Sunday, October 27, 2024

मत मज़हब पंथ और धर्म

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   ||धर्म और मत मज़हब पंथ ||

धर्म विशुद्ध भारतीय शब्द हैं यह पाली प्राकृत संस्कृत हिंदी में व्यवहृत होते हैं। अंग्रेज़ी या अन्य विदेशी भाषा के शब्द जैसे रिलीजन मज़हब आदि को धर्म का पर्याय नहीं समझना चाहिए। बल्कि रिलीजन मजहब को यहां के मत , पंथ,संप्रदाय के रुप में देखना चाहिए। यह सब नहीं होने और गहराई से विचार नहीं करने के कारण धर्म को ही मत मजहब रिलीजन पंथ आदि समझ लिए गए फलस्वरूप अनेक तरह के भ्रम जनमानस में फैल गए हैं।
अनुयाई और धार्मिक कौन हैं और दोनों का कर्तव्य क्या हैं दोनों की प्रवृत्ति क्या और कैसे हैं इन पर भी विचार विमर्श होने चाहिए। ताकि इस क्षेत्र में जो भ्रम और अनेक तरह प्रवाद प्रलाप फैले हुए हैं, उसका उचित निराकरण हो सके।
    धर्म का वास्तविक अर्थ मर्म में सद्गुणों को धारण कर व्यवहार करना हैं।घृ धातु से उत्पन्न धर्म का अर्थ धारण करना हैं।
अब सवाल होता है कि क्या धारण करना और कहां धारण करना?
सामान्य सा उत्तर हैं _"सत्य प्रेम करुणा परोपकार आदि गुण को मर्म यानि चित्त में धारण करना धर्म हैं। उसी तरह असत्य घृणा क्रुरता अपकर आदि अवगुण को धारण कर व्यवहार करना अधर्म हैं।"
    इस अर्थ में  देखें तो सद्गुण  धर्म और अवगुण अधर्म हैं । सदगुणी व्यक्ति ही धार्मिक हैं और अवगुणी ही अधार्मिक हैं।
    हिन्दू मुस्लिम ईसाई बौद्ध जैन सिख सतनाम क़बीरपंथ आदि धर्म नहीं  बल्कि यह सब  मत मजहब रिलीजन धम्म पंथ हैं। जिसे हम जीवन पद्धति ,प्रणाली या  अपने मत मज़हब पंथ के अनुरुप पूजा,आराधना इबादत आदि के तौर तरीका मात्र हैं। 
    इनके वाहक लोग अनुयाई हैं। अनुयाई सदगुणी या धार्मिक  हो यह जरुरी नहीं। अनेक अनुयाई अपने मतों जीवन पद्धति के प्रति कट्टर, समर्पित प्रचारक  और दूसरे के लिए क्रूर आलोचक दुष्प्रचारक होकर सद्गुणों से रहित हो जाते हैं। तब ऐसे अनुयाइयों को कैसे धार्मिक कहे?
धर्म बिल्कुल ही अलग चीज़ हैं मतों मजहबों पंथों रिलीजनो से उन्हें नहीं जोड़ना चाहिए पर यह कैसी विडंबना हैं कि ग्रंथों, किताबों शासन प्रशासन में मतों मजहबों रिलीजनो को ही धर्म कहे जा रहे हैं।
इस पर हमारे बुद्धिजीवियों विचारकों और प्रज्ञा संपन्न लोगों को पहल करना चाहिए ताकि उचित संशोधन हो और आम लोगों को धर्म का वास्तविक अर्थ समझाना चाहिए। धर्म कैसे इन मतों मजहबों से ऊपर की चीज़ हैं और यह सदैव वैयक्तिक प्रासंगिक और अनुकरणीय हैं। यह बातें भी लोगों को अवगत कराना चाहिए।

       _  डॉ अनिल भतपहरी/ 9617777514

Saturday, October 26, 2024

नवान्न खाने की पर्व नवाखाई देवारी और जेवठन

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नवान्न खाने की पर्व नवाखाई , देवारी और जेवठन 

 कृषि संस्कृति के संवाहक मानव समाज में उनके बसाहट वातावरण और अनेक प्रकार के अन्न पकने के अवसर पर हर्षोल्लास पूर्वक पर्व होते हैं। विभिन्न समुदायों में नवाखाई पर्व अलग अलग समय और तौर तरीके से मनाए जाते हैं। उनमें छत्तीसगढ़ के प्रमुखत: नवान्न खाने का पर्व हैं_ 

 1भादों माह में टीकरा में ऊपजने वाले कोदों कुटकी रागी मंडिया यह लारियांचल में नुवाखाई/ दाल खई 
2   क्वांर माह दसहरा के दिन भाठा के हरहुना धान मोटा किस्म वाले छत्तीसगढ़ के मध्य मैदान में नावा खाई 
3 कार्तिक माह देवारी के खिचड़ी भात  मटासी खार के मध्यम धान सफरी बंगला महामाया स्वर्णा गुरमटियां आदि  मैदानी भाग 
4 कार्तिक एकादशी जेवठन कन्हार खार या बहरा नार वाले माई धान दुबराज, जवाफूल, लोहदी, सिरीकवल आदि।

   हमलोग महानदी तटवर्ती सिरपुर के इर्दगिर्द के लोगों की नवाखाई जेवठन हैं। इस दिन नए दुबराज  या सुगंधित चांवल पीसान के चुकीयां बना देवधामी में दीप प्रज्ज्वलित करते हैं और तसमई या दुध फरा बनाकर परिजनों सहित सामूहिक रुप में जेवनास करते हैं। चीला, पपची, अईरसा लाई सब नए चांवल से बनाए जाते हैं। हमारे घर पशुधन को सुहाई इसी दिन बांधते हैं। इसलिए भट्टप्रहरी परिवार के लिए देवारी से अधिक महत्वपूर्ण पर्व जेवठन हैं। 
     मैं घर का बड़ा लड़का हूं तो मुझे खेतों के बाली के दाने चबाने और दीपावली के अन्य गोत्रज परिजनों के यहां से आए नए चांवल के व्यंजन खाने सख्त मना हैं।
   हमारे लिए नवाखाई जेवठन हैं और इस दिन नवान्न ग्रहण करने  बेसब्री से प्रतीक्षा करते हैं। 

    बहरहाल बाल्यकाल से परिजनों के साथ सामूहिक जेवन से जेवठन तिहार हैं, समझते हैं पर आजकल देवउठन कह देवताओं के नींद से सोकर उठने की बातें भी समझने लगें हैं। थोड़ी सी आश्चर्य और कौतूहल भी होते हैं देवता भी सोते जागते हैं।
    

नोट _ छत्तीसगढ़ गेहूं उत्पादक क्षेत्र नहीं हैं इसलिए उसके लिए कोई पर्व नहीं। जबकि गेंहू उत्पादक राज्यों में बैसाखी आदि फरवरी माह में मनाए जाते हैं। यह समय छत्तीसगढ़ में दलहन तिवरा राहर बटरा मसूर का रहता हैं।

    _ डॉ अनिल भतपहरी/ 9617777514

Thursday, October 10, 2024

। जातपात अंधविश्वास ही क्या धर्म का आधार हैं।।


भारतीय समाज वर्ण जाति गोत्र इत्यादि मे विभक्त हैं। अनेक प्राचीन ग्रंथों में इनका जिक्र हैं।
डोम चमार चांडाल 
जे वर्णधाम तेली कुम्हारा.
स्व पच किरात कोल कलवारा कह जातिगत निंदा भी की गई हैं पर देखिए यही लोग ही ध्वजवाहक हैं।

जाति भास्कर 
जाति रहस्य 
मनुस्मृति 
छुआछूत 
मुलाकरम 
गंगावतरण प्रथम संतान को गंगा में प्रवाहित करना 
सतीप्रथा 
विधवाओ का परित्याग या मथुरा वृंदावन भेजना 
देवदासियां 
रथयात्रा में कुचल कर मरना 
काशी करवट लेना 
नरबलि 
पशुबली 
डोला उतराई 
घोड़ी मे शुद्रो/दलितों को न चढ़ने देना 
गुरुकुल में शिक्षा न देना 
और लार्ड मैकाले के स्कूल शिक्षा लागू होने के पूर्व और उसके बाद भी दशकों तक निरक्षर भारत का होना।

जैसे अनेक कुरीतिया क्या अंग्रेजो का देन हैं?
हर समस्या के लिए अंग्रेज के ऊपर दोष मढ़ना क्या उचित हैं वे नहीं आते तो इस देश का क्या हाल बेहाल रहता? ये जो सिस्टम चल रहा हैं रेल सड़क शिक्षा स्वास्थ्य आदि आधारभूत चीजे हैं हैं उन्ही लोगों के देन हैं। बहुसंख्यक समाज का कुछ भला होते दिख रहा हैं वह भारतीय संविधान के कारण हैं। यह न भूलिए
 कथित दिव्यास्त्रों वाले देश में घोर निरक्षरता मे क्यों साक्षरता अभियान चला ? 
गर्भवती सीता का शक के चलते परित्याग 
महारानी दौपदी को जुवे मे हरना और भरे दरबार एक अबला रजस्वला का चीर हरण करना कौन सी महानता और गर्व करने का प्रसंग हैं? सोचिए जब देवी स्वरूपों की यह निरीह दशा थी तब जन नारियों की कैसी नरकीय दशा रही होगी?
   आज भी शाम 6 के बाद अकेली लडकी घर से बाहर नहीं निकल सकती कौन सा यत्र नार्यस्तु पूज्यते तंत्र रमंते देवता कह दंभ हैं? निर्भया, मणिपुर और डा मैडम का रेप जैसे रोज घटने वाली कुसंस्कृति से भरा अमानवीय बर्बरताये क्या अंग्रेज पोषित हैं कि सामंतवाद अभिजात्य और घृणित जातिवाद जो शास्त्र पोषित हैं का कारनामा हैं?
     केवल आवाज तेज करने चीखने चिल्लाने और चंद एक दो उदाहरण या सुदामा ब्राह्मण के पैर पखारने या किसी नाईन द्वारा महावार लगाने चमारीन के द्वारा नाल कटवाने से समानता नहीं थी न सम्मान था।
     काव्यों की चमत्कारिक कारिक वर्णन को इतिहास न समझे।
देश की अकूत संपदा पर 15% अभिजात्य लोगों का अधिपत्य आरंभ से पूंजीवादी देश राजाओं मालगुजारो जमींदारो आजादी के बाद कथित उच्च वर्गो के नेतृत्व शासन प्रशासन और कलेजियम मीडिया आदि मे इन्ही लोगों का अधिपत्य और 65से 70% ग्रामीण परिश्रमी जनता का शोषण इनपर राज क्या नजर नहीं आते?
दुनिया अंतरिक्ष और ग्रहों तक जा रहे हैं यह नवग्रह शांति पाठ और छल्ले धारण करने और एक दूसरे के घर तक जा नही पा रहे एक दूसरे का छुआ नहीं खा रहे।
दलितों के कितने होटल रेस्तरां है? ग्रामीण कस्बों में किसी दलित शासकीय सेवकों को किराए का घर तक नहीं मिलता।
21 सदी के 25 वे वर्ष तक जात पात धर्म कर्मकांड ढोंग पाखंड चल रहा हैं। कोरोना ने सारे धर्मस्थल के पट बंद कर दिए बावजूद देश मे अस्पताल नहीं बड़ी बड़ी धर्मस्थान बन रहे हैं। चमत्कार ढोंग पाखंड और बाबागिरी बढ़ते जा रहे हैं।
भीषण बेरोजगारी हैं और हम स्व यशगान कर रहे हैं कि स्वान गान कर रहे हैं।
पूरे देश मे जातपात धर्म और भेदभाव प्रतिद्वंदिता बढ़ते जा रहे हैं।
तब ऐसे मे समृद्ध राष्ट्र कैसे बनाएंगे केवल पुरातन पंथी और व्यर्थ पोंगापंथ से काम नहीं चलेगा।

Saturday, October 5, 2024

जातिवाद और कट्टरपंथ से होकर हिंदू राष्ट्र की ओर बढ़ता देश

[10/5, 10:37 AM] Dr Anil Bhatpahari: जातिवाद और कट्टरपंथ से होकर हिंदू राष्ट्र की ओर बढ़ता देश 



वर्तमान दौर सर्वाधिक संक्रमण काल से गुजर रहा है। भले देश में एक दशक से अधिक पूर्ण बहुमत वाली सरकारें हैं लेकिन बहुत तेजी से गैर हिन्दू जानता असुरक्षित महसूस कर रहें हैं।
आज़ादी के बाद भी स्वतंत्रा आंदोलन से जुड़े पार्टी और विचारधारा की सत्ता रही । उस समय विजनरी नेतृत्व थे फलस्वरूप देश के नव निर्माण में आधारभूत औद्योगिक इकाईयों की स्थापना आधुनिक तीर्थ के रुप में हुईं और उन जगहों पर लधु भारत बसते गए जैसे भिलाई,कोरबा, राउरकेला, कोलकाता, मुंबई, चेन्नई, टाटानगर, भोपाल, बोकारो, गुरुगांव ईत्यादि। यहां की कालोनी कल्चर ने मिलीजुली संस्कृति ने राष्ट्रवाद को पोषण किया।  लोगों की जीवनशैली ने समृद्ध भारत की मिशाल पेश भी की।  नगरीकरण में सांस्कृतिक समन्वय भाव था भले वहां ग्रामीण और एक जातिय एक धर्मीय गाँव वाली आत्मीय भाव न रहें हों। 
      
 इस बीच ग्रामीण क्षेत्रों में नगरी और कस्बाई संस्कृति पनपी लोगों की जरुरत पूर्ति हेतु महाजनी संस्कृति ने ग्रामीण अर्थ व्यवस्था को बुरी तरह जकड़ लिऐ। कृषक समुदाय सूदखोर सेठ साहूकार महाजनों के कर्ज तले दब गए उनके उन्मूलन हेतु सहकारिता ग्रामीण बैंक की स्थापना हुई। प्रधानमंत्री इंदिरागंधी ने 20 सूत्रीय कार्यक्रम चलाकर सेठ साहूकार द्वारा चलाए जा रहें देशी बैंकर्स का उन्मूलन किया। फलस्वरूप यहीं तबका अपने अस्तित्व रक्षा हेतु धर्म कर्म के सहारा लेकर नई पार्टी गठित कर अनेक सांस्कृतिक धार्मिक इकाईयां गठित कर संवैधानिक रुप से धर्मनिरपेक्ष देश और समाज को दिग्भ्रमित कर कट्टरवाद और चरमपंथ को बढ़ावा दिया। इन वर्गों के पास देश की अकूत संपदा,शिक्षा व अन्य प्रतिभाएं रही फलस्वरुप असल राष्ट्रवादियों के हाथों से सत्ता फिसलती ,भटकती हुई अंततः इन्ही धार्मिक कट्टरपंथियों के हाथों चली गईं। फलस्वरुप हर तरफ धार्मिक उन्माद और जातिवाद का विकृत रुप दिखाई पड़ने लगी हैं।
ऐसा लगता हैं कि 
भाषण और साहित्य सृजन से जातिवाद कभी खत्म नहीं होगा क्योंकि ऐसा तो बुद्ध से लेकर डा अंबेडकर तक हजारों वर्षो से प्रभावी हस्तक्षेप होते हैं। अंध विश्वास, पाखंड आदि संस्कृति और परंपरा के नाम पर चलाएं जा रहें हैं उनके प्रतिरोध  करने पर राष्ट्र विरोधी घोषित कर दिए जा रहें हैं ।संगठित गिरोहों का आक्रमण और अन्य कार्यवही करने की भय हैं । जातिवाद और वर्णवाद का इनसे पोषण हो रहा हैं। ऐसे में इनके उन्मूलन हेतु कठोर एक्शन लेने वाली राजनैतिक ईच्छा शक्ति वाले कोई दल भी दूर दूर तक दिखाई नही दे रहें हैं। ऐसे में सवाल हैं किस दल और सत्ता पे यह दम हैं कि देश और समाज से जातिवाद और कट्टरपंथ का पूर्णतः उन्मूलन कर सकें? जबकि यह पता हैं कि राष्ट्र रुपी वृक्ष में यही तत्व दीमक हैं। जो भीतर से खोखले करते जा रहें हैं।
     कटु सत्य हैं कि आज़ादी के इतने वर्षों बाद नगर निगमों और सरकारी आफिसों मे सफाई कर्मी के नाम पर भर्ती ब्राह्मण कर्मी से ओबीसी अधिकारी यहां तक दलित अधिकारी तक काम नहीं करा सकते। उनसे अन्य दफ्तरी काम लेते हैं या वें किसी किसी सफ़ाई कामगार जाति को मजदूरी देकर काम करवा लेते हैं।शासन _प्रशासन में घोर अघोषित जात _पात विद्यमान हैं, तो समझिए आम जन जीवन में क्या हालत होगी? कल ही मान सुप्रीम कोर्ट का कहना हैं कि जाति आधारित कामकाज ऑफिस से मंदिर तक चल रहा हैं ऐसे में जातिय उन्मूलन कैसे हो पाएगा?
 वर्तमान में तो धर्म_ कर्म उफान पर हैं हिंदू _मुस्लिम के खेला मे अब ईसाई उद्वेलित हो रहें हैं। मणिपुर तो जल ही रहें हैं,कुकी मैताई का जातिय संघर्ष की चिंगारी बस्तर और सरगुजा तक फैलती जा रहीं हैं।
देश का प्रथम जातिविहीन सतनाम पंथ तो अपनी समानता और कबीर के निर्गुणवाद से आगे अनीश्वरवाद के कारण आरम्भ से ही बहिष्कृत हैं। कुछ पढ़े _लिखें लोग कुछेक दशकों से समझने लगें हैं पर जो ग्रह्यता आज़ादी के पूर्व थी अब लोग भूले भटके प्रेम विवाह या जातिय बहिष्कार के कारण जीवन निर्वाह हेतु ही सतनाम पंथ को अंगीकार कर रहें हैं।
   जैन ,फारसी, वणिक वृति से अर्जित अकूत संपदा को बड़ी धार्मिक स्थल बनाकर शान समझ जनकल्याण से विमुख जान पड़ते हैं और यथास्थितिवाद के ही पोषक हैं। नव बौद्ध दलित हैं और केवल पेटबिकली से उबर नहीं पाए हैं कुछेक संपन्न वर्ग सवर्ण होने की ओर अग्रसर अपने वर्गों से ही दूरी बनाकर रहने मे भला समझते हैं । सिख भोजन भंडारा और मे ही मगन हैं जबकि हरित क्रांति और 1 रुपए चावल से जनमानस भूख से उबर चुके हैं रैदास पंथी  भी परस्पर जात पात,रैगर,जाटव, चमार, महार दुसाध, आदि में बिखरे हैं। अनु जाति और पौनी पसारी से जुड़े श्रमिक जातियां नाई धोबी 
मेहतर गाड़ा घसिया केवट कोस्टा कुम्हार कलार लोहार सोनार आदि अपनी पुश्तैनी पेशा मे मग्न  यथास्थिति के ही पोषक हैं।
   आदिवासी के शिक्षित और युवा वर्ग ईसाई धर्मांतरण के इतर अपनी प्राचीन मान्यताओं के आधार पर गोंडी सरना धर्म की ओर बढ़ रहें हैं । छत्तीसगढ ही नही शैन शैन देश भर में धर्म और जात पात के नाम पर लामबंद हो रहें हैं , कट्टरपंथ बढ़ चूके।बहुसंख्यक  शूद्र (ओबीसी) ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य की युति ही हिंदू हैं जबकि हिन्दू धर्म सूचक शब्द नहीं स्थान बोधक हैं। इसलिए सनातन शब्दों का प्रचलन होने लगे हैं और यह शब्द भी बौद्ध धर्म से आयातित हैं। बहरहाल जैसे तैसे विगत एक दशक देश हिंदू राष्ट्र की ओर राजनैतिक शक्ति अर्जित कर बढ़ रहें हैं वर्तमान सत्तारूढ़ दल और उनके मातृ संस्थान धार्मिक संगठन द्वारा अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण और भव्यतम लोकार्पण हिंदू राष्ट्र के प्रतिकार्थ के जानबूझकर जाने समझें लगने लगे हैं।
अल्पसंख्यकों  के  कट्टरपंथ और उनमें तीक्ष्ण मतभेद ही उन्हें विखंडित कर शक्ति विहीन कर रहें हैं। पास पड़ोस में धर्म आधारित राष्ट्र होने से यहां भी बहुसंख्यक लोग धार्मिक देश बनाने की झांसे में आते जा रहें हैं। 
  जब देश दुनियां धर्म कर्म में लामबंद हैं चर्च मस्जिद मौलाना पादरी में उलझे हैं तब भारत भी मंदिर मूर्ति पंडे पुजारी मे ही उलझा हैं तो कोई भला क्या कर सकता हैं।
   सतनाम पंथी तो  मंगल_ पंथी भजन गायेंगे नाचेंगे ही 
कुछ लेना न देना मगन रहना... 
रहना नहीं देश बिराना हैं...
ये माटी के चोला कै दिन रहिबे बता दे मोला...


डॉ अनिल भतपहरी/ 9617777514
[10/5, 1:32 PM] Dr Anil Bhatpahari:

संपादकीय 
जातिविहीन समुदाय की सरंचना भारतीय समुदाय और संविधान

मज्झिम निकाय के अनुसार तथागत बुद्ध के समय कंबोज यवन क्षेत्र में दो ही वर्ग थे_अमीर और गरीब।यह व्यवस्था नैसर्गिक हैं और सदा रहेगा। कमोबेश मध्य देश दक्षिणापथ में आर्य_अनार्य  से पृथक सत्यवंत लोगों में भी कोई जाति वर्ग व्यव्स्था नहीं थीं और वे लोग सत्य के अनुगामी स्वेत ध्वज वाहक प्रकृति उपासक समुदाय थे।
        पर आर्य अनार्य संघर्ष में सत्यवन्त प्रजाति टीक नहीं पाई और इन दोनों संस्कृति में समाहित हों गई। पर यह बात रेखांकित करने योग्य हैं कि इसी भूमि में हजारों वर्ष के बाद जब जात_ पात, ऊंच _नीच का मकड़ जाल फ़ैला और इंसानियत खतरे में पड़ी तो समानता के लिऐ सतनाम पंथ का उद्भव हुआ।
   यह भारतवर्ष का युगांतरकारी घटना हैं कि " मनखे मनखे एक" जैसे दिव्योक्ति के साथ सतनाम पंथ धर्म होने की ओर अग्रसर हैं।
  भारत में जितने भी धर्म और पंथ हैं वें सभी कहीं न कहीं जाति वर्ग के रुप में विभाजित हैं। आधुनिक शिक्षा और लोकतंत्र गणराज्य हो जानें के बाद हर पांच वर्ष के चुनाव ने लोकतंत्र मजबूत जरुर किया पर वोट बैंक ने धर्म और जात पात को पूर्व के अपेक्षा और अधिक सुदृढ़ की हैं।
कुछेक विचारक मानते हैं कि यह जो दिख रहा हैं वह जातिय नहीं बल्कि वार्गिक चेतना हैं। 6 हजार जातियों में विभक्त विराट हिंदू धर्म के अंतर्गत संविधानिक रुप से समान्य, ओबीसी, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के रुप में चिन्हाकित कर इनके ही हितार्थ योजनाएं चलाई जा रहीं हैं। फलस्वरुप यह वर्ग के अंतर्गत आने वाली जातियां अपने अपने समुदाय में वर्चस्व हेतु पहले से अधिक सचेत और सुदृढ़ होने लगे हैं।
    कुछ माह पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की कि अनुजाति वर्ग में क्रीमी लेयर लाकर अति पिछड़े समुदाय को लाभ दिया जाय जैसे कि ओबीसी वर्ग में हैं। इस पर देश भर में तीखी बहसे हुई और यह बात सामने आई कि यह वर्ग अब भी मुख्यधारा में नहीं हैं न ही समाजिक धार्मिक प्रतिष्ठा में बढ़ोत्तरी हुई तब एक वर्ग के विभिन्न जातियों को ही परस्पर प्रतिद्वंदी बनाना हैं। यह बातें व तथ्य समझी गई और मामला विचाराधीन हुईं हैं पर ख़त्म हुई नहीं।
मान न्यायालय की टिप्पणी पर महीन दृष्टि समाजिक सरोकार से लगाई जा रहीं हैं कि इनका दूरगामी परिणाम और प्रभाव क्या होगा? क्या चार वर्ग फिर से जातियों तक चली जाएगी और देश में जातिय गणना की उठती मांग से क्या दशा निर्मित होंगी इन पर विचार और परिचर्चाये की  जा सकती हैं। यह मामला थमी ही नही कि एक ध्यानाकर्षण टिप्पणी अभी अभी सुप्रीम कोर्ट से आई कि जेल में निरुद्ध अपराधियों के जाति देखकर कार्यों की बटवारा है । यह तो अपराधियों के मामले हैं सोचो जो बाहर विभिन्न शासकीय अशासकीय निगमों मंडलों में  भृत्य ,सफ़ाई कर्मचारी के रुप में उच्च जाति के लोग पदस्थ हैं उन्हें उनके मूल कार्य न लेकर अन्य दफ्तरी कार्य लिऐ जाते हैं। मतलब जन्मना जातिय श्रेष्ठता/ निम्नता बोध का कार्य शासन प्रशासन में चल ही रहा हैं। ऐसे में समानता पर आधारित जातिविहीन सतनाम पंथ की दर्शन और बातें कितना प्रासंगिक हैं, समझें जा सकते हैं।
     बाहर हाल समाज में गुरुगद्दीपुजा महोत्सव क्वार एकम से दशमी तक 10 _7_ 5 दिवसीय आयोजन की धूम मची हुई हैं। भंडारपुरी, तेलासी, खपरी  दशहरा की तैयारी भी जोर शोर हो रहें हैं। गुरुद्वारा के सैकड़ों स्मीपस्थ ग्रामों मे गुरुगद्दी पूजा महोत्सव प्राचीन अनुष्ठान हैं जो अब  सार्वजनिक उत्सव के रुप ग्रहण कर लिए हैं। इसका विस्तार अब सुदूर स्थलों की ओर भी होने लगे यह सुखद हैं। क्योंकि एक स्थान पर  लम्बी अवधि की आयोजन से समाजिक और धार्मिक प्रभाव कायम होते हैं नए पीढ़ी में धर्म और संस्कृति के प्रति आस्था जगते हैं और प्रतिभाओ का विकास होते हैं। विवधतापूर्ण आयोजनों रंगोली चित्रकला भाषण काव्यपाठ मंगल भजन गायन प्रवचन आदि से उन्हें उचित मंच मिलते हैं।
      भंडारपुरी दशहरा मेला पर्व एवम गुरुगद्दी पूजा पर्व की हार्दिक बधाई सहित यह अंक समाज को सादर समर्पित हैं....

  डॉ अनिल भतपहारी/ 9617777514

   संपादक/ सचिव 
 सतनाम साहित्य 
प्रगतिशील सतनामी समाज छत्तीसगढ

Tuesday, October 1, 2024

पटवा

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पटवा 

    कृषको के लिए अत्यंत उपयोगी पटवा का पौधा मुख्यत:  रस्सी बनाने के काम आते हैं। पर इनके कोमल पत्ते की स्वादिष्ट सब्जी बनती हैं और फल की चटनी।
यह दो प्रकार के होते है पटवा और अमारी पटवा 
अमारी पटवा भाजी को खटाई के लिए उपयोग कर अन्य सब्जियों के साथ मिक्स कर चटपटे और स्वादिष्ट तरकरिया बनाई जाती हैं।
 दही मही, इमली की पत्ती कुरमा, आम का चूर्ण अमचूर अमारी, करौंदा आदि खटाई के लिए हमारे दैनदिनी खानपान में सम्मिलित हैं।इससे विटामिन सी सहित अनेक खनिज और पोषण तत्व प्राप्त करते हैं।
       खट्टी और चिपचिपी इसमें धनिया मिर्च लहसुन मिलाकर सील बट्टे से पीसकर चटनी बनाई जाती हैं। इनकी कोमल पत्ते की चने या राहर दाल के सब्जी या केवल सुखी सब्जी बनाई जाती हैं।
आकाशवाणी के पुराना चिकारा वादक गायक कलाकार मानदास टंडन जी स्वर में पटवा भाजी अमर हो गए _

  पटवा भाजी बासी मे गजब सुहाथे ...
 
    पटवा से अमारी पटवा ज्यादा खट्टी होती हैं और उनकी रस्सी नहीं बनती।
     पटवा को सडाकर ढेरा आट कर रस्सी डोर आदि मजबूत रस्सी बनाई जाती हैं_
    मेरी एक वर्षा गीत मे यह जिक्र हैं 
     हरियर बन दुबी ह गहीदे सरग अमरन लागे 
    परछी में बईठ बाबा हर ढेरा ल आटन लागे ..

 मोटे पटवा रस्सी डोर से बाल्टी बांधकर कुएं से पानी खींचने धान की बीड़ा को गाड़ी में भरकर डोर से बांधकर लाने के काम आते हैं।धान दलहन तिलहन फसलों की बोरा की सिलाई हेतु पतली सुतली या लकड़ी अन्य आवश्यक वस्तुएं गाड़ी में भर बांध कर लाने ले जाने के काम आते हैं।

   पटवा से रस्सी निकालने के बाद सफेद संडऊवा काड़ी बचते हैं उसका उपयोग ठंड सुबह सुबह चूल्हा जलाने चाय बनाने या भुर्री तापने के काम आते हैं।

 लक्ष्मण मस्तुरिया, भैय्यालाल हेड़ाऊ कविता वासनिक की लोकप्रिय होली गीत _

गोरी के कनिहा संडऊवा के काड़ी 
गोरी के आंखी गोटा रन के बाटी ...

  विवाह के समय तेल चढ़ाई रस्म मे संडऊवा काड़ी से चूलमाट के दिन दूल्हा दुल्हन को उनके सर पे रखकर नीचे मां की हथेली होते हैं ऊपर से कई जगह बड़ी दीदी, फुफू चाची मामी आदि उंगली लगाती हैं और ऊपर अंजरी रोटी फसाकर घी या अलसी का तेल टपकाते हैं। मां हथेली में उसे एकत्र कर दूल्हा_ दुल्हन को पिलाती हैं और कहती हैं कि चाटना मत नहीं तो आने वाले बच्चे तोतले हो जायेंगे। बड़ी बुजुर्ग महिलाएं गीत गाती हैं _

  जुनवानी ले निकले पथर फोर केकरा, रयपुर ले निकले रेल 
हमरो गोसाईं बबा के दूई झन बेटवा, पहिने सोनहा जनेव।
मेरे साथ विवाह में यह  रस्म हुआ हैं । तो इस तरह हमारे खानपान हमारे उपयोग और गीत भजनों हमारे रीति रिवाज रस्मों में पटवा और उसकी पत्ते की भाजी फल और रस्सी तथा संडउवा  का समावेश हैं।

ऐसा कोई बाड़ी या ब्यारा नही जहां बारिश में पटवा न बोते हों। यह हमारे कृषि संस्कृति के अभिन्न अंग हैं।
हालांकि अब नायलोन रस्सी आने से और ट्रैक्टर हार्वेस्टर आ जाने से यह सब विलुप्ति की कगार में हैं।
फिर भी यदा_ कदा दिख जाते हैं।

   आज सोसल मीडिया में  झारखंड की लोकप्रिय खाद्य वस्तु के रुप में आए पोस्ट देख कर मुझे  लगा कि यह केवल खाद्य ही नहीं हमारी संस्कृति और रस्मों रिवाज़ के भी अभिन्न अंग हैं इसलिए लिखना हुआ।

                    डॉ. अनिल भतपहरी/ 9617777514