Monday, April 14, 2025

गुलमोहर का पेड़

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गुलमोहर का पेड़ 

हबीब तनवीर साहब के अभिन्न मित्र सेवानिवृत स्टेशन मास्टर सी एल डोंगरे साहब की संस्मरणात्मक एवं मार्मिक आलेख गुलमोहर का पेड़ कृषक युग / सबेरा संकेत के दीपावली विशेषांक 1994  मे प्रकाशित और चर्चित हुई. वो मेरे पास ज़चवाने लाये थे मैंने व्यवस्थित कर उन्हें पत्रकार मित्र नयन जनबंधु को दिया था.उसी अंक में मेरी कविता "प्रणय "प्रकाशित हुई थी. सच में 30-32  वर्ष  वह आलेख कथेतर साहित्य के उत्कृष्ट उदाहरण हैं.
डोंगरे साहब बांसुरी बजाते थे और छिटपुट लिखते भी थे पर वे प्रकाशन और प्रचार -प्रसार सें कोसो दूर थे. बहुत ही विनम्र और तनवीर जी के प्रशंसक थे.वे उनकी अंग्रेजी में लिखी अंतर्देशी पत्र दिखाते कहते कि साहब जैसा कोई नहीं. सच में हमलोग "जिन लाहौर नहीं देख्या कुछ नहीं देखा  " देखने रंग मंदिर रायपुर आये पर वापसी में कार पर सवार हबीब को देख लौट आये ट्रेन लेट हो जाने सें मंच का लाहौर नहीं देख पाए और पचपन के कगार पर हैं  अबतक पासपोर्ट भी नहीं बनवा सकें हैं. ससुरी किस्मत में विदेश जात्रा का जोग ही नहीं हैं का? 

बहरहाल डोंगरगढ के छोटी बमलेश्वरी मंदिर के आगे पहाड़ की तलहटी में एक आश्रमनुमा प्रांगण हैं जहाँ तनवीर साहब अपने नाटकों का रिहर्सल करते थे. रेलवे टिकट, होटल इस जगह के चयन सें लेकर भोजनादि के प्रबंध डोंगरे साहब के साथ डोंगरगढ इप्टा के  मनोजगुप्ता आदि मित्रगण करते थे.मैं भी उसमें सम्मलित हो जाता और फिर घंटो हबीब साहब के सानिध्य पाते उनके कलाकारों सें बातचीत और रोचक संस्मरण भी सुनते. मैने हबीब साहब को बताया कि हमलोग भी पिता श्री सुकालदास भतपहरी गुरुजी के निर्देशन में चोहल चरनदास चोर खेलते हैं. वे पाईप पीते कहें अच्छा अच्छा... आप क्या बनते थे जी पहले  उजागर ?  ये कैसा पात्र.? जी यह निर्धन भूखऊ के  बालक.का नाम ... स्टोरी अलग हैं? जी हाँ...कई दृश्य हैं दरभंगा बिहार वाली लीला टाइप... तब तक गोविन्द निर्मलकर जी आये साहब सें कुछ कहें क्योंकि वो सिटी तरफ जा रहें थे... उसके बाद चेला अब गुरु. अच्छा चरनदास कौन प्ले करता हैं? जी पिता श्री...अच्छा अच्छा..अभी भी शो करते हैं जी अब प्रायः बंद हो गये....करो चालू करो कई चीजें हैं उनपर काम करों...और वे व्यस्त हो गये.

कार्यशाला स्थल के किनारे साजिदों ने.हारमोनियम ढोलक के थाप दिए तो  खनकती सुर और नृत्य  पूनम की  - "देखो आज बन की रानी कहाँ सोई हैं"... गूंज उठी...रात्रि के 8 बजने वाले थे. बायसान हार्न दंडामि माड़िया की नृत्य अभ्यास और बांस वादन के साथ सफ़ेद कुर्ते पजामे में  झूमते तनवीर को उनकी अधेड श्रीमती, बुजुर्ग डोंगरे साहब और यह नवयुवक अनिल हसरत भरी निगाह सें देख रहें थे जैसे कोई सुरलोक में देव या गंधर्व थिरक रहें हैं!  स्याह रंग में लिपटा माँ बम्लेश्वरी पहाड़ की गोद में ठीक हजारों वर्ष पूर्व "सीता बेंगरा" जैसे  प्राचीन "नाट्य शाला " साकार हो उठी हो.
.   अब तो वह सब  देव सदृश्य कलावंत नहीं रहें पर जो हैं और थिएटर प्रेमी हैं उनकी खातिर डोंगरगढ़ की वह सुरम्य स्थली जिस जगह  पद्मविभूषण हबीब तनवीर साहब कई -कई दिन नाटकों के रिहर्सल में बीताते उसे स्मारक के रुप में सरकार प्रतिष्ठित करें.और उनके  प्रिय एवं अभिन्न मित्र सी एल डोंगरे साहब के गुलमोहर का पेड़ जरुर रोपित कर उक्त सुरम्य स्थल को रंग जगत के लिए संरक्षित करें.
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- डॉ अनिल भतपहरी / 9617777514

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