युं ही
हस बोल लेने से
या किसी को शक्ल
दिखा / दिख जाने मात्र से
वह चली जाएगी
जिसे पुरखों ने
वर्षों प्रखर पराक्रम से
अर्जित किया हैं
भले पुरुष
और उनके परिवार
उसे भुनाते समृद्ध हो
किसी के इज्जयत
से खेलते रहे
मान मर्दन कर
अट्टहास करते रहें
पौरुष प्रदर्शन कर
उपहास करते रहे
हास परिहास करते रहे
ऊपर से यह सुक्ति
गजब की यह युक्ति
बिन राग रति रंग के
भव में बुड़े
और संग इनके
भव में तरें
पाते पुरुष मुक्ति
नरक द्वार से
गूंजते सुदूर कही
यत्र नार्यस्तु पुज्यंते
रमन्ते देवता !
तब एक मासुम सा सवाल
कि देवी कैसे और
कहां रमती है?
तलाशती फिरती
सकल ब्रम्हाण्ड
जारी है यात्रा
दहलीज भीतर
मुगालते में बाहर
खाट में बैठे
लटकते ताले सदृश्य
कठोर पुरुष
वृद्धा कोई जो
ओढ़े हुए पौरुष
बेचारी लड़की
औरत बेचारी
बेचारी नारी ..!!!!
- डा. अनिल भतपहरी
चित्र - धर्मपत्नी श्रीमती अनीता भतपहरी (उसे ही समर्पित यह कविता । )
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