Wednesday, December 9, 2020

कोरोना के संग जीना - मरना

।।कोरोना के संग जीना ।।

बात कुछ भी नहीं हैं पर यूं ही बात का बतड़ंग तो होते ही रहते हैं।
हमारी विविधतापूर्ण संस्कृति में जहां चार बर्तन रहन्गे, खड़खडाएन्गे ही ।अब यह आपके रेस्तराँ तो नहीं जहां फाइबर का बर्तन हो ,एक के ऊपर एक सटा हो पर कोई शोर- गुल नहीं बल्कि  निस्तब्धता रहें। और तो और  चुपचाप निर्वाह चलता रहें।
    आजकल लोग कांसा -पीतल तांबे ,स्टैनलैस स्टील रहे ही कहां प्लास्टिक व फाइबर के मानिंद होते जा रहे हैं।  युज एंड थ्रो  काम के बाद व्यर्थ ।
  नहीं तो पहले जिंदा हाथी के बाद मृत हाथी जैसे  बेशकीमती हो जाया करते थे वैसे हमारे यहाँ आदमी मरकर देवता ही हो जाते हैं।  इसलिए साधारण व्यक्ति को भी ब्रम्हलीन ,स्वर्गवासी ,सतलोकी कहकर सम्मानीत करते हैं। यदि वह विशिष्ट हो तो उसे अमर ही कर देते हैं। धातु का यही फायदा हैं। उसे गला- पिधला कर जो स्वरुप ढाल दो।पर दोने पत्तल टाइप प्लेटों को क्या करेन्गे?
    बहरहाल जब बातें  चली तो बता दूं। आज बेहद गर्मी हैं पीने का पानी तक  थर्मस नुमा बोतल में शाम तक पीने योग्य नहीं रहता। तो बाकी का क्या बिसात ।हां रोटिया और सब्जी रात की रहे तो दोपहर लंच तक लंच बाक्स में रखे ही सिंका जाता हैं ,गरमा- गरम ।
  तो इस तरह ताजी गरम  खाना और बायल पानी का लुफ्त भरी दोपहरी में पसीने से तर -बतर ले रहे हैं। 
        जब से वह मायका गई अकेले सुबह से घुसे रहो किचन में जली -अधजली जो भी बना जल्दबाजी ठूस- ठास कर जोर जार कर भागते आफिस आयो और ये डाय‌न कोरोना के चलते सेट्रल एसी और कूलर न चलाने का फरमान से गरम पंखे के थपेडे का सामना जैसलमेर की गर्म हवाओं जैसा अनुभव करते शासकीय दायित्व निर्वहन में मगन रहों। शाम घर जाते फिर गृहस्थी की घानी में जुत जाओ कोल्हू की तरह । मोबाइल में मगन बेटों से पानी मांगकर देख लो ! फौरन फिल्मी डायलाग सुनने मिलेगा - इस घर का रामु काका मै हू क्या ?
तो भैय्ये हमीं बन जाते हैं । आखिर सेवा ही सत्कार और राष्ट्र प्रेम हैं।  

बहरहाल आजकल राष्ट्र प्रेम यही समझे जाने लगे हैं कि जो शासन प्रशासन का आदेश है चुपचाप मान लो ।कही कुछ अवांछनीय लगा और टीप -टिप्पणियां कहे तो सीधा देशद्रोही ठहरा दिए जाएन्गे ।संकट काल हैं कुछ भी संकट आ धिरेन्गे।  अनचाहे मेहमान की तरह ।

   आजकल ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य का बुरा हाल हैं, इसलिए बीमार लोग शहरों में इलाज कराने आते हैं। और दूर दराज से रिश्ते निकाल आ धमकते हैं।
गृहलक्ष्मी का मायके का हुआ तो शुक्र है वह जो भी रहेगा  ,(काला कु...नहीं कह सकता नहीं तो वाणी दोष लगेगा ।
  खैर !ग्रामीण परिवेश का आदमी ले- दे कर कर्ज से एक दो कमरे शहर में बेहतर भविष्य के लिए बनवा लिए तो समझो कि रिश्तेदारों के लिए सराय हो गये।ऊपर से ससम्मान व्यवहार अलग से ।यदि खाने- पीने और व्यवहार व सेवा सत्कार आदि  में कही कुछ  कमी या खोट मिले तो आपका खैर नहीं सारी बिरादरी में नाक कटना तय हैं ।   परिवार वालों को शहर बसने शौक नहीं पालना चाहिए । यदि बस भी गये तो वह कहावत सुबह ए शाम आरती जैसा कान में गुंजते रहते हैं-" गीदड़ की मौत आती हैं तो वह शहर की ओर भागते हैं।"
   हां स्मृत हुआ कि कोरोना से बचने लोग सुरक्षित गांव तलाश रहे हैं। जो वर्षो गांव छोड़ चूके थे ओ लोग अपने जीर्ण -शीर्ण घर को मरम्मत करवा रहे हैं। और तो और जहां अदद बाथ रुम नहीं था वहाँ अब   कमोड टायलेट तक लगवा रहे हैं। 
   क्योकि शहर खासकर राजधानी जहां एम्स है और सारी दुनिया देख रही हैं कि यहाँ डाक्टर नहीं साक्षात् ईश्वर हैं। एक भी का एंट्री यहाँ से नहीं हुआ।सो बड़ी संख्या में मृत्यु दूत कोरोनो के नाम पर भेजे जा रहे हैं। जहां २०  मार्च से  २० म ई तक ६० ही थे आज २९ तक ३६० लोगों की बुकिंग हो गये हैं।
      अब महज ९-१० दिन में यह हाल है तो अब तीन माह बाद रोजी रोजगार से वंचित लोगों के जान से अधिक जहान प्यारा हो गया है। फलस्वरुप सप्ताह में ६ दिन  सुबह 7 से ,शाम 7 तक हर तरह की दूकाने खुलेन्गे ।

  अब श्लोगन बदल दिए गये हैं। बल्कि हर कोई को कंठस्थ करा दिए गये हैं कि" कोरोना के संग जीना हैं। "
       यार ये तो ठीक हैं पर तेरे संग जीना तेरे संग मरना की तर्ज पर क्यों इन्हे प्रचारित नहीं करते ?
"क्योंकि हम जैसे मोटे बुद्धि वालों को जीना तब तक समझ नहीं आते जब तक कोई सामने मर नहीं जाते ।"  सच में जब पुलिसिया ठुकाई नहीं होती तो कर्फ्यू यहाँ अकारण सक्सेस नहीं होता।इसलिए जब तक निराशा और खौप  का अंधेरा नहीं दिखाओं तब तक लोग "आशा की किरण" भरी टार्च खरीदते नहीं ।हमारे अग्रज परसाई जी ने इसे वर्षो हमें लिखित में बता दिए थे।
      तो जो है सो हैं अब भयानक संकट के कारण  जो दैनंदिनी में बदलाव आया और रेहड़ी, फेरी वाले रोजगार विहिन हुए उन्हे बचाने न चाहकर लाकडाउन में ढील दिए जा रहे हैं। सच तो है लोग घरों में भूखे न मरे इसलिए कमा कूद कर  खाते -पीते  सड़क पर मरे  आखिर मृत्यु भय से इस तरह उबरना तो हो ही जाएगा न ? यही निर्भय होना तो शास्त्र सम्मत वानप्रस्थ आश्रम का पुरुषार्थ हहै। निर्भय जीवन ...भले संक्रमित हो जाय। उनके इलाज कर लिए जाएन्गे  अन्यथा अस्पताल वाले  बैठे ठाले बाकी आफिस वालों की तरह लाकडाउन का मज़ा लेन्गे क्या ? ऐसा हो नही सकता ।  भले बचे न बचे पर बचाने का प्रयास चलता रहें। उम्मीद न छीजें।
     इस तरह हम लोग  अब इन तीन महिनों में आग लगने के बाद कुछ कुए खोद लिए  हैं।  और वेंटी लेटर सेनेटाइजर व माक्स आ गये।अन्यथा बैपारी भाऊ लोग तो शुरु को करोड़ो कमा दबा लिए ।
   अब देखो न उस दिन नमक नहीं कहके १० रु की  नमक को १०० में बेच दिए ।यह है हमारी कारोबारी जगत का कमाल।
बिहारी ने बकारी देत इन ब्यापारी की गुण का चित्रण किस खूबसूरती से किया हैं-
खुली अलक छूटी परत है बढ गये अधिक उदोतू।
बंक बकारी देत ज्यों दाम रुपैया होतु।।
  तो सारे अर्थशास्त्रियों को इसका मरम समझना चाहिए। 

  बहरहाल हमारे लिक्विड गोल्ड धार्मिक स्थलों के हार्ड गोल्ड से अधिक उपयोगी हुआ और बंद पड़ी इंजन पटरी में आ आए ।शराब अपने साथ बस रेल वायुयान तक चला दिए ...सुनने में आ रहा है कि  हमारे चरौटा भाजी की डिमांड अमेरिका में हो रहे हैं। सोमारु पुछ रहे थे कि भईया हमर मौहा लांदा बासी चटनी ल तको ले जाय हमन  कोरोना ल मतौना देके मार गिराबोन।
     ये दे उड़ीसा के पुजारी हर शास्त्रीय पद्धति ले  नरबलि देके कोरोना ल कसरहा कर दिस । अब परंपरावादी मन हुकरत भुकरत कोरोना हमर काय कर लिहि कहिके अटियाय ल धर लिस ।सिरतो कहत हव आचेच ले ४ था लाकडाउन ह  खतम हो गय। यानि शिथिल करके सामान्य धोषित कर दिए जा रहे हैं। जब एक केश था हम तीन महिने कैद थे घरों में अब ३६० केश है तो उनके ही तोड़ ३६० दिन छुट्टा घुमें फिरे खाए खेले कुदे नाचे ... कुछ दुरिया बनाकर मुखटोप लगाकर क्योकि अब कोरोना के संग जीना हैं।  जैसे जंगल में विषैले और हिंसक पशु पक्षी जीव जन्तु हैं उनके संग जीने और रहने के अभ्यस्त हमारे आदिवासियों की तरह ही निर्भय कोरोना के संग रहना होगा। हमें लगता है सवा अरब लोगों को महज ३ महिने में कोरोना के संग जी‌ना सीखा दिए गये हैं। ऐसे महान सिखावनहारों को नमन ।
    जय जय ...

-डॉ. अनिल भतपहरी 

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