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लोक पर्व
।।त्रिदिवसीय भव्यतम देवारी और उनका महत्व ।।
कृषि संस्कृति का यह महा पर्व "देवारी" जिसे हिन्दी में छत्तीसगढ़ की दीवाली " कहते हैं। यह तीन दिन तक आयोजित होते हैं। शेष भारत से यहाँ की संस्कृति बिल्कुल अलग तरह की हैं। बल्कि सैंधव आर्य और द्रविड़ संस्कृति का समागम होने से यहाँ मिश्रित संस्कृति तो झलकती हैं। पर "देवारी परब" में ओ यहाँ की मूल या ओरिजन संस्कृति है वह स्पष्ट नजर आते हैं। संक्षिप्त में देखे तीन दिन तक चलने वाली यह लोक पर्व कैसे सौख्य व सम भावना का पर्व है।
१ .सुरहुत्ती
प्रथम दिन को सुरहुत्ती कहते हैं। सुर + आहुति = सुरहुत्ती बना है। इसका अर्थ हुआ देवताओं की आहुति यानि देवताओं को आव्हान / निमंत्रण इस दिन ग्राम में स्थित सभी ग्राम देव धामी जिनमें प्रमुखतः ठाकुर देव (बड़ादेव या महादेव भी कहते हैं।) महामाई, शीतला, ठेंघा देव , माचादेव, जराही ,बराही , भैसासुर , ध्रुआ देव (उत्ती), करियादेव (बुड़ती ) कोठार देव , गोठान देव मेड़ो देव, डीह- डोंगरदई , भंडार देव रक्सेल देव,में घरो घर दीप चढाते हैं। इस दिन नये चावल के आटे से फरा चुकिया बनाए जाते हैं। चुकिया में तेल बाती से दीया और मिट्टी का दीया यह दोनो दीया इन देव धामी में चढ़ाते हैं। इस दिन रात्रि में अनेक जगहों पर कोठार देव में पशुधन की संरक्षण ठाकुर देव में सफेद मुर्गा या सफेद बकरा की बलि दिये जाते हैं।
आजकल बलि न देकर उसे चढाकर छोड़ देते हैं । मुर्गे को कोई खा जाता है। पर बकरा शान से गांव में घुमते रहते हैं। इसे "ठाकुर देव का बोकरा " कहते है।
(कोई वंश परिवार फरा- चुकिया डेवठन के दिन चढाते हैं। इसके पीछे का कारण यह होगा कि उनके घर धान की कटाई पूर्ण नही हुआ होगा। हमारे घर डेवठन को फरा चुकिया बनाकर चुकिया की दीया इन ग्राम देवता में चढाते हैं। तब तक कोई नये चावल की फरा चुकिया खाने वर्जित रहते हैं।)
२ देवारी
दूसरा दिन देवारी होते हैं देवारू का अर्थ है देव + ओरी = देवताओ का ओरी इस दिन सारे देव गण हमारे पशु धन के साथ आते हैं। उन सबकी द्वाराचार कर अभिनंदन स्वागत करते हैं।
खास तौर पर कोठा देव के द्वार सजाते हैं। राउताइन मुख्य द्वार या कोठे की द्वार पर घी और रंग से सुन्दर " छापन " लगाकर सजाते हैं। गोबर के आसन पर कलश स्थापित कर नादी से चारो दिशाओं के लिए चार बाती जलाते हैं। और सिलयारी चिड़चिडा व गेंदाफूल खोसते हैं। आम पत्ता केला पत्ता से आंगन और द्वार में तोरण सजाते हैं।
गृह स्वामी उपवास रहते हैं और रोठ पकाते है उसे गुड़ और घी मे शानकर कोठार देव में चढाते है। इधर महिलाएँ भी उपवास रहकर विभिन्न व्यंजन अरिसा सोहारी चीला खुरमी बड़ा आदि बनाती है और कोचई जिमीकांदा मखना की मिश्रित सब्जी बनाते हैं। उसे भात में सान कर पशुधन को खिचड़ी खिलाते हैं ।
इसके बाद घरोघर परस्पर भोजन के आते जाते हैं। और शाम को साहड़ा देव में "गोबरधन " खुंदाते है ।उस गोबरधन को बडे बुजुर्गों को तिलक लगाते उनके आशीष पाते हुए घर के "माई कोठी "में थाप देते हैं।
मातर
देवारी के दूसरा दिन मातर होते हैं। मतलब आज मातर हैं। मातर मात + अर = मा की आरती यानि मातृ पूजा ।
इस दिन मातृका शक्ति खासकर भूमि और गाय / भैंस की विशेष पूजा होती है। गाय भू के प्रतीक भी हैं। गांव के गोठान पर मातर जगाए जाते हैं। जहां ऊची व समतल भूमि होते हैं। उसे साफ कर गोबर से लीपते और चावल आटे की सफेद चौक पुरकर मातृका पूजन कर सफेद ध्वज (पालो ) की खाम गड़ाते है जिसे "दमदमा" कहते हैं।
फिर अनेक धरों से देवी- देवताओं की धजा सजाकर मातृ देवी के दरबार में नाचते गाते परघा कर शौर्य पराक्रम दिखाते हुए स्थापित करते हैं। इसे ही "मातर जगाना " कहते हैं।
भू देवी की प्रतीक दुधारु गाय और भैंसी की पूजा की जाती है।उसे सोह ई पहिनाते है । उनके सींग पर मखना तुमा फेकते है और कौतुहल खेल करते हैं। ऐसा कर इन दुधारु गाय भैस को भूदेवी समान महत्व देते हैं क्योंकि इनसे भी लालन पोषण पालन. होते हैं उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं।
इस दिन और पर्व को राउत समाज बड़े उत्साह से मनाते हैं। वे लोग सज -संवर कर अखाड़ा काछन और मातर नृत्य करते हैं। पालो या ध्वजा को मड़ई भी कहते । महिलाएँ सज धज कर सुआ नृत्य करती है। पुरा गांव मातर की महोत्सव में मग्न हो जाते हैं।उपस्थित लोगों को दूध ,मीठी दही -मही पिलाए जाते हैं।
इस तरह सुरहुत्ती को देवताओं की आहुति यानि आहुत कर आव्हान आमंत्रण होते हैं। दीप चढाते है यह सुरहुत्ती कहलाते हैं। दूसरे दिन देवाताओं की विशेष पूजा वार का दिन होते हैं। यही देवारी हैं। और तीसरा दिन मातृ शक्ति भूदेवी और पशुधन की श्रृंगार व पूजा होते हैं। यह मातर कहलाते हैं।
इस तरह भव्यतम व गरिमा मय वर्ष का सबसे बड़ा महापर्व देवारी का समापन हो जाता है।
इस दरम्यान घरो की सफाई रंग रोगन ,नये वस्त्र, गहने, बर्तन मिठाई ,व्यंजन ,खिलौने ,पटाखे आदि पर दिल खोलकर खर्च करते हैं। आर्थिक कारोबार का यह महापर्व है फलस्वरुप वणिक वर्गों द्वारा इसे लक्ष्मी पूजा कहे जाने लगे हैं।
इन सबमें कुछ अति उत्साही जन जुआ शराब मांस आदि भी व्यवहार करते हैं। यह इस पर्व का स्याह पक्ष है पर इससे क्या ?
स्याह और धवल यह जीवन का दो अभिन्न पक्ष जो हैं। और इनसे जीवन संपूर्ण होते हैं।पर्व हमे स्याह पक्ष से परिष्कार कर धवल पक्ष को अर्जित करने का भाव बोध कराते हैं।
-डाॅ. अनिल कुमार भतपहरी / 9617777514
सत श्री ऊंजियार सदन अमलीडीह रायपुर (जुनवानी) छत्तीसगढ़
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