" सततागी "
सतनाम संस्कृति में सततागी प्रथा रहा है। यह सैंधव सभ्यता में भी रहे जहां कपास की सुत काते जाते थे।और उससे वस्त्र बनाकर पहने जाते थे। उनके अवशेष मुआनजोदडो में मिलते है।( भंडार तेलासी जुनवानी सिरपुर महानदी तटवर्ती छेत्र जहां मोहान बोदा जैसे ग्राम हैं। वह मुआन जोदडो जैसे नाम अभाषित करते है यह सतनामी बाहुल्य व समृद्ध छेत्र है ) जहा मातृका पूजा भी रहा है। इसे विवाह रस्म में चुल माटी मायन पूजा कहते है जो आज भी सतनामियो में प्रचलित है।
बाहरहाल
सुत की धागा पहनना एक प्रतीकार्थ है सभ्य और उन्नत होने का। पहले लोग खाल और वृछ के छाल पहिनते थे और वे मानव सभ्यता के आरंभिक अवस्था रहे हैं। इसलिए
विवाह के अवसर पर आज भी बिना अटे हाथ से निर्मित कपास की धागा जिसे कुवारी धागा ( पवित्र व आरुग धागा ) कहते है से मडवा दून कर डेढा डेढहिन सभी परिजनो की उपस्थिति में दूल्हे राजा को सततागी( यानि की सात तागे वाली कुवारी या पवित्र धागे से निर्मित) धारण कराकर एक बडी जिम्मेदारी के लिए संस्कारित करते हैं।
ब्राह्मणों में जो धागा पहनते है वह तीन ताग के होते है यह उपनयन संस्कार है । यह बचपन में अध्ययन और भिछाटन के लिए है जिस बालक को यह पहने देख लोग ब्राह्मण बटुक जान कर भिछा देते थे।इसलिए इसे जनेऊ नाम से जाने जाते थे।
कलान्तर में यह अनावश्यक रुप से महिमामांडित कर दी ग ई ।और जनेऊ का अधिकारी हिन्दूओ में ब्राह्मण को बताकर उन्हे वर्ण विभाजन श्रेष्ठतम व देवतुल्य कर दिए गये।
परन्तु सतनाम संस्कृति एक अलग तरह के संस्कृति है ।यहा सततागी धारण के अपने घर परिवार माता पिता पत्नी सहित समाज के प्रति सप्तवचन को सातगाठ बांधकर सततागी धारण कर सत्य निष्ठा से जीवन यापन करते है।
पारंपरिक उत्सव व विवाह आदि में हमे अपनी इतिहास व जड की समृद्ध विरासत तलाशनी चाहिए।
आजकल ब्राह्मणों के अनुकरण पर या उनके कहने पर सततागी को जनेऊ कह सततागी के व्यापक अर्थ व भावार्थ को सीमित किए जा रहे हैं।
यह नही होना चाहिए। समाज में जनेऊ के जगह सततागी नाम प्रचलन में लाना चाहिए। और इसे स्वैच्छिक करना चाहिए।
।। सतनाम ।।
डा अनिल भतपहरी
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