Wednesday, September 28, 2022

झन नंदावय हमर कोलाबारी

#anilbhatpahri 

       झन नंदाय कोला बारी 

छत बारी मं घलव  फरत हे  तरकारी 
ऊपजाबोन चलव  साग-भाजी संगवारी 
झन नंदावय हमर कोला बारी 

खोचे बीजा तरोई के नार ह छछल गे 
ढेखरा म चघे सेमी हांसत हे कठल के
बिहने किंदर ले मगन  घीसत मुखारी ...

तुमा  फरे गोल-गोल मखना  चकरेठी 
जीभ लमा के कइसे बिजरावय बरबट्टी
आलू बरी  संग चुरय त हासय  कराही ...

लजाय बानी खडे हे पतरेंगी चुरचुटिया 
साजे  सवांगा  देख  कोंवर रमकेलिया 
रुप देख  मोहागे अनिल भतपहरी ...

भाटा -गोभी धनिया - मिरचा लाल बंगाला 
जोम जांगर बारो महिना उपजे भाजी पाला  
आनी- बानी के साग रांध मगन हे सुवारी ...

               - डा अनिल भतपहरी 

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Monday, September 26, 2022

सिकुन

जनश्रुति पर आधारित लोक कथा 

"सिकुन "

   गिरौदपुरी म तपसी संत के दरसन-परसन करे बर अड़ताफ ले मनसे  जोत्था -जोत्था आय लगिस । बड़ सरधा भक्ति ले औरा- धौरा तेंदू तीर मं सकलाय  मंगल -भजन करय ।खाल्हे चरणकुंड के जल में असनाद करय ।सुघ्घर जेवन बना के  गुरुबानी सुन बड़ किरतार्थ होय अउ अपन ल भागमानी मानय।
   जात्रा ल  लहुटत घानी बांस के पोंगरी मं चरणामृत अउ अमृत कुंड ले अमरित जल ले जय । चरणकुंड के जल ल खेत खार छिंचय अउ अमरित जल ल पुजा पाठ मं बउरय ।  
      बांस के पोंगरी बनाय  अउ बेचे सेती  बिंझवार -कंडरा मन ल रोजी- रोजगार तको  मिले घरलिस  चरिहा टुकना सुपा -झंउहा  त बनाबेच करय अउ तीर तखार हाट बजार म बेचत सौरी नारायण मेला मं महिना भर सीजन रहय ।  अब तो पोंगरी बनाय के नवा करोबार सुरु हो गय... लोगन तुमड़ी पानी के   जगा सुभिता पोंगरी पानी धर ले घर से बाहिर निकले लगिन ।  गुरुघासीदास  के सोर चारों- मुड़ा उड़े ल घरलिस ।लोगन मंदिर, देव -धामी अउ  पंडा -पुजारी डहन ले बिदर के गुरु शरण मं आए घरलिस । गुरुबाबा के जस देख- सुन के  पंडा -पुजारी मन किसकिसी मरे अउ ओकर डहन ले लोगन ल   बिदारे सेती तरा- तरा के उदिम करे घर लिस ।उनमन सोनखनिहा राजा ले पत्तो बनाके कहिस -"तोर राज मं देव धामी के निंदक शुद्र  साधु बने के ढोंग करत हे अउ तय चुप हस ।हमर धरम के ओहर नास करत हे मंदिर मुरती ल ओहर नदिया तरिया सरोवत हे।
अउ हमन हाथ मं धरे हाथ ब इठे हन ,अइसे क इसे चलही ! एक झन बुढवा पंडित बनेच फोरिया के कहे धर लिस -
"जप- तप करके कारी शक्ति साधे हवे ,अउ सत -सत करत हे!" 
  पंडा -पुजारी मन  घासीदास ल जदुहा- टोनहा कहे लगिस कि ओला तय रोक नही त हिन्दू धरम म परलय आ जाही !गुरुबबा के  दरस -परस बर  जवइय्या मन ले छुतिक -छुता करे लगिस। गांव ले भगाये लगिस  ,जात बहिर करे लगिस । बांस के पोगरी बनइय्या मन ल रोके सेती बांस के जंगल म दावा छोड़वा दे गिस जम्मा जंगल जरे -बरे लगिस ....!!
      
        बांस  अपन कुल के बिनास देख सुसकन लगिस । जोन गुरु बाबा के परतापे अपन भाग सेहरावत पावन होत रहिस लोगन के सरधा बनत रहिन आज जर- बर के धूर्रा लहुट गय ।
             उही बांस के नवतोम्हा काड़ी ल टोर सिकुन बनाय सेती कंडरा ले जय अउ नाऊ घर बेचय ।नाउ ह परसा पान म सिकुन भेद के  पतरी सिल के बेचय ।पतरी मं  पंगत ,बर -बिहाव ,छट्टी-बरही मं दार - भात  तस्मई मालपुवा परोसे जाय ।
     जेखर मनोकमना सिद्ध होय जेखर बदना फलित होय उनमन अपन सगा सोदर म  दूर्भत्ता भात खवाय अउ आनी -बानी के खाजी पतरी म परोसय ।
        राजा घर जस माढ़ीस ओहर देबी उपासक रहिस आठे के रतिहा  कारी बरई अउ छ: दत्ता पड़वा के बलि होइस। भोकरा-भात अउ मंद बांस के पोंगरी अउ सिकुन पतरी म परोसे  गिस बड़ मगन राज परिवार सिरहा, बैगा -पुजारी संग नाचे -कुदे बाना बिदरा छेदिस- भेदिस अउ  खाय बर टुट परगिस ....
    ये काय अनहोनी होगे! पतरी के सिकुन राजा के टोटा म अरझगे .....ओख ओख करत बोर्राय लगिस ... मुंह डहर ले गेजरा फेके घर लिस ।
        सांस नइ ले सकिस अउ थोरिक समे मं आखी के पुतरी लहुट गय .. चारो डहर देखो- देखो होगे ... राजा के सांस अटक गे.... अउ देखते -देखत मुरछुत होके गिरगय ... जलसा सभा सब उजरगे ।
       सांस थोर थिर चलत रहीस ..राजा के रानी  बेटा नाती मन . गाड़ी बैला म जोर के गिरौद के उही औरा -धौरा के धुनि तीर  ध्यान म मगन गुरुबाबा कना  ले गिस ।हाथ जोड़ गुरुबबा के पैलगी करिस ... बचा दे बबा तोर नाव जुग जुग ले अम्मर रही।
गुरुबबा बड़ दयालू रहिस अपन आखी खोल ... कंमडल के जल निकाल सतनाम सुमर के पिलाइस ... गल म फंसे सिकुन के फांस उलिस अउ नीचे लीला गिस ... सांस नली खुलिस अउ राजा  के चेत अउ सुध- बुध आय ल धरलिस ..राजा हर  डंडा शरण साहेब के शरण म गिर पडिस छिमा मांगत ... आप के अपमान करेव ओकर फल ल भुगतेव बबा जी छिमा करव । उन्मन अपन घर आते बर नेवतिन बबा जी ओकर नेवता ल झोकलिन सबो बिंझवार कुलकत लहुटगिन । 
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    ऐति बांस के अंशज सिकुन  अपन कुल धातक कना बदला चुको डरिस ।
‌‌‌‌दु बछर न इ बितिस सोना खान जंगल म बांस लहलहाय धरलिस ...कंडरा मन बनदेबी मं सरधा के फूल चढात बबा जी दरस करिन ... श्रद्धालू मन फेर बांस के पोंगरी म अमरित जल ले जे घर लिस ... गुरुबबा के जयकारा से सारा जंगल गुंजे लगिस ....
             डा- अनिल‌ भतपहरी 
  सी -११ ऊंजियार - सदन  सेंट जोसेफ टाऊन अमलीडीह रायपुर छ ग

Sunday, September 25, 2022

सुख के गांजव खरही

#anilbhatpahari 

आपके वास्ते छकड़ी हमरी 

       ।।सुख के गांजव खरही ।।

जाय ल परही एकदिन सब ल ओसरी पारी 
कोनो खुंटा गाड़ के इंहा  रहय नही संगवारी 
रहय नही संगवारी तंय कर ले धरम- करम 
हरहिंछा जी ले झन राखो इरखा भेद-भरम 
सुघ्घर पहाव  जिनगी सुख के गांजव खरही 
ढ़रकत हे बेरा  इंहा अब उहां जाय ल परही

    बिंदास कहे - डा. अनिल भतपहरी

Wednesday, September 21, 2022

सात हाइकु

#anilbhatpahari 

समसामयिक सात हाइकु 

देखों तरक्की 
सबके मन भाई 
वा करिश्माई 

पशु कीमती  
इंसा हो गये सस्ती 
उजड़ी बस्ती 

टूटी झोफड़ी 
घूम गई खोपड़ी 
मुश्किल घड़ी 

ये हैं जंगल 
हो रहें हैं मंगल 
सब कुशल 

क्या कहने 
अरे वाह भतीजे 
आए हैं चीते

हैं अरबों के  
जय सरकारों के 
सुर्खी खब्रों के

चीता युग की 
या जंगल राज की  
हुआ वापसी 

- डा. अनिल भतपहरी

Friday, September 9, 2022

अजीबोगरीब विकास

#anilbhatpahari  
        
          ।।अजीबोगरीब विकास ।।

      शाकाहारी - मांसाहारी,  सगुणोपासक - निर्गुणोपासक , सवर्ण - अवर्ण , कर्मचारी -व्यापारी  ये लोग एक-दूसरे के  पूरक होकर भी वैचारिक रुप से परस्पर घोर विरोधी व प्रतिद्वंद्वी होते हैं। कभी साथ निबाह नहीं करते । ऐसे ही पृथक स्वभाव के कारण वृत्ति और प्रवृत्ति बनी फलस्वरुप समाज में जात -पात ऊँच- नीच बना ।

   आजकल  शहरों में जैन -मारवाड़ियों ,  मुस्लिम- फारसियों, कथित उच्च कुलीन संभ्रांतों   का अलग -अलग कालोनी और मल्टी स्टोरी फ़्लैट बन रहे हैं। कुछेक वर्षो में देखना उनके अनुकरण से नीचे स्तर पर भी  अपनी अपनी जातियों और समान  वृत्ति+ प्रवृत्ति वालो की कालोनी व फ्लैट्स  बनने लगेगे। गांवों में तो जातियों की पारा बस्ती वाली नालियां बजबजा रही ,अब वह सडांध नगरों -शहरों में भी  बुरी तरह फैल रहे हैं। 
   वर्तमान दौर तथाकथित उच्च शिक्षित पढे- लिखे कथित आधुनिक विचार वानों के चलते और भी खतरनाक स्थिति में जा रहे हैं।  देश की संप्रभुता और आय पर महज 5% जनसंख्या का 70% एकाधिकार ‌हैl तेजी से  अमीर - गरीब , वर्गीय भेद की खाई भयंकर रुप से बढ़ते जा रहें हैं।  
        व्यवसायिक रुप से कालोनाइजर / शा गृह निर्माण एंजेसिया  भी विभेदकारी  आवास और विज्ञापन से उक्त अमानवीय बसाहट को बढावा दे रहे हैं। भला  ये अजीबोगरीब विकास हम में कौन सा सुख- शांति  और  सूकून देगी ? क्या यही राष्ट्र निर्माण है ? यदि यही हाल रहा , तब समरस और समृद्धशाली भारत वर्ष की परिकल्पना कैसे साकार होन्गे? इन सबका समाधान तलाशना चाहिए।

Monday, September 5, 2022

गुरुकुल बनाम स्कूल

#anilbhatpahari     

 शिक्षक दिवस पर 

       गुरुकुल और स्कूल 

           आधुनिक शिक्षा  व ज्ञान - विज्ञान को कोसते और कल्पित या मिथकीय वर्णित आख्यानों के प्रति आसक्त जनों से विनम्रता पूर्वक आह्वान हैं कि गौरव गान के चक्कर में कही "दुधो गय, दोहनी गय न हो जाय।" 
  वैसे भी मोह विकार किसी व्याधि से कम नहीं है। प्राचीन गौरव गान एक तरह से "गवाय मछरी जांघ भर " जैसा ही तो हैं। इसलिए युक्ति युक्त समन्वय भाव सर्वोत्तम हैं। हमें उन्ही का अनुकरण करना चाहिए ।
    नई शिक्षा नीति स्वागतेय हैं पर उनका प्रबंधन नीजिकरण होने से पुनश्च वही मनमानियों का दौर आरंभ होने की आशंका हैं जहां प्रतिभाएं नहीं प्रिय जन गढे जाएन्गे । शिक्षक संचालक पूंजीपति ( राजा )  के गुलाम हो जाएन्गे फिर कृपण द्रोणाचार्य पुत्र मोह और राजाज्ञा से वशीभूत एकलव्य के जगह अर्जुन ही बनाएन्गे या कर्ण सदृश एन वक्त निस्सहाय मतिभ्रंम नौनिहाल निकलेंगे। निजी स्कूल विश्वविद्यालय में यह खूब फल - फूल रहा है। मोटी फीश व रकम द्वारा मेरिट मार्कसीट बनाए जा रहे हैं। घर बैठे आन लाइन  डिग्रियाँ मिल रही हैं। 

        सच कहे तो   प्राचीन गुरुकुल आम भारतीय के लिए अनुपयुक्त थे। चंद सामंत व सुविधा भोगी जन जिसे कथित उच्च कुलीन कहे जाते हैं वही वहाँ के बटुक छात्र हो सकते थे। उस पर भी   अनेक आचार्य गुरु आदि राजाज्ञा या जातिय दर्प वश   उनमें  भी भेदभाव करते रहे हैं।  कुछेक तो महागुरुघंटाल हुए भी  हैं। फलस्वरुप हजारों साल की दासता भोगने पड़े । उसका असर अब भी शेष हैं। 
  भले आधुनिक स्कूल में सर -मैडम कथित आचार्य , गुरु आदि परंपरा के वाहक न रहे हो पर  स्कूल से  ही विकास के सूत्र निकले हैं। लार्ड मैकाले के स्कूली शिक्षा महज ५० वर्षों में असर दिखाए फलतः उनकी  गुलाम बनाए रखने की सोच धरी की धरी रह गई । स्वतंत्रता हेतु क्रांति की मशालें उसी स्कूली शिक्षा से ही जली  जो कि ज्वाला में तब्दील होकर गुलामी की जंजीर को पिघला दी गई। लोग आजा़द हुए।
      धर्म -कर्म, वर्ण -भेद ,  जात - पात ,भाग्य- भगवान  स्वर्ग- मोक्ष वाली गुरुकुली शिक्षा से  मानसिक व धार्मिक गुलामी बुनी गई कमोबेश आज तक बरकरार हैं उसी में ही उलझे हुए हैं। 
          वर्तमान समय में ज्ञान विज्ञान के स्थान पर परंपरा और संस्कृति के नाम पर प्राचीन गुरुकुल परंपरा के यशगान करते उसी प्रणाली को लाने की बातें चलती हैं।
        ऐसे में यह विचारणीय हैं कि आधुनिक शिक्षा से शेष दुनियां  अंतरिक्ष में जा रहे  हैं। आधुनिकतम स्वास्थ्य सुविधाएँ विकसित कर रहे हैं। उत्कृष्ट वैचारिक व प्रवर्तनकारी साहित्य रच रहे हैं। शासन प्रशासन व न्याय आदि के लिए बेहतरीन शिक्षण संस्थान बना रहे  हैं। और इधर  गाय गंगा गोबर गोमुत्र पर रार मचाए बैठे हैं।
 वर्तमान में युरोप और पश्चिम जहां पर हैं इनके आसपास फटकने की चाह पैदा नही कर पा रहे हैं।
    इसलिए  उनके आकर्षण में हमारे होनहार प्रतिभावान युवा वर्ग  खीचें चले जा रहे हैं। तब हम क्या कर रहे हैं? और किस मोहाकर्षण में फंसे पड़े हैं। उलझे +भटके असमंजस सा  खड़े  हुए है? विचार करना ही होगा ।
      अन्यत्र विश्वविद्यालय हास्पिटल और रोजगार  के अनेक संस्थान बना रहे तो  यहां बड़ी व ऊची प्रतिमाएं खड़े कर के श्रेष्ठता की होड़ लिए ऐठे - बैठे  हैं। दनादन गगनचुम्बी प्रतिमाएँ पर्यटन के बहाने वोट बैंक के वास्ते खडे किए जा रहे हैं।
         इकबाल की कुछ बात की हस्ती मिटती नही हमारी   का आशय  कही उसी रुढ़ - मूढ़ परंपराए और मान्यताएँ तो नही हैं जिसे गंगा जल पिला कर पोल -पास रहे हैं। और कुछ न पाने की चाह लिए अजगर करे न चाकरी सबका दाता राम जपते कछुए की तरह ढ़ाल ओढे आवरण बद्ध छुपे हुए बैठे किसी प्रतिस्पर्धी खरगोश को गच्चा देने की चक्कर में या मुगालतें में हैं। इसलिए तो सर्वत्र साम्प्रदायिक उन्माद देश भर में नज़र आ रहे हैं। 
                 
             हमारे  प्रतिष्ठान  जाति मत संप्रदाय पंथ विहिन संपूर्ण मानव गढ़े जो देश को उन्नति की ओर अग्रसर करे न कि दंभ और दर्प पाल प्रभाव करने वाले सांप्रदायिक व्यक्ति निकाले । स्थानीय भाषा और लोक तत्व को समाविष्ट करते अत्याधुनिक शिक्षा प्रणाली और समदर्शी विद्ववत शिक्षक और छात्र ही स्वर्णिम भारत का निर्माण कर सकते हैं। जिसके अंत:करण  में कोई पूर्वाग्रह न हो ।

     ।।शिक्षक दिवस की हार्दिक बधाई ।।

Saturday, September 3, 2022

गढ़ो का गढ़ : तेलासी गढ़

गढ़ों के गढ़ छत्तीसगढ़ : संदर्भ तेलासीगढ़ और रोहासी गढ़ 

भारत वर्ष के मध्य में अवस्थित छत्तीसगढ़ का प्राचीन नाम दक्षिण कोशल या दक्षिणापथ भी रहा हैं। क्योकि यहां से ही दक्षिण भाग में प्रवेश करते है। आर्य  , द्रविण ,नाग ,सत्यवंत सहित अरण्य संस्कृतियों का  समागम होने से  स्थापत्य कला  में  भी उनके तत्वों  का प्रभाव  सस्पष्ट: परिलक्षित होते हैं।
      छत्तीसगढ़  किसी एक वंश या राजा के अधीन रहा हो और यहां की स्थापत्य  और कला संस्कृति में केवल उनका ही प्रभाव या वृतांत , लोक कथाओ या गाथाओं मे  मिलते हो, ऐसा भी नही हैं। क्योकिं यहां पर अनेक राजवंशों का शासन होने के बाद भी स्थानीय जनता में स्वायत्ता भाव सदा विद्यमान रहा है फलस्वरुप  प्रत्येक राजवंश  और उनके मातहत जमींदारों, मालगुजारो, गौटिया , मंडलों  का प्रभाव साफ -साफ नजर आते है।उनकी अपनी मान्यताओं के आधार पर  धर्म कला संस्कृति का प्रचार - प्रसार  भी सर्वत्र  द्रष्ट्व्य हैं।
      यहां पर तकरीबन 100 के आसपास भाषाएं और बोलियों का प्रचलन रहा हैं और उनमें परस्पर अन्तर्संबंध भी रहा है । इन भाषाओं में जन जीवन की संस्कृति का दिग्दर्शन होते हैं।इसके  साथ ही 42 - 45 गढ़ होने का  भी उल्लेख मिलता है ।परन्तु वर्तमान मे 36 गढ़ की सीमाओं का प्रदेश होने के कारण  ही  छत्तीसगढ़  नाम पड़ा है । इन गढ़ो की कलाए भाषाएं यहा तक रहन सहन इत्यादि मे भी कुछ न कुछ विविधताएं नज़र आते है।  गढ़ों की संख्या के अतिरिक्त प्रदेश के   नामकरण मे  चेदि वंश के राज के कारण चेदिस गढ़ जो बाद छत्तीसगढ़ हुआ और बिहार से मगध नरेश के  सैन्य से निष्कासित 36 कुरि वंश जिन्हे तिरस्कृत किए आकर  छत्तीसगढ़ में घर  बनाए और बस गये। जैसे बातों का भी उल्लेख मिलता हैं। परन्तु  यह मान्यता लगभग सर्वमान्य हो चली है कि शिवनाथ नदी के दोनो ओर  रायपुर राज में 18 गढ़ और रतनपुर राज मे 18 गढ़  होने कारण यह प्रदेश छत्तीसगढ़ के रुप मे अस्तित्वमान  रहा हैं। इनका उल्लेख रायपुर एंव बिलासपुर के जिला गजेटियरों में उक्त 36 गढ़ों की सूची दी ग ई हैं।
साहित्य मे छत्तीसगढ़ का नाम 1487 में खैरागढ़ के चारण कवि दलराम राव कविता मे मिलते है- 
लक्ष्मी निधि राय सुनो चित्त दै गढ़ छत्तीस मे न गढ़ैया रहीं।
    यहां की स्थापत्य पर नजर डाले तो जन जीवन पर सर्वाधिक प्रभाव उस परिक्षेत्र की भूमि वहां  की जलवायु और  उसमें ऊगने वाली वनस्पत्तियां अन्नादि का होते हैं। छत्तीसगढ़ प्रमुखत: तीन भागो में विभक्त है जिसमे उत्तर में  सरगुजा का वनाच्छादित पठारी  भाग  मध्य  में ऊपजाऊ   मैदानी क्षेत्र और दक्षिण मे वनाच्छादित पहाड़ियों से धिरी हुई  बस्तर का पठारी क्षेत्र। यहां 40% अधिक वन्य क्षेत्र होने से औसत से अधिक बारिश वर्षाकाल मे होते है फलस्वरुप महानदी नर्मदा सोन शिवनाथ इंद्रावती जैसे नदियों का उद्गम है। वर्षा से बचने ढाल युक्त खपरैल से ओरवाती युक्त मकान बनाने की प्रथाए है। यदि मकान की छाजन देखे तो समझ मे आते है कि यहां की बनावट समुद्री तटवर्ती क्षेत्र जहां आए दिन बारिश होते रहते है से कम ढाल युक्त होते है फिर भी हमे बनावट मे सागर तटीय प्रदेश उडीसा आन्ध्रा केरल  महाराष्ट्र के घरो की तरह देखने मिलते हैं।
  महाराष्ट्र  विदर्भ पैटर्न का स्थापत्य  शिल्प यहां के अधिकतर बाडा हवेली और राजा / जमींदारों / मालगुजारों का घर आज भी  देखने को मिल जाते हैं।
 हालांकि शहरी क्षेत्रों मे उप बिहार म प्र राजस्थान गुजरात आदि  के व्यवसायी आव्रजन किए लोग बसे हुए है और घरो की  बनावटे  उसी तरह की विगत 2- 3 सौ वर्षो की   है  । परन्तु यहां की अधिकतर ग्रामों और सुदूर अंचलों के घरो बाडो और हवेलियो की बबनावट और स्थापत्य मे दक्षिण शैली का प्रभाव स्पष्टत: झलकते हैं।
    प्राचीन काल मे  एक गांव का मंडल  पांच गावों का  गौटिया आठ गांव का अठगंवा जहां मालगुजार होते थे  12 गांवो का बरहा  और अष्टादश गांव का जमींदार या या राज  गढ़ होते थे। यही से   राज का प्रचलन रहा है ।  इसलिए यहां  रायपुर राज धमधा राज खैरागढ़ राज ,लवन राज  पलारी राज कौडिया राज फुलझर राज जैसे अनेक  राज का प्रचलन रहा है  इसी तरह 16 गांवो की पाली भी प्रचलन मे रहे है। 
इनके अतिरिक्त  सघन बसाहट वाली  नगर या  बड़ा गांव  होते जहां जमींदार या राजा के निवास बनते जिसे गढ़ या गढ़ी कहे जाते हैं। इन गढ़ों का नाम गढ़ क्यो पड़ा यह भी रोचक दास्तान हैं।
      गढ़ - राजा/ जमींदार  के महल के चारो ओर जल दुर्ग होते थे और जल से सटा हुआ बाहरी और भीतरी हिस्सा दलदल होते थे जहां आक्रमण सैन्य दस्ता चाहे वह पैदल या घुड़वार  आदि हो दलदल में फंस जाते है। फिर उनपर तीर  भाले पत्थर  से प्रहार खदेड़े जाते थे और नगर और राजा व राज्य की सुरक्षा की जाती थी ।  यह  बेहद गहरी  खाइयां या गढिया  है जहां मिट्टी और जल का दलदल सुरक्षा गत कारणों से महत्वपूर्ण थे ।  इनके चारो ओर चार दरवाजा होते थे और उनके बाहर तालाब मैदान फिर आगे खेत और दादर यानि रम्य वन क्षेत्र फिर सघन वन एरिया । इस तरह की बनावट से युक्त गढ़ और उनके सामंत गढपति‌ होते रहे हैं। 
    छत्तीसगढ़ के अमेरा गढ़ मे स्थित अमेरा , पलारी, रोहासी ओड़ान, तेलासी ,  नामक प्राचीन जलदूर्ग से युक्त समृद्ध और बड़ा गांव है। इन ग्रामों के मध्य मे बड़ा सा विशालकाय बाड़ा बना हुआ हैं। जहां पर  महल दरबार और भंडार गृह  कोठार अन्नागार आंगतुक कक्ष कुआ बाड़ी  आदि व्यवस्थित रुप से निर्मित हैं।  जहां पर राजा जमींदार मालगुजार निवास करते थे और उनके मातहत लोग उस बाड़ा के चारो ओर बसे हुए होते थे। यह जलदुर्ग या गढ़ जंगली पशु और बाहरी लुटेरे या शत्रु से सुरक्षा के निमित्त होते थें। हर द्वार पर द्वार पाल या पहरेदार होते थें। साथ ही ग्राम रक्षक देवी देवताओ की स्थापना ही रहते है जिसमे ठाकुर देवता   महादेव,  महामाई ,शीतला ठेंगादेव ,करिया, ध्रुवा यहां तक कि रिक्षिन देव -देवी तो राक्षस या दानव के श्रेणी के होते उसकी भी पूजा की जाती रही हैं। 
    शिव विष्णु और शक्ति के उपासक मिलते थे साथ ही तंत्र मंत्र अनुष्ठान मे बैगा सिरहा भैरव डायन चूरेतिन-  परेतिन (चुडैल - प्रेतिन  ) मल्लिन भटनीन चटिया मटिया जैसे यक्ष यक्षिणी की पूजा की प्रथाए रही हैं। यह सब किसी पेड़ खोह पत्थर का तालाब नदी झील सरार  किनारे पर अनगढ़ पत्थर या लोहे या लकड़ी की बनी त्रिशुल ओखल सील आदि आकृति बनी हुई होती हैं। यहां के पुरावशेषो की और अब भी जो चीजे व्यवहृहत या इस्तेमाल हो रहे है का सुक्ष्म  अवलोकन से ज्ञात होता है कि हम इतनी प्राचीन विरासत के साथ जीते आ रहे हैं। यहां की प्रत्येक गढ़ महत्वपूर्ण है और उनसे संदर्भित प्रेरक गाथाए जिनमे प्रेम त्याग समर्पण जैसे उदात्य भाव समाहित है जो छत्तीसगढ के जन जीवन को और यहां सांस्कृतिक और ऐतिहासिक तथ्यों को  समृद्ध करती हैं।
    जय छत्तीसगढ़