Friday, December 4, 2020

बेहद चिन्तनीय

बेहद चिन्तनीय !
देश पूंजीवाद और निजीकरण की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं उसी का यह दुष्प्रभाव हैं कि वर्तमान में चंद लोगों के पास देश की अकूत संपदा एकत्र हो रहे हैं। दर असल यह देश आरंभ से पूंजीवाद के गिरफ्त में रहे हैं। जिसकी लाठी उसकी भैंस यह तो रहा ही हैं। राजतंत्र इसलिए लाठियां सजाकर रखते और भैंस के साथ साथ  लठैत पालते थे।
बीच में अंग्रेज़ी सत्ता आई और भूमि का बन्दोबस्त करके राजा जमींदारों मालगुजारों के साथ  हलवाहों को भी भू स्वामी बनाकर एक सिस्टम दिए फलस्वरुप मध्यम वर्ग का उदय हुआ ।इनकी बड़ी आबादी हैं पर आजादी के बाद यह वोट के रुप में परिवर्तित हो गये । इनकी मत और वोट की सौदागरी के लिए इतना ही हिस्सेदारी दी ग ई कि  बमुश्किल गुजारा कर पा रहे हैं। जबकि कठोर परिश्रम के बावजूद करोड़ो   श्रमिक /निम्न वर्ग के लोगों का जीवन स्तर नारकीय हैं।   
       भारतीय समाज  के एक बड़ा तबका जो उक्त मध्यम वर्ग में वही हालात के मारे  धर्म -कर्म ,पूजा- पाठ में मगन ईश्वरीय कृपा  और "परलोक सुधारने "की चक्कर व चाह में भजन कीर्तन सत्संग प्रवचन सुनते  करते व्यतीत हो जाते हैं । फलस्वरुप न तो भगवान मिलते न अपेक्षित हाल मुकाम हैं। ऐसा लगता हैं कि इन्हे जानबूझकर इनमें उलझाया गया है। 
  भक्ति की मद  में डूबे और उन्मत्त परलोक सुधारने के चक्कर  अपना "इहलोक‌ बिगाड़" रहे  हैं!  
     जिस समुदाय का जितना बड़ा और लंबा धार्मिक आयोजन वह उतना कृपण व दयनीय व मजलूम ।
जैसे बस्तर में 71 दिवसीय रथयात्रा महोत्सव बेचारे केवल रोटी व लंगोटी के लिए संधर्ष रत है आधारभूत सुविधाएँ तो दूर की कौड़ी हैं।
    इसी तरह दो दो नवरात्रि हर महिना व्रत त्योहार उपवास नवधा व क ई दिनो तक की कथा  आयोजन  में सदियां बीत ग ई अबतक देव देवियों की कृपा की बरसात नहीं हुई।
        १५ दिनों तक जयंती  धूम और करोड़ों व्यय पर अपेक्षित मान सम्मान व आधारभूत आवश्यकता के लिए तरसते विराट सतनामी समाज । जिनके एक अदद फैक्ट्री व ५०-१०० लोगों को रोजगार दे सके ऐसा एक भी उद्योग नहीं न कोई प्रतिष्ठान हैं।

          धन्य हैं।

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