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धनतेरस एंव लक्ष्मी पूजा
बनाम
धन्वतरी और लक्ष्मी
कृषि संस्कृति की महापर्व फसलों की घरों में आगमन की खुशी में मनाई जाने वाली दीपावली पर्व में धन तेरस और लक्ष्मी का क्या आशय और महत्व है पर विचार करते हैं। क्योंकि आज के दिन हर शहर कस्बा व बडे ग्रामों में लोग जमकर खरीद - फरोख्त कर रहे हैं। त्योहार की खुशी में इस तरह कर्ज लेकर या उसमें डूब कर खुशी मनाने का यह नायाब तरीके का ईजाद वाकिय में अल्हादकारी व रोचक हैं। साथ ही कैसे अर्थ का अनर्थ कर लिए गये है इन पर भी सम्यक् दृष्टिपात समीचीन हैं।
धन्वतरी स्वास्थ्य देता है और स्वास्थ्य ही धन या लक्ष्मी है जिनके द्वारा ऐश्वर्य (सुख ) का उपभोग किया जा सकता हैं वही ऐश्वर्य वान ही ईश्वर हो जाते हैं। जिनके पास सदैव सकारात्मक चीजें रहते हैं। परोपकार और सदाचार से व्यक्ति ही निर्मल यश के प्रतिभागी होते हैं और वे मृत्यु के बाद भी अपनी श्रेष्ठ विचार से अमर रहते हैं।
इस तरह देखें तो व्यक्ति के जीवन में इन दोनो का अतिशय महत्व हैं। क्योकि यह आपस में एक दूसरे से जुडे हुए हैं। जो स्वस्थ रहेगा संपदा उनके अधीन रहेगी और जो रोगी होगा उनके पास संपदा निकल जाएगी ।
वर्षा काल बीतने और शीत ऋतु के संधिकाल में जब सर्वत्र स्वास्थ्य वर्धक गुलाबी ठंड हो तब व्यक्ति इसे अर्जित करने उद्यम करते हैं। शरद पूर्णिमा में उसी अमृत की चाह में रतजगा करते कार्तिक माह की अल सुबह सैर और स्नान हमें निरोगी करता हैं। इसे कायम रखने का प्रयत्न सदैव करना चाहिए।
भारतीय संस्कृति में समुद्र मंथन एक ऐसा रुपक है जिसे अनेक विद्वत जन अनेक तरह से व्याख्यायित करते हैं।
आर्य और अनार्य के संघर्ष को देव और दानव या कहे सुर और असुर के बीच हुए संग्राम का हिस्सा तक मानते हैं। देवासुर संग्राम का अंतिम परिणति समुद्र मंथन और वहाँ से प्राप्त अमृत हैं। जिनके पान कर अमरत्व को अर्जित करना हैं।
ऐसा लगता है कि अमृत एक औषधि हैं जिससे द्वारा कष्ट और जिल्लत की जिन्दगी को सुख एंव कीर्ति से युक्त जीवन में बदला जा सकता हैं। पर यह कैसा औषधि हैं ? क्या द्रव है जो घड़ा में भरा हुआ होता हैं ? इन पर विचार आवश्यक हैं।
समुद्र मंथन में 14 तरह के रत्न निकले जिसमें विष से लेकर अमृत तक हैं। कोई कार्य के आरंभ में विष ही निकलते हैं । सतत परिश्रम और निष्ठा से ही सफलता रुपी अमृत मिलता हैं।
दरअसल विष एक तरह शंका - कुशंका ,मत- मातान्तर ,संघर्ष, नफरत, द्वेष ,भाई -भतीजावाद जात पात ,खेमेबाजी ,और परस्पर संघर्ष हैं। इन सबसे निजात पाकर व्यक्ति सतत संघर्ष करते ज्ञान और चेतना से ऐसी सफलताएँ अर्जित करता है कि वे साधन- सक्षम हो जाते है। फिर वे परोपकार और सबके लिए मंगलभाव रखते हैं। तब वह विमल यश को प्राप्त करते हैं।
कलांतर में लोग उनके सद्कार्यो को सदैव स्मृत करते हैं। यही उनका अमृत पान कर अमर हो जाना हैं।
नश्वर देह की जगह उनकी विचार अमर हो जाते हैं।
आजकल धन्वतरी विचित्र ढंग से धन का देवता हो गये और कर्ज करके इस दिन सोने चांदी के जेवर बर्तन और भौतिक सुख - सुविधाओं की वस्तुएँ यथा कार ,बाईक, टी वी ,एसी, कुलर आदि उत्पाद कर्ज या चञद बचत से लेकर तनावग्रस्त होकर बीमार व कलह में पड़े रहते है । वणिक गणों और उत्पादक वर्ग ऐसे लोक लुभावन विज्ञापन व स्कीम लाते हैं कि अमीर -गरीब सभी अपने हैसियत से बढकर खरीददारी करते हैं। धनतेरस को लक्ष्मी खरीदने का बाजार बना लिए हैं। इससे सबसे अधिक मध्यमवर्गीय कृषक समुदाय सर्वाधिक प्रभावित होते हैं।
कृषकों के फसल खेतों में है उनके पास कुछ नहीं हैं। फिर भी वे दुनी या डेढ़ी ब्याज से महज महिना दिन के लिए आकंठ कर्ज में डूब जाते हैं। उसे उतारने पूरे वर्ष भर अनुक्रम चलता हैं। सच कहे तो दीवाली में दीवाला निकल जाते हैं। एक किसान कर्ज में जन्मता है और कर्ज मे डूब कर जाता हैं। कृषि संस्कृति का यह महापर्व दीवाली कृषकों का ही बलि लेने का पर्व के रुप में बदल सा गये हैं।
इस तरह पुष्प नक्षत्र एंव धनतेरस आम जनता को महाजनों के ऋणी (गुलाम ) बनाने का महापर्व हैं।
बहरहाल खुशियाँ खरीद फरोख्त में नहीं बल्कि तनाव रहित अपने आय के दायरे में संतुष्ट भाव से जीने में हैं। और जब नगद हो तब आवश्यक वस्तुएँ की खरीददारी हो इनके लिए कोई तिथि पर्व का निर्धारण बिल्कुल अनुचित व षडयंत्र जनित हैं। इन सबका ध्यान रखते हुए स्वास्थ्य व संपदा पाने की मंगलकामनाएं व दीपावली पर्व की हार्दिक बधाई ।
https://youtu.be/m-6VTP2TABo
-डाॅ. अनिल भतपहरी/9617777514
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