सुरुजबाई की भरथरी
बोये म सोना जमय नही मोती लुरय न डार
बारम बरम हीरा नइ आवय .....
अछर होतिस बाचतेव
करम बाचे न जाय ..
जैसी सुक्त और शिष्ट वाक्यांश सुरुज बाई की छत्तीसगढी भरथरी गायन की विलछण अंदाज है।यह लिखित मे नही अलेख व वाचिक परंपरा है।जिससे सतनाम व सतपुरुष है।योग सिद्धी व समाधि है।
नाथ सिद्ध परंपरा का यह नायब लोक दर्शन इन्ही लोककलाकारों ने संत सदृश्य जनमानस मे विस्तारित किए । परन्तु दुर्भाग्य वश उनकी कोई मूल्यांकन नही हुआ। या जानबुझकर इस निराकार साधना या निर्गुण परंपरा के तत्व को उपेछित कर दिए गये।
कल मे अमर राजा भरथरी
बाजे तबला निसान
जय जय होवय भगवान
मुख बासे सतनाम
सधै सब बिगड़ी काम ....
जैसी पंक्ति विशिष्ट दर्शन का दिग्दर्शन कराती है।
जो सत्य है वह देर- सबेर प्रस्फूटित होते ही है तब लोगों की आखे चौधियांने लगते है। आज वही होने लगा है ।
सुरुजबाई की आभा लोक गायन मे सूर्य की मानिन्द तेजस्वित हो रही है। उनकी खनकदार कंठनाद अनुपमेय व प्रस्तुति अप्रतिम है।फलस्वरुप संगीत प्रेमी सहृदय व अध्येताओं के लिए बेहद मूल्यवान है।
डा. अनिल भतपहरी ९६१७७७७५१४
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