।।भोजन भंडारा ही नही ग्यान भंडारा भी हो।।
भोजन के बिन भजन नही और भजन के बिन मनन नही । अर्थात् मनन करने के पूर्व भोजन अतिआवश्यक है।संसार में मानव की यात्रा भोजन के नाम पर ही हुआ है।समस्त प्राणी जगत भोजन के लिए ही सक्रिय है।तत्पर व क्रियाशील है।यदि इनकी आवश्यकता न हो तो यह दुनिया जैसा है संभवत: ऐसा न होता।
सभी अपनी भूख मिटाने में लगे है। यह भूख आमतौर पर दो तरह के है ।
पहला पेट की भूख
दूसरा मन मतिष्क की भूख
पेट की भूख - खाद्य समाग्री से मिटाई जाती है ।जबकि मन और मतिष्क की भूख ललित कलाओं और प्रेरक व रचनात्मक विचारों से मिटाई जा सकती है।
जिस व्यक्ति या समाज के पेट का भूख मिट गया हो या उनकी अपेछाकृत कम चिन्ता हो वह समाज या व्यक्ति मन मतिष्क का भूख मिटाने में संलग्न होकर सभ्यता के सोपान तय करते है। उनकी मन मतिष्क से ऊपजे चीजे ही उसे उन्नत व सुसभ्य करते है।
गुरुघासीदास जैसे समर्थ गुरु ने अपने अनुयाईयों की इसी मन मस्तिष्क की भूख मिटाने हेतु बिन आगी पानी से सतनाम दर्शन और विचार रुपी स्वादिष्ट भोजन पका कर अप्रतिम कार्य किया ।उनकी प्रशस्ति में यह पंथी गीत विगत २०० वर्षों से दिग् दिगंत में परिव्याप्त है-
तय तो रांधि डारे भोजन हो आगी के बिना ।
आगि के बिना हो साहेब पानी के बिना ....
चित कर चुल्हा हिय कर हड़िया
भाव के भात साहेब दया कर दाल
प्रेम भाव से परोसत हे हमर गुरु रोइय्या हो ... देखो अजब रसोइय्या हो गुरु ....
आजकल हमने मन मतिष्क की भूख मिटाने गुरु उपदेश और उनके सद विचारो और सतनाम दर्शन रुपी अप्रतिम सामाग्री के जगह पापी पेट के भूख मिटाने दाल चांवल सब्जी जुगाड़ने और उन्हे स्वादिष्ट कर खाने पीने में उन्मत्त होते जा रहे है।
भोजन की मजा में लगा समाज भजन चिन्तन मनन से कोसो दूर छिटकते जा रहे है।और जिव्हा के स्वाद के लिए रात दिन लगा हुआ है। यह इन्द्रिय आग्रह छणिक सुख है। इन्द्रिय निग्रह सदा के लिए सुख नही ।
सतनाम धर्म सुख शांति और आत्मोत्सर्ग का महा धर्म और उनके प्रदाता सुधढ़ पंथ है न कि छद्म छणिक सुख के लिए यह गढ़ा गया है। हां गुरु उपदेश जरुर है कि "तय बारा महिना के खर्चा जोड़ ले तब भजन कर न इये झन कर ।"
अब सवाल यह है कि क्या हम बारहों माह इसी में उलझे नही रहते ? ३६५ दिन खाने पीने में नही लगे रहते ? तब विचार चिन्तन मनन और हक अधिकार
।।भोजन भंडारा ही नही ग्यान भंडारा भी हो।।
भोजन के बिन भजन नही और भजन के बिन मनन नही । अर्थात् मनन करने के पूर्व भोजन अतिआवश्यक है।संसार में मानव की यात्रा भोजन के नाम पर ही हुआ है।समस्त प्राणी जगत भोजन के लिए ही सक्रिय है।तत्पर व क्रियाशील है।यदि इनकी आवश्यकता न हो तो यह दुनिया जैसा है संभवत: ऐसा न होता।
सभी अपनी भूख मिटाने में लगे है। यह भूख आमतौर पर दो तरह के है ।
पहला पेट की भूख
दूसरा मन मतिष्क की भूख
पेट की भूख - खाद्य समाग्री से मिटाई जाती है ।जबकि मन और मतिष्क की भूख ललित कलाओं और प्रेरक व रचनात्मक विचारों से मिटाई जा सकती है।
जिस व्यक्ति या समाज के पेट का भूख मिट गया हो या उनकी अपेछाकृत कम चिन्ता हो वह समाज या व्यक्ति मन मतिष्क का भूख मिटाने में संलग्न होकर सभ्यता के सोपान तय करते है। उनकी मन मतिष्क से ऊपजे चीजे ही उसे उन्नत व सुसभ्य करते है।
गुरुघासीदास जैसे समर्थ गुरु ने अपने अनुयाईयों की इसी मन मस्तिष्क की भूख मिटाने हेतु बिन आगी पानी से सतनाम दर्शन और विचार रुपी स्वादिष्ट भोजन पका कर अप्रतिम कार्य किया ।उनकी प्रशस्ति में यह पंथी गीत विगत २०० वर्षों से दिग् दिगंत में परिव्याप्त है-
तय तो रांधि डारे भोजन हो आगी के बिना ।
आगि के बिना हो साहेब पानी के बिना ....
चित कर चुल्हा हिय कर हड़िया
भाव के भात साहेब दया कर दाल
प्रेम भाव से परोसत हे हमर गुरु रोइय्या हो ... देखो अजब रसोइय्या हो गुरु ....
आजकल हमने मन मतिष्क की भूख मिटाने गुरु उपदेश और उनके सद विचारो और सतनाम दर्शन रुपी अप्रतिम सामाग्री के जगह पापी पेट के भूख मिटाने दाल चांवल सब्जी जुगाड़ने और उन्हे स्वादिष्ट कर खाने पीने में उन्मत्त होते जा रहे है।
भोजन की मजा में लगा समाज भजन चिन्तन मनन से कोसो दूर छिटकते जा रहे है।और जिव्हा के स्वाद के लिए रात दिन लगा हुआ है। यह इन्द्रिय आग्रह छणिक सुख है। इन्द्रिय निग्रह सदा के लिए सुख नही ।
सतनाम धर्म सुख शांति और आत्मोत्सर्ग का महा धर्म और उनके प्रदाता सुधढ़ पंथ है न कि छद्म छणिक सुख के लिए यह गढ़ा गया है। हां गुरु उपदेश जरुर है कि "तय बारा महिना के खर्चा जोड़ ले तब भजन कर न इये झन कर ।"
अब सवाल यह है कि क्या हम बारहों माह इसी में उलझे नही रहते ? ३६५ दिन खाने पीने में नही लगे रहते ? तब विचार चिन्तन मनन और हक अधिकार के लिए कब लामबंद होन्गे? गिरौदपुरी मेला में कोई सतनामी नि:शुल्क खाने और महज धुमने फिरने नही जाता। अपितु गुरुबाबा के व्यक्तित्व कृत्तित्व व उनके संग साथ बिताए समय स्थल पर जाकर उनके सदृश्य होने और प्रेरणा लेने जाते है। वहां उनकी विचारों को ग्यान और दर्शन को जानने समझने और प्रकृति के सानिध्य मे रहकर कुछ अलौकिक भाव आत्मबल जैसे चीजे अर्जित करने जाते है।तो प्रबंधको को चाहिए कि ऐसी चीजों को उपलब्ध करावे।
न कि लाखो चंदा लेकर एकत्र कर केवल दाल भात खिला कर अपनी कर्तव्य का इतिश्री कर ले?
श्रद्घालुओं को भी चाहिए कि वे भी अपनी दोनो तरह की भूख का शमन कर अपना नैतिक कल्याण कर सौभाग्यवान बने।
आमतौर पर देखा जाय तो तपोभूमि गिरौदपुरी सतधाम मेला परिसर सहित आसपास के कस्बो चौक -चौराहों में अनेक सामाजिक संस्था व्यक्ति खरोरा पलारी संडी वटगन बलौदाबाजार लवन कसडोल सहित चारो तरफ के पहुंच मार्गो मे पड़ने वाले अनेक जगहों पर विगत अनेक वर्षों से संचालित है।यह स्वस्फूर्त है जो सतनामियों की मूल प्रवृत्ति कि भूखे को भोजन प्यासे को पानी देने को अभिव्यक्त करते है। विगत कुछ वर्षों से छ.ग. शासन द्वारा मेले में नि:शुल्क दाल -भात सेंटर संचालित हो रहे है। बावजूद लाखों परिवार आदतन स्वपाकी होने के कारण जोंक नदी और वनप्रांतर मे पारिवारिक सहभोज एंव सात्विक आहार- विहार करते तीन दिनों तक साधनात्मक जीवन व्यतित करते आ रहें हैं।
परन्तु यह विडंबना है कि विशाल काय समुदाय के मानसिक छुधा के शमन और उन्हें सही मार्गदर्शन हेतु कोई व्यवस्थित आयोजन शिविर आदि की कोई प्रभावी आयोजन व उनके लिए कोई व्यवस्था नही हो पाते।और न ही छत्तीसगढ के संस्कृति विभाग द्वारा सतनाम सञस्कृति के संवर्धन और प्रदर्शन आदि करने के लिए कोई सार्थक पहल नही करते न ऐसा सोच या विचार कही हो पाते।
दाल -भात सेंटर और अनगिनत नि: शुल्क भोग भंडारा आदि देख ऐसा लगता है कि समाज का धन केवल जबरजस्ती लोगो के भूख मिटाने में अपव्यय हो रहे है।जबकि स्वाभिमानी समाज व श्रद्धालू दर्शनार्थी ऐसा कोई अपेछा भी नही रखते कि कोई हमे नि: शुल्क भोजन करावे!
ऐसे सेवादारों समितियों और संस्थाओं से अपील है कि आगामी वर्ष या इसी वर्ष से ही मेला परिसर मे होने वाले विभिन्न आयोजन में विविधता लाए ।कही सत्संग प्रवचन हो कही पर सतनाम सहज योग साधना शिविर लगे।समाधिस्थ संतों के इर्द गिर्द आध्यात्मिक आयोजन करे। अनेक साहित्यिक संस्थाए काव्यपाठ कथावाचन व संगीतमय प्रवचन करे । प्रगतिशील छत्तीसगढ सतनामी समाज विगत कुछ वर्षों ऐसा आयोजन करने की स्थिति में काफी संधर्ष के बाद आज सछम हो पाई है।और हमारे सैकड़ो लेखक कवि कलाकारों को उनकी अपनी प्रतिभा प्रदर्शन हेतु मंच उपलब्ध करा सके है। इसी तरह कुछ वर्षो से चिकित्सीय शिविर हमारे चिकित्सक वैद्य गण करने लगे है ।
सामान्य ग्यान प्रतियोगी परीछा से संदर्भित पुस्तक विक्रय केन्द्र और आडियो विडियो कैसेट सीडी पेन ड्राइव चिप्स आदि का स्टाल लगाए ।और उन्हे विशेष छूट प्रदान कर खरीदने प्रेरित करे। या कुछ सतनाम साहित्य आरती पंथी संग्रह या अमृतवाणी उपदेश युक्त कलेण्डर आदि नि: शुल्क उपलब्ध करावे ताकि सतनाम धर्म संस्कृति का उत्तरोतर संवर्धन और विकास हो।इस तरह के रचनात्मक कार्य करने वाली समिति को मुक्त हस्त से अनुदान व सहयोग दे ।न कि दाल भात सब्जियां खिला कर या समिति के सदस्य और घर -परिवार खा पीकर एकत्र किए संसाधन को नष्ट करें।
सब तरह के आयोजन युक्तियुक्त हो और उनका संचालन व्यवस्थित हो ताकि सब तरह से सबकों लाभ मिल सकें।
"भोजन भट्ट के जगह ग्यान भट्ट होना बेहद जरुरी हैं।"
डा. अनिल भट्ट
।। सतनाम ।।
डा अनिल भतपहरी
|
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आजकल हमने मन मतिष्क की भूख मिटाने गुरु उपदेश और उनके सद विचारो और सतनाम दर्शन रुपी अप्रतिम सामाग्री के जगह पापी पेट के भूख मिटाने दाल चांवल सब्जी जुगाड़ने और उन्हे स्वादिष्ट कर खाने पीने में उन्मत्त होते जा रहे है। भोजन की मजा में लगा समाज भजन चिन्तन मनन से कोसो दूर छिटकते जा रहे है।और जिव्हा के स्वाद के लिए रात दिन लगा हुआ है। यह इन्द्रिय आग्रह छणिक सुख है। इन्द्रिय निग्रह सदा के लिए सुख नही । सतनाम धर्म सुख शांति और आत्मोत्सर्ग का महा धर्म और उनके प्रदाता सुधढ़ पंथ है न कि छद्म छणिक सुख के लिए यह गढ़ा गया है। हां गुरु उपदेश जरुर है कि "तय बारा महिना के खर्चा जोड़ ले तब भजन कर न इये झन कर ।" अब सवाल यह है कि क्या हम बारहों माह इसी में उलझे नही रहते ? ३६५ दिन खाने पीने में नही लगे रहते ? तब विचार चिन्तन मनन और हक अधिकार के लिए कब लामबंद होन्गे? गिरौदपुरी मेला में कोई सतनामी नि:शुल्क खाने और महज धुमने फिरने नही जाता। अपितु गुरुबाबा के व्यक्तित्व कृत्तित्व व उनके संग साथ बिताए समय स्थल पर जाकर उनके सदृश्य होने और प्रेरणा लेने जाते है। वहां उनकी विचारों को ग्यान और दर्शन को जानने समझने और प्रकृति के सानिध्य मे रहकर कुछ अलौकिक भाव आत्मबल जैसे चीजे अर्जित करने जाते है।तो प्रबंधको को चाहिए कि ऐसी चीजों को उपलब्ध करावे। न कि लाखो चंदा लेकर एकत्र कर केवल दाल भात खिला कर अपनी कर्तव्य का इतिश्री कर ले? श्रद्घालुओं को भी चाहिए कि वे भी अपनी दोनो तरह की भूख का शमन कर अपना नैतिक कल्याण कर सौभाग्यवान बने। आमतौर पर देखा जाय तो तपोभूमि गिरौदपुरी सतधाम मेला परिसर सहित आसपास के कस्बो चौक -चौराहों में अनेक सामाजिक संस्था व्यक्ति खरोरा पलारी संडी वटगन बलौदाबाजार लवन कसडोल सहित चारो तरफ के पहुंच मार्गो मे पड़ने वाले अनेक जगहों पर विगत अनेक वर्षों से संचालित है।यह स्वस्फूर्त है जो सतनामियों की मूल प्रवृत्ति कि भूखे को भोजन प्यासे को पानी देने को अभिव्यक्त करते है। विगत कुछ वर्षों से छ.ग. शासन द्वारा मेले में नि:शुल्क दाल -भात सेंटर संचालित हो रहे है। बावजूद लाखों परिवार आदतन स्वपाकी होने के कारण जोंक नदी और वनप्रांतर मे पारिवारिक सहभोज एंव सात्विक आहार- विहार करते तीन दिनों तक साधनात्मक जीवन व्यतित करते आ रहें हैं। परन्तु यह विडंबना है कि विशाल काय समुदाय के मानसिक छुधा के शमन और उन्हें सही मार्गदर्शन हेतु कोई व्यवस्थित आयोजन शिविर आदि की कोई प्रभावी आयोजन व उनके लिए कोई व्यवस्था नही हो पाते।और न ही छत्तीसगढ के संस्कृति विभाग द्वारा सतनाम सञस्कृति के संवर्धन और प्रदर्शन आदि करने के लिए कोई सार्थक पहल नही करते न ऐसा सोच या विचार कही हो पाते। दाल -भात सेंटर और अनगिनत नि: शुल्क भोग भंडारा आदि देख ऐसा लगता है कि समाज का धन केवल जबरजस्ती लोगो के भूख मिटाने में अपव्यय हो रहे है।जबकि स्वाभिमानी समाज व श्रद्धालू दर्शनार्थी ऐसा कोई अपेछा भी नही रखते कि कोई हमे नि: शुल्क भोजन करावे! ऐसे सेवादारों समितियों और संस्थाओं से अपील है कि आगामी वर्ष या इसी वर्ष से ही मेला परिसर मे होने वाले विभिन्न आयोजन में विविधता लाए ।कही सत्संग प्रवचन हो कही पर सतनाम सहज योग साधना शिविर लगे।समाधिस्थ संतों के इर्द गिर्द आध्यात्मिक आयोजन करे। अनेक साहित्यिक संस्थाए काव्यपाठ कथावाचन व संगीतमय प्रवचन करे । प्रगतिशील छत्तीसगढ सतनामी समाज विगत कुछ वर्षों ऐसा आयोजन करने की स्थिति में काफी संधर्ष के बाद आज सछम हो पाई है।और हमारे सैकड़ो लेखक कवि कलाकारों को उनकी अपनी प्रतिभा प्रदर्शन हेतु मंच उपलब्ध करा सके है। इसी तरह कुछ वर्षो से चिकित्सीय शिविर हमारे चिकित्सक वैद्य गण करने लगे है । सामान्य ग्यान प्रतियोगी परीछा से संदर्भित पुस्तक विक्रय केन्द्र और आडियो विडियो कैसेट सीडी पेन ड्राइव चिप्स आदि का स्टाल लगाए ।और उन्हे विशेष छूट प्रदान कर खरीदने प्रेरित करे। या कुछ सतनाम साहित्य आरती पंथी संग्रह या अमृतवाणी उपदेश युक्त कलेण्डर आदि नि: शुल्क उपलब्ध करावे ताकि सतनाम धर्म संस्कृति का उत्तरोतर संवर्धन और विकास हो।इस तरह के रचनात्मक कार्य करने वाली समिति को मुक्त हस्त से अनुदान व सहयोग दे ।न कि दाल भात सब्जियां खिला कर या समिति के सदस्य और घर -परिवार खा पीकर एकत्र किए संसाधन को नष्ट करें। सब तरह के आयोजन युक्तियुक्त हो और उनका संचालन व्यवस्थित हो ताकि सब तरह से सबकों लाभ मिल सकें।
"भोजन भट्ट के जगह ग्यान भट्ट होना बेहद जरुरी हैं।" डा. अनिल भट्ट
।। सतनाम ।।
डा अनिल भतपहरी | The response was:
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के लिए कब लामबंद होन्गे? गिरौदपुरी मेला में कोई सतनामी नि:शुल्क खाने और महज धुमने फिरने नही जाता। अपितु गुरुबाबा के व्यक्तित्व कृत्तित्व व उनके संग साथ बिताए समय स्थल पर जाकर उनके सदृश्य होने और प्रेरणा लेने जाते है। वहां उनकी विचारों को ग्यान और दर्शन को जानने समझने और प्रकृति के सानिध्य मे रहकर कुछ अलौकिक भाव आत्मबल जैसे चीजे अर्जित करने जाते है।तो प्रबंधको को चाहिए कि ऐसी चीजों को उपलब्ध करावे।
न कि लाखो चंदा लेकर एकत्र कर केवल दाल भात खिला कर अपनी कर्तव्य का इतिश्री कर ले?
श्रद्घालुओं को भी चाहिए कि वे भी अपनी दोनो तरह की भूख का शमन कर अपना नैतिक कल्याण कर सौभाग्यवान बने।
आमतौर पर देखा जाय तो तपोभूमि गिरौदपुरी सतधाम मेला परिसर सहित आसपास के कस्बो चौक -चौराहों में अनेक सामाजिक संस्था व्यक्ति खरोरा पलारी संडी वटगन बलौदाबाजार लवन कसडोल सहित चारो तरफ के पहुंच मार्गो मे पड़ने वाले अनेक जगहों पर विगत अनेक वर्षों से संचालित है।यह स्वस्फूर्त है जो सतनामियों की मूल प्रवृत्ति कि भूखे को भोजन प्यासे को पानी देने को अभिव्यक्त करते है। विगत कुछ वर्षों से छ.ग. शासन द्वारा मेले में नि:शुल्क दाल -भात सेंटर संचालित हो रहे है। बावजूद लाखों परिवार आदतन स्वपाकी होने के कारण जोंक नदी और वनप्रांतर मे पारिवारिक सहभोज एंव सात्विक आहार- विहार करते तीन दिनों तक साधनात्मक जीवन व्यतित करते आ रहें हैं।
परन्तु यह विडंबना है कि विशाल काय समुदाय के मानसिक छुधा के शमन और उन्हें सही मार्गदर्शन हेतु कोई व्यवस्थित आयोजन शिविर आदि की कोई प्रभावी आयोजन व उनके लिए कोई व्यवस्था नही हो पाते।और न ही छत्तीसगढ के संस्कृति विभाग द्वारा सतनाम सञस्कृति के संवर्धन और प्रदर्शन आदि करने के लिए कोई सार्थक पहल नही करते न ऐसा सोच या विचार कही हो पाते।
दाल -भात सेंटर और अनगिनत नि: शुल्क भोग भंडारा आदि देख ऐसा लगता है कि समाज का धन केवल जबरजस्ती लोगो के भूख मिटाने में अपव्यय हो रहे है।जबकि स्वाभिमानी समाज व श्रद्धालू दर्शनार्थी ऐसा कोई अपेछा भी नही रखते कि कोई हमे नि: शुल्क भोजन करावे!
ऐसे सेवादारों समितियों और संस्थाओं से अपील है कि आगामी वर्ष या इसी वर्ष से ही मेला परिसर मे होने वाले विभिन्न आयोजन में विविधता लाए ।कही सत्संग प्रवचन हो कही पर सतनाम सहज योग साधना शिविर लगे।समाधिस्थ संतों के इर्द गिर्द आध्यात्मिक आयोजन करे। अनेक साहित्यिक संस्थाए काव्यपाठ कथावाचन व संगीतमय प्रवचन करे । प्रगतिशील छत्तीसगढ सतनामी समाज विगत कुछ वर्षों ऐसा आयोजन करने की स्थिति में काफी संधर्ष के बाद आज सछम हो पाई है।और हमारे सैकड़ो लेखक कवि कलाकारों को उनकी अपनी प्रतिभा प्रदर्शन हेतु मंच उपलब्ध करा सके है। इसी तरह कुछ वर्षो से चिकित्सीय शिविर हमारे चिकित्सक वैद्य गण करने लगे है ।
सामान्य ग्यान प्रतियोगी परीछा से संदर्भित पुस्तक विक्रय केन्द्र और आडियो विडियो कैसेट सीडी पेन ड्राइव चिप्स आदि का स्टाल लगाए ।और उन्हे विशेष छूट प्रदान कर खरीदने प्रेरित करे। या कुछ सतनाम साहित्य आरती पंथी संग्रह या अमृतवाणी उपदेश युक्त कलेण्डर आदि नि: शुल्क उपलब्ध करावे ताकि सतनाम धर्म संस्कृति का उत्तरोतर संवर्धन और विकास हो।इस तरह के रचनात्मक कार्य करने वाली समिति को मुक्त हस्त से अनुदान व सहयोग दे ।न कि दाल भात सब्जियां खिला कर या समिति के सदस्य और घर -परिवार खा पीकर एकत्र किए संसाधन को नष्ट करें।
सब तरह के आयोजन युक्तियुक्त हो और उनका संचालन व्यवस्थित हो ताकि सब तरह से सबकों लाभ मिल सकें।
"भोजन भट्ट के जगह ग्यान भट्ट होना बेहद जरुरी हैं।"
डा. अनिल भट्ट
।। सतनाम ।।
डा अनिल भतपहरी

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