Monday, August 10, 2020

करु- कसा 2

करु-कसा -2

।।विचारों की कीमागिरी ।। 

रविवार मुर्गे -बकरों की शामत का दिन है। आज शहर में बकरीद की मानिंद सैकड़ों बकरे-मुर्गे मच्छी  कटेन्गे और तकरीबन ८०-९०% घरों में पकेन्गे।  जब ये पकेन्गे तो इन्हे पचाने मदिरा तो आएन्गे ही आएन्गे ।
    बहरहाल इस आलम में जो अछूते हैं वही रियल में आजकल अछूत हैं। सरकारी नौकरी- चाकरी से लेकर दिहाड़ी करने वाले व  कुली -कबाड़ी  तक "जश्न ए संडे " में डूब जाते हैं। क्या गज़ब का अंग्रेज़ी तिहार है ।
    सुबह -सुबह चर्च के  प्रेयर से मुक्त होते माइकल  मुलायम बकरे की गोश्त  खरीदने के लिए साइकल चलाते शहर की पुरानी कसाई ख़ाना गये। सोचा कुछ कीमा लेते आए ,अर्सा हो गये कबाब खाए? लाकडाउन में होटले/ बिरयानी सेंटर  बंद है तो धर में ही पका -खा ले ।  दूर से एक बंदा शायद  जासुस सा, हाव- भाव देखते समझ गया और जोर से आवाज दिए-" ओय सर जी ! यही मिलेगा शानदार मक्खन जैसा  "करीम का कीमा " 
      पास साइकल खड़ा करते पुछे -"क्या भाव ?" 
"सर जी !७०० रुपये १०० रुपये तो कुटने का लगा रहे हैं। मेहनत बहुत है सर जी !
    अरे लूट रहे हो जी उधर हमारे तरफ तो ६०० में गोश्त लो या कीमा सब समान रेट हैं।
    अरे जनाब !क्या कह रहे हैं कसाई कभी बेईमानी नहीं करता।  उधर गड़ेरियें और हिन्दुओं की दूकानें है। भला वे लोग हमसे बेहतर कटिंग्स क्या जाने ? यहाँ क्वालिटी और कटाई -चुनाई का महत्व है,तभी तो जानकार टूट पड़ते हैं। फिर तौल झुकाकर देते हैं उनके तरह डंडी नहीं मारते जनाब!
    सच में खाल उतरे बकरे ,रस्सी से लटके करीने से सजे थे ।भले  उनमें मक्खियाँ भिनभिना रही थी, उसे हांकते और उनकी तरफ दिखाते कहे -"ऐसा सफाई और चुनाई ओ कर दे तो ,कसम मौला की !धंधे छोड़ दे और बकरियाँ चराने गड़रिये बन जाय !"
   "अच्छा यह तो अच्छी बात है! कसाई से गड़रिये यह तो पुण्य का काम है । ये मारना - काटना छोड़ पालना शुरु कीजिए ।
   अरे साहब! काहे नीच नराधम बनाने की सोच रहे हैं?हमारे ही लहु सने दिए पैसों  से, पलने वाले गड़रिये से हम ऊचे दर्जे का है। वे हमारे आगे गिड़गिड़ाते है। हमसे छोटे व नीच  हैं। 
    माइकल सोच मे पड़ गये -"ये ऊंच -नीच   कहा -कहां घुस गये हैं। उस दिन कबाड़ वाले देवार कह रहे थे कि हम नेताम आदिवासी देवार  सुअर पालने वाले शहरी  देवार से ऊंच है।  इसी तरह सूत -सारथी सफाई करने वाले घसिया  भंगी मेहतर से स्वयं को ऊंच कहते हैं। और  खाल छिलने वाले  मेहर  से खाल की जूते बनाने वाले मोची ऊंच बना बैठा है। मलनिया से ऊंच  सेलून में बाल काटने वाले नाई है और  बड़ी मच्छी मार नाविक  केवट से नीच छोटी मच्छी और उनकी सुक्सी बेचने वाले  ढीमर हैं। किसान के  बरदी चराने व गोबर बिनने वाले  राउत से बड़ा खुद के डेयरी चलाने ,दूध बेचने वाले यादव बने हुए हैं। इधर किसानो में कुर्मी -तेली बडहर व प्रतिष्ठित है और  वही  किसान  सतनामी ,लोधी अघरिया हिनहर कैसे हो गये हैं?शादी ब्याह व सत्यनारायण  कथा करने  वाले ब्राह्मण अंत्येष्टि  करने से ब्राह्मण से ऊंच बना हुआ हैं। और  पैदल सैनिक से बड़ा हाथी घोडे वाले क्षत्रिय बने  बैंठे है।"
       विचित्र मान्यताओं व संस्कृति वाले अजायबघर देश में मांस ,मदिरा, खान -पान वाले आमिष आहारी और निरामिष के बीच  सडयंत्र कर परस्पर एक- दूसरे को लडाने वाले छुआ-छूत, जात- पात को बढावा देने  प्रभावशाली हैं।तथाकथित सात्विक आहारी -विहारी उनके शास्त्र आदि को  यही कीमियागिरी  लोग  पूज्यनीय बना रखे है! जिनकी गाढ़ी कमाई और श्रद्धा के वही लोग सौदागर बने मजे लूट रहे हैं।
    इधर कुछ जातिविहिन समानता वादी  सिख, सतनामी, बौद्ध ,जैन आदि भी केवल उत्सवी बन‌कर रह गये हैं। और उनमें इनके देखा -देखी अनेक धड़े, फिरके बनने लगे हैं। 
    बहरहाल  ठोस विचारों की किमागीरी करते अपने रास्ते पैडल मारते माइकल आए ..और हमें देख फूट पड़े  ओ राइटर  महोदय ! कब इस देश से  जात -पात, ऊंच -नीच  भेदभाव जाएगा और  मानवता स्थापित होगा ? समानता का मार्ग कब प्रशस्त होन्गे ? उनके औचक प्रश्न व व्यवहार देख हम हतप्रभ सा रह गये!! 

    -डॉ. अनिल भतपहरी/9617777514

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