गढ़ों के गढ़ छत्तीसगढ़ : संदर्भ तेलासीगढ़ और रोहासी गढ़
भारत वर्ष के मध्य में अवस्थित छत्तीसगढ़ का प्राचीन नाम दक्षिण कोशल या दक्षिणापथ भी रहा हैं। क्योकि यहां से ही दक्षिण भाग में प्रवेश करते है। आर्य , द्रविण ,नाग ,सत्यवंत सहित अरण्य संस्कृतियों का समागम होने से स्थापत्य कला में भी उनके तत्वों का प्रभाव सस्पष्ट: परिलक्षित होते हैं।
छत्तीसगढ़ किसी एक वंश या राजा के अधीन रहा हो और यहां की स्थापत्य और कला संस्कृति में केवल उनका ही प्रभाव या वृतांत , लोक कथाओ या गाथाओं मे मिलते हो, ऐसा भी नही हैं। क्योकिं यहां पर अनेक राजवंशों का शासन होने के बाद भी स्थानीय जनता में स्वायत्ता भाव सदा विद्यमान रहा है फलस्वरुप प्रत्येक राजवंश और उनके मातहत जमींदारों, मालगुजारो, गौटिया , मंडलों का प्रभाव साफ -साफ नजर आते है।उनकी अपनी मान्यताओं के आधार पर धर्म कला संस्कृति का प्रचार - प्रसार भी सर्वत्र द्रष्ट्व्य हैं।
यहां पर तकरीबन 100 के आसपास भाषाएं और बोलियों का प्रचलन रहा हैं और उनमें परस्पर अन्तर्संबंध भी रहा है । इन भाषाओं में जन जीवन की संस्कृति का दिग्दर्शन होते हैं।इसके साथ ही 42 - 45 गढ़ होने का भी उल्लेख मिलता है ।परन्तु वर्तमान मे 36 गढ़ की सीमाओं का प्रदेश होने के कारण ही छत्तीसगढ़ नाम पड़ा है । इन गढ़ो की कलाए भाषाएं यहा तक रहन सहन इत्यादि मे भी कुछ न कुछ विविधताएं नज़र आते है। गढ़ों की संख्या के अतिरिक्त प्रदेश के नामकरण मे चेदि वंश के राज के कारण चेदिस गढ़ जो बाद छत्तीसगढ़ हुआ और बिहार से मगध नरेश के सैन्य से निष्कासित 36 कुरि वंश जिन्हे तिरस्कृत किए आकर छत्तीसगढ़ में घर बनाए और बस गये। जैसे बातों का भी उल्लेख मिलता हैं। परन्तु यह मान्यता लगभग सर्वमान्य हो चली है कि शिवनाथ नदी के दोनो ओर रायपुर राज में 18 गढ़ और रतनपुर राज मे 18 गढ़ होने कारण यह प्रदेश छत्तीसगढ़ के रुप मे अस्तित्वमान रहा हैं। इनका उल्लेख रायपुर एंव बिलासपुर के जिला गजेटियरों में उक्त 36 गढ़ों की सूची दी ग ई हैं।
साहित्य मे छत्तीसगढ़ का नाम 1487 में खैरागढ़ के चारण कवि दलराम राव कविता मे मिलते है-
लक्ष्मी निधि राय सुनो चित्त दै गढ़ छत्तीस मे न गढ़ैया रहीं।
यहां की स्थापत्य पर नजर डाले तो जन जीवन पर सर्वाधिक प्रभाव उस परिक्षेत्र की भूमि वहां की जलवायु और उसमें ऊगने वाली वनस्पत्तियां अन्नादि का होते हैं। छत्तीसगढ़ प्रमुखत: तीन भागो में विभक्त है जिसमे उत्तर में सरगुजा का वनाच्छादित पठारी भाग मध्य में ऊपजाऊ मैदानी क्षेत्र और दक्षिण मे वनाच्छादित पहाड़ियों से धिरी हुई बस्तर का पठारी क्षेत्र। यहां 40% अधिक वन्य क्षेत्र होने से औसत से अधिक बारिश वर्षाकाल मे होते है फलस्वरुप महानदी नर्मदा सोन शिवनाथ इंद्रावती जैसे नदियों का उद्गम है। वर्षा से बचने ढाल युक्त खपरैल से ओरवाती युक्त मकान बनाने की प्रथाए है। यदि मकान की छाजन देखे तो समझ मे आते है कि यहां की बनावट समुद्री तटवर्ती क्षेत्र जहां आए दिन बारिश होते रहते है से कम ढाल युक्त होते है फिर भी हमे बनावट मे सागर तटीय प्रदेश उडीसा आन्ध्रा केरल महाराष्ट्र के घरो की तरह देखने मिलते हैं।
महाराष्ट्र विदर्भ पैटर्न का स्थापत्य शिल्प यहां के अधिकतर बाडा हवेली और राजा / जमींदारों / मालगुजारों का घर आज भी देखने को मिल जाते हैं।
हालांकि शहरी क्षेत्रों मे उप बिहार म प्र राजस्थान गुजरात आदि के व्यवसायी आव्रजन किए लोग बसे हुए है और घरो की बनावटे उसी तरह की विगत 2- 3 सौ वर्षो की है । परन्तु यहां की अधिकतर ग्रामों और सुदूर अंचलों के घरो बाडो और हवेलियो की बबनावट और स्थापत्य मे दक्षिण शैली का प्रभाव स्पष्टत: झलकते हैं।
प्राचीन काल मे एक गांव का मंडल पांच गावों का गौटिया आठ गांव का अठगंवा जहां मालगुजार होते थे 12 गांवो का बरहा और अष्टादश गांव का जमींदार या या राज गढ़ होते थे। यही से राज का प्रचलन रहा है । इसलिए यहां रायपुर राज धमधा राज खैरागढ़ राज ,लवन राज पलारी राज कौडिया राज फुलझर राज जैसे अनेक राज का प्रचलन रहा है इसी तरह 16 गांवो की पाली भी प्रचलन मे रहे है।
इनके अतिरिक्त सघन बसाहट वाली नगर या बड़ा गांव होते जहां जमींदार या राजा के निवास बनते जिसे गढ़ या गढ़ी कहे जाते हैं। इन गढ़ों का नाम गढ़ क्यो पड़ा यह भी रोचक दास्तान हैं।
गढ़ - राजा/ जमींदार के महल के चारो ओर जल दुर्ग होते थे और जल से सटा हुआ बाहरी और भीतरी हिस्सा दलदल होते थे जहां आक्रमण सैन्य दस्ता चाहे वह पैदल या घुड़वार आदि हो दलदल में फंस जाते है। फिर उनपर तीर भाले पत्थर से प्रहार खदेड़े जाते थे और नगर और राजा व राज्य की सुरक्षा की जाती थी । यह बेहद गहरी खाइयां या गढिया है जहां मिट्टी और जल का दलदल सुरक्षा गत कारणों से महत्वपूर्ण थे । इनके चारो ओर चार दरवाजा होते थे और उनके बाहर तालाब मैदान फिर आगे खेत और दादर यानि रम्य वन क्षेत्र फिर सघन वन एरिया । इस तरह की बनावट से युक्त गढ़ और उनके सामंत गढपति होते रहे हैं।
छत्तीसगढ़ के अमेरा गढ़ मे स्थित अमेरा , पलारी, रोहासी ओड़ान, तेलासी , नामक प्राचीन जलदूर्ग से युक्त समृद्ध और बड़ा गांव है। इन ग्रामों के मध्य मे बड़ा सा विशालकाय बाड़ा बना हुआ हैं। जहां पर महल दरबार और भंडार गृह कोठार अन्नागार आंगतुक कक्ष कुआ बाड़ी आदि व्यवस्थित रुप से निर्मित हैं। जहां पर राजा जमींदार मालगुजार निवास करते थे और उनके मातहत लोग उस बाड़ा के चारो ओर बसे हुए होते थे। यह जलदुर्ग या गढ़ जंगली पशु और बाहरी लुटेरे या शत्रु से सुरक्षा के निमित्त होते थें। हर द्वार पर द्वार पाल या पहरेदार होते थें। साथ ही ग्राम रक्षक देवी देवताओ की स्थापना ही रहते है जिसमे ठाकुर देवता महादेव, महामाई ,शीतला ठेंगादेव ,करिया, ध्रुवा यहां तक कि रिक्षिन देव -देवी तो राक्षस या दानव के श्रेणी के होते उसकी भी पूजा की जाती रही हैं।
शिव विष्णु और शक्ति के उपासक मिलते थे साथ ही तंत्र मंत्र अनुष्ठान मे बैगा सिरहा भैरव डायन चूरेतिन- परेतिन (चुडैल - प्रेतिन ) मल्लिन भटनीन चटिया मटिया जैसे यक्ष यक्षिणी की पूजा की प्रथाए रही हैं। यह सब किसी पेड़ खोह पत्थर का तालाब नदी झील सरार किनारे पर अनगढ़ पत्थर या लोहे या लकड़ी की बनी त्रिशुल ओखल सील आदि आकृति बनी हुई होती हैं। यहां के पुरावशेषो की और अब भी जो चीजे व्यवहृहत या इस्तेमाल हो रहे है का सुक्ष्म अवलोकन से ज्ञात होता है कि हम इतनी प्राचीन विरासत के साथ जीते आ रहे हैं। यहां की प्रत्येक गढ़ महत्वपूर्ण है और उनसे संदर्भित प्रेरक गाथाए जिनमे प्रेम त्याग समर्पण जैसे उदात्य भाव समाहित है जो छत्तीसगढ के जन जीवन को और यहां सांस्कृतिक और ऐतिहासिक तथ्यों को समृद्ध करती हैं।
जय छत्तीसगढ़