Wednesday, June 26, 2019

सतनामी समाज की दशा

मनुष्य एक समझदार  प्राणी तो  है।पर अक्सर बहुतों में यह  भ्रम रहते है कि उनके जैसा कोई नही।
यह सच भी है कि हर आदमी दूसरे से भिन्न है पर समझ को लेकर अक्सर मुगालते मे रहने वाले कि हमसे अधिक कोई नही यह उनका मिथ्या गर्व है इसलिए वह असमाजिक व अव्यवहारिक हो जाते है ।और छोटे छोटे समुदाय में विभक्त भी ।तब वह न किसी का सुनता है न सुनना चाहता है।  ऐसे लोग या तो जानकर होते है पर गर्व भाव के कारण अग्राह्य हो जाते है या आधे आधुरे जानकारी रखते बे वजह अधजल गगरी छलकाते हस्यास्पद हो समुदाय से खारिज हो जाते है या चंद लोगों के बीच अंधों मे काना राजा जैसा धौंस जमाते फिरते है।
     कुछ साधारण ग्यान  अल्प व मृदुभाषी होते है  जिन्हे अपेछित सम्मान उक्त वर्ग नही देते बल्कि महत्वहीन समझ नजर अंदाज करते है ।
   बाकी यथास्थिति और जिधर बम उधर हम वाले होते है ।
     बहुत ही कम होते है जिनके दखल हर तरफ होते है यह बहु मुखी व्यक्तित्व के जुनूनी और यश अपयश से परे होते है जो वाकिय में हर चीज का युक्तियुक्त समन्वय करता है।
            समाज मे अभी इन सबका युक्तियुक्त समन्वय कर सार्थक नेतृत्व चाहे धार्मिक सामाजिक व राजैतिक रुप से हो आना बाकी है। क्योकि यह संक्रमणकाल है अभी पूर्णत: न शिछित है न उच्च जीवन  स्तर न ही सु सभ्य है।
      फलस्वरुप जो जिस अवस्था से गुजर रहे है वे उतने तक ही समझ रखता है। प्राचीन परंपरा मान्यताओं  और आधुनिकता मे कैसे सांस्कृतिक तथ्यों का निर्धारण कर जीवन निर्वहन करे और कैसे सार्थक संधर्ष  करे यह सही ढंग रेखांकित नही हो पाते ।इसलिए हम राजनैतिक प्रतिबद्धता हेतु उधार के विचार पर आश्रित है।क्योकि हमने अभी अपनी साञस्कृतिक तथ्य के अनुरुप राजनैतिक जागरुकता विकसित नही किए है। राजकीय व  राष्ट्रीय स्तर पर भी हमारी कोई लोकप्रिय चेहरे नही जिनकी हम समवेत रुप से सुन व समझ सके।प्राय: हर समझदार उच्च शिछित और थोडा साधन सछम लोग परस्पर प्रतिद्वंद्वी है। प्रभाव पद प्रतिष्ठा उन्हे एक समान सोचने और एक जगह बैठने नही दे पा रहे है।यह नेतृत्व वर्ग चाहे गुरु संत महञत राजनेता या सछम मंडल. गौटिया या अधिकारी कर्मचारी हो  सभी अपने अपने मात हतो के अधीन है।
    इन वर्गों को गुरुघासीदास के उपदेशना सतनाम सिद्धान्त और संविधान मे निहित अधिकार और कर्तव्य के प्रति निष्ठावान होकर सामाजिक दायित्व के ईमानदारी से निर्वहन मे साथ होना चाहिए ।पर दूर्भाग्यवश "राजनैतिक चेतना " जिससे पद प्रतिष्ठा अर्जित कर यश और धन  कमाए जाते है वह सबको प्रतिद्वंद्वी बनाकर रखे हुए है।आदमी आरंभ से लड़ते आ रहे है सञधर्ष ही उनकी जीजिविषा है
      छोटीसे  छोटी और बडी से  बडी बातों मे हम  परस्पर लडते है पर किससे ,कैसे और  क्यो लड़ते है  यह अब तक साफ- साफ पता नही।
     जिस दिन कुछ को  पता होता है वेव गल्तियां सुधार विकास की ओर अग्रसर होते है। और बहुतो तो  केवल  पश्चाताप करता है  तब उनके पास न धन न बल न यौवन होता है।
     दुर्भाग्य वश समाज में अधिकतर यही हो रहा है-
सतनामी मरगे पेशी मे गोड़ मरगे देशी में जैसे कहावत यु नही है।
  फिर आजकल समाज में तेजी से मदिरा व नशापान बढ रहे है यह हाताश और कुठां के चलते हो रहे है।   

इन सबसे बाहर आने नव  सांस्कृतिक आन्दोलन की जरुरत है जिससे समाज मे संस्कार आए बिना इनके शिछा पद प्रतिष्ठा नौकरी चाकरी और नेतागिरी चंद व्यापारी केवल  व्यक्तिक सफलता मात्र है  ।समाजिक नही।
   जिस दिन व्यक्तिक सफलता सामाजिक रुप से प्रतिष्ठित होन्गे उस दिन  समाज  का प्रभाव अन्य   समाज  प्रदेश व देश  को पता चलेगा ।
         ।‌। सतनाम ।।

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