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।।छत्तीसगढ़ी भाषा।।
छत्तीसगढ़ी से छत्तीसगढ़ जैसे उड़िया से उड़ीसा ,मराठी से महाराष्ट्र, तमिल से तमिलनाडु, बंगला से बंगाल , असमिया से असम इत्यादि इन प्रदेशों में उन्हे उनकी अपनी भाषा में ही शिक्षा दी जाती हैं।
छत्तीसगढ़ आजादी के पहले मराठा /अंग्रेज शासन में सीपी एंड बरार में थे और मराठी (लिपि देवनागरी ) अंग्रेज़ी में राजकाज होते थे।आजादी के बाद हिन्दी प्रदेश म प्र के हिस्सा था और लिपि देवनागरी ही रही। छत्तीसगढ़ी की अपनी लिपि नहीं होने से यह भ्रम बना हुआ है कि यह मात्र बोली है जबकि ऐसा नहीं है। कितनी ही ऐसी समृद्घ भाषा है जिनकी अपनी कोई लिपि नहीं है।
अधिकतर जनता ग्रामीण पृष्ठभूमि की हैं और वहां छत्तीसगढ़ी और उनकी करीब 13 सहायक भाषा बोली है इनमें छत्तीसगढ़ी एक तरह से संपर्क भाषा है। इसे जशपुर से लेकर बीजापुर और उड़ीसा की संबलपुर नुआ पाड़ा से लेकर महाराष्ट्र की आमगांव तक भली भांति समझी और बोली भी जाती हैं।
इस तरह लगभग 2 करोड़ समुदाय द्वारा व्यवहृत की जाने वाली छत्तीसगढ़ी भाषा जो हर तरह से उपयुक्त है जिसे विगत डेढ़ दो सौ वर्षो से देवनागरी में लिखी भी जा रही हैं। विविधतापूर्ण साहित्य, पत्र पत्रिकाएं दूरदर्शन आकाशवाणी एवं अन्य टीवी चैनल पर व्यवहृत किए जा रहे हैं। जिसकी व्याकरण हिन्दी से पहले लिखी जा चुकी हैं। यहां की शहरी व्यापारी/ कर्मचारी जनता जो कि कई प्रांतों से आकर बसे हुए हैं और उनकी संपर्क भाषा हिन्दी हैं के आधार पर डेढ़ करोड़ छत्तीसगढ़ी भाषियों के ऊपर हिन्दी को नहीं लादना चाहिए। क्योंकि आज भी शहरों की सीमा के बाद ग्राम की सरहद में हिन्दी का प्रवेश नहीं है। गांव में कोई हिन्दी का व्यवहार नहीं होते। भले राजकाज में मजबूरी से करने पड़ते हैं।
बहरहाल भाषाई दृष्टि से अलग छत्तीसगढ़ होने के बाद परिस्थिया बदली और लोक व्यवहार के बाद शासकीय। कार्यालय व कार्यक्रम पर छत्तीसगढ़ी व्यवहृत होने लगी छत्तीसगढ़ी को राजभाषा बनाए गए और बकायदा शासन प्रशासन को छत्तीसगढ़ी भाषा और देवनागरी लिपि में काम करने की आव्हान की गई। कुछेक जगहों पर न्यायालीन फैसले, बैनामा, रिपोर्ट, आवेदन आदि दिए जाने लगे। इस तरह छत्तीसगढ़ी राजकाज में व्यवहृत भी होने लगा। प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री एवं भाषाविदों ने अनेक अवसरों पर, छत्तीसगढ़ी को समर्थ भाषा बताते ही रहे हैं।
केवल लिपि और शिक्षा के माध्यम नहीं होने मात्र से इसे भाषा न मानी जाए? या कोई समाचार पत्र या चैनल का पुरा माध्यम न होने से भाषा न समझा जाय? ऐसा नहीं होना चाहिए। क्योंकि छत्तीसगढ़ी जनता अपेक्षाकृत साधन सक्षम नहीं हैं और प्राय कृषक है जो जीवन संघर्ष से ही लगे हुए हैं। जो थोड़ा बहुत सक्षम है वे अन्य व्यवसाय में रत भाषा बोली संस्कृति की ओर से तठस्थ है।
वैसे हर भाषा जिसमें लोग बोलते हैं वह बोली है और वह बोली जिसमे लिखित स्वरुप और व्याकरण सम्मत हो वह भाषा है। आजकल बाडी लैंग्वेज, मूक बधिरों की भाषा पर बाते होने लगी है जिसकी अपनी कोई लिपि नहीं केवल इशारे होती हैं।
करोड़ों लोगों द्वारा व्यवहृत छत्तीसगढ़ी भाषा हैं और इनकी अपनी समृद्ध लोक साहित्य और पर्याप्त लिखित साहित्य , भाषा,व्यकरण ,शब्दकोश आदि हैं। शिक्षा और प्रतियोगी परीक्षाओं में यह शमिल है। त्रिभाषा शिक्षा के माध्यम हेतु छत्तीसगढ़ी, हिन्दी अंग्रजी उपयुक्त है। एकछिक विषय के रुप में प्राचीन भाषा पालि, प्राकृत संस्कृत या अन्य रखें जा सकते है।
नई शिक्षा नीति में स्थानीय भाषा और संस्कृति का संरक्षण महत्वपूर्ण भाग है। इस दृष्टि से विचार किया जाना समीचीन है।
यहां के रचनाकारों/ बुद्धिजीवियों/ शिक्षाविदों/ जनप्रतिनिधियो के लिए माननीय न्यायालय का टिप्पणी विचारणीय है कि छत्तीसगढ़ी को भाषा के रुप में निशंक भाव से कैसे प्रतिष्ठित किया जाय? या प्रतिष्ठित हैं उसे कैसे बताया जाय कि पूर्णतः शंका निर्मूल हो सके। भाषा और बोली का अन्तर्द्वंद पूर्णतः निराकृत हो सके। और भाषा के प्रति कोई ठोस नीति निर्धारण हो सके।
ताकि इन्हें बोलने वाले करोड़ों लोगों की हित सध सके।
डा. अनिल भतपहरी/ 9617777514
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