[3/18, 20:16] Dr.anilbhatpahari: आव्हान और सुझाव
छत्तीसगढ़ में गुरुघासीदास जयंती समारोह पवित्र गुरुपर्व मास दिसंबर में १८-३१ तक बड़े हर्षोल्लास पूर्वक प्राय: ५-१० सतनामी परिवार से लेकर हजारों की संख्या में निवासरत ग्रामों मुहल्लों कस्बों एंव शहरों में नाचा-पेखन और लोककला मंच के नाम पर फूहड़ नाच -गान वाली कार्यक्रम आयोजित न हो।
क्योकि यह पर्व गुरु घासीदास के अप्रतिम कार्य को स्मृत करने आत्म शोधन कर समाज सुधार व रचनात्मक कार्यों को गतिमान करने का महापर्व है।
परन्तु रात्रि में मनोरंजन के नाम पर नाचा -पेखन और फूहड़ अश्लील कार्यक्रम गुरु बाबा की मूल बातों व सिद्धान्त को डायवर्ट कर देता है। कही - कही जयंती और मड़ई एक साथ रखकर जुआ शराब नाच पेखन का आयोजन करते है यह तो और भी गलत हैं।
वर्तमान में अनेक नाच मंडली व लोक कला मंच संस्कृति विभाग के सौजन्य व जन प्रतिनिधियों के संस्तुति से भी गुरुघासीदास जयंती मे होने लगा है। वहां पर गुरुघासीदास चरित व उनके उपदेश पर आधारित परिचर्चा , कवि सम्मेलन, गीत -भजन , गम्मत- नाटक लीला -झांकी आदि प्रस्तुति के लिए विशेष ध्यान रखा जाय। मनोरंजन के नाम पर इस पावन पर्व पर ऐसा कोई कार्यक्रम न हो जो सतनाम धर्म -संस्कृति के गरिमा के प्रतिकूल हो।
वैसे भी सतनामी समाज कृषक एंव खेतिहर समाज है।और अपनी गाढ़ी कमाई एकत्र करके हजारों लाखों रुपये एक दिन के कार्यक्रम में महज ५-७ धंटे रात्रि मनोरंजन के नाम( कि बाबा जी दरबार आज रात खाली न रहे की भाव से ) करोड़ो / अरबों फूंक देते है।
माना कि आरंभ में जयंती कार्यक्रम को लोकप्रिय करने १९३७-३८ में भव्य नाच कार्यक्रम कराये गये फलस्वरुप यह परिपाटी तीव्रतर विकसित हो ग ई ।स्थिति ऐसी निर्मित हुई कि प्रसिद्ध पार्टी जिस दिन खाली रहे उसी दिन जयंती मनाने की अजीबोगरीब रिवाज चल पड़ा।
गुरु, संत- महंत एंव जनप्रतिनिधी गण भी अपनी व्यस्ताताओं के चलते सभी जगह उपस्थित नही रह सकते फलस्वरुप उन सब में सामजस्य करते जयंती १५ - २० तक मनाने की परंपरा रुढ़ गये।इसके कारण भी नाच -पेखन लगाने और एक जयंती समिति दूसरी जयंती समिति से श्रेष्ठ कराने चक्कर में एक अजीबोगरीब प्रतिस्पर्धा और होड़ होने लगे।यह होड़ बना रहे पर उस तरह के हास्यास्पद कार्यक्रम के लिए नही अपितु पंथी भजन प्रतिस्पर्धा में हो कम से कम सतनाम संस्कृति का विकास होता ।
बहरहाल सात्विक जयंती मनावे पंथी मंगल भजन सत्संग प्रवचन का प्रचलन लाए।और एकत्रित धन राशि मे से बचत करते ७-८ गांव के मध्य सतनामी समाज हिन्दी - अंग्रेजी माध्यम का स्कूल संचालित करे । सतनाम आश्रम व अस्पताल भी खोले जा सकते है। इनके लिए स्कूल शिक्षा स्वास्थ्य व समाज कल्याण विभाग से भी मार्गदर्शन व जरुरत पडे तो अनुदान लिए जा सकते है ।ऐसा करना सही मायने में गुरु घासीदास के कार्य को ही आगे बढाने जैसा पुनीत कार्य होन्गे।पदाधिकारी निर्मल यश के प्रतिभागी होन्गे। सतनाम- संस्कृति का उत्कर्ष होगा।
नाच पेखन लगाना और दूसरे दिन मंद भात की न्योता आदि अपसंस्कृति है जाने अनजाने और मिथ्या शानों शौकत के चलते अबतक हम लोग आयोजन करते आ रहे है। हमें पीछे पलटकर देखना होगा कि इन सबसे हमें और समाज को आखिर मिला क्या है?
आज गांवो में जाकर देखे इतनी दयनीय स्थिति है। गुरु की कृपा ऐसा न हो पर प्राकृतिक विपदा आ जाय यदि पानी न गिरे या अधिक गिरे तो अकाल की दारुण स्थिति से निपटने हमारे पास कुछ भी संचय नही ।जबकि धीरे धीरे हम बचावे तो बड़ी से बड़ी विपदा से हम आसानी से बच सकते है।
युवाओं को स्वरोजगार हेतु न्युनतम ब्याज या ब्याज मुक्त ऋण देकर उनका और उनके घर परिवार समाज का भला कर सकते है।
सतनामी समाज मे गुरुओ और कुछ पंजीकृत बड़ी समितियों द्वारा ब्लाक व अठगंवा समिति गठित है पर रचनात्मक आयोजन शून्य है। अतएव इन सुषुप्त समितियों जो रचनात्मक व सेवाभाव के लिए गठित है वहां उस स्तर का कार्यक्रम संचालित हो । इनके लिए योजना बने और हर गांव से प्रतिनिधी सम्मलित कर वहां से चंदे से प्राप्त राशि का सदुपयोग करने होन्गे।
आने वाला समय बड़ा चुनौतिपूर्ण है ।क्योकि शिक्षा स्वास्थ्य जैसे मूलभूत चीजे नीजिकरण हो रहे है।वहां उन्नत समाज और लोग धनराशि लगाकर लाभ अर्जित करेन्गे ।आखिर सतनामी समाज कब तक असंगठित होकर उन सभी निजी संस्थाओं को पोषित पल्लवित करें।वे क्यो नही संस्थाए बनाकर ऐसा कार्यक्रम करे कि ताकि हम अपनी प्रतिभाए बेहतर ढंग से तराश सके।
स्मरण रखे कि आज से महज २५ वर्ष पूर्व सरस्वती शिशु मंदिर अस्तित्व में आए ।इतने कम समय में उनकी शानदार परफार्मेश सबके समक्ष हैं। कम से कम संशाधन में निजी मकान में और महज ३००-५०० रुपये वेतन. में शिक्षक (आचार्य) नियुक्त कर ग्रामीण अंचल सहित शहरो कस्बों में एक मिशाल कायम किए।
क्यो नही उनके तरह सतनाम पाठशालाएं व सतनाम आश्रम ब्लाक तह जिला स्तर पर वही के लोगों से प्राप्त दान चंदा से किराए या किसी के घर खाली है को अर्जन कर कर सकते हैं। बडे शहरों में प्रतियोगी परिक्षाओं के लिए कोचिंग संस्थान भी खोले जा सकते है।इस तरह हम अपने पढे लिखे बेरोजगार नौजवानों को रोजगार भी दे सकते है।
दो चार जगह प्रारंभ होन्गे तो स्वत: यह तेजी से विस्तारित होन्गे। ऐसा उम्मीद है।बशर्ते इस वर्ष नाच पेखन आर्केस्ट्रा का मोह छोड़ कही कोई जगह पहल तो करें।यदी ऐसा हो तो इस आलेख का उद्देश्य सफल होन्गे। और ऐसा लगेगा कि गुरु घासीदास बाबा जी सपना साकार होने की दिशा में एक बेहतर कदम होगा।
आइए कोई समिति या उर्जावान युवा वर्ग पहले पहल करके कीर्तिमान तो स्थापित करे। आने वाले शैक्षणिक सत्र में स्वर्णिम इतिहास रचें।
।।सतनाम ।।
[3/18, 20:18] Dr.anilbhatpahari: सतनाम रावटी नौ धामों का हुआ दर्शन ।
कृपा सद्गुरु की पाकर मन हुआ पावन।।
इन रमणीय जगहों पर किया गुरु ने रमन ।
जन को नाम-पान देने इनका किया चयन ।।
करे सभी नर-नारी इन पावन धामों का दर्शन।
मिले सुख शांति उन्हे अरु हो धन्य यह जीवन ।।
।।सतनाम ।।
डा. अनिल भतपहरी
[3/18, 20:20] Dr.anilbhatpahari: मनुष्य एक समझदार प्राणी तो है।पर अक्सर बहुतों में यह भ्रम रहते है कि उनके जैसा कोई नही।
यह सच भी है कि हर आदमी दूसरे से भिन्न है पर समझ को लेकर अक्सर मुगालते मे रहने वाले कि हमसे अधिक कोई नही यह उनका मिथ्या गर्व है इसलिए वह असमाजिक व अव्यवहारिक हो जाते है ।और छोटे छोटे समुदाय में विभक्त भी ।तब वह न किसी का सुनता है न सुनना चाहता है। ऐसे लोग या तो जानकर होते है पर गर्व भाव के कारण अग्राह्य हो जाते है या आधे आधुरे जानकारी रखते बे वजह अधजल गगरी छलकाते हस्यास्पद हो समुदाय से खारिज हो जाते है या चंद लोगों के बीच अंधों मे काना राजा जैसा धौंस जमाते फिरते है।
कुछ साधारण ग्यान अल्प व मृदुभाषी होते है जिन्हे अपेछित सम्मान उक्त वर्ग नही देते बल्कि महत्वहीन समझ नजर अंदाज करते है ।
बाकी यथास्थिति और जिधर बम उधर हम वाले होते है ।
बहुत ही कम होते है जिनके दखल हर तरफ होते है यह बहु मुखी व्यक्तित्व के जुनूनी और यश अपयश से परे होते है जो वाकिय में हर चीज का युक्तियुक्त समन्वय करता है।
समाज मे अभी इन सबका युक्तियुक्त समन्वय कर सार्थक नेतृत्व चाहे धार्मिक सामाजिक व राजैतिक रुप से हो आना बाकी है। क्योकि यह संक्रमणकाल है अभी पूर्णत: न शिछित है न उच्च जीवन स्तर न ही सु सभ्य है।
फलस्वरुप जो जिस अवस्था से गुजर रहे है वे उतने तक ही समझ रखता है। प्राचीन परंपरा मान्यताओं और आधुनिकता मे कैसे सांस्कृतिक तथ्यों का निर्धारण कर जीवन निर्वहन करे और कैसे सार्थक संधर्ष करे यह सही ढंग रेखांकित नही हो पाते ।इसलिए हम राजनैतिक प्रतिबद्धता हेतु उधार के विचार पर आश्रित है।क्योकि हमने अभी अपनी साञस्कृतिक तथ्य के अनुरुप राजनैतिक जागरुकता विकसित नही किए है। राजकीय व राष्ट्रीय स्तर पर भी हमारी कोई लोकप्रिय चेहरे नही जिनकी हम समवेत रुप से सुन व समझ सके।प्राय: हर समझदार उच्च शिछित और थोडा साधन सछम लोग परस्पर प्रतिद्वंद्वी है। प्रभाव पद प्रतिष्ठा उन्हे एक समान सोचने और एक जगह बैठने नही दे पा रहे है।यह नेतृत्व वर्ग चाहे गुरु संत महञत राजनेता या सछम मंडल. गौटिया या अधिकारी कर्मचारी हो सभी अपने अपने मात हतो के अधीन है।
इन वर्गों को गुरुघासीदास के उपदेशना सतनाम सिद्धान्त और संविधान मे निहित अधिकार और कर्तव्य के प्रति निष्ठावान होकर सामाजिक दायित्व के ईमानदारी से निर्वहन मे साथ होना चाहिए ।पर दूर्भाग्यवश "राजनैतिक चेतना " जिससे पद प्रतिष्ठा अर्जित कर यश और धन कमाए जाते है वह सबको प्रतिद्वंद्वी बनाकर रखे हुए है।आदमी आरंभ से लड़ते आ रहे है सञधर्ष ही उनकी जीजिविषा है
छोटीसे छोटी और बडी से बडी बातों मे हम परस्पर लडते है पर किससे ,कैसे और क्यो लड़ते है यह अब तक साफ- साफ पता नही।
जिस दिन कुछ को पता होता है वेव गल्तियां सुधार विकास की ओर अग्रसर होते है। और बहुतो तो केवल पश्चाताप करता है तब उनके पास न धन न बल न यौवन होता है।
दुर्भाग्य वश समाज में अधिकतर यही हो रहा है-
सतनामी मरगे पेशी मे गोड़ मरगे देशी में जैसे कहावत यु नही है।
फिर आजकल समाज में तेजी से मदिरा व नशापान बढ रहे है यह हाताश और कुठां के चलते हो रहे है।
इन सबसे बाहर आने नव सांस्कृतिक आन्दोलन की जरुरत है जिससे समाज मे संस्कार आए बिना इनके शिछा पद प्रतिष्ठा नौकरी चाकरी और नेतागिरी चंद व्यापारी केवल व्यक्तिक सफलता मात्र है ।समाजिक नही।
जिस दिन व्यक्तिक सफलता सामाजिक रुप से प्रतिष्ठित होन्गे उस दिन समाज का प्रभाव अन्य समाज प्रदेश व देश को पता चलेगा ।
।। सतनाम ।।
[3/18, 20:20] Dr.anilbhatpahari: "सतनाम एक विशिष्ट संस्कृति व
जीवन पद्धति हैं।"
सतनाम आध्यात्मिक रुप से अन्तर्यात्रा हैं। सदाचार अपनाकर जीवन में सुचिता और परस्पर मानव समुदाय में सद व्यवहार करते समानता स्थापित करना ही सतनाम का प्रमुख ध्येय हैं।
आन्दोलन तो स्वतंत्रता आन्दोलन ,नारी मुक्ति आन्दोलन नशा मुक्ति आन्दोलन, मान सम्मान रछार्थ आन्दोलन जुल्म सितम के विरुद्ध आन्दोलन या मजदूर श्रमिको का हक अधिकार हेतु आन्दोलन होते हैं।
सतनाम आन्दोलन ये नये गढे गये जुमले है। और इसके द्वारा जनमानस को दिग्भ्रमित भी किए जा रहे हैं।
सतनाम आत्मबल और भीतर का यात्रा हैं। जिसके द्वारा धर्म -कर्म में व्याप्त रुढिवाद, अंधविश्वास और कर्मकांड व पुरोहिती का विरोध और उनके स्थान पर सहज योग साधना और सद्कर्म करते जीवन निर्वाह करते खान- पान ,रहन -सहन ,जुआ ,शराब ,मांस ,मदिरा ,नारी सम्मान कृषि कर्म एंव पशु प्रेम का मार्ग हैं।
नाहक इस संस्कृति और धम्म को आन्दोलन कहकर इनके व्यापाक और उदात्य भावार्थ को संकुचित और सीमित किए जा रहे हैं। बिना बुद्धि लगाए बस सतनाम आन्दोलन सतनाम आन्दोलन कह रहे हैं।
क्या सतनामी आन्दोलन कारी है। नारे बाजी करने वाले और अशान्ति फैलाने वाले कौम हैं?
शब्दों के वास्तविक अर्थ और भावार्थ को समझ कर समकालीन समय में किन परिस्थितियों में हमारे गुरुओ संतो महंतो ने इस सतनाम संस्कृति को बचाकर संजोकर यहाँ तक लाए वह प्रणम्य है।
वर्तमान समय में सतनाम संस्कृति में चलकर बडी उपलब्धि हासिल करते सरल जीवन यापन करते सुकुन व शांति हासिल एक बेहतर भविष्य आने वाले संतति को देना है। कल्पित स्वर्ग मोछ आदि के जगह अपने आसपास स्वर्ग सम वातावरण बनाकर पद निरवाना या परमपद अर्जित करना है।
यदि आन्दोलन आदि होते तो गुरुबाबा के सिद्धान्त और उपदेश तथा पंथी मंगल भजनो में आन्दोलन करने के तौर तरीके वर्णित होते ।मोर्चा सम्हालने और कथित जुल्मो के लिए जुल्मियो को दंडित करने के तरीके और कुछ सफल आन्दोलन के वृतान्त होते पर दुर्भाग्यवश आन्दोलन आदि के कोई गीत भजन वृतान्त नही है।
और तो और सतनाम संस्कृति में आन्दोलन कारी नही नजर आते बल्कि साधु संत उपदेशक भजन संकीर्तन पंथी करते संत सदृश्य पंथी हार नजर आते हैं।
और अपने जीवन में जो चीजे हैं। या विरासत में या अपने परिश्रम के एवज में जो मिला उससे संतुष्ट और सुखी समाज नजर आते हैं।
इसलिए इस महान सतनाम संस्कृति में अनेक जातियाँ सम्मलित हुए।कुछ हद तक सतनाम प्रचार के अभियान आन्दोलन सदृश्य जरुर रहे हैं। पर यह सतनाम जागरण का एक अंग मात्र हैं।
एक प्राचीन पंथी गीत का स्वर और भावार्थ देखिए-
खेले बर आए हे खेलाए बर आए हे
दुनियां म सतनाम पंथ ल चलाए हे
मनखे मनखे ल एक गुरु ह बताए हे
चारो बरन ल एक करे बर आए हे
सन्ना हो नन्ना नन्ना हो ललना
सन्ना ना रे नन्ना नन्ना हो ललना
सना नना नना हो नना हो ललना ..
क्या यह आन्दोलन है?या सांस्कृतिक नवजागरण हैं।या उदात्य सतनाम संस्कृति हैं।आन्दोलन कहने समझने वाले स्वत: निर्णय करे।
सतनाम
-डा अनिल भतपहरी
[3/18, 20:23] Dr.anilbhatpahari: सुघ्घर
मनगंढत कथा कहानी
पोथी पत्रा के भभकौनी
पंडा पुजरी के लुढ़राई
आनी बानी खाजा खवई
आनंद बाजार मं मजा मराई
मंदिर के चारो मुड़ा किंदरई
देवदासी मन के नचई -गंवई
जनता के लुटई उकर करलाई
देख घासी के मुख निकले अमृतबानी
मंदिरवा मं का करे जाबो भाई
चलव अपन घट के देव ल मनाई ..
[3/18, 20:24] Dr.anilbhatpahari: "देवी शक्तिपीठो मे गुरुघासीदास का सतनाम जागरण "
सत्रहवी सदी मे समकालीन छत्तीसगढ विभिन्न मत मतान्तरो के मध्य समन्वय और एक दूसरे की अच्छाई -बुराई को ग्राह्य- अग्राह्य के रुप मे भी जाने जाते है।
धर्म कर्म मे व्याप्त अराजकता और मराठा भोसले व पिडारियो और अंग्रेजो के दमन शोषण और लूटपाट से भी बचने और उनके प्रभावी प्रतिकार के लिए संधर्ष का ऐतिहासिक कालखंड रहा है।
समाज मे धार्मिक राजनैतिक व आर्थिक चेतना लगभग मिलीजुली रुप मे हर पल साथ साथ चलते है।
और हर समय लोग धर्मनिष्ठ प्रभावशाली और वैभवशाली होने के लिए प्रयत्न करते रहते है।
धर्म निष्ठता उनकी आस्था व भक्ति भाव से आते है।अराध्य जो भी हो उनके प्रति निष्ठा और समर्पण होते है।तथा मन वचन कर्म से उन्हे मानते है।
दूसरा प्रभाव के लिए व्यक्ति राजनीति मे संलग्न होकर इसे प्राप्त करते है यथा राजतंत्र होने से उनके अंग मंडल गौटिया मालगुजार जमीन्दार व राजा जैसे पद को पाने प्रयत्न करते है। अब लोकतंत्र मे मतदान प्रक्रिया से पंच सरपंच विधायक संसद चुन मंत्री आदि बनते है।
तीसरा आर्थिक चेतना है जो व्यक्ति को वैभवशाली व ऐश्वर्यवान करते है इसके लिए कृषि व्यापार नौकरी आदि है।
इन तीनो अवस्थाओ को पाने कठोर परिश्रम करने होते है। और उसी आधारपर या कही संयोगवश इन्हे अर्जित करते है।
इन तीनो को साधने से व्यक्ति समृद्ध सुखी व कीर्तिवान होते है।
बाहरहाल समकालीन छत्तीसगढ मे राजतंत्र था और राजा अपनी वंशपरंपरा और वैभव एंव ऐश्वर्य को कायम रखने धर्म तंत्र और आर्थिक तंत्र को अपने हाथो मे थामकर जनमानस को नियंत्रण मे रखे थे और उनके ऊपर राज करते आ रहे थे। उनके अपने अपने आराध्य देवी देव थे और वहा पर विचित्र कर्मकांड रचे गये थे अनेक पुरोहित व सामंत उन कर्मकांड को करते जनता के ऊपर हुकुमत करते ईश्वरीय विधान या दैवीकृपा के रुप मे प्रचारित करते काव्य महाकाव्य लोक गाथा वृतांत गीत भजन गल्प या दंत कथाओ को जनमानस मे योजना बद्ध तरीके से प्रचारित करवा कर रखे गये।ताकि जन आस्था उन पर गहरी रहे और वे राज व्यवस्था के ऊपर कोई हस्तछेप न कर पाए कोई परिवर्तन नवजागरण या आन्दोलन आदि न छेड पाए ।
परन्तु जब किसी क्रिया के अनवरत होते रहने या कर्मकांड के निरंतरता से कही न कही उनमे आशिंक या अमूलचूल परिवर्तन हेतु स्वस्फूर्त कही न कही से कलान्तर मे अभियान नवजागरण या आन्दोलन आदि होकर रहते है।चाहे वह प्रखर व उग्र रुप मे या धीरे धीरे जन मन मे विचार ,मत या दर्शन के रुप मे हो। छत्तीसगढ मे ऐसे ही जनमानस के हृदय और अन्तर्मन मे अपेछित परिवर्तन हेतु सतनाम संस्कृति का प्रवर्तन समर्थगुरु घासीदास के अभियान से प्रारंभ हुआ। और धीरे धीरे यह युगान्तरकारी महाप्रवर्तन मे परीणित हो गये!
समकालीन छत्तीसगढ मे चारो दिशाओं मे ४ शक्तिपीठ स्थापित थे और इन स्थलों मे राजा सांमत पुरोहितों और समर्थ जनो द्वारा विशिष्ट प्रकार से उनकी अपनी हैसियत के अनुरुप बलिप्रथा ( छै दत्ता यानि कि युवा पाडा बकरे मुर्गे इत्यादी पशु पछी इत्यादि ) का निम्न जगहो पर प्रचलन मे थे।
पूर्व दिशा मे चन्दरसेनी देवी ( चंद्रहासिनी चंद्रपुर )
पश्चिम बम्बलाई ( बंमलेश्वरी डोंगरगढ)
उत्तर महामई ( महामाया रतनपुर )
दछिण मे दंतेसरी ( दंतेश्वरी दंतेवाडा )
गुरु घासीदास का इन्ही जगहो पर रावटी लगाकर सतनाम जागरण हुआ और निरन्तर उपदेशना करते जनमानस मे धर्म कर्म मे सुचिता लाने हेतु सत्य और अहिंसा का प्रचार प्रसार किया। क्योकि जहा बलि होते वहा मांसाहार स्वभाविक है ।मांस है तो मदिरा है और जहा मांस मदिरा है वहा मैथुन और मुद्रा नाच पेखन मेले ठले खेल तमाशे होन्गे। इन पंचमकार की विकृत साधना और यौनाचार के विरुद्ध गुरु घासीदास का सतनाम जागरण आरंभ हुआ।उनके सप्त सिद्धान्त मे सत्याचरण के पश्चात मांस मदिरा और स्त्री सम्मान प्रमुख उपदेश है। इन उपदेशो और निन्तर उनके प्रचार प्रसार से समाज मे परस्पर सामाजिक सौहार्द्र स्थापित करने का महाअभियान चला। महाप्रसाद भोजली जवारा मितान गंगाजल जैसे मैत्री भाव स्थापित करने वाली प्रथाओ का सूत्रपात भी हुआ। फलस्वरुप संपूर्ण छत्तीसगढ मे एक सामजस्यपूर्ण वातावरण का निर्माण हुआ जो शेष भारत से अलग से रेखांकित होते है।शांति की टापू एंव सौख्य की भूमि के नाम से यह छत्तीसगढ विभूषित हुई ।परिश्रम युक्त श्रमण सतनाम संस्कृति के चलते वन भूमि कृषि भूमि मे परिणित होकर "धान का कटोरा " के नाम से ख्यातिनाम हुआ।
हर समाज जो जाति गोत्र फिरका मे बटे नव चुल्हो वाली संस्कृति मे विभ . क्त परस्पर एक दूसरे का छुआ और पक्की भोजन नही करते वहा चुल खनन करवाकर भोजन पकवाकर एक बर्तन मे परोस कर पान प्रसाद बनवाने के लिए
चुल्हापाट मे पालो नाडियल रखकर सांझा चुल्हा पंगत प्रथा चला। और पंगत उपरान्त संगत एंव संगत के उपरान्त स्वैच्छिक रुप से अंतिम सोपान अंगत रुप मे इच्छूक जातियों के जाति को विलिन करते सत के अराधक अनुयाई को सतनामी बनाये जाते।दीछा व नाम पान दिए जाते।गुरुघासीदास एंव उनके सुपुत्रों द्वारा यह अभियान १७९५ - १८५० तक लगभग ५५ वर्षों तक निरन्तर चला। १८५० मे सद्गुरु घासीदास के बाद इस अभियान को तीव्र गतिमान करने लाने और बाबा जी के स्वप्न को शीध्र पूर्ण करने राजा बन चुके गुरुबालकदास ने सतनाम जन जागरण को सतनाम आन्दोलन के रुप मे परीणित किया।वे तेजी से इसे जनमानस मे विस्तारित करने लगे।
परन्तु यथास्थिति वादियो और सुविधाभोगियों ने इस आन्दोलन को थामने १८६० गुरु पुत्र राजा गुरु बालकदास के सडयंत्र पूर्वक हत्या कर दिए गये।उनके बाद आन्दोलन थम सा गया सतनाम जागरण मे ठहराव आ आया।
और जो सतनामी बन चुके थे उन्हे शुद्धिकरण कर पुनश्च अपनी अपनी जातियों मिलाने भी लग गये।
पुनश्च बलिप्रथा धार्मिक कर्मकांड आरंभ हुआ। सतनामी के जगह रामनामी और सूर्यनामी या सुर्यवंशी जातिगत समुदाय का गठन होने लगे....
इस तरह गुरुघासी दास और सतनाम जागरण कुछ विद्वान उसे आन्दोलन भी कहते का छत्तीसगढ मे व्यापक असर हुआ और उनके अनुयाई लाखो मे पहुच गये।
आज चैत शुक्ल पछ एकम से नवम तक छत्तीसगढ मे जोत जवारा पछ है इनका शुभारंभ गुरुघासीदास ने डोगरगढ रावटी द्वारा आरंभ किए।वर्तमान मे दैवी अराधना या शक्तिपूजा मे जो सात्विकता और पावनता दिग्दर्शन होते है वह संत संस्कृति के कारण संभाव्य हुआ ।
जय सतनाम - जय अम्बे
" सतनाम "
डा. अनिल भतपहरी
[3/18, 20:25] Dr.anilbhatpahari: प्रिय संत समाज
सतनाम
गुरु घासीदास बाबा एंव पिताश्री सतलोकी सुकालदास भतपहरी के असीम कृपा व आशीर्वाद से हमारी पीएच-डी थीसिस प्रकाशित हो चूका है।
सतनाम धर्म-संस्कृति में लिपिबद्ध समीक्षात्मक सामाग्री का अभाव रहा हैं। गीतात्मक व काव्यात्मक व सुक्त रुप में अमृत वाणी उपदेश दृष्टान्त व बोध कथाएँ आदि जनश्रुति व संस्मरण जनमानस में बिखरे हुए हैं । उन्हें अपने पूर्वजों, गुरु वंशजों ,साधु- संतो ,कवि -लेखकों और लोक- कलाकारों के वाचिक/मौखिक परंपरा एंव अंग्रेज अधिकारियों के द्वारा लिखित प्रतिवेदन- अभिलेख एंव विभिन्न जिला गजेटियर के आधार पर पं. रवि शंकर शुक्ल विश्वविद्यालय द्वारा महामहिम राष्ट्रपति के गरिमामय उपस्थिति में 2013 को मुझे ( डा. अनिल कुमार भतपहरी ) प्रदत्त पीएच-डी उपाधि का शोध- प्रबंध सद्गुरुदेव की कृपा से पवित्र गुरुपर्व मास दिसंबर में सर्वप्रिय प्रकाशन न ई दिल्ली से "गुरुघासीदास और उनका सतनाम पंथ" प्रकाशित व मान मुख्यमंत्री जी के कर कमलों से विमोचन हुआ हैं।
आशा हैं कि इनके प्रकाशन से गुरु घासीदास और उनके द्वारा प्रवर्तित सतनाम पंथ की महत्ता एंव विशेषताओं की सामान्य जानकारी पाठकों को उपलब्ध होन्गे और व्यवस्थित जानकारी के अभाव की भी प्रतिपूर्ति हो पाएगा ।
।। सतनाम ।।
डा. अनिल भतपहरी
पृष्ठ 370 , सहयोग राशि 300
[3/18, 20:28] Dr.anilbhatpahari: "तपोभूमि गिरौदपुरी सतधाम "
सतनाम धर्म के प्रवर्तक और महान मानवतावादी संत गुरु घासीदास बाबा का जन्मभूमि एंव तपस्थली है।गिरौदपुरी सतधाम का राष्ट्रीय व अन्तराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति है।१९३५ के गिरौदपुरी मेले के पाम्पलेट में उनके राष्ट्रीय स्तर पर प्रसार की उल्लेख मिलते है। जहाँ देश भर से लाखों श्रद्धालुओ के आगमन और उनके आने जाने ठहरने की सूचना है।
नैसर्गिक सुषमा से अच्छादित यह पावन स्थल अत्यन्त रमणीय व मनमोहक है।वन्य जीव से आबाद बार अभ्यारण्य और कलकल बहती जोगनदी व ट्रान्स महानदी के कछार पर स्थित गिरौदपुरी का सौन्दर्य हर किसी के मन को भाते है।
बन तुलसा( बडी तुलसी )के झाड़ियों से महकते पहाड़ी परिछेत्र में सुप्रसिद्ध औरा-धौरा वृछ के तले ध्यानरत गुरुघासीदास तेन्दू वृछ के समीप धर्मोपदेश व मनन चिन्तन और योग तपस्या मे निरत रहते थे ।समीप पहाड़ी के नीचे चरण कुण्ड और वहाँ से ५०० मीटर दूर अमृतकुण्ड का जल गंगाजल सदृश्य पवित्र है। यह दोनो प्राकृतिक कुण्ड सदानीरा है जहाँ स्वच्छ जलराशि बारहोमास पहाड़ी की तलहटी मे विद्यमान आस्था कौतुहल और अनुसंधान का विषय है।इस कुण्ड के जल का धार्मिक पूजापाठ मे गंगाजल जैसा ही अनुप्रयोग जनमानस करते रहे है।यहा तक कृषि कार्य और खेतों मे इनके छिडकाव हेतु दूर-दूर से लोग गैलनो, कनस्तरो और अन्य पात्रों मे भरकर ले जाते है।
इस जगह में आते ही सुकून शांति और मन हृदय मे पवित्रता का आभास श्रद्धालुओं को होते है।इसलिए स्वस्फूर्त बारहो मास वे उक्त आकर्षण मे आबद्ध हो सतधाम आते है।जहां पर अपनत्व और एक तरह से स्वच्छंदता का स्वानुभुति होते है।यहा पर पण्डे पुजारी कोई दान दछिणा रोक टोक नही है बल्कि लोग स्वत: अनुशासित होकर राग द्वेष से मुक्त परम आनंद मे निमग्न नजर आते है।मंगल भजन सत्संग चंदन तुलसी की महक शुद्ध प्राकृतिक हवाएँ प्रदूषण मुक्त नैसर्गिक जगह सचमूच सतलोक सदृश वातावरण इस पवित्र धाम का है। जहाँ प्रमुख दर्शनीय स्थल निम्नवत् है-
१ गिरौदपुरी ग्राम
२ झलहा मंडल का दोतल्ला घर
३ उसी घर से लगा गुरु बाबा का जन्म स्थल
४ गोपाल मरार के घर बाडी और कुंआ
५ गुरु द्वारा हल चलाए बाहरा खेत
६ बाहरा तालाब
७ नागर महिमा स्थल
८ बुधारु सर्पदंश उपचार स्थल
९ बछिया जीवन दान स्थल
१० सफुरामाता जीवन दान स्थल
११ शेर पंजा मंदिर
१२ औरा धौरा तेंदूपेड़/ मुख्य प्राचीन मंदिर
१३ चरण कुंड
१४ अमृतकुंड
१५ छाता पहाड
१७ पंचकुंडी
१८ सुन्दरवन
१९ जोक नदी
२० हाथी पथरा
२१ विशाल जैतखाम
इन सभी के सहित१५ कि मी परिछेत्र और फा शु पंचमी से सप्तमी तक १०-१५ लाख जनमानस के स्वनियंत्रित चहल पहल भजन सत्संग प्रवचन चौका पंथी और संत महंत गुरु वंशज और प्रतिभाशाली लेखक कवि कलाकार सेवादार दर्शनीय है।
श्रद्धा-भक्ति और आस्था के अनगिनत स्थलो मे तपोभूमि गिरौदपुरी सतधाम अप्रतिम व अद्वितीय है।इनका दर्शन मात्र से आत्मकल्याण व आत्मिक सुखानूभुति होते है।
।।जय सतनाम।।
- डां अनिल भतपहरी
[3/18, 20:29] Dr.anilbhatpahari: भीषण छप्पन के अकाल और उसके बाद अनेक छत्तीसगढी परिवार ब्रिटिश काल में एग्रीमेन्ट लेवर यानि कि गिरमिटिया मजदूर के नाम से असम प्रान्त के बीहड जंगल और पर्वतीय छेत्र में स्थित चाय बगान विकसित करने गये और वही न आ सकने की मजबुरी में आबाद हो गये। इन परिवारों की जनसंख्या लगभग १६ लाख हैं। श्री रामेश्वर तेली सांसद हैं। एंव अनेक लोग सम्मानित जनप्रतिनिधी बगान मालिक संपन्न कृषक शासकीय सेवक और व्यवसायी बन गये हैं।
बगान श्रमिक जिसे बगनियां कहे जाते थे वे छत्तीसगढी मूल के लोग अपनी परिश्रम व लगन से अब बगान से उतर कर मैदानी और बसाहट वाले छेत्रों में आबाद छत्तीसगढी मूल के रुप में सम्मानित असमिया हो गये हैं। सभी वहां ओबीसी वर्ग में सम्मलित हैं। और परस्पर मेलजोल यदाकदा बिना द्वंद के वर वधु के पसंद से अन्तरजातिय विवाह भी प्रचलन में हैं। वहा छत्तीसगढ जैसे जात पात अपेछाकृत कमतर हैं ।तथा भाषा संस्कृति और संरछण के नाम पर संगठित हैं। यह प्रवासी समुदाय की उदात्य सांझा संस्कृति छत्तीसगढ के गांवो में व्याप्त जात पात छुआछूत की नारकीय दशा को प्रभावित कर एक मनव समाज एक भाषाई व संस्कृति वाली शानदार प्रदेश बना सकते हैं। जो संपूर्ण देश को न ई रौशनी दे सकते हैं। और वर्तमान परिदृश्य में यह नितांत आवश्यक भी हैं।
असम से आये पाच सतनामी पहुना कल गुरुघासीदास सांस्कृतिक भवन में अत्यंत भावविभोर होकर अपने पूर्वजों की पीडा संधर्ष और वहां आबाद होने की दास्तान असमिस उच्चारण मिश्रित प्राचीनतम छत्तीसगढी भाषा जैसे झुंझकुर ,भाटों ,मया महतारी ,संत गुरु बबा , संसो , रद्दा ,असीस जैसे छत्तीसगढ में विलुप्त प्रायः शब्दों का अनुप्रयोग वहां से आए युवा पहुना कहे तो मुझ भासा और संस्कृति प्रेमी को बेहद अल्हादित किया।मंत्रमुग्ध उन सभी के प्रेरक बातों को श्रवण करते रहा।
प्रगतिशील छग सतनामी समाज द्वारा शहीद स्मारक भवन में ११०० पंथी नर्तको साहित्यकारों के सम्मान के अवसर २०१७ पर मुख्यमंत्री द्वारा उद्धोषित कि छत्तीसगढी संस्कृति की संरछण हेतु पहल की जाएगी उनके आधार पर संस्कृति विभाग के अशोक तिवारी जी की कठिन परिश्रम से सांस्कृतिक आदान प्रदान का सिलसिला आरम्भ हुआ। यह सुखद संयोग हैं कि असम मे निवासरत १६ लाख छत्तीसगढी भाषियों में ३ लाख से अधिक सतनामी परिवार है। और सभी वहां समरस हैं। हम सौभाग्यशाली हैं कि मुख्यमंत्री जी के धोषणा और उनके कुछ माह बाद असम से सर्व समाज के प्रतिनिधि मंडल ३० सदस्यों का प्रथम आगमन१७ में और ५ अप्रेल १८ को वहां से ५ सतनामियो के आगमन उनकी आपबीति को श्रवण व वार्तालाप करने का अवसर मिला।
गुरुअगमदास मिनीमाता के उपरान्त वर्तमान गुरुवंशज गुरु सतखोजनदास साहेब (उनकी धर्मपत्नी गुरुमाता असम से आई हुई हैं।) के गरिमामय उपस्थिति व प्रबोधन आशीष वचनों से यह कार्यक्रम सम्पन्न हुआ।
आगे यह सांस्कृतिक मेलजोल और आवागमन सिलसिला चल पडेगा और सुदुर २ हाजार कि मी दुर में आत्मीय जनो से छत्तीसगढी जनता का सीधा संपर्क होगा।
प्रथम सांसद गुरुमाता मिनीमाता ही दोनो प्रांतो को जोडने वाली कडी है। अत एव उनके नाम पर रायपुर से डिब्रू गढ तक ३ करोड जनता को जोडने रेल मंत्रालय भारत सरकार मिनीमाता एक्सप्रेस चलाया जाय।व उनकी जन्म स्थान को तीर्थ स्थल के रुप में विकसित किया।
कार्यक्रम में प्रवासी पहुना मदन जांगडे ,हिरामन सतनामी बिमल सतनामी मिलन सतनामी ,.ज्युगेश्वर सतनामी.सहित के पी खांडे डा जे आर सोनी एल एल कोशले पी आर गहिने सुन्दरलाल लहरे सुन्दर जोगी ऊषा गेन्दले उमा भतपहरी शकुन्तला डेहरे मीना बंजारे डा करुणा कुर्रे ,एम आर. बधमार ओगरे साहब चेतन चंदेल डा अनिल भतपहरी सहित अनेक गणमान्य लोगों की गरिमामय उपस्थिति रही।
जय छत्तीसगढ जय सतनाम
[3/18, 20:30] Dr.anilbhatpahari: सतनामी समाज और धर्मांतरण
गुरुघासीदास सांस्कृतिक भवन न्यू राजेन्द्र नगर रायपुर में प्रगतिशील छत्तीसगढ़ सतनामी समाज द्वारा आयोजित प्रदेश स्तरीय बैठक में निर्धारित विषय के अतिरिक्त एक सज्जन द्वारा वर्तमान में सर्वाधिक ज्वलंत मुद्दा समाज में हो रहे धर्मांतरण पर ध्यान आकृष्ट कराए गये और कहे कि आज समाज में चारो ओर बिखराव का दौर चल रहे है ।कोई ईसाई -इस्लाम कोई बौद्ध सिख आदि धर्म अंगीकृत कर रहे है।तो कोई अनेक मत संप्रदाय को मानने लगे है जिसमें राधा स्वामी सतपाल निरंकारी गायत्री या अन्य संगठन में समय और संधाधन लगा रहे है?
उक्त विषय पर केन्द्रित हमने उपस्थित जन समूह के मध्य यह कहे ताकि भोजन अवकाश पर सहज रुप से लोग इन पर परस्पर बात चीत करे और भोजनोपरान्त कोई निष्कर्ष निकले ।
वाकिय में यह गंभीर समस्या हैं। सतनाम धर्म के सभी घटक गुरु संत महंत एंव अनेक संस्थाओं के पदाधिकारियों को सतनामियों की अस्तित्व रक्षा हेतु सार्थक पहल करने की आवश्यकता हैं। अभी तो छिटपुट जारी हैं और इसे करने वाले अधिकतर हमारे साक्षर व सक्षम लोग है जो शहरों में नियमित रोजी रोटी पाकर वर्तमान में उनकी परिस्थितियां ग्रामीण समुदाय से बेहतर है । अत: उनके अनुशरण करते जरुरत मंद लग शैन: शैन: धर्मांतरित हो जाएन्गे और ऐसा समय आएगा जब चीडिया चुग ग ई खेत की स्थिति निर्मित हो जाएगी। वैसे भी बड़े अन्तर्राष्ट्रीय धर्मों का यह एजेण्डा ही हैं कि संसार के मानव समुदाय को अपने अपने पक्ष में रखे ।या अनुयाई बना ले।
बहरहाल सबसे बड़ा सवाल हैं कि क्या सतनामियों के अपने धर्म है भी कि यह धर्मविहिन समाज हैं? क्योकि हम सरकारी दस्तावेज में हिन्दू तो लिखते हैं पर क्या हिन्दू जन हमें अपने आयोजनों यथा भागवत, रामायण उत्सव मेले व धार्मिक कार्यक्रम में आमंत्रण सहित भागीदारी बनाते हैं? क्या हमें पांच पौनियों की सेवाएं मिलती हैं? जीते जी संग साथ तो नहीं मृत्युपरान्त भी शमसान धाट अलग हैं। इस तरह आज भी सामाजिक रुप से भेदभाव जारी हैं। अनेक कानून बने होने के बावजूद यह आबाध जारी हैं। भले व्यक्तिगत किसी का व्यवहार अच्छा हो पर आज भी सार्वजनिक व सामूहिक रुप से दूरियाँ कायम हैं। किसी भी दृष्टिकोण से सतनामियों को हिन्दू धोषित नहीं की जा सकती ।रीति नीति संस्कृति उनसे बिल्कुल अलग थलग हैं। हां राजनैतिक दृष्टिकोण से संबंध बनाए जाने की कयावदे केवल मृग मरीचिका सदृश्य हैं।
ऐसे में जबरियां हिन्दू बने रहने का क्या औचित्य हैं? वाकिय में जिन्हें इन प्रश्नों का उचित समाधनान नहीं मिलते वे लोग बड़ी तेजी जहां आदर और सुविधाएं मिल रहे हैं वहाँ जा रहे हैं। संविधान द्वारा सभी देशवासियों को धार्मिक स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्राप्त हैं। इनपर कोई अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करते और न करना चाहिए।
एक तरफ यह भी देखने मिलते हैं कि बहुत साधन सक्षम लोग जो बहुसंख्यकों के साथ हैं। उनके अनुशरण करते वही करने लगे हैं। जहां से हमारे गुरुओं ने मुक्त करवाकर यहां तक लाए ।
सतनाम के जितने भी अनुकरणीय सिद्धान्त हैं। वह तोता रटंत जैसे होकर रह गये हैं। हम उन्हे कंठस्थ कर तो रहे हैं। पर उसे मन बुद्धि हृदय में धारण नहीं कर पा रहे हैं। और सभी प्राचारक उपदेशक बने बैठे आदेश निर्देश देने में लगे हुए हैं।
क्या हमने अपनी संस्कृति को परिमार्जित करने और उन्हें निरतंर नव पीढ़ी को धारण करने आयोजन करते हैं। या सतनाम को धर्म के रुप में परिष्कृत कर उनके व्यापक प्रचार प्रसार के कार्य निष्पादन कर रहे हैं। यदि जनमानस को आध्यात्मिक व धार्मिक रुप से संतुष्ट नहीं कर पाएन्गे तो वह उस आवश्यकता को पूर्ति करने अन्यत्र पलायन करेन्गे ही ।
इसे रोकने के लिए प्रतिबंध दंड आदि करेन्गे तो यह गैर संवैधानिक कार्य होगा ।फलस्वरुप हम अपनी आयोजनों को बेहतर और निरन्तर करने होन्गे। ताकि लोगों को पता चले कि सतनामियों के भी अपने विशिष्ट आयोजन व्रत उत्सव हैं।
हमारी महिलाएँ जो अपेक्षाकृत पुरुषों से अधिक धार्मिक प्रकृति के होती है के लिए कोई ऐसा व्रत उत्सव भी हो ताकि वह उसे मनाकर अपनी आध्यात्मिक व धार्मिक प्रवृत्तियाँ को पूर्ण कर सके ।ऐसा नहीं होने के कारण वे अधिकतर उन्हें मानने विवश है जिससे हमारी अपनी कोई पहचान कायम नहीं होते और न ही अपेक्षित मान सम्मान ।बल्कि अवहेलना के शिकार होते है ,यह अजीब विडंबना हैं कि जो समुदाय हमसे ईर्ष्या द्वेष भाव व तिरस्कार करते आ रहे उन्ही के अराध्यों और उनके ही व्रत उत्सव के लिए सतनामी समाज अपना सर्वस्व न्योछावर करते आ रहे हैं।
अब समय हैं कि अपनी आस्था व श्रद्धा के प्रतिमानों को निष्ठा पूर्वक ही नहीं उत्साह और शानो शौकत से माने ।
सतनाम धर्म संस्कृति से संदर्भित वर्ष भर के लिए व्रत त्योहार मेले इसलिए प्रचलन में लाए गये हैं। समय समय पर उसे पत्र पत्रिकाओं में प्रचारित प्रसारित भी किए जा रहे हैं। तथा समाज में इनके लिए सतयुग संसार व गुरुघासीदास कलेंडर भी प्रचलन में है जिसमें इन सबका उल्लेख है। उसे घर घर रखे और विधि विधान पूर्वक आयोजन करे। तब कही जाकर हमारे समाज एंव पंथ से लोग अन्यत्र पलायन नहीं करेन्गे अपितु अन्य जगहों से आकर मिलेन्गे आत्मसात होन्गे।
कृपया कम लिखे को अधिक समझे और इसके ऊपर गहनतापूर्वक विचार करते अपनो के बीच विचरारार्थ व जानकारी के निमित्त शेयर करें । प्रतिक्रिया भी दे।क्योकि यह मुद्दा वाकिय में गंभीरता पूर्वक विचारणीय हैं।
* संसार सतनाम मय हो *
।। जय सतनाम ।।
-डा. अनिल भतपहरी
[3/18, 20:33] Dr.anilbhatpahari: फसतनामी/साध सम्प्रदाय में जाट !
फेसबुक मित्र Vimlesh Kumar घृतलहरे जो सेन्ट्रल युनिवर्सिटी , महेंद्रगढ़ , हरयाणा के छात्र हैं व जिला मुंगेली , छात्तिश्गढ़ निवासी है | विमलेश के माध्यम से मुझे पता चला कि एक सतनामी सम्प्रदाय जिसे साध भी कहते हैं इस में भी जाट हैं , वही कद काठी है , वही गोत्र है और किसानी पेशा है | मैंने विमलेश से उनके गोत्र के बारे में पूछा तो विमेल्श ने बताया कि उनका गोत्र गहलावत है पर अब घृतलहरे लिखते हैं और कुछ ने अब घृतलहरे को भी धृतलहरे लिखना शुरू कर दिया है | मैंने विमलेश से कौन बनेगा करोड़पति प्रोग्राम में आई कुंटे गोत्र की सतनामी सम्प्रदाय की लड़की के बारे में पूछा तो उसने बताया कि वह भी जाट है , उसका मूल गोत्र खटकड़ है , खटकड़ से खूंटे हो गए | विमलेश ने ऐसे ही कुछ अन्य गोत्रों के बारे में बताया , जैसे कि गहलावत गोत्र वाले घृतलहरे लिखने लगे हैं , कुहाड़ गोत्र वाले कुर्रे लिखने लगे हैं , अहलावत गोत्र वाले अहिरे गोत्र लिखने हैं , खटकड़/खत्री गोत्र वाले खूंटे/खंडे लिखने लगे हैं , गोदारा गोत्र वाले गेंदले गोत्र लिखने लगे हैं , जाखड़ गोत्र वाले जान्ग्रे लिखने लगे हैं , ढिल्लों गोत्र वाले धिरही लिखने लगे हैं , नेहरा गोत्र वाले नवरंग लिखने हैं , पुनिया गोत्र वाले पुरैना लिखने लगे हैं , बाज्या गोत्र वाले बंजारा लिखने लगे हैं , छिल्लर गोत्र वाले चेलक , राणा गोत्र वाले रात्रे लिखने लगे हैं , सांगवान गोत्र वाले सोनवानी लिखने लगे हैं | हो सकता हैं समय के साथ साथ वहां की स्थानीय बोली के हिसाब से ये गोत्र भी बोलचाल में बदल गए होंगे !
विमलेश के बताने के बाद मैंने सतनामी सम्प्रदाय के इतिहास के बारे में जानने की कोशिश की | सतनामी सम्प्रदाय के संस्थापक एक उदयदास साध थे जो फरुखाबाद के रहने वाले थे | हरयाणा में इस सम्प्रदाय की नीवं 16 वीं सदी में हरयाणा के नारनौल क़स्बा , जिला महेंद्रगढ़ , के पास ही बिजासर नाम के गाँव के बीरभान नाम का किसान जो बहुत सच्चा और भला आदमी था , भक्ति में उसकी बड़ी रुचि थी , ने रखी | लोग विराभन के भजन और उपदेश सुनने आते थे । धीरे-धीरे बीरभान भक्त कहलाने लगे । लोगों ने उन्हें गुरु मान लिया । जल्दी ही हरयाणा क्षेत्र में सतनामी सम्प्रदाय खड़ा हो गया | हरयाणा में इस सम्प्रदाय से जुड़े लोगों को साध भी कहा जाता है | यह सन् 1657 में पैदा हुआ माना जाता है । सतनामी ईश्वर के नाम को ही सच मानते थे और उसी का ध्यान करते थे , ये लोग फकीरों की तरह रहते थे | इसीलिए ये साधु/साध कहलाते थे | उनका विश्वास था कि ईश्वर एक है , वही सत्य है | इसलिए वे ईश्वर को सतनाम कहकर पुकारते थे | इसी से उनका नाम सतनामी पड़ा | उत्तर भारत में यह पंथ कई जगह फैल गया, परन्तु 17वीं सदी में नारनौल सतनामियों का गढ़ बन गया । शुरुआत में सतनामी सम्प्रदाय में जाट, चमार, खाती आदि किसान कामगार देहाती लोग ही शामिल थे पर बाद में इससे वैश्य समाज के लोग भी जुड़े | रोहतक के सेठ रामेश्वर दास गुप्ता एडवोकेट सतनामी सम्प्रदाय के संत कृपाल सिंह के कट्टर अनुयायी हुए , प्रायः उनके साथ आश्रम में ही रहते | सतनामी हर प्रकार के उत्पीड़न के खिलाफ थे । इसलिए अपने साथ हथियार लेकर चलते थे । दौलतमंदों की गुलामी करना उन्हें बुरा लगता था । उनका उपदेश था कि गरीब को मत सताओ । जालिम बादशाह और बेईमान साहूकार से दूर रहो । दान लेना अच्छा नहीं , ईश्वर के सामने सब बराबर हैं । इन विचारों पर आधारित सिद्धांत बड़ा शक्तिशाली था। इससे कमजोर तबकों में आत्मसम्मान और हिम्मत जागी । उनमें जागीरदारों के उत्पीड़न और अन्याय के विरुद्ध खड़े होने का साहस पैदा हुआ । दूसरी कई जगहों की तरह हरियाणा के नारनौल क्षेत्र में भी 17वीं सदी के सतनामियों ने एक शक्तिशाली विद्रोह किया । प्रशासन के उत्पीडऩ के खिलाफ पैदा हुए आंदोलन ने मुगल हुकूमत को हिलाकर रख दिया । नारनौल के निकट सन् 1672 में एक प्यादे और सतनामी किसान के बीच झगड़ा हो गया । प्यादे ने सतनामी के सिर में लाठी मार दी । किसान बुरी तरह जख्मी हो गया । कहते हैं कि दूसरे सिपाहियों ने सतनामियों की छांद में आग लगा दी । सतनामी इस पर भड़क उठे । लोग इकट्ठे होने लगे । उन्होंने प्यादे को पीट-पीट कर मार डाला । दूसरे सिपाहियों को भी पीटा । उनके हथियार भी छीन लिए । यह खबर आग की तरह फैल गई । नारनौल का फौजदार यह खबर सुनकर आग-बबूला हो गया । सतनामियों को पाठ पढ़ाने और उनको गिरफ्तार करने के लिए उसने अपने घुड़सवार और प्यादे भेजे । परन्तु सतनामी केवल साधु नहीं थे , वे अन्याय के खिलाफ लड़ने वाले वीर भी थे । उन्होंने फौजदार की सेना को मार भगाया | फौजदार के लिए यह अपमान सहन कर पाना मुश्किल था । उसने नए घुड़सवार और सिपाही भर्ती किए । आसपास के हिन्दू और मुसलमान जमींदारों और जागीरदारों से भी फौजें मंगवाई । इस तरह पूरी तैयारी के साथ उसने सतनामियों के खिलाफ कूच किया। सतनामियों ने भी सरकारी फौज का डटकर मुकाबला किया । वे बड़ी बहादुरी से लड़े । सरकारी फौज के बहुत से सिपाही मारे गए, फौजदार खुद लड़ाई में काम आया । उसकी फौजें भाग निकलीं । सतनामियों ने नारनौल शहर पर कब्जा कर लिया । सतनामियों की बगावत की खबर जल्दी ही दिल्ली के बादशाह औरंगजेब तक पहुंच गई । उन्होंने तुरंत एक के बाद दूसरी सेना सतनामियों पर काबू पाने के लिए भेजी । परन्तु सतनामियों ने इन फौजों को भी भगाया । राजस्थान के कई राजपूत सामंतों और दूसरे सरदारों को सतनामियों से मात खानी पड़ी । सतनामियों के हौसले बुलंद थे , वह लड़ाई लड़ते लड़ते दिल्ली के करीब पहुँच लिए , शाही सेना से आखिर तक खूब डट कर लड़ें , कोई पांच हजार के करीब सतनामी इस युद्ध में शहीद हुए बताए जाते हैं और शाही फौज के दो सो के करीब अफसर मारे गए , शाही फौज का भी काफी बड़ा हिस्सा लड़ाई में खप गया । राजा विष्णु सिंह कछवाहा मुगल हुकूमत की तरफ से सतनामियों के विद्रोह को दबाने आया था । उसका हाथी भी बुरी तरह घायल हो गया । आखिरकार जीत मुगल फौजों के हाथ ही लगी । इस युद्ध के बाद सतनामी यहाँ से पलायन कर छत्तिश्गढ़ पहुँच गए |
यहाँ छतीशगढ़ में इस सम्प्रदाय में संत घासीदास जी का जन्म हुआ , घासीदास जी ने छतिश्गढ़ में सतनामी सम्प्रदाय का प्रचार किया | आज छतिश्गढ़ में घासीदास जी के नाम पर युनिवर्सिटी बनी हुई है | मैं जब सतनामी सम्प्रदाय का इतिहास खोज रहा था तो किसी बहुजन आन्दोलन वाले लेखक का ब्लॉग पढ़ा जिसमें उन्होंने घासीदास जी की जाति चमार बताई हुई थी | मैंने विमलेश कुमार से सवाल किया कि घासीदास जी चमार जाति से थे ? विमेल्श ने बताया कि नहीं ऐसा नहीं , ये कोरा झूठ है , भक्त घासीदास जी उसी के गोत्र घृतलहरे यानि गहलावत गोत्र के थे | जब मैंने सतनामी संप्रदाय का इतिहास खोजा और विमलेश से सवाल जवाब किये तो यही समझ आया कि जब सतनामी संप्रदाय की शुरुआत हुई तो जाहिर है इन्होनें हिन्दू मान्यताओं के विरुद्ध आवाज़ उठाई और खुद के कुछ अलग ही नियम कायदे बनाए जिस कारण ये अपने बाकि के समाज से कट गए , ऐसे ही साध जाट भी बाकि के जाट समाज से कट गए होंगे जैसे बिश्नोई , जश्नाथ , आदि जैसे सम्प्रदायों से कटे | अब जब सतनामी यहाँ हरयाणा से पलायन कर छतिश्गढ़ गए तो वहां धीरे धीरे भाषा , सभ्याचार सभी में बदलाव आना स्वभाविक था , समय अनुसार गोत्र भी बदलते गए , लिखित इतिहास कुछ था नहीं , जाट व दूसरी देहाती जातियां इस मामले में लापरवाह है ही | जाट , भैंसा और मगरमच्छ अपने परिवार को ही नुकसान करते हैं वाली बात यहाँ भी सही साबित हुई | जाट ऐसी कौम है जो दुसरे के बहकावे में आकर अपनी गिनती घटाने में ज्यादा विश्वास करती हैं सो सतनामी जाटों को इन्होने खुद से अलग कर दिया | यहाँ जो सतनामी जाट रह गए थे वह तो फिर भी वापिस से दुसरे जाटों के साथ ही घुलमिल गए पर जो सतनामी/साध जाट छतीशगढ़ गए वह अपनी जड़ों से बिलकुल ही कट गए | विमलेश के अनुसार अब वहां सतनामी भी दो वर्गों में बटे हुए जो आपस में रिश्ते करने से कतराते हैं , बटने का कारण जातीय नहीं बल्कि पंथ के रिवाजों को अपनाने को लेकर है |
चौधरी सूरजमल सांगवान जी ने अपनी पुस्तक ‘ किसान विद्रोह और संघर्ष ‘ में ‘ नारनौल में सतनामी किसानों की बगावत ‘ अध्याय में बताया है , .... कि इस सम्प्रदाय के बड़े केंद्र नारनौल , मेवात और जयपुर रहें हैं | हरयाणा में रोहतक , सोनीपत जिलों में यह कई गावों में आबाद हैं जहाँ इन्हें साध पुकारा जाता है | आर्यसमाज के समाज सुधार आन्दोलन के प्रभाव में आकर सतनामी और साधों ने अपनी कट्टरपंथी रीतियाँ त्याग दी और वह प्रायः आर्य समाज का भाग बन गए हैं | बरोदा मोर , तहसील गोहाना में साध सम्प्रदाय का प्रसिद्द जाट वंश है | इस वंश के एक 22 वर्षीय वीर पुत्र ने 1962 की लड़ाई में गौरवमय वीरता दिखाई थी | यह लड़का 22 वर्ष का कप्तान था | कप्तान लालचन्द का सुपुत्र था | यह चीनियों से मुकाबले में लद्दाक की चोटी पर , चुसूल की बर्फानी पहाड़ियों में लड़ रहा था | इसकी प्लाटून ख़त्म हो चुकी थी | उसके पास सिर्फ हलकी मशीनगन थी और उसके कारतूस थे | पीछे से मदद के रास्ते कट चुके थे | वह अकेला चीनियों से बहादुरी से लड़ा , अकेले ने 28 चीनी मारे , अंत में दुश्मन की गोली का निशाना बना और वीरगति को प्राप्त हुआ | परन्तु आज कहाँ है नाम शहीद कप्तान जितेन्द्र सिंह मोर का ?
औरंगजेब काल में अनेक किसान विद्रोह हुए जिनमें मराठा शिवाजी , सिक्खों और मथुरा , भरतपुर के किसानों की जानकारी तो हमें हैं पर उसी काल में सतनामियों ने भी विद्रोह किया जो दिल्ली तक जा पहुंचे थे , पर अफ़सोस है कि उनके विद्रोह बारे बहुत ही कम लोग जानते हैं | हरयाणा में तो अधिकतर लोगों व अधिकतर जाटों को पता नहीं होगा कि साध जाट भी हैं ! छतीशगढ़ के सतनामी सम्प्रदाय में जातियां आपस में काफी घुलमिल चुकी हैं इसलिए वहां यह पता करना कि कौन जाट है कौन क्या है काफी पेचिंदा है पर नामुमकिन नहीं , यह अब गहरे शोध का विषय है |
-यूनियनिस्ट राकेश सांगवान
[3/18, 20:34] Dr.anilbhatpahari: " सततागी "
सतनाम संस्कृति में सततागी प्रथा रहा है। यह सैंधव सभ्यता में भी रहे जहां कपास की सुत काते जाते थे।और उससे वस्त्र बनाकर पहने जाते थे। उनके अवशेष मुआनजोदडो में मिलते है।( भंडार तेलासी जुनवानी सिरपुर महानदी तटवर्ती छेत्र जहां मोहान बोदा जैसे ग्राम हैं। वह मुआन जोदडो जैसे नाम अभाषित करते है यह सतनामी बाहुल्य व समृद्ध छेत्र है ) जहा मातृका पूजा भी रहा है। इसे विवाह रस्म में चुल माटी मायन पूजा कहते है जो आज भी सतनामियो में प्रचलित है।
बाहरहाल
सुत की धागा पहनना एक प्रतीकार्थ है सभ्य और उन्नत होने का। पहले लोग खाल और वृछ के छाल पहिनते थे और वे मानव सभ्यता के आरंभिक अवस्था रहे हैं। इसलिए
विवाह के अवसर पर आज भी बिना अटे हाथ से निर्मित कपास की धागा जिसे कुवारी धागा ( पवित्र व आरुग धागा ) कहते है से मडवा दून कर डेढा डेढहिन सभी परिजनो की उपस्थिति में दूल्हे राजा को सततागी( यानि की सात तागे वाली कुवारी या पवित्र धागे से निर्मित) धारण कराकर एक बडी जिम्मेदारी के लिए संस्कारित करते हैं।
ब्राह्मणों में जो धागा पहनते है वह तीन ताग के होते है यह उपनयन संस्कार है । यह बचपन में अध्ययन और भिछाटन के लिए है जिस बालक को यह पहने देख लोग ब्राह्मण बटुक जान कर भिक्षा देते थे।इसलिए इसे जनेऊ नाम से जाने जाते थे।
कलान्तर में यह अनावश्यक रुप से महिमामांडित कर दी ग ई ।और जनेऊ का अधिकारी हिन्दूओ में ब्राह्मण को बताकर उन्हे वर्ण विभाजन श्रेष्ठतम व देवतुल्य कर दिए गये।
परन्तु सतनाम संस्कृति एक अलग तरह के संस्कृति है ।यहा सततागी धारण के अपने घर परिवार माता पिता पत्नी सहित समाज के प्रति सप्तवचन को सातगाठ बांधकर सततागी धारण कर सत्य निष्ठा से जीवन यापन करते है।
पारंपरिक उत्सव व विवाह आदि में हमे अपनी इतिहास व जड की समृद्ध विरासत तलाशनी चाहिए।
आजकल ब्राह्मणों के अनुकरण पर या उनके कहने पर सततागी को जनेऊ कह सततागी के व्यापक अर्थ व भावार्थ को सीमित किए जा रहे हैं।
यह नही होना चाहिए। समाज में जनेऊ के जगह सततागी नाम प्रचलन में लाना चाहिए। और इसे स्वैच्छिक करना चाहिए।
।। सतनाम ।।
डा अनिल भतपहरी
[3/18, 20:35] Dr.anilbhatpahari: प्रतिभाशाली और लोकनृत्य में निष्णांत सत्यावती सांवरा इन दिनों बडी- बडी लोककला मंचों की लोकप्रिय नृत्यांगना हैं।
जब वह पलारी कालेज में हमारी छात्रा थी तब हमने उसे रासेयो मंच से भावनृत्य व सामाजिक सरोकार से जुडी नाटकों में अभिनय करवाए और उनकी जन्मजात प्रतिभा को परिमार्जित करने का प्रयास किए।दूरदर्शन रायपुर से छ परब नृत्य गीत जब रिकार्डिंग व शुट कराए ..हाय रे बिकट जंगल घुमर कर्मा और जब देखेव पुन्नी चंदा जैसे गीत में उनकी बेहतरीन प्रस्तुति देख दूरदर्शन के अधिकारी नीलम सोना साहब पाच सौ रुपये तत्छण नकद पुरस्कृत किए और कहे कि हमने अनेक लोक नृत्य गीत शूट किए पर इनकी नृत्य और भावाभिव्यक्ति अप्रतिम हैं।
आज उसे जगार २०१८ रायपुर के भव्य मंच में सुप्रसिद्ध करमा फूल झरे हांसी ...में वर्षों बाद मनमोहक नृत्य करते देख आपार खुशियाँ मिली और मेकप कछ में जाकर उनसे मिला ...देखते ही प्रफूल्लित आशीष लेते अपनी समूह से परिचय करवाई ।
उच्च शिछित इस प्रतिभाशाली जनजातिय कन्या को संस्कृति विभाग शासकीय सेवाओं में लेकर कलाजगत को एक विलछण प्रतिभा दे सकती हैं।
निरंतर ऊचाई को संस्पर्श करती सदैव अपनी कला से जनमानस में खुशियाँ बिखरेती रहें। सत्यवती यशस्वी और किर्तीवती हो।
[3/18, 20:36] Dr.anilbhatpahari: सतनामियों सहित अनेक मुख्यधारा से वंचित समाज का अपना कोई सामूहिक आस्था प्रकट करने हेतु न तीर्थ था न संत महात्मा ।शुक्र है कि आज गिरौदपुरी चटुआ खडुआ भंडार तेलासी और उनके नव रावटी स्थल हैं। जहां लोग अपनत्व भाव लेकर जाते आते हैं। और सामूहिक रुप से एकत्र होकर केवल आस्था ही नहीं बल्कि अपनी संगठनिक शक्ति और लाखो लोग स्व नियंत्रित सद्भाव का प्रदर्शन करते हैं।
तो इस तरह जैसे अन्य वैश्विक धर्म इसाई मुस्लिम बौद्ध हिन्दूओ का जुडाव येरुशलम वेटिकन सिटी मक्का मदिना बोधगया सारनाथ या लामाओ के बुद्ध मैनेस्ट्री में होते हैं। सिखो का अमृतसर और हिन्दुओ का चारो कुंभ मे जमवाडा होते है वर्तमान में उसी तरह गिरौदपुरी सतनाम धर्म के महान तीर्थ धाम के रुप में आकार ले चूका है देश भर से श्रद्धालु आते हैं। यहा तक विदेश से भी आने लगे हैं। यह सतनामियों की बहुत बडी उपलब्धि है। और यह स्व स्फूर्त हुआ हैं। लाखो लोगो की करोड़ो रुपये जो अन्य मेले मड ई खेल तमाशे में नष्ट होते थे आज गिरौदपुरी में वह सात्विक मंगल भजन सत्संग प्रवचन और स परिवार प्रकृति के सानिध्य में सहभोज करते तीन दिन सधनात्मक जीवन जीते आत्मविभोर होते हैं। यह अप्रतिम मंजर है।इसे ब्राह्मण वाद या अंधविश्वास आदि के साथ जोड़कर न देखे। ऐसा देखने समझने वाले सांस्कृतिक व आध्यात्मिक रुप से कृपण व आलोचना प्रवृत्ति के लोग है जो भ्रमित व सशंकित है।
हां आपार भीड़ में कुछ नादां भोला भाले और कुछ अंध श्रद्धालु भी मिलेन्गे पर वे अपवाद और उनके निम्नतर बौद्धिक स्तर है।उन्हे नजर अंदाज करना चाहिए।
।।सतनाम ।।
[3/18, 20:37] Dr.anilbhatpahari: सौ साल में सतनामियों की सामाजिक व राजनैतिक स्थिति पर विमर्श "
छत्तीसगढ़ की सामाजिक व राजनैतिक परिस्थियों से अवगत होने गांधी जी १९२०-३० के बीच यहाँ ३ बार आए ! यह वह दौर था जब देश में सामाजिक सुधार तीव्रतर चल रहा था और इसके माध्यम से स्वतंत्रता के सूत्र तलाशे जा रहे थे। सतनामियों में स्वतंत्रता से अधिक सामाजिक स्वीकार्यता महत्वपूर्ण रहा हैं। गांधी जी के आगमन और उनके कुछ दसक पूर्व इनके लिए यहाँ हलचल रहा हैं। फलस्वरुप उनके कार्यक्रम का सर्वाधिक प्रभाव सतनामियों पर पड़ा ।१९२०-२१ में सतनामी आश्रम की स्थपना के साथ समाज में सर्वांगीण विकास हेतु आधारशिला रख दी गई । आज यह कालखंड १९२०-२०२० ठीक सौ साल हो चूका हैं। इस एक सदी का लेखा- जोखा हमें अपने -अपने ढंग से करना चाहिए। हमारे रचनाकारों विचारकों और बुद्धि जीवियों को चाहिए कि इन पर सार्वजनिक बात- चीत वर्तालाप व संगोष्ठियां आयोजित करे।
बहरहाल गांधी जी रायपुर स्थित सतनाम पंथ की ३ बाड़ा गुढियारी ,मांगडा बाडा जवाहरनगर और पंडरी बाडा में गुरुअगमदास गोसाई के छत्रछाया में नेहरु के सचिव बाबा रामचंद्र रहकर स्वतंत्रता आन्दोलन को गतिमान करते रहे ।उनकी जानकारी भी समकालीन समाजसेवियों से वे लेते रहे।
तब सामाजिक रुप से सतनामी छत्तीसगढ मे प्रभावी थे भले उनसे सामूहिक रुप से सवर्ण तबका अस्पृश्य भाव रखते रहे पर ग्रामीण जन्य मे ओबीसी समाज के समकक्ष है क्योकि यह समुदाय वही से ही पृथक अस्तित्वमान हुआ है । क्योकि तब जात पात छुआछूत चाहे वह किसी भी जाति का हो परस्पर एक दूसरे से गोत्र फिरके आदि चलते भी इन सबमे भेदभाव व ऊचनीच व संग साथ भोजन शादी ब्याह तक नही थे। अंध विस्वास और धर्म कर्म में बलि हिंसा इत्यादि कुरीतियों का बोलबला था। उनमें सुचिता लाने ही सतनाम पंथ का अभ्युदय हुआ था। और लोग अंगीकृत किए थे उन्हे पृथक करने की सडयंत्र के कारण भी सतनाम पंथ में सम्मिलित लोगो के लिए छुआछूत व भेदभाव चरमोत्कर्ष पर जा पहुंचा था।
गाँधी जी रायपुर से बलौबाजार गये तो भंडारपुरी खपरी सतनाम तीर्थ के मध्य भैसा बस स्टेण्ड से गुजरे ।उनके स्वागतार्थ सतनामी समुदाय पलक पांवडे बिछाए । उस मार्ग में एक सतनामी वृद्धा से एक रुपये चंदा लेकर माल्यापर्ण कराने का भावुक प्रसंग स्मरणीय हैं। सतनामी सात्विक व संत प्रकृति के थे ये लोग श्वेत वसन धारी सुदर्शन समूह थे बावजूद उनसे निगुर्ण उपासना के चलते अस्पृश्यता का व्यवहार होते रहे। वे लोग मिलकर यह सब अवगत भी कराए ।
भंडारपुरी मोती महल गुरुद्वारा जिसकी निर्माण १८३० के आसपास है के शिखर मे तीन बंदर है से प्रेरित हुए।संभवत: बिना कुछ कहे इनसे सत्य की संदेश सहज रुप से देने की कला से अवगत हुए हो।संभवत: इसलिए ही वे यहां से जाने बाद वे अपने साथ तीन बंदर रखना आरंभ किए । साथ ही आगे चलकर उसी सतनाम की महत्ता से अभिभूत सत्याग्रह चलाए। क्योकि "सतनाम मर्मांतक पीड़ा को सहने की नैतिक साहस प्रदान करते है।"और यह सब तथ्य सतनामियों और उनके गुरुओ से मिलकर वे भलिभांति जाने समझे।
गांधी जी स्वयं लखनऊ अधिवेशन मे सतनामियों को आमंत्रित किए ।वे ७२ सतनामी संत गुरु महंत के प्रतिनिधी मंडल से मिले मध्यस्थ थे पंडित सुन्दरलाल शर्मा जी जो १९०७-८ मे ही गुरुघासीदास व सतनाम की महत्ता को समझकर सतनामी पुराण नामक काव्य रचना कर चुके थे।
बाहरहाल आजादी के आन्दोलन मे सर्वाधिक सक्रिय सतनामी ही रहे और अनगिनत लोग जेल गये यातनाएं सहे।आज भी किसी समुदाय मे सबसे अधिक सतनामियो का ही रिकार्ड स्वतंत्रता संग्राम मे अंकित है।
गांधी व कांग्रेस के जुडे रहे इसी दरम्यान आजादी के आसपास मोहभंग की अवस्था डा अम्बेडकर की सक्रियता और उनके प्रभाव मे शेड्युलकास्ट व आर पी आई से भी कुछ लोग जुड़े ।
यह १९२०-५६ तक ३६ वर्ष का कालखंड सतनामियों की राजनैतिक सूझबुझ और सामाजिक क्रांति के लिए किए गये कार्य का बेहतरीन कालखंड है जब भारतीय राजनीति के दो धारा एक जो गांधीवाद था और दूसरा अंबेडकरवाद था के मध्य संयोजन, संतुलन व समन्वय का रहा।
आज उस समय के इतनी समझ और प्रखरता से जुड़े यह समुदाय आज पर्यन्त हाशिए पर ही है और संधर्षरत है ऐसा क्यो? एक भी कोई बड़ा और सर्व स्वीकृत नाम नही है जो प्रदेश व देश मे चर्चित हो । तब वाकिय मे हमारी राजनैतिक प्रतिबद्धता और योगदान के ऊपर हमे गहराई से विचार करने होन्गे ऐसा क्यो हुआ?
क्या सबसे बड़ समुदाय जो गुरुबाबा जी नाम पर एक है छग मे ५० सीट पर हस्तक्षेप रखते है तब क्यो कर हिन्दू या सवर्ण लोग उपेक्षित करते रहे है? जबकि एकता और संधर्ष के लिए अन्य समाज सतनामी के उदाहरण देकर आज उनसे ही अधिक ताकतवर होते जा रहे है। यहाँ तक अनेक ओबीसी जातियाँ इनके यहां कृषि मजदूरी कर जीवन यापन करते हैं। ये लोग भी सर्वणों के बहकावे में आकर सामाजिक भेदभाव करते हैं।
क्या सामाजिक भेदभाव के लिए कुछ विचारधाराएँ है जिन्हे धारण कर सतनामी लगातार भटकते आ रहे है? इन प्रश्न के उत्तर तलाशने होन्गे ?
तो क्या गांधी अंबेडकर हमारे लिए अभिशप्त सा रहा कि हेडगेवार वाली विचार धारा के चंगुल मे कुछ लोग विगत १५- २० वर्षो से जकड़ते जा रहे हैं जो कथित सनातन व हिन्दुत्व से सरोकार रखते समरसता के बहाने यथास्थिति वादी हैं। जिन्हे तिलांजलि देकर गुरुघासीदास ने सतनाम का प्रवर्तन किया और समानता के लिए नवजागरण चलाया। या डा. अम्बेडकर के उस ज्ञानवादी बौद्ध धम्म को समझ न पाने या अपनी संस्कृति के विरुद्ध जान उनसे समन्वय नही कर सके? जिनके सूत्र हमारी प्राचीन प्रतिमानों में भी नीहित हैं। उस तरफ से बेखबर है।
बाहरहाल हमे ऐसा लगता है कि गांधीवाद जिनके धूर विरोधी अंबेडकर वाद रहे है और तो और हेडगेवारवाद जो गाधी के बधिक भी रहे है (दोष लगा है कि वे इस्लाम व पाक समर्थक थे ! क्या यह सच है कि अस्पृश्य समुदाय को जागृत कर उनसे स् अभिमान या जागृति पैदा करने से नराजगी का दुर्दान्त प्रभाव था )। केवल राजनैतिक वाद है और समाज या धर्म से इन वादो का कोई लेना देना नही है।
अत: जिस दिन वोट डालना और सरकारे बनाना हो तब इनका मतलब है बाकि सभी अपनी धर्म व मान्यताओं मे ही उलझे रहो । यथास्थिति वाद को बनाए रखो और जो है उसमे संतुष्ट रहो।
पर यह भी नही इन तीनो वाद से भिन्न अंबेडकर वाद है पर कथित अंबेडकरवादी उसे उसे सत्ता की चाबी पाने की तरह इस्तेमाल करने लगे है। इसलिए आजकल इन सारे विपरित धाराओ मे सत्ता सुख हेतु गठजोड़ जारी है।जो सक्षम होन्गे उन्हे उखाड़ने बाकी दो धाराए युति करते रहेन्गे । पर सवाल यह है कि राजनैतिक रुप से सक्रिय इन धाराओ से बचकर कैसे धर्म धम्म पंथ की महत्ता कायम रखे ? आज यही महत्वपूर्ण है।हालांकि कुछ लोग धर्म को गौण व अस्तित्व विहिन मानने लगे है।पर भारत मे यह सब होने मे सदियां लग जाएगी ऐसा हमे लगता है।
शायद इसलिए गांधी अंबेडकर व हेडगेवार धार्मिक अधिक लगते है अपेछाकृत राजनीतिग्य के। इसलिए एक बौद्ध धम्म के हो गये और वे दोनो विपरित विचार के बावजूद सनातनी होकर रह गये । क्या बौद्ध सतनामी और तमाम ग्यान संत गुरु मुखी समाज जो उसी सनातनता से उत्पिडित है जो ईश्वरान्मुख न होकर गुरुमुख समुदाय है। जो बुद्ध कबीर नानक रैदास गुरुघासीदास के अनुयाई व सतनाम के अनुगामी है ।परस्पर मिलकर उस सनातन के समछ मजबूती खडा नही हो सकते ।केवल सामाजिक रुप से ही नही बल्कि राजनैतिक व आर्थिक रुप से भी।
हमे इन सब पर गंभीरतापूर्वक विचार करने होन्गे। क्योकि आप टुकड़ों मे बटे रहकर कुछ नही कर सकते । क्योकि वे आपके विचार दर्शन और आइडिया लेकर आपको ही अपने में फांस कर उलझा सकते है और उलझते ही आ रहे है।
सतनाम
-डा अनिल भतपहरी
सी - ११ ऊंजियार सदन सेन्ट जोसेफ टाऊन अमलीडीह रायपुर छग
[3/18, 20:38] Dr.anilbhatpahari: क्या सतनामी हिन्दू हैं?
सतनामियों से सवर्ण हिन्दू सांस्कृतिक व धार्मिक प्रतिस्पर्धी के नाम पर द्वेषपूर्ण भाव से अस्पृश्यता का व्यवहार करते हैं। जबकि शेष अन्य जातियों से उनके निम्नतर व अस्वच्छ पेशा यथा चर्म शिल्प , सफाई कार्य कपडे धुलाई बाल कटाई आदि के चलते अस्पृश्यता का व्यवहार करते हैं।
इस तरह जिन जातियों से अस्पृश्यता का व्यवहार किये जाने लगे उसे डिस्प्रेस्ड क्लास या अनुसुचितजाति वर्ग कहे गये मराठी भाषा में उसे दलित कहे गये जिनका शोषण व दमन हुआ।
ये लोग आज भी हिन्दू के अभिन्न जाति है और उनके सारे देवी देवता उपसाना मेले पर्व यथावत मानते हैं और उनके विशिष्ट कुल देवता है। समय समय पर चमार महार मेहतर नाई धोबी आदि जिसे "पवनी जातिया " होने का दर्जा प्राप्त है का महत्व होते है उसे दान दछिणा देते वे सभी परस्पर जुडे हुए हैं।
परन्तु सतनामी इससे भिन्न है। वे जाति विहिन पंथ है और तमाम हिन्दू रीति नीति संस्कृति के इतर उनके अपने विशिष्ट जीवन पद्धति व दर्शन है।
उनके पारा मोहल्ला से लेकर तालाब के धाट और शमसान भूमि तक अलग है।
मतलब किसी भी दृष्टिकोण से सतनामी हिन्दू नहीं हैं। बल्कि आजकल कुछ लोग राजनैतिक महत्वाकांक्षा और संध शाखा से जुडे होने के कारण सतनामियों में हिन्दूत्व भाव तेजी से भर रहे हैं। उनकी महिलाए संतोषी वैभव लछ्मी करवा चौथ वट सावित्री आदि मनाने लगी है। और लोग गणेश दुर्गा पूजा भी करने व स्थापित करने लगे हैं। सरकारी दस्तावेज़ मे धर्म हिन्दू और जाति सतनामी लिखने बाध्य भी है।
(तो दूसरी ओर आर पी आई बसपा से जुडे होने कारण बौद्ध बनने की ओर अग्रसर है।और गरीबी व शिछा स्वास्थ्य गत कारणो से ईसाइयों के सेवा भाव से प्रभावित ईसाई तक बनने लगे हैं। (
क्योकि सतनाम धर्म नहीं है। यदि धर्म / पंथ कालम होते तो रिलिजन कालम मे सतनाम लिखते और जाति में सतनामी ।
बाहरहाल अनु जाति वर्ग मे प्राप्त सुविधाएं हेतु तत्कालीन नेतृत्व सतनामी को अनु जाति वर्ग में रखा और आरछण के हकदार हुए।इनके लाभ तो मिला पर सामाजिक रुप से हेय दृष्टि और हिकारत ही मिला। सुविधाएँ मिलने अकर्मण्यता बढी और निरंतर तिरस्कार से उन्माद प्रमाद से सतनामियों की प्रखरता और स्वाभिमान गिरते गया।वे नशे जुए और अन्य छेत्र में प्रविष्ट होते गये।लाभ तो चंद लोगो बमुश्किल २-५ लाख लोगों को मिला।पर ३०-३५ सतनामियों की आज भी बद से बदतर है।वे लोगो की स्थिति शेष दलितों जैसे ही नीरिह है। उन्हे वे तमाम सुविधाएं चाहिए।इनके बिना ऊपर उठ पाना या मुख्यधारा मे आ पाना मुस्किल है।
[3/18, 20:39] Dr.anilbhatpahari: " ऐतिहासिक ग्राम जुनवानी के भतपहरी वंश और उनके सामाजिक दायित्व "
आजादी के पूर्व यहां तक गुरुघासीदास बाबा जी के संग मिलकर समाज सेवा में भतपहरी परिवार अग्रणी रहा है। एक पिता के चार बेटे ललवा ,नोहरा, भारत और बंशी नामक चार भाईयों के परिवार से गुलजार जुनवानी के यह चार भाई ही कुलदेवता की तरह यहां पूज्यनीय है। इनके नाम से हुमन -धूपन देकर विध्नबाधाओं से मुक्ति की प्रार्थाना की जाती है।
सतनामी राज्य की नव नियुक्त राजा गुरुबालकदास के सिपहसलार व सच्चा सिपाही यहां के समकालीन युवक रहे। फलस्वरुप उनके और उनके मित्र राजा वीर नरायणसिंह का आगमन हुआ है।
स्वतंत्रता आन्दोलन में भी यहा के लोग सम्मलित रहे । प्यारी बबा को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पेंशन मिलते रहा थे।
मंत्री नकूल ढ़ीढ़ी जी उनके बहनोई महंत नंदूनारायण भतपहरी (हमारे छोटे दादाजी ) के अभियान में पूरा गांव साथ रहा .. फलस्वरुप यहां की प्रभाव आसपास पड़ा ।
ब्रीटिश जमाने से साछर आज इस ऐतिहासिक ग्राम की अपनी विशिष्टता है। यहां की प्रतिभावान लोगों में छत्तीसगढ़ के अंबेडकर के नाम से ख्याति लब्ध परिछेत्र का प्रथम हाई कोर्ट एड मनोहरलाल भतपहरी आर पी आई के रायपुर लोकसभा के उम्मीदार के रुप बड़ा लीडर रहा है। साहित्यिक व सांस्कृतिक प्रतिभा सम्पन्न बहुमुखी प्रतिभाशाली प्रप्राचार्य सुकालदास भतपहरी थे। व बिहारी जांगडे विकास अधिकारी जोहन किसन पृथक छत्तीसगढ़ आन्दोलन के जेलयात्री नकूल ढीढी के साथ चंद्रबलि भतपहरी व उनके मित्र थे। फत्ते, मनराखन ,चैतू मनी राधे जमुना प्रेमदास जनप्रतिनिधी शासन - प्रशासन में प्रभावशाली पदों पर रहे । मं प्र अनु जाति आयोग पूर्व अध्यछ एड भुवललाल भतपहरी स्वस्थ व सक्रिय है।
महज एक परिवार और उनके कुछ बेटी दमाद परिवार से आबाद छोटे से गांव में अन्यत्र शोषण दमन से मुक्त समानता और एकता का बेमिशाल आदर्श ग्राम है जिनकी ख्याति दूर दूर तक है।जहां सेवानिवृत और वर्तमान में ४० -४५ से ऊपर अधिकारी कर्मचारी डा प्रोफेसर शिक्छक वकील जज इंजी तथा अपनी निष्ठायुक्त जीवट कार्यछमताएं/ नेतृत्व से शासन-प्रशासन में छाप छोड़ रहे है। यहां प्रदेश के सभी बडे राजनेताओं का आगमन जयंती समारोह में होते रहा है।
पत्थर खदान और कृषि वहां कठोर परिश्रम का प्रतिफल संधर्ष पूर्ण पुरुषार्थ भरा जीवन सफलता अर्जित करने के प्रेरक तत्व रहा है। इसी बहाने थोड़ी सी पारिवारिक पृष्ठभूमि बताकर हमें हर बार की तरह गर्वानुभूति होते है कि इस वंश के हम वारिश है।
बहरहाल पूर्वजों गुरुबाबा एंव समाज का आशीष मिलते रहे ताकि समाज सापेक्छ बेहतरीन कार्य कर अपने जीवन को ये नव समाज सेविकाएं सफल कर सके...परिवार के उत्तराधिकारी होने के नाते हमारा भी समर्थन व अपेछित सहयोग है।
-डा. अनिल भतपहरी
[3/18, 20:41] Dr.anilbhatpahari: क्या सतनाम ईश्वर हैं ?
सत्नाम प्रसाद संभु अबिनासी।साजु अमंगल मंगल रासी।
सुक सनकादि सिद्धमुनि जोगी।सत्नाम प्रसाद ब्रम्हसुख भोगी।।
तुलसी कृत यह चौपाई का आरंभ नाम से हैं - यथा नाम प्रसाद संभु अबिनासी .... हमें लगता हैं कि यह केवल नाम नही होगा। यदि नाम हैं तो वह क्या और किसकी नाम होन्गे?
सिव किस नाम का जाप किए ? और पार्वती को अमर कथा सुनाए वह किस नाम से आरंभ हुआ होगा? प्रायः अधिकतर विद्वान उसे ( शिव को ) सत्य स्वरुप कहते यानि की वह सत्य के अराधक थे ।शैव मत के नाथ और सतनाम संस्कृति में सिद्ध सहजयोगियो ने सतपुरुष या निरंजन या काल निरंजन के आराधक बताते हैं ।यह बात तुलसी के पूर्व से ही प्रचलन में रहा और वे इस तथ्य या सतनाम से भलीभांति परिचित भी रहे। फिर सीधा सीधा रामचरितमानस की इस चौपाई में सतनाम क्यों नहीं लिख सके? या लिखना मुनासिब नहीं समझा? यह जरुर विचारणीय है।
हमें लगता हैं कि यह दो कारणो से हुआ होगा।पहला कि सतनाम के आराधक निर्गुण मत वाले सिद्ध नाथ संत कवि उनके परवर्ती बुद्ध सहरपा गोरखनाथ मत्सेन्द्रनाथ कबीर रैदास इत्यादि थे और वे सतनाम के साधक और प्रचारक थे उनमे अधिकतर अवतार वाद वेद शास्त्र आदि के प्रतिरोधी थे।अत: वे सीधा सीधा उनके द्वारा व्यहृत सतनाम का उल्लेख नहीं किया।दूसरा कि सत्नाम प्रसाद..लिखते तो चौपाई की मात्रा १६ से १८ हो जाते और काव्य शिल्प से बाहर हो जाते ।
अत: वे नाम लिखकर काम चलाये।परन्तु व्याख्या करने पर यह नाम रामनाम तो हो ही नही सकते क्योंकि तब शिव कैसे रामनाम जपते?जबकि राम का जन्म नही हुआ था। हरिनाम भी नही क्योंकि यह उनके भाई विष्णु के लिए प्रयुक्त होते।वे सतनाम के उपासक थे।
बाहरहाल यह नाम केवल सतनाम ही हैं जिसके आराधक बडे-बडे संत गुरु महात्मा सिद्ध- मुनी योगी तपस्वी थे और उनकी साधना से वे समर्थवान हुए। सतनाम की राह पर चलने से साधक को एक अप्रतिम सुखानुभूति होते हैं। उसे तुलसी ने ब्रह्मसुख कहे हैं। मतलब सतनाम ब्रम्हसुख प्रदान करने वाले कारक हैं ।इस तरह वे नाम या सतनाम को सीधा सीधा ईश्वरीय तत्व से जोडे। जैसा कि संतो गुरुओ सिद्धो नाथो ने सतनाम को ही ईश्वर खुदा करतार मालिक सतपुरुष स्वरुप में मानकर ही सिद्धियाँ प्राप्त की अपनी बाते जनमानस के बीच लाए।
सत्य ही ईश्वर हैं आजकल यह श्लोगन बहुत ही लोकप्रिय हो गये हैं।
इस तरह हम देखते है कि प्राचीन काल से ही सतनाम सत्यनाम सचुनाम सच्चनाम सतिनाम सत्तनाम शतनाम की सुमिरन जाप और साधना पद्धतियां रही है।
पर क्या सतनाम ईश्वर हैं सवाल यह हैं? ...यदि नही तब वह क्या है?और उनकी साधनाए प्रचार प्रसार बुद्ध से लेकर गुरु घासी बाबा तक किसलिए आम जनमानस के बीच किए गये... और वे किसे प्राप्त करने पथ प्रदर्शक हुए।सतनाम की प्रसाद या कृपा से ब्रम्हसुख मिलते हैं,जिसे परमानंद मानते हैं।मतलब ब्रम्ह या ईश्वर से अप्रतिम व श्रेष्ठ है।
सतनाम
डा. अनिल भतपहरी
हंसा अकेला सतनाम - संकीर्तन जुनवानी
[3/18, 20:42] Dr.anilbhatpahari: [5/2, 23:14] Dr anilbhatpahari: सहोद्रा माता की झांपी दर्शन मेला डुम्हा भंडारपुरी
२१ मार्च २०१९
गुरुघासीदास की सुपुत्री सहोद्रामाता की झांपी जो (उनके गृहग्राम कुटेला बाद मे डूम्हा मे )उनके परिजन दीवान परिवार के पास संरछित है। उसमे गुरु घासीदास द्वारा व्यवहृत की ग ई सामाग्री संचित है जिसमे चरणपादुका , कंठी और सोटा सम्मलित है।ध्यान दे उनमे जनेऊ आदि नही है। उसे प्रत्येक वर्ष होली के दिन विधिवत पूजा अर्चना कर सफेद वस्त्र से बांधकर पलटे जाते है। जैसे गद्दी व नाडियल पलटते है।
इसे देखने दूर दूर से कुछ विशिष्ट श्रद्धालू आते है।खासकर बोडसरा परिछेत्र जो सहोद्रामाता की ससुराल परिछेत्र है ,उधर के लोग अधिकतर आते है।
आने वाला समय मे डुम्हा ग्राम मेले के रुप मे परिणित हो सकते है ,जहां बडी संख्या मे लोग बाबा जी की उक्त पवित्र अवशेष के दर्शनार्थ आयेन्गे।
हमारी तो यह दिली चाह है कि डुम्हा मे गद्दी सोटा और कंठी माला के लिए भव्य स्मारक बने और दीवान परिवार उनके संरछक सेवादार रहे।
साथ ही साथ गुरु बाबा घासी दास द्वारा सतनाम धर्म प्रचार हेतु लगाए गये ९ रावटी स्थल - चिर ई पहर ,दंतेवाडा , कांकेर ,पानाबरस , डोंगरगढ ,भंवरदाह ,भोरमदेव ,रतनपुर और दल्हा पहाड मे भी स्मारक बने एंव कंठी माला के एक एक मनके को रजत या स्वर्ण मंजुषा मे रखकर स्थापित व संरछित करे।
यह धार्मिक योजना बडी ही महत्वाकांछी योजना है। इनके लिए समाज के सभी वर्ग खासकर गुरु परिवार दीवान परिवार साधु संत महंत भंडारी साटीदार अधिकारी कर्मचारी गण से प्रतिनिधी मंडल बनावे एंव उक्त निर्माण एंव संबंधित जगहो के विकास व वहां मेले संगत पंगत अंगत की सतनामी सांस्कृतिक अनुष्ठान आरंभ करावे।
तब जाकर सतनाम धर्म के मार्ग प्रशस्त होन्गे।
धर्म और धार्मिक आयोजन ही जनमानस मे सांस्कृति एकता स्थापित कर सकते है।और परस्पर मेलजोल से संगठन और संगठन से ही शक्ति ।शक्ति से हस्ती और हस्ती से युक्ति युक्ति से मुक्ति......!.
धार्मिक आयोजन ही मुक्ति के प्रथम सोपान है। दुर्भाग्यवश समाज मे सिवाय जंयती और मेले के अतिरिक्त कुछ हुआ ही नही न ढंग से कुछ हो पा रहे है...... इस दिशा मे प्रग्यावानों को गंभीरता पूर्वक विचार विमर्श करना चाहिए ।
इस फागुन पूर्णिमा को इच्छुक श्रद्धालू गण डुम्हा भंडारपुरी जाकर माता सहोद्रा की झांपी में यत्नपूर्वक रखे सद्गुरु घासीदास की सोंटा चरण पादुका कंठीमाला एंव अंग वस्त्र का पावन दर्शन लाभ कर सकते है।
गांव वालों सहित समस्त संत महंत दीवान परिवार के साथ मेला लगाने की गुरुवंशजो की मार्गदर्शन लेकर सार्थक पहल कर सकते है। सतनाम धर्म- संस्कृति में यह मेला अभिनव पहल होगा। इससे जनमानस का नैतिक उत्थान सहित सर्वांगीण विकास के मार्ग प्रशस्त होन्गे।
सतनाम
डा अनिल भतपहरी
[5/2, 23:14] Dr anilbhatpahari: हमारी तो यह दिली चाह है कि डुम्हा मे गद्दी सोटा और कंठी माला के लिए भव्य स्मारक बने और दीवान परिवार उनके संरछक सेवादार रहे।
साथ ही साथ गुरु बाबा घासी दास द्वारा सतनाम धर्म प्रचार हेतु लगाए गये ९ रावटी स्थल - चिर ई पहर ,दंतेवाडा , कांकेर ,पानाबरस , डोंगरगढ ,भंवरदाह ,भोरमदेव ,रतनपुर और दल्हा पहाड मे भी स्मारक बने एंव कंठी माला के एक एक मनके को रजत या स्वर्ण मंजुषा मे रखकर स्थापित व संरछित करे।
यह धार्मिक योजना बडी ही महत्वाकांछी योजना है। इनके लिए समाज के सभी वर्ग खासकर गुरु परिवार दीवान परिवार साधु संत महंत भंडारी साटीदार अधिकारी कर्मचारी गण से प्रतिनिधी मंडल बनावे एंव उक्त निर्माण एंव संबंधित जगहो के विकास व वहां मेले संगत पंगत अंगत की सतनामी सांस्कृतिक अनुष्ठान आरंभ करावे।
तब जाकर सतनाम धर्म के मार्ग प्रशस्त होन्गे।
धर्म और धार्मिक आयोजन ही जनमानस मे सांस्कृति एकता स्थापित कर सकते है।और परस्पर मेलजोल से संगठन और संगठन से ही शक्ति ।शक्ति से हस्ती और हस्ती से युक्ति युक्ति से मुक्ति......!.
धार्मिक आयोजन ही मुक्ति के प्रथम सोपान है। दुर्भाग्यवश समाज मे सिवाय जंयती और मेले के अतिरिक्त कुछ हुआ ही नही न ढंग से कुछ हो पा रहे है...... इस दिशा मे प्रग्यावानों को गंभीरता पूर्वक विचार विमर्श करना चाहिए ।
इस फागुन पूर्णिमा को इच्छुक श्रद्धालू गण डुम्हा भंडारपुरी जाकर माता सहोद्रा की झांपी में यत्नपूर्वक रखे सद्गुरु घासीदास की सोंटा चरण पादुका कंठीमाला एंव अंग वस्त्र का पावन दर्शन लाभ कर सकते है।
गांव वालों सहित समस्त संत महंत दीवान परिवार के साथ मेला लगाने की गुरुवंशजो की मार्गदर्शन लेकर सार्थक पहल कर सकते है। सतनाम धर्म- संस्कृति में यह मेला अभिनव पहल होगा। इससे जनमानस का नैतिक उत्थान सहित सर्वांगीण विकास के मार्ग प्रशस्त होन्गे।
सतनाम
डा अनिल भतपहरी
[3/18, 20:43] Dr.anilbhatpahari: बातें है बातों में क्या ?
इसके बावजूद भी लोग बातों से ही परस्पर जुड़े है और बात है तभी सब साथ है।बातें किसी से बंद कर देखे ... वह तो खार खाए बैठे है आपसे अनबोलना होने।
लोग बात -बात पर ही बनते बिगड़ते है। और बातें ही है जो जोडते और तोड़ते है। इसलिए बातों को युं ही नजर अंदाज न करे यह कहकर कि "बातों में क्या है?
बातों में ही सबकूछ है ।वर्तमान सरकार बातें न होने और मौन रहने के प्रतिरोध में बम्फर जीत से सत्तासीन हुई। इसलिए बातें करते रहने की अखिल भारतीय व्यवस्था किए है ।और हर हफ्ते मन की बातें "राष्ट्रीय प्रवचन " बन चूके है। राष्ट्रीय गान की जमाने लद गये अब हर तरफ राष्ट्रीय प्रवचन की धूम मची है।और जनता उसमें निमग्न है।
कहते है पहले रामायण आते देश भर की सड़के कर्फ्यु लगने सा वीरान हो जाते ,जहां से चोरी डकैती व स्मगलिंग की समाने आते- जाते । आजकल स्कूल पंचायत व सरकारी दफ्तरों में राष्ट्रीय प्रवचन श्रवण कराने रेडियों टी वी की व्यवस्था कराने और उन पर करोडो धपला करने का प्रसार भारती का नायाब खेल हुआ।और इस तरह वे मरणासन्न अवस्था से उबरे ।फिर भी दूरदर्शन और आकाशवाणी जैसे सफेद हाथी सैकडो चैनल व एफ एम के बीच कैसे जिन्दा है या जिन्दा रखे गये अन्वेषण का विषय हो सकते है।
बाहरहाल बातों ही बातों मे बात चली तो बातें कहां से कहां पहुंच गई ।लोग कितने बातुनी होते है कि बातों की बतड़ग करने या फिर अपनी बातें मनवाकर ही दम लेते है।या फिर दम तोड़ देते है। दम तोड़ने वाले तो बहुधा कम ही होते है अक्सर बतक्कड़ लोग हार नही मानते और मान भी लिए तो स्वीकारते नही। फिर भी लोग क्योकर यह कहते फिरते है कि सोनार की सौ और लोहार एक ।
कुछ अल्पभाषी बतक्कड़ो को अपनी एक बात से लोहार जैसे बड़ा धन चलाकर सोनार की सौ टकटकी हथौड़ी की चोट से अधिक संधातक प्रहार कर लेते है।
आजकल यही होने लगा है जो पछ में वह हजार जुबान चलाते सबको अपनी मनवाने बड़बड़ा रहे है और जो विपछ में है वह एक ही बाते कह रहा है हटाओं और बदलों ।
सुनने में आया है कि अमेरिका में एक ही बात से परिवर्तन आया "वी केन चेंज " यही सूत्र वाक्य की आजकल सबसे अधिक प्रभावशाली युवा वर्गों में है " हमें बदलाव चाहिए " यह वे चाहते है जो अपेछाकृत उपकृत नही है या एक सा रुटीन लाईफ से बोरिंग होने लगते है ।वही हवा पानी बदलने सैर सपाटे कर बदलाव चाहते है। जब आदमी हर दीपावली में घर की रंग रोगन बदलते है तब सरकारे कैसे नही बदलती यह जरुर विचारणीय है।हमारे लोग आस्थावान व रुढ़ीवादी होते है। किसी के त्याग बलिदान को किसी वैभव ऐश्वर्य को परंपरागत ढंग से ढ़ोते रहते है वे भला क्या बदलाव चाहेन्गे ये लोग यथास्थिति वादी होते है और कल्पित सुख की आस मे "जो रचि राखा राम जी" की धून में बिधुन दास मलूक की पंछी व अजगर की तरह मुफत की दार-भात खाते पड़े रहते है । वे सबके दाता राम कह मंजीरें बजाते संकीर्तन में मगन है ।ऐसे लोग
और ऐसी प्रवृत्तियां हर शासक वर्ग पैदा करते है। यही उनकी सत्ता में बने रहने का रामबाण अचुक औषधि है।
अजकल जनता को सब्जबाग और सपने दिखाने की कवायद दोनो - तीनो तरफ है । आश्वासनों का दस्तावेजीकरण करने संकल्प पत्र ,धोषणा पत्र दृष्टिपत्र ,शपथपत्रों की बाढ़ सी आई हुई है।आखिरकर ऐसा करके ही तो उनसे मत व समर्थन लिए जाते है ।
बाहरहाल यह अमेरिका नही जहां द्विदलीय प्रणाली हो यहां तो बहुदलीय और निर्दलीय है ऐसे बतक्कड़ो की बन आई है।फिर यह विशिष्ट अनुभव देशवासियों का है कि मौनीबाबा की तपस्या वही भंग कर सकता है जो जबर गोठकार हो ।जहां चुप-चुपाई हो वहां चुटुर -पुटुर मनोरंजन का साधन हो जाते है।मौन से उबे जनता मन की प्रवचन से मगन हुए ।पर जल्द ही अब प्रवचन की अतिरंजन और उनके शासकीय प्रसारण ही जन के अवचेतन मन में परिवर्तन की पवन बहाने लगे है। इस बात को बतक्कड़ लोग जगह -जगह बताने लगे है अब देखते है कि उनकी बातों का असर कितना असरदार होते है।
वैसे एक पुरानी फिल्मी गीत ही सबके सपने चुर चुर करने में काफी है पता नही इसको लोग आजकल क्यो नही बजाते या सुनते ।मेरा तो मन करता है कि मै भी एक बड़ा सा डी. जे. सांउड सिस्टम लगाऊ और रफी साहब की दिलकश आवाज को लाऊड में बजाऊ .... कस्मे वादे प्यार वफा सब बातें है बातों में क्या ?
पर भाई अनबोलना रहने और गूंगा होने से अच्छा है कि अच्छे दिन आने वाले वाले की सब्जबाग में ही टहले घूमें या खाली -पीली टहल टुहुल करने और अतिरंजना पूर्ण कानफोडू प्रवचन से ऊबे लोगों को परिवर्तन के लिए प्रेरित करने वालों की सुने या फिर उन्हे चुने जो अबतक अपनी बारी के इंतजार में ऐसे सपने दिखाते रहे है जो कथित दोनो राष्ट्रीय दल न देख - दिखा सकते न कर सकते!
तो बतक्कड़ों की बातों में फंसने तैय्यार तो रहों कि क्या पता कौन सी बातें आपकी बातों से मेल खाते बातों ही बातों में बात बन जाए !!
डा अनिल भतपहरी
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