"आत्मुग्ध "
सामाजिक सम्मेलनो बैठको संगोष्ठियों मे कुछ पढे़-लिखे लोग अपनी संधर्ष की दुहाई देते कहते है कि हमने विपरीत परिस्थितियों मे और वह भी संवैधानिक प्रावधान आदि के चलते यहाँ तक आए ....अन्यथा हम कितने विवश गुलाम और मुलभूत जीवन निर्वाह के चीजों से वंचित थे।
पर अनेक लोग भी ऐसे है जो अपनी पूर्वजों के गुणगान करते थकते नही और पूर्व वैभव की दास्तान सुनाते अघाते नही।
मतलब समाज मे मंडल गौटिया मालगुजार जमीन्दार थे तो दूसरी तरफ सौंजिया खेतीहर मजदूर भी।
दोनो स्थितिया प्रेरक चीजे है वर्तमान और भविष्य को संवारने और गढ़ने। वैभव के गुणगान करते उसे पुन: अर्जित करे या मुफलिसी से बचने कठोर परिश्रम कर आगे बढे।
बाहरहाल आत्ममुग्ध भी न रहे न आत्महीनता पाले ।
परन्तु एक बात सत्य है कि आत्ममुग्धता आत्महीनता से सदैव श्रेष्ठतम होते है। लोग उपलब्धियां अर्जित कर खुश ही नही आत्ममुग्ध भी होते है।यह एक सकरात्मक मनोविकार है।
No comments:
Post a Comment