Sunday, October 29, 2023

मंगल असीस

।।मंगल असीस ।।

उतरिस चंद्रयान चंदा म त,
 देखत मन भाइस 
उन्चालिस बछर पहली लिखे,
 कविता के सुरता आइस 
सोला बछर के रहेंव 
जब देखेंव  पुन्नी के चंदा  
मन में भारी उथल - पुथल
काटेंव रतिहा उसनिंधा 
चित्र भारती म पढ़न  स्पेस स्टार्स 
रोचक विज्ञान कथा 
चकमक ,पराग, सरिता,मुक्ता 
सरस सलिल ,चंदा मामा 
कत्कोन रहस्य रोमांच तिलस्म 
सब मन म भरे रहय 
आनी- बानी के जिनिस ल 
जाने- समझे के सउक रहय 
खाए- पीए जिनिस छोड़ 
पाकेट मनी म पत्रिका बिसावन 
कोर्स के किताब तिरिया के  
सनन भर पढ़त रहन 
बिन्दू मिला के छुपे हुये  ल खोजन 
 दू समान चित्र म चूक ल निकालन 
पढ़त खेलत खात मजा से 
अध्धर साइकिल चलावन 
पूल घाट म मारत छलांग 
नरवा म ससन भर नहावन 
बड़ उछाहित मन हमर 
सिरतोन अगास म किंजरय 
फिटिक चंदेनी देखत रतिहा 
कुटॆला , खटिया सुकुवा मन ल चिन्हन 
नवबज्जी रतिहा  पतालू नरवा के
बंधानी घाट म बइठे 
भैया चरन संग पढई -लिखई 
गोठ मन ल गोठियाते 
ऊपर सरग ले  मोर मुड़ म आइस 
टार्च मारे कस  गोर घेरा अंजोर 
देख दुनो सुकुड़दूम 
भागेन पल्ला छोर 
लीम चौरा ब इठे सियान मन सो 
ये घटना ल सोरियायेन 
कुछु अनहोनी प्रेत बाधा होही 
सुन बहतेच डराएन  
शिक्षक बाबू जी हर हमन ल समझाइन 
उल्का पिंड खगोलीय घटना ल बताइन 
उड़न तश्तरी के तको चिंता मन बियापिन 
कछु अनहोनी झन होय सतपुरुष ल सुमरिन 
तभो ल सियान मन के मन नइ माढिस 
अउ गांव के देवालू -चुकनू बइगा करा झरवाइस 
पता नही अगास म मन बिचरत रहय 
बने बर वैज्ञानिक हमरो मन करय 
फेर गणित कापी म ज्यामिति  के जगा
 कविता लिखा जाय 
गुप्ता सर खिसियावत 
अउ कापी ल प्रिसिपल बाबु ल देखा दय 
स्कूल म सब झन  तीर तो 
अबडेच  खिसियाय 
फेर घर आवय त कविता
 ल देखे पढ़े  बर मंगाय 
कुछ अक्षर ल जोड़य 
अउ कुछ मन  ल सुधारय 
साहित्य संगीत प्रेमी 
पिता श्री के असीस  दुलार मिलय 
बिग्यानिक तो बनेन नही 
फेर बनगेयन  कवि 
बरनन करत रहिथन आनी बानी
 गढ़त रथन छवि 

आज अगास के चंदा म उतरिस चंद्रयान 
देख मन मगन हमर बाढिस देश के मान 
उछाहित मन म सिरतोन  नव उमंग भरगिस 
चौवन साल के ये तन म मन  सोला साल होगिस 
बधाई सब झन ल अउ हवय मंगल कामना 
मिलते रहय उपलब्धि बढ़वार सदा शुभकामना

          - डां . अनिल भतपहरी / 9617777514

चंद्रयान ,चांद पर  उतरने की खुशी में 23- 24 8-1923 रात्रि 11 से 1 बजे के मध्य ।

Sunday, October 22, 2023

तुरते ताही ( छत्तीसगढ़ी मे याचिका को अरजी कहते है )

तुरते- ताही 

।।याचिका ल छत्तीसगढ़ी म अरजी कहिथे  ।।

   
छत्तीसगढ़ी माध्यम से शिक्षा पर लगी जनहित याचिका पर सुनवाई के समय  हुई जिरह में छत्तीसगढ़ी की अक्षमता के ऊपर टीप अनुचित हैं।
  याचिका को क्या कहते है ? पर वकील साहब को जवाब नही सुझा । ऐन वक्त भाषा के अनुप्रयोग न करने से उचित शब्द स्मृत भी नही होते यह स्वभाविक हैं।
   असल में याचिका शब्द अंग्रेजी के पीटिशन के विधिक हिन्दी शब्द है , जो याचक से बना है ।  इसके पर्याय प्रार्थना , विनती , अर्ज़ आदि है। देश  मुगलों के शासन से कचहरी ,वकील ,अर्जी, अर्जीनिवेश, मोहर्रिर , दफ्तरी पटवारी तहसीलदार जैसे शब्द लोक भाषाओं में आया। इस तरह याचिका को छत्तीसगढ़ी  "अरजी"  कहते है। 

   हर क्षेत्रिय भाषा  रिजनल लेंगवेंज विस्तारित होकर राजकीय  और सक्षम भाषा बनती  है।उसमे मूल शब्द प्राय,: कम ही रहते हैं । आगत और तस्सम तद्भव शब्दों से वह समृद्ध होती और इनके अनेक वर्ष लगते है।
 छत्तीसगढ़ी के अनेक मूल शब्द न  अंग्रेजी मे है संस्कृत मे है न हिन्दी । इसके मतलब इन भाषा को  अक्षम कहे या माने जाय  ?  क्या यह  सही हैं? नही । 
  सावा ,बदौरी ,करगा ,ओगन , ठुलु  ,गासा ,पखार , जुड़ा सुमेला पंचाली आदि  का कोई पर्याय अंग्रेजी संस्कृत मे हो तो बतावे?
     दर असल शब्द आवश्यकता  प्रयोग और प्रवृत्ति आदि के बनती हैं और व्यवहृत होती है। मनुष्य का दायरा जितना विस्तारित होगा उनकी भाषा उतनी ही विस्तृत और समृद्ध होंगे। 
     पाठ्यक्रम लागू करके देखे महज एक दशक में जो परिणाम आएगा चौकाने वाला होगा। छत्तीसगढ़ी हिन्दी की कृत्रिम व नवीन भाषा नही यह प्राकृतिक रुप से विकसित हजारों वर्षों की यहां तक विक्रम खोल , चितकबरा डोंगरी , सिंघनमाड़ा से प्राप्त आदिम चित्र से प्रमाणित आदिम मानव द्वारा बोली जाने वाली जनभाषा हैं।
     स्कूली शिक्षा के  इतिहास में आरंभ से इसे पढ़ाए जाते तो यहां भी उडिया मराठी बंगाली तमिल‌ तेलगु जैसे परिस्थियां और प्रतिभाएं विकसित होती । पर दुर्भाग्यवश जो समझी और व्यवहृत नही की जाती ऐसी तीनों भाषाएं  हिन्दी संस्कृत और अंग्रेजी पढाये जा रहे हैं।  इस भाषा में छत्तीसगढ़ी दैनंदिनी में उपयोग आने वाली शब्द ही नही हैं। फलस्वरुप लोग अपनी मातृभाषा छत्तीसगढ़ी को विस्मृत करने की अवस्था में पहुच गये हैं। यह बेहद चिंतनीय हैं। 
    यदि आधुनिक ज्ञान- विज्ञान के चलते कोई शब्द न भी हो तो अन्य भाषा के शब्द को ज्यों की त्यों तत्सम रुप या ध्वनि प्रवर्तित कर तद्भव रुप में अंगीकृत की जाती है। तो छत्तीसगढ़ी में इस तरह आत्मसात करने की बेहतरीन व्यवस्था हैं। छत्तीसगढ़ सात राज्यों की सीमा से लगा हुआ हैं।  आजादी के पूर्व म प्र  उप बिहार उडीसा महाराष्ट्र मारवाड़ आदि  से साक्षर लोगो को बुलाकर मालगुजारी , रैय्यतवाड़ी  में कर्मचारी नियुक्त किये  वे स्थायी रुप से बसते गये। उस दृष्टि से भॊ  भाषाई वैविध्य है। आजादी के बाद पंजाबी सिंधी बंगलादेशी एंव तिब्बतियों को बसाये गये। भिलाई कोरबा जैसे नवरत्न श्रेणी के उद्योग के चलते पुरा लघु भारत इन जगहों पर बसा हुआ हैं।
   उन सबके शब्द छत्तीसगढ़ी में आत्मसात होते गये अब भी यह जारी है। कहने का तात्पर्य अन्य भाषा के शब्दों को  ग्राह्य करने अपूर्व  क्षमता हैं। इसलिए अधिक या अनावश्यक या कहे " बरपेली संसो न इ करना चाही।"
    राज के  नान्हे नान्हे लरिका बच्चा मन ल अपन दाई- ददा अपन दादा- दादी , नाना - नानी  के भाखा म पढाय- लिखाय अउ समझाय के तुरते बेवस्था होना चाही। नइते ओमन अपन भाषा के संग अपन संस्कृति तको ल भुला जही ।  वैसे भी विगत सवा सौ साल के स्कूली शिक्षा के चलते तथाकथित शिक्षित अउ रोजी - रोजगार पाए  शहर पहर धरे मनखे मन ही प्राय: छत्तीसगढ़ी ल गांव- गली खेत - खार ,मजदूर- श्रमिक‌ की बोली समझ आत्महीनता से ग्रसित कन्नी काट लिये हैं।इनकी संख्या महज कुछ हजार या लाख से अधिक नही‌ है। इनकी बिना परवाह किये आठवी सदी में समृद्ध दक्षिण कोशल ( पुरा वैभव सिरपुर मल्हार तुम्मण आदि )  की वैभव को पुनर्स्थापित करने का अब वक्त आ गया हैं। और वह हमारी प्यारी छत्तीसगढ़ी भाषा और संस्कृति से ही संभाव्य होगा ।
    उधारी -बाढ़ी के जिनीस ह कतेक ल पुरही अउ काबर फुटानी मारबोन  । अपन ल जतनव अउ उपजाव ।
          ।।जय छत्तीसगढ़ी जय छत्तीसगढ़ ।।
     - डा. अनिल भतपहरी / 9617777514

Friday, October 20, 2023

बाबू खान

जनाब बाबू खान साहब 
 
     बालसमुंद स्थित गुरु घासीदास मंदिर के समीप पुष्पवाटिका के पास अपने धुन में बिधुन  एक लंबा पतला सा अघेड़ पुरुष  कुर्ता पैजामा और सलुखा पहिने राजपुरुष सा छवि वाले एक शख्स से मूलाकात हुई।
दुआ -सलाम के बाद , बात  आगे बढ़ी । उनसे मिलने के  पूर्व उनके नाम से परीचित था। क्योकि उनकी एक छोटी सी पुस्तिका गुरुघासीदास चरित की चर्चा से भी वाकिफ़ रहे हैं। पता चला कि यही जनाब " बाबू खान " हैं जो पलारी क्षेत्र की विभिन्न सूचनाओं  एंव समस्याओं को नवभारत समाचार पत्र के माध्यम से उठाते रहे हैं।
  शा कन्या महाविद्यालय पेड्रारोड  से स्थानांतरण के बाद 10 जून 2000 को शा महाविद्यालय पलारी में  कार्यभार ग्रहण कर  हीरा सेठ व्यवसायी के घर किराये पर रहता था। और प्राय: आदतन शाम को भ्रमण हेतु नगर के सुप्रसिद्ध जलाशय जिसमें 8 वी सदी के  प्राचीन सिद्धेश्वरनाथ मंदिर  , राधा कृष्ण, सीता- राम एंव गुरुघासीदास मंदिर तथा द्वीप मे नव निर्मित शारदा मंदिर स्थापित हैं, जाया करता क्योकि यहां के महौल हमें प्रेरित करते और सृजन के कुछ सूत्र मिलते।
     कमल पुष्प से अच्छादित अत्यंत मनोरम बालसमुंद पूरे प्रदेश भर में चर्चित हैं। यहां कार्तिक पूर्णिमा के दिन और गुरुघासीदास जयंती दिसबंर माह में मेले लगते हैं।  आस-पास के हजारों श्रद्धालू एकत्र होते हैं। मेले के बाद  रासेयो पलारी के छात्रों द्वारा मंदिर व मेला परिसर की साफ -सफाई नियमित गतिविधी कार्यक्रम में करते रहे हैं। एक तरह से  बालसमुंद पलारी कालेज के  रासेयो ईकाई  का स्थाई परियोजना स्थल हैं । जहां पर 2003 से 2019 तक हमें कार्यक्रम अधिकारी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। साफ- सफाई , पौधारोपण , रोपित पौधे मे पानी तराई इत्यादि गतिविधियां हेतु महाविद्यालय के स्वयंसेवक जाते ही रहते थे‌। 
    बहरहाल बाबू खान साहब के आकर्षक व्यक्तित्व व सधे हुए धीर-गंभीर आवाज के हम कायल हो गये और उनकी शेरो- शायरी, गीत -ग़ज़ल के दीवाने भी। खान साहब एक तरह से सच्चे मानवतावादी इंसान थे। शा महाविद्यालय में प्राय: सभी साहित्यिक / सांस्कृतिक आयोजन में सहभागी होते और महाविद्यालयीन कार्यक्रमों के  फोटोग्राफर /रिपोर्टर भी। हमारे सभी दस व सप्त दिवसीय  रासेयो कैम्प  पलारी के लगभग सभी बडे ग्रामों में उनकी  कवि और रिसोर्स परसन के रुप मे दो तीन दिनों तक आम दरफ्त होते । वे इस तरह महाविद्यालयीन बच्चों के साथ धुल-मिल जाते। उनका स्नेह  सदैव मिलते रहा हैं। वे महाविद्यालय मे आयोजित कार्यक्रमों में सहज ही उपलब्ध होते थें।
          साहित्यिक मनीषी और प्रशासनिक अधिकारी डा देवधर महंत जी तब पलारी में तहसीलदार थे और उनसे हमारी मित्रता महाविद्यालय के ग्रंथपाल भट्ट जी माध्यम   हुई ही थी कि  समन्यय परिवार  पलारी का गठन हुआ। उसमें बाबू खान , रामकुमार साहू , टेसूलाल धुरंधर , रामनारायण यादव , पोखनलाल ,पुरनलाल , नेहरुलाल , बाबुलाल गेंड्रे , रविशंकर चंद्राकर  जैसे नवांकुर लोग सम्मलित रहें। प्राय: प्रत्येक गोष्ठी जो गायत्री मंदिर प्रांगण , मेरे निवास या रामकुमार साहू के निवास में होते और परिक्षेत्र मे साहित्यिक कारवां आगे बढ़ती गई । 

2004 में हमारे संपादन में पलारी क्षेत्र के होनहार कवियों की साझा संग्रह  - "परसन "  नामक स्मारिका प्रकाशित हुई। परिणाम स्वरुप बलौदाबाजार , महासमुन्द , भाटापारा नेवरा तिल्दा आरंग , खरोरा,  सारागांव क्षेत्र के साहित्यकारों के बीच हमारे अंचल के साहित्यकारों का आव्रजन होने लगा। इसमे प्रमुखत: मीर अली मीर  रामरुप वर्मा , संदीप पांडे , सुरेन्द्र शर्मा , हितेन्द्र ठाकुर ,  ताराचंद अग्रवाल , द्वारिका मंडल , डा आर एस जोशी , नरेन्द्र वर्मा , सुमन बाजपेई , सरिता तिवारी , दत्तात्रेय अग्निहोत्री , सालिकराम सेन , अनिल जांगड़े गौतरिहा , कृपाल पंजवाणी  नेहरुलाल यादव ,डां. उमाकांत मिश्र , डां  अनिल भतपहरी जैसे साहित्य प्रेमी साधक गणों ने साहित्य सुमन ,  समन्वय साहित्य परिवार व छत्तीसगढ़ी राजभाषा साहित्य समिति गठित कर विगत 20-25 वर्षों से इस ट्रांस महानदी परिक्षेत्र साहित्य की लौ  जलाई जिससे नव पीढी आलोकित हैं। 
         उनमें खान साहब की गरिमामय उपस्थिति उनकी  मां सरस्वती की वंदना, फिर उनके लोकप्रिय गीत  जिसमे हमर गांव बलावत हवय.. और अनेक शेरो.- शायरी नज्म ग़ज़लो से महफिल में शमा बंध जाते। उनकी  घोष स्वर के हम सभी दीवाने थे। 
   खान साहब सामाजिक सौहार्द्र के मिशाल थे वे जन्मजात कांग्रेसी थे लेकिन भाजपा के गढ़ और कर्णधार समझे जाने वाले बृजलाल वर्मा पूर्व केबिनेट मंत्री के गांव में  हर वर्गों के बीच बेहद लोकप्रिय थें। सोसल मीडिया से पता चला कि  खान साहब नही रहें। मन एकदम सा उदास हो गया और उनके साथ बिताये बेहतरीन  लम्हों की याद में खो गये।
     खान साहब का जाना परिक्षेत्र के अपूर्णीय क्षति हैं। साथ ही सामाजिक सौहार्द्र व गंगा जमुनी तहजीब के एक अध्याय का पटाक्षेप हैं। खान साहब के व्यक्तित्व व कृतित्व के ऊपर " स्मारिका " आदि का प्रकाशन अब वहां के साहित्यिक जनों की नैतिक दायित्व हैं। उक्त कार्य में जो भी सहयोग की अपेक्षा होगी करने सदैव तत्पर हैं।
    पलारी - बलौदाबाजार  अंचल के  साहित्यिक बिरादरी द्वारा यह कार्य यदि भविष्य में संपादित होता है  तो नि:संदेह खान साहब के लिए  सच्ची श्रद्धांजलि होगी। उनकी मातमपुर्सी होगी। आजीवन क्वारे खान साहब सामाजिक साहित्यिक व अपनी पार्टीगत गतिविधियों सदैव सक्रिय थे। वे साफ- सुथरे छवि के मालिक और सादगी पूर्ण जीवन शैली के संवाहक थे।
     इंशा अल्लाह ! खुदा उन्हे जन्नत बक्खे!  और उनके कुनबा आबाद रखें।
     
       - डां. अनिल भतपहरी / 9617777514

Thursday, October 19, 2023

अथ भट्टप्रहरी कथा

।।अथ भट्टप्रहरी कथा ।।

    प्राचीन भारत  के बुद्धकाल में नगर ,संस्थान, महल ,चैत्य विहारों  एंव चौक चौराहो के प्रहरी के प्रमुख   भट्टप्रहरी थे।‌:सिरपुर के निकट जुनवानी जैसे पांच गाव में वंशज आबाद हैं। बडे -बुजुर्ग पांव छूते ही असीस देते है - "पांच गांव के गौटिया बन "  !
वैसे इस गोत्र की उत्पत्ति को भारतीय संस्कृति अनुरुप देखे तो सबके मूल में कृषि व ऋषि संस्कृति जान पड़ता हैं। इस आधार पर इसे भारद्वाज की परंपरा से जोड़ते हैं। क्योकि अधिकतर धर्म - कर्म विचार की दृष्टि से  संत महंत साटीदार पं कडियार  कलावंत  इत्यादि वृत्ति वाले अधिकतर हैं। 
    दक्षिणापथ या दक्षिण कोसल के राजवंश सद्वाहों या सत्यवंतों में  "भट्टप्रहरी " यही लोग रहे हैं। सिरपुर संग्रालय मे प्राप्त सजीले रौबदार प्रस्तर प्रतिमा  खड्धारी  ही वहां की "भट्टप्रहरी " शासक हैं।  प्राकृतिक आपदा या अन्य कारणों  से सिरपुर का  भठ जाने पर लोक  कैसे किस्से गढ़ते है कि ये लोग जहां जाएन्गे भठा देंगें? ये भठा देने वाले भठपहरी है जिनके आकार भी ब्रज भटरी जैसे हैं। ये सब तांत्रिक- मांत्रिक सिद्ध टाइप के लोग भी बच के रहे ।
      

    वैसे कहे तो यह अवधारणा है कि  भट्टप्रहरी का अपभ्रंश मुख विश्रांति हेतु  भतपहरी कहे जाने लगे। यही देशज छत्तीसगढ़ी ध्वनि हैं। इसकी व्याख्या भी भात रखवार टाइप सारल्य भाव  भात ह पहर गे  ओ भतपहरी जेन ढीड़ा परगे वो ढ़ीढ़ी वाह ! कहां भट्ट और कहां भात ?
  पर लोग इसी भाव पर मुग्ध है । 

  गुरुघासीदास के अभ्युदय और उनके  सतनाम पंथ प्रवर्तन में यही लोग  बढकर हिस्सा लिया क्योकि निराकार उपासाना और सत्यवंत संस्कृति के ये लोग ध्वजवाहक अपने उद्भव काल से  रहे । सिरपुर महानदी तट पार स्थित जुनवानी  वालों के पैतृक काम कृषि के साथ पत्थर खदान रहा है - जहां सतपुरुष की असीस और कृपा  छाहित है - 
  काट के देखाएन पथरा ल जइसे कतरा ।
   संसार मे परसिद्ध हे जुनवानी के पथरा ।।
    कठोर पत्थर को मुलायम कतरे के मानिंद काटने की हुनर और शौर्य के अधिपति यही लोग श्रद्धापूर्वक भंडारपुरी - तेलासी में भव्यतम बाडा महल गुरुद्वारा अपने खदान के पत्थरों से बनाये । 
      सतनाम संस्कृति से  इतर लोगों का उच्चारण भटपहरी ही  रहा । फलस्वरुप भट्ट या भट हो गये। कही -कही भारद्वाज और भारती भी लिखने । जब स्कूल मे आये तो शिक्षक आदि  " भट्ट प्रिय " या " प्रिय भट्ट" हो गये।
      प्रिंट मीडिया में सदैव मेरे नाम 1989 से अब तक प्राय: त्रुटिपूर्ण ही लिखते गये जैसे - भट्टहरी , भतपहरि , भटरी , भट्टपट्टरी  ,भतपट्टरी , भृतपहरी , भृतहरी  आदि छपने और आपत्ति दर्ज करते ही  रहे पर नक्कार खाने में तुती। कु़छ संपादक का दो टूक- " छप रहा है गमीनत समझो।" अन्यथा भेजा मत करो। कुछ तो ऐसे कि सीधे मुंह बात तक नही ।  नाम के पीछे मेरी रचनाओ की प्रशंसक हमारे  आध्यापिका  मैडम व मित्रों के आग्रह पर  अशांत  और उद्वेलित करती रचना कर्म के चलते तखल्लुश  "  अनिल अशांत " होकर अमन शांति खोजते रहे । खरी खरी और फरी फरी कहने के चलते जो सफलताएं मिलनी  चाहिये वह बाधित रहा । क्योकि तब और अब इस तरह की बाते अब तक अग्राह्य ही हैं।
       बहरहाल थोड़ी प्रखरता और यथास्थितिवाद के विरुद्ध नव प्रवर्तन वाले स्वर को नापसंद करने वालों की धमक कि "शांत कर दिये जाओगे !" तब गांव मे नजरबंद या भूमिगत टाइप रहा । संपादक महोदय बेहद तनाव मे रहे ।मित्र बताये कि वह अस्पताल मे भर्ती हो गये गुर्गो की आतंक भी कम नही हुए इस जमाने मे तब ओ जमाना था कि शान मे कुछ गुस्ताखी कर दिखाए कोई ?
    सचमूच इसी वर्ष सरकारी सेवक बनते ही कदाचार के लिए शांत रहना आवश्यक समझ लेखन  डायरी तक रह गये। पिता श्री की समझाइस साहित्य अंत: सलिला है वह  भिगोती है और ऊपजाती है ।बाढ़ की तरह बहाती नही।और न फसलों को तबाह करती हैं। वे विगत 23 वर्षो से नही पर सीख और उनके संस्कार सदैव छत्र बना हुआ हैं।
    
 
    इस तरह 1996 के बाद की चुप्पी पिता श्री के आकस्मिक अवसान 2000  से टूटी!  पर स्वर संयत और जिम्मेदारी बोझ से विनयावनत हो गये और वह स्वर  परसन के संपादन मे प्रस्फूटित हुई।  यदा -कदा नव शिल्प हाइकू आदि साधते वह तेवर सम्हाले ही रहा पर 2007 में सद्य: प्रकाशित कब होनी बिहान "की मुहाखरा मे आक्रोश और विवशताएं साथ- साथ रहें। कुछेक बड़ी साहित्यिक हस्तियों ने भी इसे सदैव प्रासंगिक‌ शीर्षक युक्त भीतर  पन्नों की  स्वर को मुखर सुघड़ व अवगढ़  कहे । 
    मोबाइल और  सोसल मीडिया में ब्लाग लिखने की शुरुआत 2008 से हो गये और  पेन से थीसीस लिखने की‌ परिश्रम से मुक्ति पाने मोबाइल की कीबोर्ड से लिखकर विश्राम करते रहे ।  
     तब तक पी-एच.डी. होकर महामहिम राष्ट्रपति‌‌ प्रणव मुखर्जी  के समक्ष गौरवान्वित हुये। पर पद मर्यादा शास सेवा के सुख भोगते कभी वंशधारी सहिनाव भाट हो नही सके। पता नही क्यों प्रशस्ति गान मे गुंगे हो जाते हैं? इस बीच  पावन पिरीत के लहरा , हंसा अकेला , गुरुघासीदास  और उनका सतनाम पंथ ,  The value of a cup of tea , ठोस विचारों की कीमागिरी ,   6 पुस्तकें छप गई । और कुछ सम सामयिक रचनाएं पत्र  -पत्रिकाओं में छपती रही । साथ ही दूरदर्शन व आकाशवाणी मे प्रसारण भी ।
   कोरोना काल के लाकडाउन मे ऊपर कमरे में गुरुदेव गुणवंश व्यास द्वारा सुराना स्टोर्स रायपुर से  हारमोनियम मनमोहिनी  रखी पड़ी थी वह धो पोछ कर टेबल में आई।
 और फेसबुक मे स्वर लहरिया बिखेरनी लगी। तो एक संगीत प्रेमी हमे जिद करके स्टूडियो तक ले गये फिर छत्तीसगढ़ी के वे चुनिंदे गीत रिकार्ड होने लगे जो कभी नवाकिरन और मनमोहिनी लोकमंच के आधार गीत होते थे। सत श्री म्यूज़िक अनिल भतपहरी चैनल युट्युब में भी बना लिए  गये। पर नाम  मोबाइल वाइस या स्मार्ट टी वी मे  सर्च करो तो पसीने निकल आते है  जुबान  लडखड़ा जाते है पर  नाम नही। भतपहरी लिख ही नही पाते ।तो 
फिर चैनल चलाने नाम  Anilbhatt किये गये ।
       अभी अभी एक समाचार पत्र अनिल भारत पहाड़ी नाम छाप कर मुझे यह लेख लिखने विवश किया कि इस 53 वर्षो में मेरा एक अदद नाम  हिन्दी  पत्रकारिता जगत ने क्यो नही दे पाया ? लोग दो चार लिखकर नाम कमा लिए । यहां ठीक से अनिल भतपहरी लिख नही पाया ।
  क्या यह प्राचीन भाव प्रवण सरनेम वाकिय मे उच्चारण के लिए क्लिष्ट व दुरुह हैं? क्योकि मेरे शिक्षक और  प्रोफेसर  हाजरी के समय कक्षा में प्रथम (अल्फाबेटिकल मेरा ही ) उच्चारण ही दोष पूर्ण अटके सटके टाइप होते यह शिकायत बच्चो का भी रहा पर वंश प्रेम व विरासत के मोह से कोई परिवर्तन नही किये भले लोगो को तकलीफ हो । और  आजकल  तो कर्मचारी अधिकारी भी अनिल जी कहने में अधिक  अपने आप को सहज महसूस करते हैं। बजाय भतपहरी कहने में।
   कुछेक कहते है कि साहब जोड़ने पर ही उच्चारण सही होता है। मैने मन ही मन मुदित जहा - चलो सभी न ई पीढी इस बहाने साहब बन कीर्तिमान हो जाए अपने पूर्वजों के मानिंद ... हा हा हा हा ! 
  
   कथित संस्कृत और संस्कृति प्रेमी जन समरसता को  समर सता कहते है वैसे ही इस पंचाक्षरी को भतप हरी कहकर आनंदित होते है ।ये है हमारे हिन्दी प्रेम जो अब तक सध नही पाए।
  पर  सच तो यह है बंदा 1981-82   आठवीं   से लिख पढ रहा है।1989 से  अब तक सैकड़ो छप छुप चुका हैं। 8 वी  किताब  "सुकवा उवे न मंदरस झरे "   विमोचित हो गई और  मेरे ब्लाग में  " हड्डी की जीभ नही कि न फिसले "  2022  छापते अन्तर्राष्ट्रीय प्रकाशन संस्थान  वन एलिगन ने 2200 पेज को 10 पुस्तको के रुप मे  समसामयिक लेख ,कविता लघु कथा, कहानी  के रुप मे प्रकाशित करने एम ओ यु कर लिये हैं।
   तब तक पेज और बढते ही जा रहे हैं। पर डाक्टर अनिल कुमार भतपहरी था वह अब  "अनिल भट्ट " छोटे होते जा रहे हैं। यु ट्युब और सोसल मीडिया में फिलहाल यही शार्ट नाम चलेगा ।  क्योकि यह तो वाइस टाइप में  भतपहरी रीड कर  सर्च कर ही नही पाता सो मजबुरन यह करना पड़ रहा हैं। और लोग है कि अंग्रेंजी Bhatpahari लिखे a लेटर कही न कही खा जाते है या अंतिम ri के जगह re लिख डालते है ।ऐसे ढूंढते रह जाओगे ... कही मिलेगा नहीं।
    वैसे हम पहले ही लिख चुके है -
  
    अब तो कोई भट्टप्रहरी न रहा ...
     शेष कविता पढ़ने मेरे ब्लाग या किताबों की सैर तो करना ही पड़ेगा ... इतनी सहज सरल उपलब्ध नही करा सकते । हा किताबो का लिंक जरुर अमेजान फिल्पकार्ट गूगल प्ले स्टोर्स मे मिल जाएगा ।

विगत ढाई हजार वर्षो की निर्बाध यात्रा युं ही नही गुजरे ।
इस परिक्षेत्र मे प्राप्त अवशेष और बोली - भाषा में व्यवहृत शब्द जींवत साक्ष्य हैं ।कोई अन्वेषक आये और इन तमाम रहस्यों को उजागर  करते छत्तीसगढ़ की ऊंजियार को सर्वत्र फैलाएं 

     ।।जय छत्तीसगढ़ जय भारत जय भतपहरी ।।
  
       -डा अनिल भतपहरी / 9617777514

Wednesday, October 18, 2023

सिरपुर का पुरा वैभव

#anilbhatpahari 

।। सिरपुर का पुरा वैभव ।।

        सिरपुर मुगल काल तक आबाद था । वहां उत्खनन से प्राप्त चांदी  के  सिक्के औरंगजेब ने  ढ़लवाए थे। जिसे  मथुरा -नारनौल परिक्षेत्र  के सतनामियो ने औरंगजेब से युद्ध  के बाद 1662 के आसपास  लाए। सिरपुर परिक्षेत्र महानदी के इर्द - गिर्द सतनामियों की  बसाहट हुई। वे लोग अपने साथ लेकर यहां आये , ऐसा प्रथम द्रष्टया लगता हैं।  
        रुपया को महिलाएं गले में  हार आभूषण‌ की मानिंद पहनती भी रही है।यह प्रथा अब भी है, उक्त आभूषण का नाम रुपिया ही है , का दास्तान बता भी रहे हैं । 
   यानि कि छटवीं सदी से लेकर मुगलकालीन 16 वी सदी तक एक हजार साल का उन्नत सभ्यता का केन्द्र सिरपुर समकालीन छत्तीसगढ़ की वैभव का जीवन्त दस्तावेज़ हैं। जिसे जानना -समझना और उन तथ्यों‌ पर लेखन की आपार संभावनाएं  विद्यमान हैं। बौद्ध धम्म के सहजयानियो , सत्यवंत प्रजाति  की सतवाहनो या  सद्वाहों और वर्तमान सतनामियों की सांस्कृतिक और धार्मिक मान्यताओं में जो एकरुपता या सम्यता दिखाई पड़ती है।वह अनेक विषयों के लिए अन्वेषण का मार्ग प्रशस्त करती हैं । 
      आध्यापकों , अन्वेषकों , इतिहासकारों और साहित्यकारों को  इन पर गंभीरता पूर्वक  कार्य करना चाहिये ताकि  छत्तीसगढ़ की स्वर्णिम कालखंड और पुरा वैभव व सांस्कृतिक प्रतिमानों  से देश और दुनिया  अवगत हो सकें  ।

ज्ञात हो कि आरंभ से लेकर अठ्ठारहवीं सदी तक सिरपुर आबाद था जहां पर विजयस इंद्रभूति महाशिवगुप्त बालार्जुन  सम्राट हुये । बुद्ध नागार्जुन आनंद प्रभु महंत अंजोरदास जैसे शास्ता व धम्मादेशक हुये। अंजोरदास की पुत्री का विवाह गुरुघासीदास से हुआ । 5 कि मी दूर ही सुप्रसिद्ध तेलासी बाड़ा  एंव मोती महल गुरुद्वारा भंडारपुरी अवस्थित हैं। यह परिक्षेत्र शैव शाक्त बुद्ध जैन व सतनाम पंथ का समन्वय अंचल भी रहा हैं। राजभाषा पालि और छत्तीसगढ़ी के शब्द और उच्चारण इस अंचल में देखे- सुने जा सकते हैं।
   

   - डा. अनिल भतपहरी / 9617777514

Friday, October 13, 2023

समानता की सुसंस्कृति

#anilbhatpahari 

।।समानता की सुसंस्कृति ।।

सत्य और प्रेम सनातन हैं 
वैसे फरेब और नफ़रत भी 
तो सनातन ही  हैं 
उनकी सहचरी की तरह 
ठीक उजाला -अंधेरा 
या कहे,
दिन और रात की तरह 
सुख और दु:ख 
धूप और छांह की तरह 
तब उनकी दुहाई क्यों 
वहाँ जाने की ढिठाई क्यो 
क्योंकि यह तो
सदा से सर्वत्र  हैं 
हां सत्य , प्रेम 
उजाला, छांह 
और सुख ही 
क्षरित होते रहे हैं
तुम्हारे प्रबंधन से 
चिंतन मनन सृजन से 
तो मिथ्या और धृणा 
अंधेरा और फरेब 
दु:ख और नफ़रत 
ही फैले हुए है 
तुम्हारे धर्म संस्कृति में
राष्ट्र की नीति में...
 चाहते हो अगर अमन  
तो सुधारों धर्म संस्कृति 
और राष्ट्र की नीति 
कलुष हो चुके राजनीति 
व्याप्त हो रहे विकृति को 
मिटाओ विभेदकारी कृति को 
स्थापित करो 
समानता की सुसंस्कृति को
क्योंकि समानता ही संवाहक हैं
सनातन की 
आरंभ से ही विद्यमान 
करती आई गुणगान 
शाश्वत पुरातन की 
पर भले मानुष 
यथास्थितिवाद को 
पिलाने पीयुष 
गढे समरसता 
पाते रहे सुख -सत्ता 
होते रहे न्योछावर 
ये जन गण मन 
पर अब जनतंत्र में 
समता का हो चलन 
बहे सुरभित पवन 
विमल  विष्णन मन 

      - डॉ. अनिल भतपहरी / 9617777514

सत्य सनातन

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।।सत्य - सनातन ।। 

देख दुनिया 
रीत -नीत 
फैले हुए है 
द्वेष - प्रीत 
अगणित शत्रु
अगणित मीत 
कोई नही 
कबीरा एक 
उठते हृदय में 
भावातिरेक 
राग अनेक 
अनुराग अनेक 
पर विराग से 
आते विवेक 
होते एकाग्र 
चित्त-मन 
जागृत अन्तर्मन 
आहर राग है 
सब राग के
अधिपति शिव है 
बिन आहार 
जीव निर्जीव है 
राग ही  शक्ति  
बिन शक्ति 
शिव शव है 
राग-विराग के
द्वंद्व में पलते  
भ्रम-भव है
विगता गत के 
वही तथागत 
वही अभ्यागत 
वही बुद्ध 
वही संत गुरु 
वही मेधा प्रबुद्ध 
राग त्याग 
वैराग्य लेकर 
प्रणय कैसे 
यह जीवन 
बिन प्रणय 
चलेगा कैसे 
जीर्ण -शीर्ण 
त्यज पुरातन 
जिस से हो 
जन कल्याण 
और इसी से 
स्व कल्याण 
होगा तब  यह 
धरा स्वर्ग 
ढहे द्वेष  मोह  
हो नव विमर्श 
जगति तल का 
हो उद्धार 
प्रिये कांधे पर 
यह विकट भार 
राग विराग युक्त 
कर्म नित्य नूतन 
कल्याणक हो 
हर चिंतन- मनन 
यही तो है शाश्वत 
सत्य सनातन 

- डा. अनिल भतपहरी / 9617777514

Wednesday, October 11, 2023

शाकाहार बनाम मांसाहार

#anilbhatpahari 

शाकाहार बनाम मांसाहार 

शाकाहार संत संस्कृति है और यह जीव दया पर आधारित है।
   संत संस्कृति  एक तरह से वीतरागी साधु संत  समुदाय , बौद्धिक कार्य पर रत और शारीरिक परिश्रम से दूर वे  लोग है ,जिनके लिए  गरीष्ठ या आमिष आहार अपच्य ,अजीर्ण व व्याधि कारक है। इसलिए इनको धृणा मय व त्यज्य धोषित कर दिया हैं।इसमे व्यापारी,जो एक ।पुजारी और प्रवाचक वर्ग  आते है  जो  छोटी सी जगह पर दस दस घंटे बैठे हुये वक्त बिताते है साथ ही करुणा दया आदि भाव  दिखा  या  बताकर  याचना‌ कर  अपना आजीविका चलता है।
   इ‌न सबके पोषक कृषक है और उत्पादक वर्ग है जिन्हे साहस बल और पौरुष चाहिये। जो दूर दूर तक फैलो खेतों मे  गर्मी वर्षा एंव ठंड मे जी तोड़ मेहनत करते है। पसीने बहाते है।  यदि वे लोग खेतो मे व्याप्त  कीट- पतंगें  नही मारेंगे ? चिडीया , चूहे ,चिटरे ,खरगोश ,वानर , हिरण वराह नही मारेन्गे या भगाएन्गे नही तब उनकी फसलें कैसी   सुरक्षित होगी ?
   और जो मरेन्गे वह उनके भोजन का काम  भी आते है जिससे उसमें नीहित   प्रोटिंस, मिनरल  विटामिन्स अक्षय उर्जा मिलता है तभी वह श्रमश्राद्य कार्य कर सकेगा । इसी तरह  खेत सुखते हैं, नाना किस्म की मछलियां जिसमें औषधीय गुण रहते है उनके भोजन के हिस्सा हैं।
  वनवासी तो वनोपज और पशु -पक्षी पर ही निर्भर हैं। समुद्र किनारे का मछुवारा के लिए मछलियां  धान और गेहूं की बालियां है जिसे वे  श्रद्धापूर्वक अपने अराध्य में मैदान की कृषक समुदाय जैसे ही चढाते हैं। और उत्सव मनाते हैं।
   शाकाहार - मांसाहार को नाहक  पुण्य- पाप की श्रेणी मे विभाजित कर रखे है । जो मांस खाया एक झटके मे पापी हो गया और जो साग सब्जी खाये वह तुरंत पुण्यात्मा हो गया ! क्या गज़ब की धारणाएं बनी हुई हैं। 
    असल मे पाप किसी व्यक्ति  की आत्मा को दुखाना झुठ बोलना या  दूसरो पर अन्याय करना है ।जबकि ऐसा तो शाकाहारी भी करता है।
    मांसाहारी जो अनेक  देव- देवियों मे पशुबलि चढाता और मांस को प्रसाद मानकर ग्रहण करता  है उसे फिर धार्मिक क्यो माना गया है ?
  "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" क्यो कहा गया ?
      और तथाकथित राक्षसों / असुरों का  वध तो सारे देवी -देवता  गण अस्त्र -शस्त्र लेकर करते है।उन कथाओं को भव्य मंचों पर क्यो सुनाते है ? हमारे महाकाव्य युद्ध और हिंसा  पर ही रचा गया है। उसके नायक का अदम्य साहस का प्रदर्शन ही हमारे संरक्षक होने की पुष्टि करता हैं। फलस्वरुप वे हमारे अराध्य है ,हमारी श्रद्धा उनकी उसी शौर्य प्रदर्शन पर ही टीका हुआ हैं ।
   हमारे ख्याल से शाकाहार- मांसाहार व्यर्थ प्रलाप है और नाहक व्यक्ति के बीच खान- पान को लेकर अभेद्य दीवार खड़ा करने की नापाक इरादे हैं। यह देश काल परिस्थित और स्वरुचि ऊपर केन्द्रित हैं।
   हा स्वरुचि भोजन पर रुचि श्रृंगार जरुर होना चाहिये । यह नीति कथन है और व्यक्ति को सदाचारी व परोपकारी होना चाहिये न कि शाकाहारी या मांसाहारी ।
       - डा. अनिल भतपहरी

याचिका को छत्तीसगढ़ी मे अरजी कहते हैं।

तुरते- ताही 

।।याचिका ल छत्तीसगढ़ी म अरजी कहिथे  ।।

   
छत्तीसगढ़ी माध्यम से शिक्षा पर लगी जनहित याचिका पर सुनवाई के समय  हुई जिरह में छत्तीसगढ़ी की अक्षमता के ऊपर टीप अनुचित हैं।
  याचिका को क्या कहते है ? पर वकील साहब को जवाब नही सुझा । ऐन वक्त भाषा के अनुप्रयोग न करने से उचित शब्द स्मृत भी नही होते यह स्वभाविक हैं।
   असल में याचिका शब्द अंग्रेजी के पीटिशन के विधिक हिन्दी शब्द है , जो याचक से बना है ।  इसके पर्याय प्रार्थना , विनती , अर्ज़ आदि है। देश  मुगलों के शासन से कचहरी ,वकील ,अर्जी, अर्जीनिवेश, मोहर्रिर , दफ्तरी पटवारी तहसीलदार जैसे शब्द लोक भाषाओं में आया। इस तरह याचिका को छत्तीसगढ़ी  "अरजी"  कहते है। 

   हर क्षेत्रिय भाषा  रिजनल लेंगवेंज विस्तारित होकर राजकीय  और सक्षम भाषा बनती  है।उसमे मूल शब्द प्राय,: कम ही रहते हैं । आगत और तस्सम तद्भव शब्दों से वह समृद्ध होती और इनके अनेक वर्ष लगते है।
 छत्तीसगढ़ी के अनेक मूल शब्द न  अंग्रेजी मे है संस्कृत मे है न हिन्दी । इसके मतलब इन भाषा को  अक्षम कहे या माने जाय  ?  क्या यह  सही हैं? नही । 
  सावा ,बदौरी ,करगा ,ओगन , ठुलु  ,गासा ,पखार , जुड़ा सुमेला पंचाली आदि  का कोई पर्याय अंग्रेजी संस्कृत मे हो तो बतावे?
     दर असल शब्द आवश्यकता  प्रयोग और प्रवृत्ति आदि के बनती हैं और व्यवहृत होती है। मनुष्य का दायरा जितना विस्तारित होगा उनकी भाषा उतनी ही विस्तृत और समृद्ध होंगे। 
     पाठ्यक्रम लागू करके देखे महज एक दशक में जो परिणाम आएगा चौकाने वाला होगा। छत्तीसगढ़ी हिन्दी की कृत्रिम व नवीन भाषा नही यह प्राकृतिक रुप से विकसित हजारों वर्षों की यहां तक विक्रम खोल , चितकबरा डोंगरी , सिंघनमाड़ा से प्राप्त आदिम चित्र से प्रमाणित आदिम मानव द्वारा बोली जाने वाली जनभाषा हैं।
     स्कूली शिक्षा के  इतिहास में आरंभ से इसे पढ़ाए जाते तो यहां भी उडिया मराठी बंगाली तमिल‌ तेलगु जैसे परिस्थियां और प्रतिभाएं विकसित होती । पर दुर्भाग्यवश जो समझी और व्यवहृत नही की जाती ऐसी तीनों भाषाएं  हिन्दी संस्कृत और अंग्रेजी पढाये जा रहे हैं।  इस भाषा में छत्तीसगढ़ी दैनंदिनी में उपयोग आने वाली शब्द ही नही हैं। फलस्वरुप लोग अपनी मातृभाषा छत्तीसगढ़ी को विस्मृत करने की अवस्था में पहुच गये हैं। यह बेहद चिंतनीय हैं। 
    यदि आधुनिक ज्ञान- विज्ञान के चलते कोई शब्द न भी हो तो अन्य भाषा के शब्द को ज्यों की त्यों तत्सम रुप या ध्वनि प्रवर्तित कर तद्भव रुप में अंगीकृत की जाती है। तो छत्तीसगढ़ी में इस तरह आत्मसात करने की बेहतरीन व्यवस्था हैं। छत्तीसगढ़ सात राज्यों की सीमा से लगा हुआ हैं।  आजादी के पूर्व म प्र  उप बिहार उडीसा महाराष्ट्र मारवाड़ आदि  से साक्षर लोगो को बुलाकर मालगुजारी , रैय्यतवाड़ी  में कर्मचारी नियुक्त किये  वे स्थायी रुप से बसते गये। उस दृष्टि से भॊ  भाषाई वैविध्य है। आजादी के बाद पंजाबी सिंधी बंगलादेशी एंव तिब्बतियों को बसाये गये। भिलाई कोरबा जैसे नवरत्न श्रेणी के उद्योग के चलते पुरा लघु भारत इन जगहों पर बसा हुआ हैं।
   उन सबके शब्द छत्तीसगढ़ी में आत्मसात होते गये अब भी यह जारी है। कहने का तात्पर्य अन्य भाषा के शब्दों को  ग्राह्य करने अपूर्व  क्षमता हैं। इसलिए अधिक या अनावश्यक या कहे " बरपेली संसो न इ करना चाही।"
    राज के  नान्हे नान्हे लरिका बच्चा मन ल अपन दाई- ददा अपन दादा- दादी , नाना - नानी  के भाखा म पढाय- लिखाय अउ समझाय के तुरते बेवस्था होना चाही। नइते ओमन अपन भाषा के संग अपन संस्कृति तको ल भुला जही ।  वैसे भी विगत सवा सौ साल के स्कूली शिक्षा के चलते तथाकथित शिक्षित अउ रोजी - रोजगार पाए  शहर पहर धरे मनखे मन ही प्राय: छत्तीसगढ़ी ल गांव- गली खेत - खार ,मजदूर- श्रमिक‌ की बोली समझ आत्महीनता से ग्रसित कन्नी काट लिये हैं।इनकी संख्या महज कुछ हजार या लाख से अधिक नही‌ है। इनकी बिना परवाह किये आठवी सदी में समृद्ध दक्षिण कोशल ( पुरा वैभव सिरपुर मल्हार तुम्मण आदि )  की वैभव को पुनर्स्थापित करने का अब वक्त आ गया हैं। और वह हमारी प्यारी छत्तीसगढ़ी भाषा और संस्कृति से ही संभाव्य होगा ।
    उधारी -बाढ़ी के जिनीस ह कतेक ल पुरही अउ काबर फुटानी मारबोन  । अपन ल जतनव अउ उपजाव ।
          ।।जय छत्तीसगढ़ी जय छत्तीसगढ़ ।।

Sunday, October 8, 2023

खनाबदोश जाति देवार की गायन पद्धति

खानाबदोश जाति देवार की गायन पद्धति 

   छत्तीसगढ़ की खानाबदोश जातियों में   देवार प्रमुख हैं अन्य में मित्ता , मंगन -भाट , बसदेवा, नट पारधी ,शिकारी ,किस्बा  आदि आते है। इनका कोई स्थायी घर या गांव नही होते ।ये लोग आजीविका और वस्तुओं के उपलब्धता के दृष्टि से इधर - उधर घुमते रहते है। इनमे मंगन  भाट - बसदेवा लोग अब घर या गांव बसा लिए है। पर मित्ता देवार आदि अब भी खनाबदोश जीवन जीते है। इनके रहने की जगह को डेरा या भसार कहते है ।जो शहर या गांव से दूर रहते हैं।‌ इनके इर्द - गिर्द कुत्ते ,सुअर गधे आदि पशुए भी इनके साथ रहते है। कही कही कुछ बडे ग्रामों , कस्बो मे लंबी अवधि के लिए डेरे लग जाते है ।जहां अनेक घुमंतु जातियां मिलकर रहते हैं। उनके बीच मेल मिलाप से  सांस्कृतिक व प्रवृत्ति गत एकीकरण होने लगे लगे हैं। प्रेम प्रसंग मे शादी ब्याह होने से इन घुमंतुओं मे एक नवीन सम्मिश्रण संस्कृति का विकास होने लगे हैं। 
  बाहरहाल  इनमे देवारों के साथ साथ कुछ अन्य के भी कार्य गायन वादन एंव नर्तन हैं। राजतंत्र के समय खासकर कलचुरियों एंव हैहयवंशीय राज्य में  देवारों को राजकीय संरक्षण प्राप्त था और ये लोग चारण -भाट की तरह ही राजा एंव राज्य की यशगान करते आजीविका चलाते हैं। ये कलावंत समाज है जिसकी स्त्रियां भी नृत्य- गान प्रवीण होती है। रानियों/ सामंतों की स्त्रियों  व आम महिलाओ के  लिए सौन्दर्य प्रसाधन की वस्तु जैसे ये बालों के  लिए रीठा ,आंवला ,शिकाकाई अन्य जड़ी - बुटी  बेचती तथा गोदने गोदती और उनके एवज में पैसे व अनाज प्राप्त कर आजीविका चलाती रहीं। 
इनके गीत व बोल बडे ही सम्मोहक मनोरंजक व नीति परक होते है ।
मांदर, रुंझु, सरांगी  , खंजेरी, चुटका आदि लोक वाद्य द्वारा आकर्षक नृत्य गीत पस्तुत करते है -
रामे रामे रामे गा मोर रामे रामे भाई ग 
ज उने समय के बेरा हवे भाई ...
कथा प्रसंग उठाते है और सरांगी कानो मे अमृत घोरते है ।
चिंताराम देवार की गायन आकाशवाणी रायपुर से प्राय: प्रसारण होते ही रहते है। किस्मत बाई , मालाबाई , फिदाबाई , पूनम , पद्मा ,  जयंती  रतन सबिहा ,जीयारानी जैसी अनेक मधुर गायिकाएं व नृत्यांगनाए हैं।

  नाचा के पुरोधा  दाऊ मंदराजी जी ने छत्तीसगढ़ की बेहद लोकप्रिय नाट्य प्रस्तुति  नाचा मे हारमोनियम और महिला देवारिन कलाकार का प्रयोग कर नाचा की लोकप्रियता को शीर्ष पर ले गया ।तब से देवारिनों नाच आर्केस्ट्रा में काम मिलने लगी और उनकी कलाओं को चार चांद लगे।इनकी  झुमर नाच , करमा घुच्ची करमा नृत्य व गान में इनके  पुरुष मांदर व रुंझू खजेरी चुटका  बजाते थे।
 झुम के मांदर वाला रे करमा धुन म मय नाच मातेंव...
 उनकी सर्वधर्म सम भाव और सर्व मत संप्रदाय के बीच जाकर उनके मन बोधने व गायन का बेहतरीन स्तर द्रष्ट्व्य है - 

राउर पिंजरा म बइठ सुवा मैना बोलत हे राम राम 
अहा बोलत हे राम 
बैसनो साकत बुद्ध जैन कबीर पंथ सतनाम हरि जी ...
  इनमें रोज कमाओ रोज खाओ और मद्य- मांस आदि के चलते  गरीबी और अनेक बुराई पनपी और निरंतर यह समाज मुख्य धारा से कटते चले गये।
हालांकि इनकी भाषा इनके शब्द आदि एक अलग तरह के सांस्कृतिक तथ्य समेटे हुए है जिनका अपना एक अलग महत्व हैं।
   इतिहास साहित्य के अलावा समाज शास्त्र ,मानव शास्त्र सहित भाषा विज्ञान के लिए यह समाज अन्वेषण का विषय है।
 साठ - सत्तर के दशक में बघेरा निवासी दाऊ रामचंद्र देशमुख जी ने देवार डेरा नामक संस्था बनाकर देवार और देवारिनों की कला को पहली बार मंचीय स्वरुप दिया । अनेक तरह की उनकी लोक गीत और वाद्य यंत्र व कलाकारों द्वारा भव्यतम प्रस्तुति दी जाने लगी।  एक तरह से देवार गीत और उनकी  नृत्य  गान वाद्य कलाएं शिष्टता लिए हुए सामने आई - 
आज जागत हे जनता के भाग रे मैना बोलय 
मैना बोलय सुवा न के साथ रे मैना बोलय ...
देवार एक जगह टीक कर नही रहते बल्कि वे लोग हर  महिने दो महिने में डेरे बदलते रहते है ।उनके पास जरुरी भोजन के पात्र कुछ कपडे और कुछ कथरियों और मुर्गे सुअर के सिवा लोई संपदा भी नही । उन्हे लगभग समाज अस्पृश्य की श्रेणी में रखते भेदभाव करते है। 
   इसकी तीक्ष्ण प्रतिक्रिया इन लोगो द्वारा गाई जाने वाली  लोकगाथा " दशमत कइना" में देखने मिलता हैं। लोक मे यह विश्वास है कि यह सत्य घटना पर आधारित कथानक हैं।
    अत्यंत रुपसी दशमत ओड़न  की प्रेम में एक ब्राह्मण लड़का अपनी जाति वंश त्याग कर दशमत को पाने  उनके बीच आकर रहने लगते है -

नव लाख ओडिया नव ओड़निन 
खोदे सगुरिया जाय ।
जुगजुग बरय एक झन नोनी 
नाव जसमतिया ताय ।।

दशमत से प्रणय निवेदन करते कहते है -

मोर घर हवय हंसा परेना , सेज सुपेती अनलेख ।
हीरा मोती रतन पदारथ पाबे अटल  सुख सरेख ।।  

दसमत कहती है -

तोर घर हवे हंसा परेवना त मोर कुकरी अनलेख ।
तोर घर हवय सेज सुपेती त मोर कथरी अनलेख ।।

  इस तरह दोनो के बीच वार्तालाप  और तुलनात्मक बातों से युवक  यह तय करना कठिन होता है श्रेष्ठ जैसा कुछ नही जिसमे जीवन चले और सुख मिले वही उपयोगी  वस्तु ही श्रेष्ठतम है ।

  चिरई म सुघ्घर पतरेंगवा सांप सुघ्घर मनिहार ।
कमा खा हस ले गा ले जात म सुघ्घर देवार ।।

  कह अपनी जातिय संस्कृति को यह लोग किसी से कमतर नही मानते बल्कि सुंदर समझते हैं।

 अंतत: दशमत को पाने के लिए ब्राह्मण युवक देवार की तरह शराब पीते है सुअर मांस खाते है !  जनेऊ तिलक भंग कर साधारण मनुष्य बनकर देवारों जैसा स्वरुप मे आते है ।
दशमत तो उनकी इस बलिदान से प्रभावित हो प्रेम करने लगती है पर पुरुष वर्ग उन्हे वरण नही करने देते और  उनकी जात और कथित उच्च होने की धारणाओं पर खिल्ली उड़ाते जातिय दर्प को कुचल कर गधे में बिठाकर ताल सगुरिया में डुबो देता है ।
उनकी इस  कृत  ब्राह्मण युवक  रुदन करते है-
  माथा धर के बाभन रोवय 
का करम करम डारेव ।
मया म अरझे रहिके मय कुल बंश बोर डारेंव ।।
  
छत्तीसगढ़ में गुरुघासीदास की शिक्षा  " मनखे मनखे एक " हर संवर्ग और लोगो को अभिप्रेरित किया एक देवार गीत मे इस संदेश की बानगी द्रष्ट्व्य है -

मनखे ल मनखे मन अब मनखे  मानत हे 
आज जुरमिल मित्ता मन भजन गावत हे ...
     देवार लोग अपने जन्म से मृत्यु पर्यन्त  रस्मों के गीत के अलावा दान दया धरम के गीतों साथ प्राय: प्रेम प्रसंग के गीत  नगेसर कैना ,  करमा ,  ददरिया ,चंदैनी ,गाकर नाच कर लोगो को रिझाते व मनोरंजन कर के जीवन यापन करते हैं।
   ये लोग बंदर नचाने और कुछ करतब दिखा कर भी रोजी रोजगार करते है।
   देवार -मित्ता लोग अन्य घुमंतु जातियों जैसे  मंगन ,भाट ,बसुदेवा , किस्बा ,  डंगचंगहा , मदारी, नट ,सपेरे पारधी , शिकारी  आदि घुमंतु लोगो के आसपास रहने से उनके जैसे ही जीवन वृत्त अपनाने लगे है । फलस्वरुप उनकी विशेषताएं व लक्षण यदा - कदा इनमे भी दिखते है। ये लोग जड़ी -बुटी मंदरस , बधिया तेल  सुअर मुर्गे आदि पालने व  बेचने  आदि के कार्य भी करते हैं। 
पर राजतंत्र के खात्में और आधुनिक प्रसाधनों की वस्तुओं से बाजार सज जाने से इनकी पारंपरिक कार्य विलुप्त सा हो गये। इनके रोजी - रोटी छिना गया ।
      
फलस्वरुप  वर्तमान में अपने आजीविका हेत  हमारे दैनंदिनी में उपयोग की वस्तुओं के बचत या वेस्ट सामाग्री को जिसे हम कुड़ा दानों में फेंक देते है को  एकत्र कर कबाडियों के पास बेचना हैं। और कुछेक धरेलू या खिलौने की सामान के बदले लोगों की वेस्ट चीजें एकत्र करना हैं। 
   बहुत ही निर्धन पर जो संसाधन है उसी पर मस्ती पूर्वक जिंदादिली से यह तबका जीते आ रहा है। शासन - प्रशासन से इन्हे कोई अपेक्षा नही और न कभी अपने हक अधिकार के लिए एकजूट होते है।
ये संख्या में कम भी है और कलावंत समुदाय होने के कारण इनकी युवा महिलाएं और स्त्रियां नाच पेखन लोक कला मंचों से जुड़ी हुई है। वहां की आय से यह समुदाय बिना कोई  कठोर परिश्रम किये जीवन गुजार देते हैं। ये लोग कही स्थिर टिक कर रहते नही फलस्वरुप अनेक कल्याणकारी योजनाओं से दूर रहते हैं।  साथ ही चाह कर भी प्रशासन उन तक पहुंच नही पाते।
    हालांकि अब स्लम एरिया मे चलता - फिरता अस्पताल आदि खुल जाने से इनका लाभ इन समुदायों को मिलने लगा हैं। और सामाजिक चेतना भी यदा - कदा आने लगी हैं। फिर भी इनके बीच मोबाइल अस्पताल जैसे इनके बच्चों के लिए चलता - फिरता स्कूल आदि खोलने से परिणाम सकरात्मक आएन्गे। कुछ कुछ समाज सेवी लोग व संस्थाएं इनकी दशा सुधारने सक्रिय है।
   इनके बच्चों को नि: शुल्क शिक्षा या कंबल फल मिठाई दवाई आदि वितरण करते देखे सुने जाते हैं।
   रायपुर आदि बड़ी जगहों पर शादी / पार्टी/  भंडारा  आदि के बचत खाने भी इन्हे परोस दिये जाते है। कुछ लोग  पुराने कपडे दान करते है।नेकी की दीवार से भी ये लोगों द्वारा छोड़े गये पुराने कपड़े पहन लेते है। इस तरह  जैसे - तैसे इन लोगों का निर्वह‌न हो ही जाते है। कुछ लोग सुअर पालने लगे है और उससे इनका जीवन स्तर सुधरने लगा है ।पर शराब आदि के कारण निर्धनता व्याप्त है । ये लोगों में अपराधिक प्रवृत्तियां भी पाई जाती है।  मद्यपान चोरी  लड़ाई झगडे बलवा  जबकि पुराने समय मे देवार निष्ठावान थे और चोरी आदि से दूर परिश्रमी थे।
   वृद्धावस्था मे ये लोग भिक्षाटन करते हं। इस जाति की पुनर्वास बेहद जरुरी है । शासन - प्रशासन को चाहिये  कि बेहतर कार्ययोजना बनाकर इनके भसार यानि डेरे या मोहल्ले मे चलित क्लीनिक टाइप चलित स्कूल खोले ।उनके बच्चों को उनकी संस्कृति के अनुरुप शिक्षा दे ताकि  इस समाज के हालात में नव प्रवर्तन हो सकें।

    डा. अनिल कुमार भतपहरी
      मो न 9617777514 
           सचिव 
छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग 
सी - 11/ 9077 सेंट जोसेफ टाउन अमलीडीह रायपुर छत्तीसगढ़ 492001