Friday, April 26, 2019

ददरिया

"ददरिया "

      दादर परिक्षेत्र में गाई जाने वाली प्रणय गीत को ददरिया कहते हैं।  दादर  उड़िया मिश्रित छत्तीसगढी के लरिया बोली के शब्द हैं। इसका अर्थ  वह परिक्षेत्र हैं‌ जो कि  मधुवन या वृंदावन जैसा रमणीय वन्यभूमि  हैं। वहां प्रेमी युगल‌ परस्पर मिलकर मधुर गान नर्तन करते अनेक तरह के हास विलास परिहास शिकवा शिकायत उलाहना और नोक झोंक करते प्रेमल वक्त गुजारते हैं।
      अक्सर उड़ीसा सीमावर्ती छत्तीसगढ के ग्रामों के खेत के आगे  दादर मिलते यह वह जगह हैं जहां पर छोटे वृक्ष के फलदार व छायादार  महुआ चार तेन्दू के वृक्ष और  सुंगधित कोरिया सिलयारी  वन तुलसा जिसे वृंदा झाड़ी कहते हैं का  रम्य उद्यान होते हैं। उसके आगे सोर्रा पहाड़ी नाला और उस पार सधन व बीहड़ जंगल होते हैं। उसके आगे पहाड़ पर्वत मलाएं । जहां  हिंसक जंगली जानवर और डरावनी भुल भुलैया रास्ते वाली वन प्रांतर होते हैं। अत: दादर ही वह रम्य वन होते हैं‌ जहां प्रेमी युगल निर्भीकता से मिलते हैं। और क्रियाकलाप में अनुरक्त होते हैं। इसलिए दादर का गीत होने से यह ददरिया के नाम से विख्यात हुई।

     गांव से लगा खेत होते हैं। जहां प्रायः लोगों की आम दरफ्त रहते हैं। और दिन भर चहल पहल के फलस्वरूप यहाँ प्रेमी युगल  तटस्थ रहकर मर्यादित रहते है।वहां अक्सर बडे बुजुर्ग और रिश्तेदार रहते हैं। फलस्वरूप वहा पर कथा -कहानी गीत भजन आदि चलते हैं। वहां वे भी प्रतिभागी हो सकते हैं। पर वहां प्रेम नहीं बल्कि  भक्ति भजन रीति -नीति, संस्कृति के गीत कहानी होते हैं।
   पर यह तो है कि हमारे ग्राम्य अंचल का वृंदावन जहां राधा कृष्ण सहित गोपियों का महारास हुए  यह खेतों से लगा  खार छेत्र है  जिसे हम दादर कहते हैं। वही इनकी उत्पत्ति हुई ।और इसलिए लोकप्रिय  ददरिया नाम पड़ा।
      हर युवा पुरुष मन कृष्ण है ।और हर युवा स्त्री मन राधा ।
  दोनो के मिलन छेत्र ही दादर  वृंदावन की कुंज गली हैं। जहां प्रेम भाव से युक्त त्याग और समर्पण का मधुर ददरिया गीत लोक कंठ से प्रस्फुटित होते हैं।इस में उन्मुक्त भाव से प्रणय निवेदन हास परिहास उलाहना शिकवा शिकायत ब्याज स्तुति आदि भाव से युक्त काव्यात्मक पंक्ति की उक्ति होते हैं। यह निम्न पंक्तियों में देखे जा सकते है-

    फुटहा रे मंदिर कलस नइये ।
      काली के अव इय्या दरस नइये ।।

   ददरिया दोहा छंद नुमा दो पंक्ति के होते हैं जिसमें प्राय:  पहली पंक्ति से दूसरी पंक्ति का  केवल तुकबंदी‌ संबंध  होते हैं और दोनो  में परस्पर कोई संबंध नहीं होते।अर्थात स्वतंत्र पद रचना होते हैं। यह आरम्भ में नायक और नायिका की अपनी सीमित सोच अनुभव और अपनी बाते सीधे न कहकर मुकरते हुए पहेली बुझने या किसी अन्य को प्रतीकात्मक रुप से व्यंग उलाहना कहने से आरम्भ हुआ। ताकि प्रेमी बुरा न माने नराज न हो और अपनी बाते कहे।या ऐसा प्रतिमान गढ़कर कहे कि उनकी भोगे संत्रास या पीड़ा कितने संहारक है उसे वह भी अनुभव करे। ऐसा कह सुन दोनो भाव विह्वल भी हुआ करते हैं-

    नवा सड़किया गड़े ल गिट्टी ।
       काकर बर भेजे  तय बैरंग चिठ्ठी ।।
   
     एकान्त में प्रेमी मिलते हैं शिकवे शिकायत होते है ,नोक झोक और मस्ती भी जरा इन पंक्तियों के भावार्थ देखे -

गांजा के थैली म गांजा नइये ।
गंजहा ल बनाए फेर मंजा निये।।
 
इसी तरह संस्मरण में घटे  अभ्यावेदन देखे-

चिकनी रे पथरा छपक कांचेव ।
  तोर सुरता मं संगी गजब हांसेव ।।

    चलते चलते प्रणय याचना के दर्म्यान  नायिका/नायक की मनोदशा का  का खुबसूरती से वर्णन द्रष्टव्य है-

  कांचा लिमउव्वा के रस चुचवाय ।
  रद्दा बीच रस मांगें मं मन कचवाय ।।

   ददरिया इतना अधिक लोकप्रिय हुआ कि यह केवल प्रेमी युगलों के मघ्य  प्रणय  निवेदन ,नोकझोक हास -परिहास ,उलाहना  मस्ती  आदि से आगे बढ़कर बड़े बुजुर्गों और बेटियों के प्रति माताओं या भाभियों चाचियों मामियों की सीखौना भी गांव घर आंगन में गुंज उठी -

  हड़िया के मारे तेलई फूट जाय।

चारी - चुगरी के मारे जोड़ी छूट जाय।।
बडे बुजुर्ग भी ददरिया की लोकप्रियता से कैसे अछूते होन्गे वह भी उपदेशना करते सञग साथ में होते गा उठते हैं-

फूटहा हे पतरी अउ फूटहा रे दोना।
करम ठठाए पेज गंवागे चारो कोना ।।

   मया के मरम न समझ सकने वालों के लिए इससे बढ़कर क्या उलाहना हो सकते है -

सरहा शिकार मं मसाला खइता ।
भोंगाचंद मन बर मया हे खइता।।

   और क्या प्रेम छुपाए छुप सकता है ? यहां तो जुबान भले न चले ईशारे से सब बयान हो जाते हैं-

अकरस के नांगर दबाए नइ दबय।
तोर मोर मया संगी छुपाए नइ छुपय ।।

   ददरिया का प्रभाव  भाव भक्ति‌ में  पड़ा  खेतों में काम करते भाव विह्वल होकर भक्त अपने अराध्य को ददरिया गाकर सुमर लेते  हैं -
 
धान ल लुए उड़े ल कंसी ।
   भगवान के मंदिर ले सुनाय बंशी  ।।

   इस तरह हम देखते है कि ददरिया अत्यंत लोकप्रिय श्रृंगारिक रचना उर्दू में  गज़ल की शेर की तरह  दो प्रेमियों के मध्य एकांतिक छण में मयारुक  "बतरस" या गुफ्त़गूं के रुप में प्रकट हुए और इतना व्यापक प्रसार हुआ।
    जैसे  भारतीय काव्य में  श्लोक दोहा प्रभावशाली है।  अरबी फारसी उर्दू में शेर और शायरी उसी तरह छत्तीसगढ़ी में ददरिया की दो डांड लोगों की जुबान पर चढ़कर  बोलने लगे।
    अधिकतर पारंपरिक प्रेम  गीतों में चाहे वह  ददरिया करमा सुआ जस भोजली भजन  आदि हो उसमें भी ददरिया की दो डांड की प्रभावशाली उपस्थिति देखें -

नवा रे हंसिया के जरहा हे बेंठ।
  जीवत जागत रहिबोन त हो ई जाही भेंट ।।

इन लोक विधा को लेकर नव सर्जक अनेक तरह के प्रयोग कर उसे और भी सुघड़ और भावप्रवण कर रहे है ।वही अति प्रयोग और आधुनिकता  से अपनी स्वाभाविक संप्रेषणीयता से बाधित हो कृत्रिम और हल्के पन भी आने लगे है। बावजूद वह नव पीढी को उनके अपने अंदाज में मोहित करते रहे हैं-
 
गाड़ी चलाए स्टेरिंग ल धर के ।
  मोबाइल मं बुलाए चैटिंग कर के।।
     जैसे पंक्तियाँ भी श्रवणीय होने लगे हैं।
    इस तरह नव कलेवर से ददरिया मंच और रजत पटों की शोभा बनी हुई हैं।
   जैसे रसराज श्रृंगार हैं ठीक गीतों की राजा छत्तीसगढ़ में ददरिया हैं।

-डा. अनिल भतपहरी 

स्रोत / सौजन्य - श्री  सी.आर. साहनी

Thursday, April 25, 2019

छत्तीसगढ़ के पिछड़ेपन का कारण

छत्तीसगढ के पिछड़े पन का प्रमुख कारण जातिवाद हैं।
परन्तु दूर्भाग्यवश इनके उन्मूलन का कभी  इमानदार या प्रभावी प्रयास कभी  नहीं किया गया।
  यहां प्रचुर नैसर्गिक व मानव  संशाधन हैं। परन्तु इनका उचित दोहन या उपयोग ही नहीं किए जाते।लाखों मेहनत कश मजदूर जी तोड़ मेहनत करने अन्यत्र पलायन कर जाते हैं। और बाहर से लोग आकर यहां छुट-पुट व्यवसाय  निजी व शासकीय नौकरी, शराब भट्ठियों में गद्दीदार लठैत व  वसुली कर्ता  तथा  रोज नगद बाट कर रोज वसुली का गेम हमारे ग्रामीण व शहरो के झुग्गी झोपड़ियों में ब्याज और महाजनी का अवैध करोबर चला रहे हैं।
  सुखा अकाल या बेमौसम बारिश का मार कृषक पर ही सर्वाधिक पड़ता हैं।  इन सबके होते हुए भी ग्रामीण अंचलों में जातिभेद चरम हैं। परस्पर मन मुटाव व ईष्या द्वेष के चलते  अधिकतर लोग थाना कोर्ट कचहरी में पेशी आदि के नाम पर  रगड़ा  रहे हैं। भले लोग छत्तीसगढ़िया  सबले बढ़िया व सिधवा कहे जाते हैं। पर हकीकत में ऐसा नहीं हैं।
      लोकतंत्र का आधार चुनाव हैं। पर यहां  बिना शराब मांस व प्रलोभन के निर्वाचन  संपन्न ही नहीं होते।और जो  लोग अकूत धनराशि खर्च कर जीत जाते हैं। अपना खर्च वसुलते हैं।  इस तरह देखा जाय तो यह व्यवसाय के रुप में फलने फूलने लगा है। राजनीति रोजी रोजगार और कमाने खाने का जरिया बनते जा रहे हैं।.तो इस तरह  अनेक  समस्याएं हैं।
       बेरोजगारी शराब नशा खोरी से छत्तीसगढ आक्रान्त हैं।
राजस्थान हरियाणा पंजाब से बड़ी बड़ी  ट्रेक्टर हार्वेस्टर एंव सड़क ठ निर्माण में जेसीबी हाइवा रोडरोलर आदि से यांत्रिकी करण बढने से मानवीय श्रम कृषि व  लगभग बडी निर्माण में खत्म सा हो गये हैं।
           सरकार का दावा जो हो पर जमीनी सच्चाई यही हैं। ग्रामों में केवल बुज़ुर्ग व्यसनी व प्रमादी व बीमार लोगो का जमवाडा हैं। जो सक्रीय हैं वे शहरों में बन रहे कालोनियों भवनो में राजमिस्त्री लेवर के रुप में खप रहे हैं।अक्सर कुछ लोग कहते हैं कि छिटपुट. पंचायतों में सरकारी काम मिल जाय पर भुगतन समय पर नहीं है इसलिए ग्रामीण जनजीवन का  शहरों में पलायन जा्री है  जहां पर रहने खाने और जीवन निर्वहन  की विकट समस्या है । भला हो नीजि बिल्डरो कालोनाइजरों का जिन्होने बडी संख्या में  इनलोगो को रोजगार उपलब्ध कराए हैं। अन्यथा रोजी रोजगार हेतु श्रमिक मजदूर के रुप में पलायन ही यहां एकमात्र सरल सहज  विकल्प  हैं। जो होना नहीं चाहिए।
           डा. अनिल भतपहरी

छत्तीसगढ़ी साहित्य दसा अउ दिसा

छत्तीसगढी साहित्य समिति के प्रांतिय सम्मेलन दूधाधारी सत्संग भवन रायपुर  म पढे़ आलेख के सार -

"छत्तीसगढ़ी साहित्य दसा अउ दिसा "
                        -डा.अनिल भतपहरी

छत्तीसगढ़ी के लिखित साहित्य के दसा हर तो बड़ सुघ्घर हवे‌।फेर ये समे म मौखिक या मुअखरा साहित्य के दसा जरुर बिगड़त हवे।
तंइहा समे मं त आनी- बानी कथा कहिनी गीत गोबिन्द भजन - कीर्तन होय। अइसे कौनो घर नइ रहिस होही जिहां बबा ढोकरी दाई या ममा दाई मन सो कथा कहिनी सुनके लरिका मन के नींद परत रहीस होही।
    बारो महिना तिहार बार मं संझाकन गुड़ी त कोन्हो बर पीपर या लीम अमली के तरी छांह मं ब इठ कत्कोन कथा -कहिनी , जन उला  भजन चलय ।अउ यही हर मनोरंजन के परमुख साधन रहय।
तिही पाय के हमर भाखा मं किसिम किसिम के मुंहावरा लोकोत्ति अउ संत महात्मा मन के बानी मिंझरे  अंतस ल उजास करय ।  भखा बोली बने राहय त घर गली गांव मं सुन्ता सम्मत रहय।
    सियान अउ बैठांगुर मन काकर घर का चलत हे काकर मन मं का हवे । तेकर आरो पता करत रहय।अउ जिकर मन मं इरखा दोष रहे या पले उन ल बरजय । ते पाय गांव सरग सही राहय।आज जाके पता करो सरग कहां बिलागे?
     गांवेच म उपजन बाढे -पढे लिखे नौकरी पाय शहर -पहर घरे  मनखे आज गांव मं रहे नी सके। उहां के महौल अब पहिली सरीख न इ रहिगय। कोनो तिहार बार मं जाके देखव त मनचलहा बाल संगी मन गांव पहुचौनी के टेक्स मांगथे ... पहिली पिला खवा तब हमर सो गोठियाव ।ऐसे टाइप के अलकरहा महौल बन गय हे।
  चारी चुगरी -गारी गल्ला -इरखा दोष लड़ई -झगरा से घर परिवार गांव गांव हलकान हे । हर  दस बीस गांव के मंझोत म चौकी थाना खुगे बुलाक तहसील  म कोर्ट कचहरी बनगे ये सब जगा पुलिस  मुंसी वकील बाबू मन के तिकड़म चलत हे ।सबझन ल ऐसी पेशी म फसा के अपन रोजी रोजगार चलावत हे।अउ मनखे मंद जुआ के चाहली  फंसे लड ई झगरा कर करम ठठावत हवे।
      गांव मन म पुलिस पटवारी  अउ वकील के बड़ महातम बाढ़ गे अउ मास्टर बैद ग्राम सेवक सियान अउ संत  मन के पुछन्ता न इ रहिगे। 
        अइसे मे जनता के जैसे प्रवृत्ति रही ओकर भासा बोली उही रकम के विकसित होही।
      छत्तीसगढ़ी जनता  अब इही तरीका के ठोली बोली द्वि अर्थी अउ वाले सबद के चलागन बाढगे ।मन अउ आत्मा जुड़ावन बोली अब सुने बर कान तरसथे।
         अभी गुरुपरब के समे क ई  जगह  साहित्यिक आयोजन होईस ।एक जगा नेवताए के अवसर मिलिस .. उहा पहिचान के मिलय त सबो झन पुछय क इसे डा साहब का हालचाल हे? अउ प्रोफेसर साहेब बड मोटागे हस?  बड़ भोगा गे हस .? .देख ऊ न इ देस ? का खाथव जी ? आजकल एफ बी सोसल मीडिया म बड आथव ?  मै उकर प्रस्न सुन अकबका जंव?
एक जुन्नटहा गीतकार अउ गायक मिलिस ... पैलगी करेंव पुछिस कब आय अनिल बाबु ? बाल बच्चा सब बने हे? कौनो केसेट किताब बनवाय कि नही ? मन परसन्न हो जाथे ।
       कहे के मतलब अब अइसन आत्मीयता नदावत हे व्यक्तित्व विकास अउ सुख सम्मत के गोठ दुरिहावत हे। ये म बड़ गुनान करे जाय कि अइसे गत काबर होय लगिस।
  चारो मुड़ा भौतिक संसाधन के उपलब्धता अउ उन पाय सेती बौरे सेती गलाकाट प्रतिस्पर्धा हर हर मनखे ल प्रतिस्पर्धी बना दय हे।सहर के कालोनी म जोन कृत्रिम सहयोग अउ आत्मीयता के वातावरण देखे बर मिलथे ओ पल भर के होथे।सब हाय हलो तक ही सीमित हे। अउ हमन ओही म मोकाय हन।  थोरिक आधु बढे म  पीठ पाछु आलोचना व प्रतिस्पर्धा मं लगे मनसे म सक सुबहा के सिवा कछु न इये।
       खैर वाचिक या मौखिक परंपरा मं जोन ममहावत शबद अउ भासा रहिस ओकर भले प्रचलन अब रदियावत जात हे काबर मनसे बस्सावत मंद पीके अत्तरमुहां कहरत बोली क इसे उच्चार सकही? एकर बेवस्था हमर सरकार अलगे राज बने से जोरदरहा कर दे हवे।हर चुन ई मं लोगन मं चुलुक लगा दिए जाथे ।तहां ले उन मन फाहर पुतर बोले के लाइसेंस पा जथे।पिए खाए हे कहिके अब तो माइलोगन मन तको सुने के बिबस अउ  अभियस्त हो गे हवे।
लिखित रुप म छत्तीसगढ़ी ह ब्रिटिश जमाना ले चले आत हे।त कोनो मन कथे कि दंतेसरी मंदिर के सिलालेख जोन १३-१४ सदी के आय ओमा छत्तीसगढी हे। त ये हमर बड़ गौरव के बात हवे।
   महात्मा कबीर के सिस्य धरमदास के पद म छत्तीसगढी देखे बर मिलथे तिहि पाय के उन ल आदि कवि माने जात हे ।फेर ए सब लकर धकर के स्थापना आय। व इसे जबे त पद्मावत म तको छत्तीसगढी के ठेठ सब्द हवे जोन आजकल प्रचलन ले नंदावत हे ज इसे ओरवाती छेना दई सुआ   इत्यादि ।त का जायसी जी ल छत्तीसगढी के  आदिकवि माने जाय?
घरमदास जी मातृभाषा बघेलखंडी आय जोन ह पेन्ड्रारोड बेलगहना यहां तक रतनपुर के आत ल फ इले हवय ।तेन पाय के हमला उकर पद  शब्द मन छत्तीसगढी लगथे।अउ उन आदि कवि कहे के मन करथे।उन मन बुढत काल इहा आइस अउ कुछेक साल बिता के चलदिन ।ओकर कोनो पद छत्तीसगढी म निये।
  बाहरहाल छत्तीसगढी मं निर्गुण बानी के बिजहा जरुर बो दे गिस आधु  चलके कबीर पंथ अउ सतनाम पंथ के  जोन पंथी  गीत भजन चौका आरती बनिन उन ल छत्तीसगढी आरंभिक साहित्यिक अउ शिष्ट सरुप माने जा सकते। गुरुघासीदास अउ गुरु अम्मरदास के उपदेश  दृष्टान्त बोधकथा पंथी भजन  जेन  म एक विशिष्ट दरसन अउ जीवन पद्धति के लेखा जोखा हवे।येन भी हस्तलिखित अउ मुअखरा  रहीस । शिछा के द्वार तो १८६० के बाद इहा खुलिस अउ लोगन पढे लिखे जानिस। (कुछ पर प्रातिन्क साछर मन राजा रजवाडा मन लिखे पढे बर लानिस उही मन आरंभिक जानकारी इहा के लिखिन ।जेमा रेवाराम खाडेराव दलपत राव ठाकुर जगमोहन आदि हवय फेर एमन छत्तीसगढी म न इ लिखिन। मराठा अउ अंगरेज  मन मालगुजारी अउ लगान वसुली बर बाहिर साछर लोगन ल बसाइस इही मन गांव म रहि के कुछ रचनात्मक प्रवृत्ति वाले मन छत्तीसगढी ल लेखन लानिस  ) छापाखाना आय से १९०० के आसपास छपे लगिस।
जेन म ब इबिल के कथा छत्तीसगढी अनुवाद ये गद्य सरुप म रहिस।
छत्तीसगढी  बियाकरण म काव्योपधाय हीरालाल चंद्राहू त महाकाव्य अउ साहित्य लिखे म सतनाम दास पं सुखीदास 
सुन्दरलाल सर्मा मुकटधर पांडे लोचन पांडे  मनोहरदास नृसिह हरिठाकुर कुंज बिहारी चौबे नरेन्द्र देव वर्मा   पवन दीवान कपिलनाथ कश्यप गिरिवरदास वैष्णव  श्यामलाल चतुर्वेदी  केयुर भूषण , सखाराम बधेल सुकालदास भतपहरी ज इसे मन धर्म संस्कृति के संगे संग मानवीय प्रवृत्ति के बड़ सुघ्घर चितरन करिन।अउ छत्तीसगढी ल संवारिन साहित्यिक सरुप म ढालिन ।
     तेकर पाछु साञस्कृतिक आंदोलन म चंदैनी गोदा सोनहा बिहान सुकुआ के अंजोर अंजोरी रात जैसे सैकडो संस्थाए उनके गीत कार गायक व संगीतकार ६०-२००० तक ४० साल तक छत्तीसगढी को गीतात्मक स्वरुप में ढाल कर माधुर्य किए उनमे लछ्मण मस्तुरिया रामेश्वर वैष्णव सुशील यदु जीवन यदु राही पवनदीवान मुकुन्द कौशल मंगत रविन्द्र रमेश विश्वहार पद्मश्री सुरेन्द्र दुबे वि‌नय पाठक शंकुनतला तरार निरुपमा शर्मा डा. सत्यभामा आडिल  सुधा वर्मा डा जे आर सोनी  देवधर महंत  अरुण निगम अनिल भतपहरी जैसे लोगो ने अविस्मरणीय योगदान दिए।और निरन्तर सिरजन म रत हवे।
    अलग छत्तीसगढ के बाद तो हर तरह के लेखन एमा बड़ तेज  गति ले सुरु होइस ।अउ छत्तीसगढी अकादमिक रुप ले पढ़े पढाय के बिसय बनिस ।ते पाय के  इनमे वृहत्तर लेखन होय लगे  हे। छत्तीसगढी राजभासा आयोग के गठन होय ले साहित्यकार मन ल अनुदान मिले से साधक के रचना छपे लगिस ।बिजहा अउ माई कोठी जैसे योजना आय ले छत्तीसगढी साहित्य पोठाय लगिस।
नाटक अउ सनीमा तको एक उद्योग कस लमियात हवे अउ कत्कोन कलाकार मन ल अपन परतिभा देखाय के अवसर मिले लगिस।
एखर बाद भी  छत्तीसगढी ह सरकारी कामकाज अउ आफिस म पढे लिखे लोगन म  बने जात के बौरात न इये ये सञसो के बात आय। आजो भी इहा के लोगन एखर सार्वजनिक उपयोग बर  कनउर मरथे ।या सबके आधु म अपढ या गांव के समझी कहिके ठोठकई / झिझक ई चलत हे । इहीच हर बड़ अलकरहा अचरुज  हवय ।हम सबन ल ये भाव ल बदलेच ल लगही।तभेच हम भासा के उपनिवेश अउ बौद्धिक आतंकवाद ल बाच के सम्मुन्नत विकास डहन रेन्गे ल परही।
      हमन ल आस हवे असनेच आयोजन ले अउ जुरियाय लिखंता पढंता गुनवंता मन के उदिम ले हमर भासा आठवी अनुसूची म संधर के अपन महातम के झञडा लहराही। छत्तीसगढ अउ छत्तीसगढी के मान सब डहन बगरही।

डा. अनिल भतपहरी
ऊंजियार -सदन अमलीडीह
     रायपुर छग
९६१७७७७५१४

फूलसूंघडू

मेरे बेटे मिलिन्द  २० मार्च  १९९८ को जैसे ही महालक्ष्मी नर्सिंग होम रायपयर  में  जन्म लिए उसी दिन हमारे   गांव  जुनवानी के आंगन  के मोंगरे की झाड़ी में केवल "एक फूल " खिल उठे !
    अस्पताल से छुट्टी कराकर घर लाए तो प्रफुल्लित पिताश्री उसे गोद मे उठाकर जब मोंगरे झाड़ के पास ले जाते तो भीनीं महक से खुश हो नाक भींजते और किलकारी मारने लगते ।नवजात बच्चें की कौतुहल देख पिता श्री मिलिन्द को फूल सुंधड़ू  दाऊ कहते। यह  घरेलू नाम चल ही पड़ा ।यदा -कदा दादी उसे अब भी फूल सूंधड़ू कहती हैं । 
       सूदूर पेन्ड्रारोड जब वे पत्र लिखते तो हमेशा लिफाफा डालते और उसमें घर के आंगन में खिले मोंगरे का फूल डालना नहीं भूलते।
       पिता श्री सुकालदास भतपहरी २००० से नहीं है। इन उन्नीस वर्षो से उनकी हर विशिष्ट बातें जेंहन में हैं। मोंगरे की फूल देख हमें हमारे पिता श्री स्मृत हुए।

Saturday, April 20, 2019

अपन घट के देव ल मनइबोन

"अपन घट के देव ल मनइबोन "
  गुरुघासीदास ने छत्तीसगढ़ में सतनाम धर्म की प्रवर्तन करते कहा कि हे संतो अबतक जाने अनजाने में  जिस मान्यताओं को जन्म से मृत्यु तक मानते आ रहे हैं वह निरा भ्रम व मिथक हैं ।उन्ही के कारण दु: ख संताप कलह अशांति और शोषण के शिकार हैं। इन सबसे बचना हैं तो सर्व प्रथम कल्पित देव और उनके कल्पित निवास स्थल मंदिर आदि जाना त्यज्य दे मूर्तिपूजा पुरोहितों को दान दछिणा देना बंद कर दे क्योकि यह सब मन को बहलाने वाला भ्रमित करने बहेलिया हैं ।यह सब करते क इ जुग बित गया पर अबतक मानव जीवन  कोई बदलाव आया ही नहीं ।मंदिर नही वह मंदरिवा हैं जहा राग रंग रति दान दछिणा के नाम पर शोषण आशीर्वाद के नाम छल कपट द्वेष प्रपंच से युक्त मानसिक व धार्मिक गुलामी दी जाती हैं। इसलिए वहां जाना व्यर्थ हैं ।का करने जाय ?
यदि सुमरन करना हैं भाव भक्ति ही करना हैं तो अपने धट  में विराजमान अनेक तरह के सद्गुण हैं। उनकी अराधना करे ।ऐसा एकत्रित संत समुदाय को धर्मोपदेश देते उनकी श्रीमुख से यह काव्यात्मक पंक्ति नि:सृत हुआ -

मंदिरवा म का करे जइबोन
अपन घट के देव ल मनइबोन .....

धट शब्द बहुअर्थी हैं।
एक यह शरीर
दुसरा उस शरीर का  अंतस  भाग
तीसरा मन हृदय बुद्धि
चौथा  घर जहा हम निवास करते हैं।
पाचवा वह परिछेत्र जहा समुदाय सहित रहते हैं
इस आधार पर एक से दूसरे या आसपास रह रहे समुदाय से परस्पर सकरात्मक संबंध
    अब इन्हे तरह से देखे -
धट का देव सत्य करुणा परोपकार प्रेम आदि हैं।
और घर में देव  दादा दादी माता पिता  बडे भाई भाभी हैं। उन्हे आदर दे उनकी पूजा सत्कार करे।
गुरुघासीदास की सत्य अमृतवाणी - "अपन धट के देव ल मन इबोन" का आशय यही हैं।
   सद्गुण को धारण करते जो बडे बुजुर्ग अनुभवी हैं को आदर सत्कार देते सात्विक जीवन ही सार हैं। ऐसा करने मात्र से व्यक्ति को जीते जी परमपद या पद निरवाना की प्राप्ति होती हैं।

इस आशय का पंथी मंगल भजन हैं-
भजौ हो गुरु के चरणा अहो मन मेरा-
सभी इन्द्रियों  सहित हाथ पैर की आकांछा व्यक्त करते हुए अंतिम अंतरा में वर्णित हैं-

अंतस म संतो  सतनाम ल बसाइतेव
दया मया सत म ये जिनगी पहाइतेव
जिनगी पहावत परम पद पाइतेव
परम पद पाइके ये हंसा ल उबारितेव ...भजौ हो गुरु के चरणा ....

इस तरह देखे तो सतनाम धर्म ईश्वराश्रित नही सद्गुणाश्रित महान व्यवहारिक और सत्य पर आधारित समानता से युक्त मानवतावादी धर्म हैं। जो सभी अनुयायियों को सदैव सद्गुण से युक्त परस्पर प्रेम व सौहार्दपूर्ण आचरण करने की प्रेरणा देता हैं। न कि इन गुणो से रहित किसी  की पूजापाठ दान दछिणा व्रत उपवास तीर्थ   आदि की प्रेरणा देता है।
सात्विक रहन सहन और अपने आसपास के लोगो से सौहार्द्रपूर्ण व्यवहार और सत्संग ही मानव जीवन का सार हैं। यही भाव को  धारण करना ही धर्म हैं।
   सतनाम धर्म अपनी मूल प्रवृत्ति में  सरल सहज व सबसे निराला हैं। इनके अनुयाई होगा सौभाग्य एंव    स्वाभिमान की बात है। 

       ।।सतनाम ।।

डा अनिल भतपहरी‌
९६१७७७७५१४
जुनवानी ,रायपुर छत्तीसगढ

Friday, April 19, 2019

सत्य ईश्वर नहीं हैं

"सत्य ईश्वर नहीं हैं"

ईश्वर एक अलंकृत नाम हैं। और उनका होना संदिग्ध हैं। अबतक उन्हे किसी ने नही देखा न उनकी कृपा आदि लोगों को नही मिला।मन बहलाने या सपनी पीड़ा सुनाने के लिए प्रार्थनाएँ करने के लिए ही उनकी ईजाद मानव समुदाय ने कर लिया है।
  ईश्वर मानव समुदाय का उन्नत परिकल्पना ।इनका अर्थ हैं जो ऐश्वर्यवान हो वह ईश्वर हैं। कलान्तर राजा राजुमारों को उनके प्रतिनिधि या अवतार मान कर उनकी चरित लिख कर उनकी भक्ति या  अराधना की परिपाटी विकसित हो ग ई ।उन्ही के आधार पर प्रतिमा चित्र आदि बनाकर उन्हे मंदिर मठ जैसे अलंकृत इमारतों में स्थापित कर दी ग ई और अनेक तरह कथा कहानी बनाकर हरि अनंत हरि कथा अनंता कह महिमामांडित किया गया।विश्व के अधिकांश देश में अलग अलग धर्म के अन्तर्गत कथित और कल्पित सर्वशक्तिमान को ईश्वर मानकर उन्हे साकार- निराकार  स्वरुप दिए गये । सगुण निर्गुण कह उनकी महत्ता गाई जाने लगी।कलान्तर में उसी अग्येय ब्रम्ह जो है या नही है के भ्रम में लिपटा रहस्यमय हैं। के अधीन लोग रहस्यमय साधना पद्धति विकसित कर लिए गये।कुछ तो उन्हे अनुभूति जन्य कहकर महिमामांडित करते हैं।
      बाहरहाल सत सच सत्त और सत्य एक भाव व गुणवाचक संज्ञा हैं। वह कल्पित अलंकृत महिमामय  रहस्यमय सगुण- निर्गुण ,साकार -निराकार मानव  अवतार या  एक पात्र जैसे कैसे होन्गे?
सत्य गुण है और कथित ईश्वर एक जीवधारी प्राणी हैं।
    एक व्यक्ति सतधारी हो सकता हैं, वह सत्य को मान सकता हैं। उनका अपेछित प्रयोग कर सकता है।
      इसलिए दोनो का धालमेल अनावश्यक हैं।
महत्वपूर्ण सत्य हैं प्राण धारी व्यक्ति पशु- पक्षी या अन्य जीवधारी नहीं ।
सत्य किसी पारलौकिक ग्रह या दूसरी दुनिया की भी नहीं वह इसी धरती और लगभग सभी व्यक्ति के मन हृदय में बसा हुआ हैं-" धट धट म बसे सत स्वरुप  सतनाम हैं  "
      जैसे ही  कण -कण बसे है भगवान या ईश्वर  कहे  जाते हैं। पर एक अवतार शरीर धारी चीज कैसे ऐसे होगा संभव ही नहीं ।
   अनेक पात्र आए भगवान ईश्वर जैसे गरिमामय नाम को धारित किए ।बावजुद वह सत जैसा अशरीरी नही है।
  तब कैसे हम सत्य ही ईश्वर है कह सत को ईश्वर माने ।
      सत केवल सत हैं यह न मिथक है न इसे किसी ने  ईजाद की न जन्म दिया न बच्चे युवा हुए न शादी- ब्याह कर लीला आदि  दिखाए न सिखाए ।इसलिए भी सत्य को न  ईश्वर के साथ तुलना करना चाहिए न उनके जैसे होने की अवधारणा विकसित करना चाहिए। इससे सत्य साम्प्रदायिक व ईश्वरवादी अनीश्वरवादी सगुण- निर्गुण ,साकार- निराकार के चक्कर में फंसकर अपनी विशिष्ट महत्ता खो देन्गे।
   एक चीज हैं सत्य सबमें निहित हैं। पर सभी सत्य मे निहित हो ऐसा संभाव्य नहीं ।
जैसे कल्पित  ईश्वर में सत्य मिल  सकता हैं ,पर  सत्य मे कल्पित ईश्वर या उनके अवतार आदि मिले यह संभव नहीं ।
    अत: सत्य ही ईश्वर हैं यह नहीं हो सकता यह प्रक्षिप्त   या भ्रामक पर अलंकृत  स्थापना है।भले ईश्वर सत्य हो सकता हैं।
      ईश्वरीवादियों का मनभावन खुबसूरत वाक्यांश है - "सत्य ही ईश्वर हैं " यह चमकदार तो हैं पर कृत्रिम है, प्राकृतिक  नहीं ।

कोई प्राणी या मानव  महान तब हैं वह सत्य को धारण करता हैं। सतधारी होता है न कि बिना इनके अपने चेहरे मोहरे रंग रुप वंश ,जाति, कूल राजे -रजवाडे के ऐश्वर्य के कारण।
                 ।।सतनाम ।।

डा. अनिल भतपहरी‌ 
जुनवानी ,रायपुर छग