"ददरिया "
दादर परिक्षेत्र में गाई जाने वाली प्रणय गीत को ददरिया कहते हैं। दादर उड़िया मिश्रित छत्तीसगढी के लरिया बोली के शब्द हैं। इसका अर्थ वह परिक्षेत्र हैं जो कि मधुवन या वृंदावन जैसा रमणीय वन्यभूमि हैं। वहां प्रेमी युगल परस्पर मिलकर मधुर गान नर्तन करते अनेक तरह के हास विलास परिहास शिकवा शिकायत उलाहना और नोक झोंक करते प्रेमल वक्त गुजारते हैं।
अक्सर उड़ीसा सीमावर्ती छत्तीसगढ के ग्रामों के खेत के आगे दादर मिलते यह वह जगह हैं जहां पर छोटे वृक्ष के फलदार व छायादार महुआ चार तेन्दू के वृक्ष और सुंगधित कोरिया सिलयारी वन तुलसा जिसे वृंदा झाड़ी कहते हैं का रम्य उद्यान होते हैं। उसके आगे सोर्रा पहाड़ी नाला और उस पार सधन व बीहड़ जंगल होते हैं। उसके आगे पहाड़ पर्वत मलाएं । जहां हिंसक जंगली जानवर और डरावनी भुल भुलैया रास्ते वाली वन प्रांतर होते हैं। अत: दादर ही वह रम्य वन होते हैं जहां प्रेमी युगल निर्भीकता से मिलते हैं। और क्रियाकलाप में अनुरक्त होते हैं। इसलिए दादर का गीत होने से यह ददरिया के नाम से विख्यात हुई।
गांव से लगा खेत होते हैं। जहां प्रायः लोगों की आम दरफ्त रहते हैं। और दिन भर चहल पहल के फलस्वरूप यहाँ प्रेमी युगल तटस्थ रहकर मर्यादित रहते है।वहां अक्सर बडे बुजुर्ग और रिश्तेदार रहते हैं। फलस्वरूप वहा पर कथा -कहानी गीत भजन आदि चलते हैं। वहां वे भी प्रतिभागी हो सकते हैं। पर वहां प्रेम नहीं बल्कि भक्ति भजन रीति -नीति, संस्कृति के गीत कहानी होते हैं।
पर यह तो है कि हमारे ग्राम्य अंचल का वृंदावन जहां राधा कृष्ण सहित गोपियों का महारास हुए यह खेतों से लगा खार छेत्र है जिसे हम दादर कहते हैं। वही इनकी उत्पत्ति हुई ।और इसलिए लोकप्रिय ददरिया नाम पड़ा।
हर युवा पुरुष मन कृष्ण है ।और हर युवा स्त्री मन राधा ।
दोनो के मिलन छेत्र ही दादर वृंदावन की कुंज गली हैं। जहां प्रेम भाव से युक्त त्याग और समर्पण का मधुर ददरिया गीत लोक कंठ से प्रस्फुटित होते हैं।इस में उन्मुक्त भाव से प्रणय निवेदन हास परिहास उलाहना शिकवा शिकायत ब्याज स्तुति आदि भाव से युक्त काव्यात्मक पंक्ति की उक्ति होते हैं। यह निम्न पंक्तियों में देखे जा सकते है-
फुटहा रे मंदिर कलस नइये ।
काली के अव इय्या दरस नइये ।।
ददरिया दोहा छंद नुमा दो पंक्ति के होते हैं जिसमें प्राय: पहली पंक्ति से दूसरी पंक्ति का केवल तुकबंदी संबंध होते हैं और दोनो में परस्पर कोई संबंध नहीं होते।अर्थात स्वतंत्र पद रचना होते हैं। यह आरम्भ में नायक और नायिका की अपनी सीमित सोच अनुभव और अपनी बाते सीधे न कहकर मुकरते हुए पहेली बुझने या किसी अन्य को प्रतीकात्मक रुप से व्यंग उलाहना कहने से आरम्भ हुआ। ताकि प्रेमी बुरा न माने नराज न हो और अपनी बाते कहे।या ऐसा प्रतिमान गढ़कर कहे कि उनकी भोगे संत्रास या पीड़ा कितने संहारक है उसे वह भी अनुभव करे। ऐसा कह सुन दोनो भाव विह्वल भी हुआ करते हैं-
नवा सड़किया गड़े ल गिट्टी ।
काकर बर भेजे तय बैरंग चिठ्ठी ।।
एकान्त में प्रेमी मिलते हैं शिकवे शिकायत होते है ,नोक झोक और मस्ती भी जरा इन पंक्तियों के भावार्थ देखे -
गांजा के थैली म गांजा नइये ।
गंजहा ल बनाए फेर मंजा निये।।
इसी तरह संस्मरण में घटे अभ्यावेदन देखे-
चिकनी रे पथरा छपक कांचेव ।
तोर सुरता मं संगी गजब हांसेव ।।
चलते चलते प्रणय याचना के दर्म्यान नायिका/नायक की मनोदशा का का खुबसूरती से वर्णन द्रष्टव्य है-
कांचा लिमउव्वा के रस चुचवाय ।
रद्दा बीच रस मांगें मं मन कचवाय ।।
ददरिया इतना अधिक लोकप्रिय हुआ कि यह केवल प्रेमी युगलों के मघ्य प्रणय निवेदन ,नोकझोक हास -परिहास ,उलाहना मस्ती आदि से आगे बढ़कर बड़े बुजुर्गों और बेटियों के प्रति माताओं या भाभियों चाचियों मामियों की सीखौना भी गांव घर आंगन में गुंज उठी -
हड़िया के मारे तेलई फूट जाय।
चारी - चुगरी के मारे जोड़ी छूट जाय।।
बडे बुजुर्ग भी ददरिया की लोकप्रियता से कैसे अछूते होन्गे वह भी उपदेशना करते सञग साथ में होते गा उठते हैं-
फूटहा हे पतरी अउ फूटहा रे दोना।
करम ठठाए पेज गंवागे चारो कोना ।।
मया के मरम न समझ सकने वालों के लिए इससे बढ़कर क्या उलाहना हो सकते है -
सरहा शिकार मं मसाला खइता ।
भोंगाचंद मन बर मया हे खइता।।
और क्या प्रेम छुपाए छुप सकता है ? यहां तो जुबान भले न चले ईशारे से सब बयान हो जाते हैं-
अकरस के नांगर दबाए नइ दबय।
तोर मोर मया संगी छुपाए नइ छुपय ।।
ददरिया का प्रभाव भाव भक्ति में पड़ा खेतों में काम करते भाव विह्वल होकर भक्त अपने अराध्य को ददरिया गाकर सुमर लेते हैं -
धान ल लुए उड़े ल कंसी ।
भगवान के मंदिर ले सुनाय बंशी ।।
इस तरह हम देखते है कि ददरिया अत्यंत लोकप्रिय श्रृंगारिक रचना उर्दू में गज़ल की शेर की तरह दो प्रेमियों के मध्य एकांतिक छण में मयारुक "बतरस" या गुफ्त़गूं के रुप में प्रकट हुए और इतना व्यापक प्रसार हुआ।
जैसे भारतीय काव्य में श्लोक दोहा प्रभावशाली है। अरबी फारसी उर्दू में शेर और शायरी उसी तरह छत्तीसगढ़ी में ददरिया की दो डांड लोगों की जुबान पर चढ़कर बोलने लगे।
अधिकतर पारंपरिक प्रेम गीतों में चाहे वह ददरिया करमा सुआ जस भोजली भजन आदि हो उसमें भी ददरिया की दो डांड की प्रभावशाली उपस्थिति देखें -
नवा रे हंसिया के जरहा हे बेंठ।
जीवत जागत रहिबोन त हो ई जाही भेंट ।।
इन लोक विधा को लेकर नव सर्जक अनेक तरह के प्रयोग कर उसे और भी सुघड़ और भावप्रवण कर रहे है ।वही अति प्रयोग और आधुनिकता से अपनी स्वाभाविक संप्रेषणीयता से बाधित हो कृत्रिम और हल्के पन भी आने लगे है। बावजूद वह नव पीढी को उनके अपने अंदाज में मोहित करते रहे हैं-
गाड़ी चलाए स्टेरिंग ल धर के ।
मोबाइल मं बुलाए चैटिंग कर के।।
जैसे पंक्तियाँ भी श्रवणीय होने लगे हैं।
इस तरह नव कलेवर से ददरिया मंच और रजत पटों की शोभा बनी हुई हैं।
जैसे रसराज श्रृंगार हैं ठीक गीतों की राजा छत्तीसगढ़ में ददरिया हैं।
-डा. अनिल भतपहरी
स्रोत / सौजन्य - श्री सी.आर. साहनी