सतनामियों की प्रवृत्ति और उनसे हुए व्यवहार
सतनामियों में ऋषि गौत्र, उनके अनुरुप जीवन वृत्त, कृषि संस्कृति,गोपालन आज पर्यन्त जारी हैं.महाभारत कालीन
कुछ प्रथाएँ जैसे युद्धअभ्यास, द्युत क्रीड़ा,रहस, पंड़वानी पंथी नृत्य मलखम नाचा मनोरंजनार्थ प्रचलित हैं. सत्य के प्रति अटूट आस्था और किसी भी बुराइयों और कुप्रथाओ के विरुद्ध जन जागरण आंदोलन में उत्साह पूर्वक भाग लेना मूल प्रवृतियाँ हैं.
भारत वर्ष में प्रथम गौ रक्षा आंदोलन सतनाम पंथ के चतुर्थ उत्तराधिकारी गुरुअगमदास गोसाई और महंत नयनदास महिलाँग के नेतृत्व में 1915 से चला. तब लम्बे संघर्ष और आंदोलन से ब्रिटिश बुचड़ खाना कर्मनडीह ढाबाडीह बलौदाबाज़ार छत्तीसगढ़ बंद हुआ.
सतनामी कृषक और गोपालक समुदाय हैं. घी के व्यवसाय करने वाले घृतलहरे गौत्र धारी ऋषि घृत मंद परम्परा से मेदीनीराय गोसाई मथुरा क्षेत्र के वासी थे. औरंगजेब से संघर्ष उपरांत वे 1662 में छतीसगढ़ में आ गए. फिर तीन पीढ़ी बाद 1756 में गुरुघासीदास का अवतरण हुआ.
कुछेक ऋषि गौत्र दर्शनीय हैं -
भारद्वाज - भट्ट, भतपहरी, भारती
मरकंडेय - मारकंडे, माहिलकर, महिलांग
टंडन - टांडे
जन्मादग्नि - जांगिड़ जांगड़े
अंगिरा- ओगर,अजगल्ले
परासर - पात्रे
कणव - कुर्रे करसाइल कुरि
चतुरवेदानी सोनवानी इत्यादि....
बहरहाल छत्तीसगढ़ में सतनामी बड़े जोत वाले कृषक हैं. और सैकड़ो जमींदारी मंडल गौटियां रहे हैं. मैदानी क्षेत्र में कुर्मी तेली और सतनामी ही बड़े भू स्वामी हैं. बाकी सेवादार पौनी पसारी जातियाँ इनके अधीन जीवन यापन करने वाले समुदाय हैं.परन्तु एक जगह एक भाषा एक संस्कृति के बाद भी इनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार से ऐसा लगता हैं कि ऐ लोग मुग़ल बादशाह औरंगजेब से संघर्ष कर आव्र जित समुदाय हैं. शाही फरमान कि सतनामियों को चुन चुन कर ख़त्म कर दिया जाय उनके वजूद को नेस्तनाबूत कर दिया के चलते भयवश असैनिक व सीधे लोग इस समुदाय से दूरी बना लिए. जिसे देखकर अन्य प्रान्त से लाये बसाए मालगुज़ार,पंडित और व्यापारी लोग जो शहरों में रहे वही लोग इनसे जानबूझकर दूरी बनवाये ताकि फुट डालो राज करो की नीति से वे लाभ उठा सके.
गुरुघासीदास के सतनाम पंथ और उनसे हुए जन जागरण से लोग प्रभावित हो बड़ी तेजी से धर्ममांतरित हुए तो उसे रोकने भी अस्पृश्यता व्यवहार करने लगे. इसे देख अनु जाति वर्ग में सम्मलित किये गए.
अन्यथा डा अम्बेडकर लिखित पुस्तक " अछूत कौन और कैसे? में जितने भी प्रमुख बिंदु दिए हैं उनमे एक लक्षण भी सतनामियों में नहीं मिलते -
अछूत होने के कारण
1 अस्वच्छ पेशा होना - सतनामी बड़े कृषक और तेली कुर्मी से होड़ लेता हुआ. कृषि कार्य अस्वच्छ पेशा नहीं हैं.
3 गाँव से बाहर दक्षिण दिशा में निवास होना, कच्चे मकान या झोफड़ी- सतनामियों के प्रायः बाड़ा नुमा बड़े पटाउहा वाला दो तल्ला घर, कुआ बाड़ी,बारी ब्यारा कोठार युक्त घर. बीच गाँव में घर या पूर्व दिशा में बसाहट हैं.
4 गाय बैल पशुधन नहीं. सतनामी बड़े गोपालक हैं उनके घर राउत और पहटिया लगते हैं.बकरी मुर्गी पालन जैसे कोई कार्य आज भी नहीं हैं.
5 गोमांसाहार - सतनामी प्रायः शाकाहारी हैं वे मांस क्या उनके साहिनाव तक को नहीं खाने वाले समुदाय हैं. नारनौल मथुरा क्षेत्र से आयतीत समुदाय दूध दही घी उत्पादक खाने और बेचने वाले समुदाय हैं.
6भूमिहीन - यह बड़े कृषि जोत वाले हैं मालगुजार मंडल गौटिया होते हैं. पौनी पसारी जातियों राउत लोहार कुम्हार चमार ( मोची मेहर ) के पालक हैं.
7 कुरूप / निर्धन असभ्य - सतनामी सर्वांग सुंदर दर्शनीय, सम्पन्न भिक्षावृत्ति से रहित परिश्रमी समुदाय हैं.
तो फिर अस्पृश्य होने का कारण क्या हैं?
1 ब्राह्मण वाद को नहीं मानना
2 मूर्तिपूजा नहीं करना
3 शाक्त मत का प्रबल विरोध
4 बलि प्रथा का विरोध
5सभी अछूत सछूत जातियों के साथ सम व्यवहार और उसे अपने में मिला लेना.
6 गुरुप्रथा
7 कठोर परिश्रम और स्वालंबी होना.
इन सब तथ्य के बावजूद सतनामियों के साथ कुछ अन्य प्रान्त से आये और नगरीकरण होने से बसे लोगों ने मैदानी क्षेत्र में साथ साथ बसे तेली कुर्मी लोधी अघरिया जातियों के प्रतिद्वन्दी बना दिए ताकि इनमे सामाजिक धार्मिक एकीकरण न हो सके और इनके बीच पलने वाले सेवादार जातियाँ नाई, धोबी, राउत, मोची मेहर मेहतर गाड़ा लोहार कुम्हार कहार मरार आदि भी अपने अपने ठाकुरों अर्थात भू स्वामी किसानों के बीच बटा रहे.
आजादी के पूर्व और बाद में बड़े ग्रामो क़सबो शहरों में बसे व्यापारी मारवाड़ी, गुजरती मराठी सिंधी,पंजाबी और सरयूपारी ब्राह्मण आदि लोगों ने किराना, और जरुरत की चीजें बेचने दुकान खोले और महाजनी देशी बैकर बनकर आर्थिक शोषण किये वही लोग तेजी से धनाढ्य हो लघु और बड़े उद्योग लगाकर पुरी तरह छत्तीसगढ़ की आर्थिक तंत्र पर नियंत्रण कर लिए गए. तथा सामाजिक धार्मिक एवं राजनैतिक रुप से पुरी छत्तीसगढी जनता पर राज करने लगे.
आदिवासी बहुल राज्य भी बास्तर सरगुजा क्षेत्र में गोड़ कंवर बिंझवार भुजियाँ मुरिया माड़िया उरांव पहाड़ी कोरबा बैगा भैंना के रुप में सांस्कृतिक रुप से विभाजित और अंग्रेजो द्वारा ईसाई धर्ममांतरित हो परस्पर बटे हुए हैं. इन पर भी पर प्रांतिक लोगों का नियंत्रण हैं. और वे शहरी लोग अपनी लाभ के लिए एकजुट होकर छत्तीसगढी समुदाय को बाटकर शक्तिहीन कर उस पर राज कर रहे हैं. उनकी अपनी बोली भाषा कला संस्कृति और स्वायत्ता पर नियंत्रण हो चूका हैं.
शेष आगामी अंक में
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