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शिक्षक दिवस पर
गुरुकुल और स्कूल
आधुनिक शिक्षा व ज्ञान - विज्ञान को कोसते और कल्पित या मिथकीय वर्णित आख्यानों के प्रति आसक्त जनों से विनम्रता पूर्वक आह्वान हैं कि गौरव गान के चक्कर में कही "दुधो गय, दोहनी गय न हो जाय।"
वैसे भी मोह विकार किसी व्याधि से कम नहीं है। प्राचीन गौरव गान एक तरह से "गवाय मछरी जांघ भर " जैसा ही तो हैं। इसलिए युक्ति युक्त समन्वय भाव सर्वोत्तम हैं। हमें उन्ही का अनुकरण करना चाहिए ।
नई शिक्षा नीति स्वागतेय हैं पर उनका प्रबंधन नीजिकरण होने से पुनश्च वही मनमानियों का दौर आरंभ होने की आशंका हैं जहां प्रतिभाएं नहीं प्रिय जन गढे जाएन्गे । शिक्षक संचालक पूंजीपति ( राजा ) के गुलाम हो जाएन्गे फिर कृपण द्रोणाचार्य पुत्र मोह और राजाज्ञा से वशीभूत एकलव्य के जगह अर्जुन ही बनाएन्गे या कर्ण सदृश एन वक्त निस्सहाय मतिभ्रंम नौनिहाल निकलेंगे। निजी स्कूल विश्वविद्यालय में यह खूब फल - फूल रहा है। मोटी फीश व रकम द्वारा मेरिट मार्कसीट बनाए जा रहे हैं। घर बैठे आन लाइन डिग्रियाँ मिल रही हैं।
सच कहे तो प्राचीन गुरुकुल आम भारतीय के लिए अनुपयुक्त थे। चंद सामंत व सुविधा भोगी जन जिसे कथित उच्च कुलीन कहे जाते हैं वही वहाँ के बटुक छात्र हो सकते थे। उस पर भी अनेक आचार्य गुरु आदि राजाज्ञा या जातिय दर्प वश उनमें भी भेदभाव करते रहे हैं। कुछेक तो महागुरुघंटाल हुए भी हैं। फलस्वरुप हजारों साल की दासता भोगने पड़े । उसका असर अब भी शेष हैं।
भले आधुनिक स्कूल में सर -मैडम कथित आचार्य , गुरु आदि परंपरा के वाहक न रहे हो पर स्कूल से ही विकास के सूत्र निकले हैं। लार्ड मैकाले के स्कूली शिक्षा महज ५० वर्षों में असर दिखाए फलतः उनकी गुलाम बनाए रखने की सोच धरी की धरी रह गई । स्वतंत्रता हेतु क्रांति की मशालें उसी स्कूली शिक्षा से ही जली जो कि ज्वाला में तब्दील होकर गुलामी की जंजीर को पिघला दी गई। लोग आजा़द हुए।
धर्म -कर्म, वर्ण -भेद , जात - पात ,भाग्य- भगवान स्वर्ग- मोक्ष वाली गुरुकुली शिक्षा से मानसिक व धार्मिक गुलामी बुनी गई कमोबेश आज तक बरकरार हैं उसी में ही उलझे हुए हैं।
वर्तमान समय में ज्ञान विज्ञान के स्थान पर परंपरा और संस्कृति के नाम पर प्राचीन गुरुकुल परंपरा के यशगान करते उसी प्रणाली को लाने की बातें चलती हैं।
ऐसे में यह विचारणीय हैं कि आधुनिक शिक्षा से शेष दुनियां अंतरिक्ष में जा रहे हैं। आधुनिकतम स्वास्थ्य सुविधाएँ विकसित कर रहे हैं। उत्कृष्ट वैचारिक व प्रवर्तनकारी साहित्य रच रहे हैं। शासन प्रशासन व न्याय आदि के लिए बेहतरीन शिक्षण संस्थान बना रहे हैं। और इधर गाय गंगा गोबर गोमुत्र पर रार मचाए बैठे हैं।
वर्तमान में युरोप और पश्चिम जहां पर हैं इनके आसपास फटकने की चाह पैदा नही कर पा रहे हैं।
इसलिए उनके आकर्षण में हमारे होनहार प्रतिभावान युवा वर्ग खीचें चले जा रहे हैं। तब हम क्या कर रहे हैं? और किस मोहाकर्षण में फंसे पड़े हैं। उलझे +भटके असमंजस सा खड़े हुए है? विचार करना ही होगा ।
अन्यत्र विश्वविद्यालय हास्पिटल और रोजगार के अनेक संस्थान बना रहे तो यहां बड़ी व ऊची प्रतिमाएं खड़े कर के श्रेष्ठता की होड़ लिए ऐठे - बैठे हैं। दनादन गगनचुम्बी प्रतिमाएँ पर्यटन के बहाने वोट बैंक के वास्ते खडे किए जा रहे हैं।
इकबाल की कुछ बात की हस्ती मिटती नही हमारी का आशय कही उसी रुढ़ - मूढ़ परंपराए और मान्यताएँ तो नही हैं जिसे गंगा जल पिला कर पोल -पास रहे हैं। और कुछ न पाने की चाह लिए अजगर करे न चाकरी सबका दाता राम जपते कछुए की तरह ढ़ाल ओढे आवरण बद्ध छुपे हुए बैठे किसी प्रतिस्पर्धी खरगोश को गच्चा देने की चक्कर में या मुगालतें में हैं। इसलिए तो सर्वत्र साम्प्रदायिक उन्माद देश भर में नज़र आ रहे हैं।
हमारे प्रतिष्ठान जाति मत संप्रदाय पंथ विहिन संपूर्ण मानव गढ़े जो देश को उन्नति की ओर अग्रसर करे न कि दंभ और दर्प पाल प्रभाव करने वाले सांप्रदायिक व्यक्ति निकाले । स्थानीय भाषा और लोक तत्व को समाविष्ट करते अत्याधुनिक शिक्षा प्रणाली और समदर्शी विद्ववत शिक्षक और छात्र ही स्वर्णिम भारत का निर्माण कर सकते हैं। जिसके अंत:करण में कोई पूर्वाग्रह न हो ।
।।शिक्षक दिवस की हार्दिक बधाई ।।
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