लघु कहानी संग्रह : "एक प्याली चाय की कीमत"
- डाॅ. अनिल भतपहरी
1
"सुगंध "
रोज की तरह सुबह की सैर से लौटते नुक्कड़ की सब्जीवाली से ताजी भाजी लेकर घर आने का क्रम चल ही रहा था कि आज घर की दरवाजे पर एक दूसरी सब्जीवाली को भाजी की गठ्ठर सर पर रखी हुई देखा।
श्रीमती अंदर से रुपये देने आई तब तक वे पहुंच गये और पुछने लगे - क्या ले ली ? पत्नी प्रश्न का उत्तर प्रश्न मे देती कही -
आप क्या लाए ?
"लाल भाजी "
कित्ती जुरी ?
२० की ११
अच्छा रोज लूटाते हो और ऊपर से एक कि मी बोझ लादे लाते हो।
ये देखो २० की १३
आज से वहां से भाजी लाना बंद।ये बाई रोज लाएगी
वह भी बदल- बदल कर ।
"लाल पालक चौलाई और हां तुम्हारे फेवरेट चेंच भी"एक सांस मे कह गई ।उधर अधेड़ भांजी वाली मुंह मे हंसी दबाई चली गई ये कहते "कालीअतकेच बेर चौलाई लानहू"
बहुत दिनों बाद खाली हाथ पीछे गली से आए।और जो सम वयस्क भाजीवाली से नेह जुड सा गये थे वह एकाएक टूट गये।
यह अनुक्रम दो चार दिन चला कि नींद ७ बजे खुलने लगी। धूप चढ़ने और अखबार देख सैर की इच्छा खत्म होने लगे ।तब से छत पर ही थोड़ी बहुत टहलना होने लगा ।अब पहले जैसे उमंग उत्साह भी कमतर होने लगा।
भाजी वाली की आमदरफ्त से मैडम खुश है ।दूधवाले ,पेपरवाले लांड्री वाली व कामवाली के बाद और एक नियमित सेवादार के बढ़ जाने उनकी रौब-दाब में बढोत्तरी होने लगे ।भले महगांई व बाड़ी में लगे पंप की बिल जादा आने लगे कह नई भाजी वाली कुछ दिन बाद २० की १० और अब तो ८ जुड़ी देने लगी है।
अचानक नुक्कड़ की पुरानी भाजी वाली को अपने गली मे फेरी देते देख छत से उतरने लगे.!तब तक गेट खोल कर पत्नी पुछने लगी क्या भाव?वो बोली बीस के बारा !कम्पीटेसन बहुत हवे औने पौने तको दे ल परथे । एक से सेक चारी-चुगरी म गिराहिक टोरे -जोरे के उदीम चलथे..वो बाजार की तरीका बताने लगी मैडम उनकी बातें सुन मन ही मन "लपहरी "कह भाजी की क्वालिटी को पंसद कर छाटने लगी।साहब को नीचे सीढी उतरते देख मुस्काती भाजी वाली धनिया की एक जुरी पुरौनी दे गई... निवीया की डियों से धनियां की सुगंध का अहसास हुआ! आज आफिस की काम काज में दूनी उमंग-उत्साह आने लगा!
सच कहे तो सडयंत्र और उनके चपेट कम जादा जितना हो किसी को बर्दाश्त नहीं पर पापी पेट का सवाल है ।हर कोई काम- धंधे ,रोजी -रोटी पाने में इनका किंचित उपयोग करते है जो दस्तुर सा तो हो गये है पर इनमें विश्वास और नेह की छौंक ऐसी चीज है जिनकी चमक कभी फीकी नही पड़ती न घाटे की सौदा होते है।
2
।।दार्शनिक।।
प्रात: सैर के दरम्यान गाॅर्डन में वाकिंग करते मालती मिली।उसने ही पहचाना, भला महिलाएँ पहचान में आती ही कहाँ हैं? बच्चे हुए नहीं कि दादी- नानी लगती हैं।
बहरहाल कालेज कैम्पस में बिंदास- खिलखिलाती ,चिन्तामुक्त यह वो नहीं जो ज़माने की बोझ लिए झुकी कमर, बेझिल आँखें लिए थकी -थकी सी चली आ रही थी कि आमना -सामना हो गई... पहले इनकी आँखों के ऊपर शायरी और बाब कट बालों के ऊपर नारी स्वतंत्रता एंव स्त्री सशक्तीकरण पर हमारी आधुनिक कविताएँ भी लिखी जा चूकी हैं। लिखने -पढ़ने और छपने के कारण असमय हम समव्यस्कों में मैच्योर्ड हो इन बिंदासों के वास्ते अंकल या भैय्ये हो गये।
बहरहाल वें एक सांस में अपनी करुण कहानी सुनाती हुई फ़फ़कने लगी ।युं सुबह- सुबह किसी स्त्री का रोना हमें बर्दाश्त नहीं हो रहा था,पर सहपाठी के दु:ख सुन उन्हे हल्का भी कराना था।उदास -निराश मित्रों की मन को बोधना भी हमारा कर्तव्य रहा हैं,जैसा कि पहले भी करते रहे हैं। हालाँकि हमारा मन बोधने वाला - वाली अब तक कोई हुआ नहीं ,इसलिए शरीर के हर भाग चोटिल हो जाय, मन को चोटिल होने बचाते रहे हैं।
इत्म़ीनान के साथ फुटपाथ के उस पार लगे सीमेन्ट के बैंच में बैठते- बिठाते हौले से कहां - "रोने के वास्ते एकांत चाहिए पर हँसने के लिए एक का साथ तो चाहिए ही।कोई एक अकेला कैसे हँस सकता हैं?"
यदि ऐसा करे भी तो जमाना पागल समझे या फिर स्त्री के लिए गाली हो जाएगी ।
वे ठंडी सांसे लेती चुपचाप सुनती रही ...और साला अपुन उनके लिए दार्शनिक हो गये।
3
"स्वेटर "
ठंड में बैगर स्वेटर ,स्कूटर से आफ़िस जाना बेहद कष्टप्रद हैं। ऊपर से शहर की प्रदूषण से सर्दी -खांसी! शुक्र हैं कि भेड़ अपनी रुंए मानव प्रजाति के लिए अर्पित कर रखा है अन्यथा ...इसके पालक पर्वतांचलवासी गर्म वस्त्र के कारोबार में लगे हैं इसलिए शीतकाल में गरम कपड़े बेचने देश भर में फैल जाते हैं।
बहरहाल हुआ यूं कि कल गुरुघासीदास जयंती पर्व की छुट्टी होन्गे इसलिए जितने जैकेट स्वेटर थे धुलवाने निकाल डूबा दिए गये.. केवल एक को छोड़कर क्योंकि उन्हे पहिन इस हड्डियां कपा देनी वाली ठंड में आफिस जाना होगा।
पर यह क्या भोजनोपरांत जब कपड़े पहनने लगे तो वह स्वेटर मिला नहीं , जिसे पहिनकर आफिस आना था। ढूंढ़ने पर पता चला कि वह भी वाशिंग मशीन में डल चूका हैं। दो चार है तो , पर इन सभी का हिसाब रखती श्रीमती क्यो अपनी मति खराब करे ?
अब हो गया न सत्यानाश ... ! बस इसी बात में तू तू, मैं मैं शुरु ...स्वेटर खंगालती काम वाली बाई हंसी जा रही थीं। उनकी खीं -खीं डाइनिंग हाल तक सुनाई पड़ रही हैं। गुस्से से लाल -पीले होते आफिस बैग पकड़ स्कूटर पर कीक मारते गुस्सें का शमन कर रहे हैं। ऊधर श्रीमती अपनी मति न मार ,मति खाए जा रही रहीं हैं कि घर का सारा काम मुझे ही देखना हैं ,..बस जीना हराम हैं!
वर्षों से आलमीरा के कोने में मुड़े-तुड़े रखे मोटे खद्दर खादी का शर्ट निकाल प्रेस करते अपने गुस्से की सलवटे भी शर्ट के साथ प्लेन कर जींस के साथ आफ़िस आना हुआ।
पहुंचते ही देखा कुछ महिला कर्मचारी ऊन से स्वेटर बुनती लान में धूप सेंक रही हैं। इस दिसंबर में रुंह कंपा देने वाली ठंड में बिना स्वेटर के अपने साहब को देख एक -दूसरे को आश्चर्य से देखती दबी जुबान से हस पड़ी...
महिलाओं का यूं हसना और काम छोड़कर गप्पे लड़ाते स्वेटर बुनना उसे नागवर गुजरा...सातवें आसमान में चढ़ते गुस्से को काबू करते कहे ... ये स्वेटर यहाँ ?
तभी महीन सी स्वर पशमीना जैसी गर्मी चढ़ाते कानों में मिश्री घुली ... सर आपके वास्ते भी स्वेटर बुनी जा रही हैं । साहब का उद्वेलित मन बर्फ सा शांत हो हिमांचल की सैर करने चल पड़ा... अच्छा! अच्छा !!
4
"अकेला "
अजीब सा मंजर हैं, सर्वत्र अराजकता फैलती जा रही हैं। जिधर देखो उधर परस्पर एक-दूसरे की बातों,विचारों में मीन- मेख निकाले जा रहे हैं। जो निकालने में सफल हुए समझों उस भीड़ के नायक होते चले जा रहे हैं।
इस तरह अनेक क्षेत्रों से अनेक तरह के नायकों का उद्भव हो रहे हैं। यह दौर इसी तरह के नायकों के उभरने का हैं।
आलोचनाओं और फूहड़ गाली -गलौचों से ही नये नेतृत्व आ रहे हैं, प्रखर प्रवक्ता हो रहे हैं। जो जितना अधिक इन सब में काबिल हैं ,वही राज कर रहें हैं।इसलिए इनके लिए बकायदा कोचिंग इंस्टीट्यूट प्रशिक्षण संस्थान व पार्टियां खुलती व बनती जा रही हैं!
प्रखर चिंतक के इस संबोधन के बाद उसे कोई संस्था या पार्टी के मंच में आज तक कोई बोलते नहीं सुना गया न पत्र पत्रिकाओं में उनके लेख छपे न आकाशवाणी दूरदर्शन में वार्ताएं या परिचर्चाएं। हां सोशल मीडिया के लिए वह अनफिट हैं। उसे नेट व एंड्राइड चलाने आता नहीं ।
इस तरह आजकल वे बेचारे अकेला ,अलग- थलग और विस्मृत हो चले हैं।
5
।।आभास।।
नये साल की शुभकामनाओं से एफ बी और तमाम ग्रुप अटा पड़ा हैं। ६४ जी बी रेम्प वाला मोबाइल हैंक होने लगा। यह देख सुकून मिला - "चलो आभासी ही सही, फारर्वड करने वालों और यूं ही स्व प्रचारित करने वालों की कृपा से अपना सेट हेंग तो हुआ।"
कम से कम पत्नी और बच्चों से यह कह तो सकते हैं कि हमें भी लोग लाइक कमेट्स और शुभकामनाएँ भेजने वालों की कमी नहीं हैं। भले तुम लोग बधाईयां दो न दो ।अब बोलने - बतियाने वाले न रहे , सीधे मिलने भेटने वाले न रहे पर लोगों के नोटिस और राडर में तो हैं!
यह सोचकर कुछ ज्यादा ही खुश होते एलान किया कि "आज रात घर में खीर- पुड़ी और व्यंजन बनेन्गे।"
एलान खत्म होने के पहले टोकते हुए चीखें गूंज उठी..."अच्छा कौन बनाएगीं? मै.. मुझसे अब न होगा । आज तो कम से कम बख्श दें! फिर सब कुछ रेडीमेड पैक्ड आ रहे हैं।"
और क्या पापा !सारे लोग होटल रेस्तराँ जा रहे हैं और हमे लोग...?
"सच में पप्पू ! खाने के मेज में बधाई देन्गे कह अब तक नहीं दिए हैं!"
जमाने से कटकर रहना मुनासिब नहीं ,चलों जश्न मनाने ! अब हम ओ तो रहे नहीं कि कभी अपनी चलाते और गरज के कहते कि "जमाना हमसे चलती है जमाने से हम नहीं"
आजकल ऐसा कहने वालें नस्ल तेजी से विलुप्त हो रहे हैं। काश !नये साल में इनका संरक्षण हो। ठंडी आह के साथ कार की पीछे सीट पर बैठे कि कार स्टार्ट करते मधुर गीत नहीं बल्कि उलाहना के राक -पाप बज उठे ! कब तक यह बसंती चलेगी ? ..अब तो डस्टर , इनोवा , एक्स यु बी, या सेडान वगैरह आ गये है ,उनमें कोई आए तभी मिठाई खाएन्गे क्यो मम्मी ?
"मै तो कब से यही कह रही हूं पर ये माने तब !"
ऐसा लगा कि नये वर्ष में सब कुछ बदल जाएन्गे सिवाय इंकम के। वे पुनश्च आभासी दुनियाँ में प्रविष्ट होने जेब टटोलने लगे और पुरानी मोबाइल को देख स्वयं से कहे -"ये जरुर बदलेंगे, ताकि स्नेह क्षरण के इस दौर में छद्म ही सही स्नेहिल आभास होता रहे।"
6
साक्षात्कार
बच्चे!कहने को रह गये हैं। अब तो वे बाप बनने लगे हैं। हर वक्त गुस्सा और डिमांड ज्यादा होगा तो घर से भाग जाने की धमकी ! ऐसा लगता हैं कि संतान जन के कोई अपराध किए हैं। इससे तो बेऔलाद अच्छा ...एक सांस में यह सब वे कहती गई और फ़फक कर रोने लगी।
क्या ,क्या हुआ ?
जैसे कुछ जानते नहीं? सब कुछ जानकर यूं ही अनजान बने रहना तुम्हारा फितरत हैं।
अच्छा तो मै क्या करुं?
डाटो -फटकारो पर यूं सर पर न चढ़ाओं !आज देख लिया तुम्हारे ढ़ील का नतीजा ।
दोनो साथ- साथ फ़फकने लगे ...
बच्चे स्कूल -ट्युशन नहीं जाते देर रात बाहर स्ट्रीट फूड में जंक फूड खाना और समय बेसमय बीमार तक होना ,रात भर मोबाईल में लगे रहना और दोपहर १-२ बजे सोकर उठना !
ऐसा लगता हैं कि मोबाईल ही अभिशाप बनकर इस परिवार पर कहर ढ़ा रहे हैं। शुरु- शुरु में ससुराल का देर- सबेर फोन दोनो के बीच स्ट्रेस लाए ..अब बच्चे हाई स्कूल में आए तो यही मोबाईल तहस -नहस करने लगे।
"सुविधाएँ ही संकट लाते हैं" अर्सा़ पहिली अपनी इस व्यक्त विचार और कविता के खतरनाक सच से वह भीतर तक सिहर गये ... दहशत में घिर गये! उसे क्या पता था कि इस तरह उससे साक्षात्कार होगा?
7
।।अज्ञेय ।।
रोज की तरह शाम को वह फिर लौट आए पंछियों की तरह चहचहाते नहीं ,बल्कि दारुण दु:ख में डूबे बेरोजगारों की तरह।
दरवाजे की कुंडी खोल बिना बल्व जलाएं धुप्प अँधेरे में बैठे रहा।इस बीच दिन कई दफ़तरों /दुकानों की चक्कर अनुनय- विनय और कुछ मान ,मनौव्वल झिड़की की बातें जेहन में गूंजती रहीं...
आज वह बेहद दु:खी हैं ।एक सप्ताह पहले वह कितनी आशाएं और स्वप्न संजोए गांव से विवाहोपरांत नई नवेली की इच्छा अनुरुप काम तलाशने और शहर में बसने के निमित्त कुछ नगद लेकर रिश्तेदार कें घर आए थे।पर उनके सारे सपने चूर -चूर हो गये। बिना अनुभव ,पहुँच व पहचान के सारे काबिलियत और ईमानदारी व्यर्थ हैं।
एकाएक किसान पुत्र से बेरोजगार हो जाना और नाकाबिल घोषित हो जाना उनके स्वाभिमान को चोटिल कर गया...अब वह पत्नी से भी मिलने से जी चुराने लगा कि वे क्या सोचेगी ?
बेचारी की शहर की साध पुरा नहीं कर सका।
और मां -बाप को क्या बताउंगा? उल्टे ताने कि लौट के बुद्धु घर को आए। हालांकि वे लोग भी खेती- बाड़ी की बेफयदा काम से अच्छा शहर इसलिए भेजे कि घर की हालात सुधरेन्गे , छोटे भाई -बहन पढ़ लिख काबिल बनेन्गे और दवा ईलाज के लिए शहर में थेभा भी हो जाएन्गे । पर इन ५-७ दिनों की दौड़- धूप और हर जगह नो वेकेन्सी ने सबके चाहत पर पानी फेर दिए।
तभी जोर से डी.जे. बजता धार्मिक जुलुस निकला...औरतें- बच्चें यहां तक बड़े -बुजुर्ग तक धुमाल पार्टियों के आगे डांस करते ,थिरकते जा रहे हैं। पीछे बग्गी में सजे -धजे संत जी बैठ हैं। आगे भव्यतम झांकी चल रहे हैं। राजनेता अधिकारी - कर्मचारी व प्रबुद्ध गण पैदल चल रहे हैं।अनेक जगहों पर स्वागत -सत्कार व चढावें हो रहे हैं। पंगत - संगत की धूम मची हुई हैं - अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम ... भजन लाउड में बज रहे हैं...कारवां निकला और पुनश्च नीरवता छाने लगी। रिश्तेदार सपरिवार जुलुस कम पंगत में गये हुए हैं...एक गहरी उच्छवास के साथ वह घम्म! से खाट पर गिरा!
सभी को पता है कि रात के बाद सुबह होगी,पर उनकी सुबह कब होगी? यह किसी को पता नहीं ।
8
।। सत्कार ।।
यह जानकर आश्चर्य हुआ कि आप कवि भी हैं?
उसने आदरपूर्वक बिठाते कहते गये - चलिए इसी बहाने मनोरंजन होता रहेगा आपसे कविताएँ सुनकर बोझिल काम की थकान से युं रिफ्रेश होते रहेन्गे ।
जी शुक्रियां !कहते वे बैठे कि धंटी बजाकर एक प्यून को बुलाया और दो चाय बिना कुछ पुछे आर्डर किए ...
संकोच वश वे कहे जी इनकी जरुरत नहीं वैसे मै चाय नहीं ... बीच में वे बोले काफ़ी चाहिए।
नहीं .. नहीं सर असल में ऐसा मेरा कोई व्यसन नहीं।
वे प्यून को रोकते कहे अच्छा चाय व्यसन हैं?
और खुद ही उत्तर दिए कि भई अब खाना -पीना और स्वागत- सत्कार को व्यसन समझे और उनपर रोक -टोक हो ,तो हो गये न जीना, कमाना और खाना !
आगन्तुक झेंपते हुए कहें ऐसी बात नहीं,असल मैं चाय पीता नहीं हूं।
मतलब आप पीते क्या है-
दूध ,लस्सी ,जूस कि ....???
जी पानी पिला दीजिये! चौथे माला चढ़ते गले जो सुख गये हैं।
अरे भाई! यहाँ यही नहीं मिलते...!
वे व्याख्यान देने लगे -
सबको अपने घर से आरो एक्वा लाने होते हैं इसलिए यहाँ अलग से लगाए नहीं गये हैं। पानी ऊपर हेड टंकी से आते हैं जो पीने योग्य नहीं और बाटल किसी को माऊथ इंफेक्शन के चलते दे नहीं सकते ।आप तो जानते हैं सांस में कितने सुक्ष्म कीटाणु रहते हैं।
तभी उनके मोबाइल कालर बजने लगे - भूखे ल भोजन देबे पियासे ल पानी...
वे अनमने सा प्यून को आर्डर किए एक बिसलेरी और चार ग्लास ।
साब! कृपा हैं ... दबी सी जुबान में प्यून हंसते / कहते प्रवेश किया।
9
"साहित्यकार"
पता नहीं किस दुनियाँ में खोए रहते हैं? न स्वयं की परवाह न घर- परिवार की सुध ...इनके पल्लूं बंध जीवन ख्वार हो गया! वो तो मां- बाप की मान व स्वयं की इज्जत के खातिर ,इनके खुंटे से बंधी हूँ अन्यथा ... पुरे मुहल्ले और कालेज में सबसे प्रखर प्रोग्रेसिव व प्रतिभाशाली रही हूँ ।
अपनी सहली से फोन पर दु:ख बाटती हल्का होती रश्मि थोड़ी चमक सी जाती हैं। अन्यथा वह मंद्धिम लौ सी कब बुझ जाएगी पता नहीं?
तो यह ध्यान भटकाने की नई तरकीब हैं भई ! काठ की हांडी से ही यहाँ खिचड़ी पकती व खिलाई जाती हैं ... लो देखिए देश में मंदी की भयावह दौंर चल रहा है चहुँओर बेरोजगारी और ऊपर से ये प्रकृति का कहर !..बावजूद लगे हैं जात- पात, धर्म- कर्म और उलूल- जुलूल कार्य में गोया कि ऐसा करने से धर्म- संस्कृति के संरक्षक कहलाए जाएन्गे । अरे भाई आदमी सुकून से और जिन्दा रहेन्गे तभी तो धर्म, कला -संस्कृति की महत्ता है। यह कैसी व्यवस्था है कि चंद खाए- पीए, अधाए की चिन्ता और करोड़ों लोग के लिए अराकताएं व जीवट संधर्ष ...महान देश में यह कैसी विपदा हैं ?
अच्छा ! तुम्हें देश दिखता हैं ,अपना घर- परिवार नहीं ? अपने धुन में खोए चिन्तक साहित्यकार को पत्नी की कर्कश ध्वनि में किसी समीक्षक वनिता की ध्वनि नजर आई ... वे दार्शनिक सा मुद्रा बनाते कबीर को जींवत करते बुदबुदाने लगे-"जो घर जारै आपने चले हमारे संग ..."
बेचारी सर ही नहीं छाती भी पीट रही हैं। उधर साहित्यकार को सम्मानित करने धर्म ,कला -संस्कृति के सरंक्षण संस्थाएँ सरकार से अनुदानें लेकर आयोजनों में जुटी हुई हैं।सूचना पाकर उत्सव धर्मी लोग मदमस्त व मगन हैं आयोजनों के लिए तैयारी जोरो से जारी हैं।
10
।।बैठक।।
सरकारी योजनाओं के प्रभावी क्रिन्यान्वयन हेतु प्रति माह की ५ तारिख बैठक निर्धारित हैं।साहब देर रात्रि तक प्रपत्र तैयार करवाते रहे इसलिए विलंब हुआ।
अपने पति और पत्नी को दोनों देर तक समझाते रहें पर दोनो यह सब मानने क्या, सुनने भी तैयार नहीं हुए। रोज की तरह जली -कटी सुने नही खाए भी और चुपचाप सो गये सुबह उठकर आफिस जाने के लिए ।
ऐसा विगत दो वर्षों से दोनों के घर कलह हैं इसलिए तो आफिस में सुकून तलाशने रोज आते फलस्वरुप दोनों वर्क लोड से दबे हुए हैं।
महकमें में यह चर्चा भी हैं कि ये लोग किसी दिन फूर्र हो जाएन्गे ...इनके लिए तोता- मैना से लेकर क्या क्या उपमान तक नहीं बांधे जाते हैं। अक्सर बैठक के बहाने यही लोग बाहर आते - जाते हैं ,अफसर इन्हे तो नहीं इनके काम को पसंद करते हैं । फलत: दोनो युज़ भी बहुत होते हैं।
बहरहाल घर -बाहर दोनों जगह बिना कुछ किए बदनाम हैं। इससे तो अच्छा कुछ करके बदनाम होने की मंसुबे के चलते आज दोनों आर्य मंदिर प्रांगण में बैठक करने गये हैं ।
11
ए जीना भी कोई ...
शरद पूर्णिमा के कारण आज रतजगा हुआ।वैसे भी पूनम की चांद हमें बचपन से सोने नही देती।
तस्मई सोंहारी चीला से महकते घर -आंगन , चंद्रमा की दूधियां रंग ऊपर से विविध भारती की छाया गीत अब तो मोबाईल से रात्रि ११ बजे के बाद एफ एम से मधुर फिल्मी गीत सुनते छत पर टहलते रहना एक अपूर्व आनंद व खुशियां मन में भरते रहा है।
गांव में पिता जी बांसुरी से स्वर लहरी बिखेरते तो हम हारमोनियम से छूकर चिटिक अंजोरी निरमल छंइहा गली गली बगराए वो पुन्नी चंदा ..या तुके मारे रे नैना की धुन छिड़ते तो लगता समय ठहर सा गया है ... गांव के वृहत्त आंगन मे सरग उतर रहे है ।
पर इन दिनों शहर की बजबजाती नालियों का दूर्गंध मक्खी के आकार का काले मच्छड़ों की तीखे डंक का आतंक ,आवारा कुत्तों की भौंकते रहने साथ ही घर- घर पल रहे श्वनों की समवेत स्वर से जीना हराम सा हो गये है।भले मनोरंजन सुख -सुविधाओं से लैश है पर हम जैसों प्रकृति प्रेमियों के लिए बड़ा ही क्लेश है।
सारे सुकून प्रदान वाले कारक शैन: शैन: छरित होने लगे है ।ऐसा लगता है कि सुविधाएं ही सकंट उत्पन्न करा रहे है ।और प्रकृत्स्थ जीवन जो रहा अब दिवास्वप्न सा हो गये है....
क्या अब मोबाइल रखकर भी नो कनेक्टीविटी जोन में रहने चले जाय टी वी रेडियों समाचार पत्रों से दूरिया बना ले .... गांव के लीम चौरा में बैठे फिर वही ददरिया झड़काए ... जब देखेंव पुन्नी के चंदा रतिहा मय उसनिंधा ....
मन के बात मन म रहिगे प्रात: ६ बजे मोबाइल में भरे अलार्म बज उठे ... यंत्रवत उठे ब्रश में शेनम पेष्ट लगाए और छत पर चढ़ गये ... गुनगुनाती धूप में धूमते तभी देखते है कि सामने ही कालोनी के दो पडोसी महिलाएं पालतू कुत्ते की बीट के कारण लड़ रही है ।और पीछे दो पुरुष कार पासिंग के लिए तू तू मैं मैं हो रहे है। बच्चे वजनी बस्ता थामें कुछ चबाते -खाते चौक में खड़ी स्कूल बस की ओर भाग रहे है। कीचन से जीरा प्याज के छौंक का गंध आने लगे ... तो तंद्रा टूटा । स्नान करने लपका ...बिना स्वाद जाने समझे हलक से तीन रोटियां सब्जी गरमागरम गोंजे और पानी पीते कपड़े पहिन दांत में बढ़ते सेंससीविटी के कारण बिन दो लौंग में मुंह मे व कंधे मे बैकपैंक डाल यंत्रवत रात्रि ८ बजे तक लौटने के लिए निकल लिए ....ये कहते कि ये जीना ..भी कोई जीना है लल्लू !
12
लाकडाउन
"परेशानियाँ कहां नहीं हैं, बिना इनके जिन्दगी कैसे बीतेगी भला ?"
समझाते हुए वे कहें पर उनकी बातें लोगों को समझ आते ही कहां हैं इसलिए अनसुनी कर दी जाती हैं।
बावजूद वे कहते कि हर हाल में जीने के लिए मस्ती न छोड़ो और मस्ती आती हैं नशे से चाहे वह धन का रुप का ज्ञान का या संतान का हो।
संकट के हल निकालने सभी भयानक चिन्ताओं में डूबे हुए हैं। मतलब हंसी खेल कौतुक सब गायब हैं। फलस्वरुप बहुत तेजी से लोग डिप्रेशन में जाने लगे हैं।
उन्हें उबारने शराब और नशे आदि को लाकडाउन से छूट दिए जा रहे हैं। ताकि लोगों को व्यसन मिले और डिप्रेशन से मुक्ति भी।
लोगों को पागल होने से बचाने के लिए फिलहाल मधुशाला ही चाहिए। मठ मंदिर मस्जिद गिरिजा गुरुद्वारा की जरुरत ही नहीं ।
बस्तर का घोटूल किसी धाम से कमतर हैं क्या ? जहाँ प्रेम और कर्त्तव्य के पाठ सामूहिक रुप से सहजता से सीखते हैं।जिससे निरापद जीवन जीए जाते हैं।
क्या अब क्लब माल सिनेमा बार डांस रेव पार्टियों जैसे चीजों के जगह स्वदेशी चीजे प्रचलन में न लाया जाय?
मानवीय संबंध भी कैसा है कि हर चीज के उपभोग के बाद अतृप्त पना हैं। यह अतृप्ति ही उन्हे सक्रिय किए हुए हैं। भोग की पराकाष्ठा से ही विश्व संचालित हैं। योगी लोग तो दुनिया को अपने जीवन में ही तबाह कर दे?
यह क्या सदाचारी रहो व्यसनी मत बनो तो तमाम सोनागाछी गंगा जमुना मोहल्ला चांदनी बार और शाम ए अवध कैसे रंगीन व महकदार होन्गे?
कजरी ठुमरी दादरा और ये कत्थक मोहिनी अट्टम या ओडिसी कैसे संरक्षित रहेन्गे । कितने कलावंत और सर्वाधिक ग्लेमर्स व संभावनाओं को समेटे फिल्मोद्योग की भठ्ठा बैठ जाएन्गे। हमारे नचनियों अभिनेताओं ने जो कीर्तिमान बनाया वह तो राजनेताओं ने नहीं अर्जित कर पाया । इन जगहों से निकले लोग भारत रत्न तक हुए ।
कैसे यह भूल जाय कि कीचड़ में ही कमल खिलते हैं। सच तो यह है कि कमल खिलाना हो तो कीचड़ बनाना पडेगा ।हाथ है तो उन्हे रोजगार देना होगा और रोजगार के हजार रास्ते हैं।
बहरहाल ग्लैमर्स के देखा सीखी आजकल कथित धार्मिक बाबाओ एंव माताओ ने भी ग्लेमर्स को अपनाकर जो दिखता वह बिकता है की शानदार परिपाटी विकसित किए हैं। क्या वह एक झटके लाक डाउन हो जाय ?
और तो और अब स्वदेशी का नारा जोर शोर से होना आरञभ हुआ ।लधु मध्यम व कुटीर उद्योग आत्मनिर्भरता लाएन्गे तो उनके उपभोक्ताओं का होना आवश्यक हैं। गंजे लोगों की बस्ती में कंधी बेचा ही नहीं जा सकता ।
अंग्रेज मुफ्त में चाय पिलाकर लती किए और आज चाय सकल ब्रिटेन की आय से अधिक कमाकर दे रहा है। तो भ इये जहा महुए फूल है तेंदू व तंबाकू पत्ता हैं। वहाँ आप सत्संग प्रवचन नहीं करा सकते इसलिए आत्मनिर्भरता के लिए यह आवश्यक है ।
क्या यह संभव है कि महुए ,सल्फी ताड़ी व लांदा का उत्पादन न करे और बीडी तंबाकू को भूल जाय ?जिसके माध्यम जनमानस तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद उपलब्धियां हासिल करते यहाँ तक आए हैं। कितने बीडी श्रमिक अपने बच्चों को इनके बनिस्पत डा इंजी बनाए आइ ए एस नेता और पद्मश्री विभूषण तक पाए ।
यदि यह बुरे थे तब उन्हे शासकीय संरक्षण क्यो? और इन सब चीजों में विदेशी ठप्पा क्यो? क्या केवल लूटने खसोटने और यहाँ के बाशिंदों के पेट पर लात मारने ।
व्यसनों और शौक व फैशन के व्यवसाय चाहे वह बार होटल पब रेस्त्रां कपडे ज्वेलरी सेलुन ब्युटी पार्लर हो या पान ठेले आदि सब जगहों पर तालेबंदी हैं। और अरबो रुपये फंसे पड़े है।
यदि मरना ही तय हैं तो क्या जीना छोड़ दे ? वह प्रवचन देते रहे हैं भले श्रोता हो या सरोता हो।
कोरोना महामारी ने तथाकथित बुद्धिजीवियों और अनीश्वरवादियों को अधिक मुखर व वाचाल बना दिए हैं। वे सदियों की मान्यताओं और आस्थाओं पर हथोडा चला दिया और आस्था व श्रद्धा की भव्यतम स्मारकों में यत्र तत्र दरारें डाल दिए गये या अपनी वज्रधात से जीर्ण -शीर्ण कर दिए हैं।
ऐसी हालात में आज एक आस्तिक और ईश्वरीय शक्ति के साक्षात्कार प्राप्त बड़ी हस्ती से मिला ।वे सक्षम अधिकारी है। और जिस समाज के हैं उनकी हालात दयनीय हैं। उस समाज की प्राकृतिक मान्यताओं की लोग हंसी उडाते हैं। और उसमे वह भी शामिल हैं तथा संगठन और धार्मिक पदाधिकारियों के कटु आलोचक भी हैं। साथ ही विभिन्न पार्टियों में चयनित जनप्रतिनिधियों को हमेशा आडे हाथ लेते कटु आलोचक हैं।
बहरहाल वे आजकल एक ब्रम्हकुमारियों के मोह फास में आबद्ध सतयुग की महान प्रतीक्षा में रत इस वैश्विक संकट को प्रलय सा शुभ मान सतयुग आने की आहट समझ उन्मादग्रस्त हैं। कि उनके प्रणेताओं की परिकल्पना साकार हो रहे हैं।
हमने ऐसे बहुत से साम्प्रदायिक पागल पंथिकों के धारणाओं से स्वयं को पृथक करते केवल सत्य प्रेम करुणा और परोपकार जैसे गुण को धारणीय धर्म माना जो सर्वत्र समान हैं। बाकी केवल प्रणाली मात्र हैं और ईश्वराश्रित हैं। कुछ ही प्रवर्तक हुए हैं जो ईश्वरीय या किसी आलौकिक शक्ति से अलग स्वयं की शक्ति पर विश्वास कराते धर्मोपदेश दिए हैं। और वह भी एक प्रणाली में बदल गये
इस तरह से विचार जन्मते है और आगे वह अलग अलग रुप अख्तियार कर ही लेते धारा बहती हुई कही द्वीप कही झील कही गहरी कही उथली हो ही जाते हैं समन्दर न मिलने पर कुछ बड़ी नदियों में ही समागम हो सागर की ओर प्रयाण करने होते हैं। फिर यह तो निश्चित है कि बुंद का समुंद में विलिन होना ।
अब तलाशों की समुन्द में वह कहां गया कैसा हुआ।
बहरहाल देश को बेसब्री से इंतजार है कि लाकडाउन हटे जीवन सामान्य हो । कोरोना का से मुक्ति मिले फिलहाल मुक्ति के प्रसाद बाटने वालों को भी यह सामान्य सी बातें समझ में आनी चाहिए ।अन्यथा जात पात मत पंथ धर्म कर्म का बहुत बखेडा देश में हो चूका अब मानवता को प्रतिष्ठापित करने होन्गे और जहा जहा जो संसाधन व सुविधाएँ हैं। उन्हे मानव कल्याण के निमित्त उपयोग में लाना चाहिए। क्योकि मानव और मानवता ही सबकुछ हैं।
13
"कीड़ा और कूड़ा "
अभिजात्य अपना छोड़, सब चीज को कूड़ा ही समझते हैं जबकि वे अच्छाई की वजूद मिटा कर कूड़ा फैलाने वाले कीड़े हैं ।
कीड़े सफाचट करने प्राय: प्रयोजित ढंग से समूह वत होकर आक्रमण करते हैं।
यह खेद की बात है कि कीटनाशक के खोज अब तक नहीं हो पाया हैं फलस्वरुप कूड़े का ढ़ेर बढ़ते ही जा रहे हैं।
14
"अकेला "
अजीब सा मंजर हैं, सर्वत्र अराजकता फैलती जा रही हैं। जिधर देखो उधर परस्पर एक-दूसरे की बातों,विचारों में मीन- मेख निकाले जा रहे हैं। जो निकालने में सफल हुए समझों उस भीड़ के नायक होते चले जा रहे हैं।
इस तरह अनेक क्षेत्रों से अनेक तरह के नायकों का उद्भव हो रहे हैं। यह दौर इसी तरह के नायकों के उभरने का हैं।
आलोचनाओं और फूहड़ गाली -गलौचों से ही नये नेतृत्व आ रहे हैं, प्रखर प्रवक्ता हो रहे हैं। जो जितना अधिक इन सब में काबिल हैं ,वही राज कर रहें हैं।इसलिए इनके लिए बकायदा कोचिंग इंस्टीट्यूट प्रशिक्षण संस्थान व पार्टियां खुलती व बनती जा रही हैं!
प्रखर चिंतक के इस संबोधन के बाद उसे कोई संस्था या पार्टी के मंच में आज तक कोई बोलते नहीं सुना गया न पत्र पत्रिकाओं में उनके लेख छपे न आकाशवाणी दूरदर्शन में वार्ताएं या परिचर्चाएं। हां सोशल मीडिया के लिए वह अनफिट हैं। उसे नेट व एंड्राइड चलाने आता नहीं ।
इस तरह आजकल वे बेचारे अकेला ,अलग- थलग और विस्मृत हो चले हैं।
15
।।आभास।।
नये साल की शुभकामनाओं से एफ बी और तमाम ग्रुप अटा पड़ा हैं। ६४ जी बी रेम्प वाला मोबाइल हैंक होने लगा। यह देख सुकून मिला - "चलो आभासी ही सही, फारर्वड करने वालों और यूं ही स्व प्रचारित करने वालों की कृपा से अपना सेट हेंग तो हुआ।"
कम से कम पत्नी और बच्चों से यह कह तो सकते हैं कि हमें भी लोग लाइक कमेट्स और शुभकामनाएँ भेजने वालों की कमी नहीं हैं। भले तुम लोग बधाईयां दो न दो ।अब बोलने - बतियाने वाले न रहे , सीधे मिलने भेटने वाले न रहे पर लोगों के नोटिस और राडर में तो हैं!
यह सोचकर कुछ ज्यादा ही खुश होते एलान किया कि "आज रात घर में खीर- पुड़ी और व्यंजन बनेन्गे।"
एलान खत्म होने के पहले टोकते हुए चीखें गूंज उठी..."अच्छा कौन बनाएगीं? मै.. मुझसे अब न होगा । आज तो कम से कम बख्श दें! फिर सब कुछ रेडीमेड पैक्ड आ रहे हैं।"
और क्या पापा !सारे लोग होटल रेस्तराँ जा रहे हैं और हम लोग...?
"सच में पप्पू ! खाने के मेज में बधाई देन्गे कह अब तक नहीं दिए हैं!"
जमाने से कटकर रहना मुनासिब नहीं ,चलों जश्न मनाने ! अब हम ओ तो रहे नहीं कि कभी अपनी चलाते और गरज के कहते कि "जमाना हमसे चलती है जमाने से हम नहीं"
आजकल ऐसा कहने वालें नस्ल तेजी से विलुप्त हो रहे हैं। काश !नये साल में इनका संरक्षण हो। ठंडी आह के साथ कार की पीछे सीट पर बैठे कि कार स्टार्ट करते मधुर गीत नहीं बल्कि उलाहना के राक -पाप बज उठे ! कब तक यह बसंती चलेगी ? ..अब तो डस्टर , इनोवा , एक्स यु बी, या सेडान वगैरह आ गये है ,उनमें कोई आए तभी मिठाई खाएन्गे क्यो मम्मी ?
"मै तो कब से यही कह रही हूं पर ये माने तब !"
ऐसा लगा कि नये वर्ष में सब कुछ बदल जाएन्गे सिवाय इंकम के। वे पुनश्च आभासी दुनियाँ में प्रविष्ट होने जेब टटोलने लगे और पुरानी मोबाइल को देख स्वयं से कहे -"ये जरुर बदलेंगे, ताकि स्नेह क्षरण के इस दौर में छद्म ही सही स्नेहिल आभास होता रहे।"
16
साक्षात्कार
बच्चे!कहने को रह गये हैं। अब तो वे बाप बनने लगे हैं। हर वक्त गुस्सा और डिमांड ज्यादा होगा तो घर से भाग जाने की धमकी ! ऐसा लगता हैं कि संतान जन के कोई अपराध किए हैं। इससे तो बेऔलाद अच्छा ...एक सांस में यह सब वे कहती गई और फ़फक कर रोने लगी।
क्या ,क्या हुआ ?
जैसे कुछ जानते नहीं? सब कुछ जानकर यूं ही अनजान बने रहना तुम्हारा फितरत हैं।
अच्छा तो मै क्या करुं?
डाटो -फटकारो पर यूं सर पर न चढ़ाओं !आज देख लिया तुम्हारे ढ़ील का नतीजा ।
दोनो साथ- साथ फ़फकने लगे ...
बच्चे स्कूल -ट्युशन नहीं जाते देर रात बाहर स्ट्रीट फूड में जंक फूड खाना और समय बेसमय बीमार तक होना ,रात भर मोबाईल में लगे रहना और दोपहर १-२ बजे सोकर उठना !
ऐसा लगता हैं कि मोबाईल ही अभिशाप बनकर इस परिवार पर कहर ढ़ा रहे हैं। शुरु- शुरु में ससुराल का देर- सबेर फोन दोनो के बीच स्ट्रेस लाए ..अब बच्चे हाई स्कूल में आए तो यही मोबाईल तहस -नहस करने लगे।
"सुविधाएँ ही संकट लाते हैं" अर्सा़ पहिली अपनी इस व्यक्त विचार और कविता के खतरनाक सच से वह भीतर तक सिहर गये ... दहशत में घिर गये! उसे क्या पता था कि इस तरह उससे साक्षात्कार होन्गें।
17
।। सत्कार ।।
यह जानकर आश्चर्य हुआ कि आप कवि भी हैं?
उसने आदरपूर्वक बिठाते कहते गये - चलिए इसी बहाने मनोरंजन होता रहेगा आपसे कविताएँ सुनकर बोझिल काम की थकान से युं रिफ्रेश होते रहेन्गे ।
जी शुक्रियां !कहते वे बैठे कि धंटी बजाकर एक प्यून को बुलाया और दो चाय बिना कुछ पुछे आर्डर किए ...
संकोच वश वे कहे जी इनकी जरुरत नहीं वैसे मै चाय नहीं ... बीच में वे बोले काफ़ी चाहिए।
नहीं .. नहीं सर असल में ऐसा मेरा कोई व्यसन नहीं।
वे प्यून को रोकते कहे अच्छा चाय व्यसन हैं?
और खुद ही उत्तर दिए कि भई अब खाना -पीना और स्वागत- सत्कार को व्यसन समझे और उनपर रोक -टोक हो ,तो हो गये न जीना, कमाना और खाना !
आगन्तुक झेंपते हुए कहें ऐसी बात नहीं,असल मैं चाय पीता नहीं हूं।
मतलब आप पीते क्या है-
दूध ,लस्सी ,जूस कि ....???
जी पानी पिला दीजिये! चौथे माला चढ़ते गले जो सुख गये हैं।
अरे भाई! यहाँ यही नहीं मिलते...!
वे व्याख्यान देने लगे -
सबको अपने घर से आरो एक्वा लाने होते हैं इसलिए यहाँ अलग से लगाए नहीं गये हैं। पानी ऊपर हेड टंकी से आते हैं जो पीने योग्य नहीं और बाटल किसी को माऊथ इंफेक्शन के चलते दे नहीं सकते ।आप तो जानते हैं सांस में कितने सुक्ष्म कीटाणु रहते हैं।
तभी उनके मोबाइल कालर बजने लगे - भूखे ल भोजन देबे पियासे ल पानी...
वे अनमने सा प्यून को आर्डर किए एक बिसलेरी और चार ग्लास ।
साब! कृपा हैं ... दबी सी जुबान में प्युन हंसते / कहते प्रवेश किया।
18
"साहित्यकार"
पता नहीं किस दुनियाँ में खोए रहते हैं? न स्वयं की परवाह न घर- परिवार की सुध ...इनके पल्लूं बंध जीवन ख्वार हो गया! वो तो मां- बाप की मान व स्वयं की इज्जत के खातिर ,इनके खुंटे से बंधी हूँ अन्यथा ... पुरे मुहल्ले और कालेज में सबसे प्रखर प्रोग्रेसिव व प्रतिभाशाली रही हूँ ।
अपनी सहली से फोन पर दु:ख बाटती हल्का होती रश्मि थोड़ी चमक सी जाती हैं। अन्यथा वह मंद्धिम लौ सी कब बुझ जाएगी पता नहीं?
तो यह ध्यान भटकाने की नई तरकीब हैं भई ! काठ की हांडी से ही यहाँ खिचड़ी पकती व खिलाई जाती हैं ... लो देखिए देश में मंदी की भयावह दौंर चल रहा है चहुँओर बेरोजगारी और ऊपर से ये प्रकृति का कहर !..बावजूद लगे हैं जात- पात, धर्म- कर्म और उलूल- जुलूल कार्य में गोया कि ऐसा करने से धर्म- संस्कृति के संरक्षक कहलाए जाएन्गे । अरे भाई आदमी सुकून से और जिन्दा रहेन्गे तभी तो धर्म, कला -संस्कृति की महत्ता है। यह कैसी व्यवस्था है कि चंद खाए- पीए, अधाए की चिन्ता और करोड़ों लोग के लिए अराकताएं व जीवट संधर्ष ...महान देश में यह कैसी विपदा हैं ?
अच्छा ! तुम्हें देश दिखता हैं ,अपना घर- परिवार नहीं ? अपने धुन में खोए चिन्तक साहित्यकार को पत्नी की कर्कश ध्वनि में किसी समीक्षक वनिता की ध्वनि नजर आई ... वे दार्शनिक सा मुद्रा बनाते कबीर को जींवत करते बुदबुदाने लगे-"जो घर जारै आपने चले हमारे संग ..."
बेचारी सर ही नहीं छाती भी पीट रही हैं। उधर साहित्यकार को सम्मानित करने धर्म ,कला -संस्कृति के सरंक्षण संस्थाएँ सरकार से अनुदानें लेकर आयोजनों में जुटी हुई हैं।सूचना पाकर उत्सव धर्मी लोग मदमस्त व मगन हैं आयोजनों के लिए तैयारी जोरो से जारी हैं।
19
।।ऐसा भी ।।
सड़क पार करते वह बाल-बाल बचीं। भय मिश्रित विह्वल हो कह उठी -"आज तो हो गया रहता!भगवान का लख -लख शुक्र हैं कि बची" रंगीन तबीयत वाले बेपरवाह ड्राइवर अक्सर खुबसूरत युवा महिलाओं को देख उनके समीप से कट मारते सर्र से गाड़ी मोड़ते हैं। बेचारियों की कलेजे मुँह में आ जाया करती हैं। और वे सिगरेट की कश़ से छल्ले बनाते भोजपुरियां धुन में गाड़ी को नचनिया की कमर की तरह नचाते फूर्र हो जाते ...
इस बड़ी बिल्डिंग के चौथें माले पर लिफ्ट से चढ़ने के बाद भी वे भय से हांफ रही थीं। भला ऐसा कोई करता हैं, तमीज नहीं इन मुस्टंडों को क्या उनके घर बहन- बेटी नहीं ? वे लगातार बड़बड़ाई जा रही थीं।
तभी दनदनाते वह नये वर्जन के हिप्पी नुमा छोकरा चायनिज़ कट खड़ी बाल, दाढ़ी -मूँछ बढाए ,बिना नहाए इत्र लगाए , फटी जिंस और मोबाईल पैंट के जेब में खोसें, कानों में ईयर फोन ठूंसे, ठुमकते हुए सा सामने आ खड़ा हुआ। उनकी इस तरह धमकने से पल भर स्तब्ध हो चौंकी ! फिर बिना पहचाने वह अनजान बन मुँह फेर ली।
वह जिस हुलियां का था और लोग देख उसे जो समझते ठीक उससे उलट बड़ी विनम्रता से कहे- "मैम ! सारी एक छिपकली को बचाने हमसे हमारी गाड़ी मुव हुई और इस तरह आपको हर्ट हुआ। "
सच कहते गलें की टोढ़ी पकड़ -"गाड़ी पार्क कर सारी कहनें दौड़ते सीढ़ी चढ़ना हुआ।" वे उसे हतप्रभ सी देखती ही रह गई ...
पास ही लिफ्ट के इंतजार में खड़े ,नये पीढ़ी के इस छोकरे के व्यवहार देख ,लेखक को भी सुकून मिला।
20
।।मूल्य ।।
प्रात: ऊंजियार विहार गेट के बाहर सड़क पर गुनगुनी धूप सेंक ही रहे थे कि पड़ोस का सज्जन दूर से नमस्ते करते आ धमके ।और मगज चाटने लगे कि सर जी आप ही बतावें -"मूल्य और कीमत में क्या अन्तर हैं?"
हमने सहजता से दो टूक कहें -"भई !कीमत सामग्री का होते हैं और मूल्य तो मानव का होते है जिसे मानवीय मूल्य कहतें हैं।
वे अति उत्साहित कहे -"अरे सर आपको पता हैं ... मास्टर आदमी हो । "
देखिए न हम लोग विगत ३ दिन से एक आध्यात्मिक संस्था के प्रवचन में यही समझ रहे हैं। बहुत ही शानदार और व्यवहारिक तरीके से संत जी हमें समझा रहे हैं। चाहे तो आप भी ज्वाइनिंग कीजिये । जीवन का उद्धार हो जाएगा ...जब से जा रहे हैं महत्वपूर्ण बदलाव महसूस कर रहे हैं।आप भी करने लगेन्गे ।
अच्छा ! इसके मतलब आपको मूल्य का पता नहीं था? वे तपाक से कहे-" हां सर जी मूल्य मतलब सामान का ही समझते रहें।"
अच्छा मूल्य को व्यवहार में लाते हैं कि अवगत होते रहते हैं? वे आशय समझा या नहीं पर खिलखिलाते कह उठे -लो भला ! यह भी पुछने की बात हैं साहब। व्यवहार में नहीं लाते तो आपके जैसे मूल्यवान व्यक्ति से दोस्ती करता भला ? आप तो सहज मिलनसार सहयोगी व समाज सेवक हैं। संस्था के लिए हमें चंदा जुटाना हैं और आपके जैसे उदार दान दाता इस जमाने में भला कौन हैं ?
उनकी बातें सुन लगा कि वे वाकिय में बदल गये हैं। पहले वे अपने समक्ष किसी को कुछ समझते नहीं थे,अब वे सबको मूल्यवान दानदाता समझ रहे हैं।संत जी ने चंदा लेने बहुत बढ़ियां समझा दिए हैं।
21
।।डिप्रेशन ।।
सज्जन पति के चलते ही ससुर- सास , जेठ -जेठानी और ननदादि के तीव्र विरोध के बावजूद ससुराल से दूर मायके के समीप टीचर की नौकरी पर आ गई ।क्योंकि गृहजिला के वेकेन्सी और निवास प्रमाण- पत्र मायके के बना था।
कुछ महिनें अच्छे से व्यतित हुए। मायके में रह स्कूटी से ३० कि मी अप- डाउन कर लेती । शाम सब्जी भाजी तक ले आती । पर धीरे -धीरे भाभियों ,मुहल्ले के कुछ छिछोरे छोकरों तथा विध्न संतोषियों के ताने -छींटाकसीं के चलते जीना दुश्वार होते गये। बात यही नहीं मिर्च- मसाले सहित स्वच्छंद विचरण की बातें ससुराल और पतिदेव के कानों तक जा पहुँचें।परिणाम स्वरुप पारिवारक कलह और उनके परीणति पति व्यसनी हो गये।न चाहकर पारिवारिक कलह व पति को सम्हालने अवकाश लेकर जाना हुआ।
वहाँ भी शक -सुबहा के चलते तू -तू, मैं -मैं और नित नये बखेड़ा होने लगे समस्या सुलझने के बजाय उलझने बढ़ने लगी। मामला तलाक आदि तक तक पहुंच गये । तथाकथित मान- प्रतिष्ठा और स्वाभिमान वाले समाज ,स्त्री को घर में नौकरानी बना के शोषण कर तो सकती हैं पर जरा सी आजादी नही दे सकते । भले घर-परिवार की हालात सुघरे नही सुधरे पर मिथ्या मान कायम रहें ।
बहरहाल पुरुष प्रधान समाज में एक स्त्री को शासकीय नौकरी क्या मिली दोनो जगह कोहराम मच गये।अब उन्हें घर चाहिए कि एक अदद नौकरी इसी उलझन में खोई बेचारी सुध - बुध खोई "डिप्रेशन" में हैं।
सचमुच लोग दूसरे की सुखी से दुःखी और परेशान होते हैं।यह सब देखना हो तो, उनके मोहल्ले की चक्कर लगा आइये ।
22
"कड़वाहट"
दु:ख से भरी जिन्दगी में आज वह बहुत खुश थी,आफिस बालकनी के छत पर किसी की प्रतीक्षा में खड़ी बेसब्र हुई जा रही थीं।
जैसे ही सामाना हुआ कि वह मुस्कुरा कर कहीं -"सर आज मुझे जो खुशी मिली हैं उसे आपके संग बाटना चाहती हूँ।"
मैने उत्सुकतावश पुछा -"अरे बताओं तो सही, क्या हुआ ?
वे मुस्कराती कह उठी - "सर आज मेरी बेटी पी. एस. सी. में सलेक्ट हो डिप्टी कलेक्टर बन बन गई।"
हौसला अफ़जाई करते कहा- "बहुत खुब! मिठाईयाँ बाटों और हमें भी खिलाओं! "जी हां सर ..अभी अभी तो मोबाइल से सूचना मिली , कल जरुर लाऊंगी । अच्छा ठीक है कहते वे आगे बढ़ गये...तभी उनके कुछ कलिग पुरुष कर्मचारी , ड्राइवर गुजरे उन्हे भी वह खुशी- खुशी बताई, सबने उन्हे व उनकी बेटी को बधाई दिए। पर कुछ सहकर्मी महिलाएं आई पर न जाने क्यों वह उन्हे नहीं बताई ।
और सीधे अपनी चेम्बर में आकर बैठ गई , आज काम करने का मन नहीं हुआ और शीध्र ही घर जाने बेसब्र होने लगी। तभी कुछ महिलाएँ आई और केंटिन से मिठाई लाकर खिलाने और बाटने लगी यह कहते कि बहन बड़ी मुस्किल से पढ़ाई -लिखाई और काबिल बनाई। चलिए अब वो हमारे हक अधिकार और ये जालिम मर्दों वाली दुनियाँ से बदला लेगीं।
न जाने क्यो वह इन परित्यक्तता महिलाओं के संग नारी निकेतन में काम करती पुरुषों के प्रति विष वमन के बाद भी उनके जैसे नहीं हो सकी।वे आज भी स्वयं परित्यक्त नहीं मानती क्योकि वह पुत्री के जन्म के बाद ससुराल वालों की प्रताड़ना और उनके समक्ष अपने पति के चुप्पी के बाद उनके परित्याग कर मायके चली गई ।खूब मेहनत की और महिला बाल विकास विभाग में क्लर्क बन इस नारी निकेतन में पदस्थ हो गई ।
पर ज्यों -ज्यों महिलाओं से पुरुष प्रताड़ना की बातें सुनती त्यों- त्यों उनकी पौरुष दृढ़ होती गई और उनकी स्त्रैण स्वभाव गायब होती गई फलस्वरुप महिलाएं उनसे दूर भागती गई ,उनसे डाह करने लगी व विद्वेष तक पालने लगी इसलिए वह उनसे दूर ही रहा करती ।सिवाय हाय हलो के।पर आज अपनी खुशी में उन महिलाओं द्वारा खिलाई व बांटी जा रही मिठाई में क्यों भीतर "कड़वाहट" सी घुलने लगी ? शायद यह उन्हें भी ठीक -ठाक पता नहीं।
23
।।एक प्याली चाय की कीमत ।।
तुम क्या जानो बाबु ,एक प्याली चाय की कीमत ?
फिल्मी डायलाग नुमा बोलती वे मुस्कराती गर्मागरम चाय की ट्रे लेकर सामने हाजिर हुई।
जबकि पहले से कहे जा चुके थे कि चाय नहीं पीते इनकी जरुरत नहीं ,पर वे मानेंगी तब ? क्योंकि उनकी हाथों की बनी चाय की यशगान का वृतांत साथ आये मित्र के श्रीमुख से अब तक ख़त्म नहीं हुए हैं,तब तक वह प्रकट हो गई ।
बहरहाल चाय वाकिय में लाज़वाब और अलग तरह के फ्लेवर युक्त हैं। सुड़कते कहां - "शुक्रियाँ , नाहक आप परेशान हुई । ऐसा लग रहा है कि आप फिल्मों की बड़ी शौकिन हैं?"
'हां, पर मुआ अब हमारी च्वाइस की बनती कहां हैं?'
"बनने लगी हैं बल्कि अब तो पहले से अधिक स्वभाविक व यथार्थवादी सिनेमा का दौर हैं।"
' पर जो माधुर्य, सुन्दर दृश्यवलियां और गरिमामय वस्त्राभूषण थे वे नजर नहीं आते ?'
कल्पनाशीलता और कला के लिए कला जैसी दौर खत्म सा होने लगा हैं। और फैमिली न होने अब फैमिली ड्रामा खत्म हुआ मानो।"
वे लगभग झेपती सी पर दृढ़ता से कहीं -'नहीं ,ऐसा बिल्कुल नहीं ,फैमिली कभी खत्म नहीं होगा।जब तक लोग हैं परिवार रहेगा सिनेमा नाटक सदृश्य एकल पात्रिय नही हो सकता ,होगा तो वह चलेगी नहीं ।
अच्छा! इतनी गहरी समझ और अपट्रेक्टीव लूक के बावजूद आप कभी इस लाईन में जाने की नहीं सोची ? सहसा बातचीत में भीतर से प्रश्न अनुगूंजित हुई।
-'हां मैने थियेटर की ,एक दो सिरियल्स और ३ सिनेमा भी ।पर वे रिलिज़ नहीं हो सकी ,फिर ये ब्याह लाए और खूंटे से बांध दी गी।'
ठंसी सांसे लेते ..'सच कहें तो हम भारतीय नारियाँ मैहर -नैहर वालों के लिए गाय ही तो हैं, कैसे शेरनी हो जाती? दोनों कूल की लाज पल्ले में पंडित जी अग्नि के साक्ष्य में बांध दिए है... वह छूट पाना सरल नहीं।'
और ठठाकर हंस पड़ी।
"जैसा सुना बढ़कर निकली आप ...आपकी ये ताज़ी उपन्यास आपबीति हैं कि जगबीति ... मुझे इनके आधार पर स्क्रिप्ट लिखने हैं सो आना हुआ ।"
'यह जानकर क्या करोगे ... जगबीति में ही आपबीति समाहित हैं।'
साथ आए मियां ,चाय और बिस्कुट के संग मस्त घर की अस्त- व्यस्त पर ही व्यस्त हैं।
खूंटे से बंधन तोड़ प्राय: हरही गाय भागती हैं। और जहाँ -तहाँ खप -खुप जाती हैं !
पर आजकल बांझ कह खूंटे से मुक्त यदा- कदा ही हो पाती है। कुछ तो अपने ऊपर शौतन, तो कुछ गोद ले लेते है या आजकल सेरोगोसी -टेस्ट ट्युब जैसे तकनीक से बंधी जीवन निर्वाह करती हैं ।
वे विलक्षण हैं, जो बंधन मुक्त हैं और लड़ रही हैं उत्पीड़ित वनिताओं के वास्ते ।
पर कुलक्षणी कह निर्वासित इस प्रख्यात लेखिका की कहानी पर फिल्म बनाने उनसे मिलने निर्माता के संग आए स्क्रीप्ट राईटर जो कभी चाय नहीं पीते ,आज उनके अंदर पता नहीं क्यों? मिठास घुलती ही जा रही हैं।फलस्वरुप वे शुभ्र व सभ्य लगने लगी । हांलाकि यह आधी आबादी की प्रवक्ता हुई जा रही हैं।
अपने प्राकृतिक अधिकार की तिलांजलि इसलिए दे दी कि बुजुर्ग माता -पिता भाईयों- भाभियों द्वारा दुत्कारे न जाकर ससम्मान इनके साथ रहें।
तो दूसरी ओर नैहर वालों की अहं भी फूले -फले ! भले वे एक कंठ विषपायी सदृश्य नारी से नर होना दृढ़तापूर्वक स्वीकार ली।ॐ
स्क्रिप्टर पर चाय की माधुर्य चढ़ा देख लेखिका को भी यह आभास हुआ ...और उन्हें
डॉ॰ अनिल कुमार भतपहरी