संपादकीय...
विगत अनेक वर्षों से हमारे होनहार युवाओं के लिए शासकीय अवसर के दरवाजे बंद सा हो गये थे। क्योकि आरक्षण का निर्धारण राजकीय और राष्ट्रीय सत्ता की खीचतान से उलझ सा गया था।
भीषण कोरोना काल से असमान्य जीवन से उबरे तनाव ग्रस्त घर परिवार व समाज इन्ही के आशाओं का केन्द्र उनके होनहार संतति आन लाइन परीक्षा से उत्तीर्ण नव स्नातक / स्नातकोत्तर व डिप्लोमा धारी नव युवक गण दलीय सत्ता प्रतिद्वंद्विता की विकट स्थिति से निरुत्साहित होकर आक्रोशित हो चले थे ।उनमें नव उत्साह व कुछ कर पाने की ललक को कायम कर पाना परिजनों के लिए प्राय: चुनौती बन गया था ।
तभी न्यायालीन फैसले ने राज्य के नवयुवकों में नव उत्साह का संचार किया । शासन- प्रशासन विभिन्न विभागों की रिक्तियों के विरुद्ध अनेक पदों की विज्ञापन जारी किया फलस्वरुप मई की चिलचिलाती धूप में उत्साहित वही नवयुवक गण च्वाइस सेंटरों ,कम्युटर केन्द्रों, रोजगार आफिसो, आवेदन देने जमा करने में लगे है । अनेक पुस्तक दुकानें ट्युसन केन्द्र में आने जाने लगे हैं। जहां विरानी थे वह जगह अब आबाद हो गये हैं। नवयुवकों का उत्साह दर्शनीय हैं। ऐसा लगता है कि खुशियों सौगात ले आए ...इन लोगों का लक्ष्य दिखाई पड़ने लगा । इसके पूर्व किमकर्तव्यविमूढ़म टाइप देश दुनिया से बेखबर हताश -निराश थे।
बहरहाल होनहार और योग्य नव युवकों को उनका अपेक्षित लक्ष्य मिले इसके लिए वे विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में जी जान से जुट जाए क्योकि असवर सदैव एक अनार सौ बीमार टाईप का रहता हैं। इसलिए प्रतिस्पर्धा के लायक बनना ही होगा । चाहे नौकरी- चाकरी हो या उद्यम ब्यापार या फिर खेती किसानी ही सही इन सभी जगहों पर प्रतिस्पर्धा है । हमारे युवा वर्गो को चाहिए कि अंत्याव्यवसायी योजना के तरह स्वरोजगार , लघु उद्योग के लिए गंभीरतापूर्वक प्रयास करे। क्योकि सबके लिए शा नौकरिया संभव नहीं। हर कार्य उत्कृष्ट रहता है मनोयोग से करने पर प्रत्येक छोटे बडे कार्य कर सफलताओं के शिखर तक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा द्वारा पहुंचा जा सकता हैं।
इस तरह से देखे तो मानव जीवन संघर्षमय प्रतिस्पर्धा ही हैं। सुख शांति व सुकून पाने के लिए भी संघर्ष यानि सद्कर्म आवश्यक हैं। बिना इनके कोई रास्ता नही न ही कोई आसमानी दुवाएं या ईश्वरीय कृपा विद्यमान है इस महामारी ने साबित भी किया हैं।
अन्यथा अबतक यह मान्यताएं रही है - अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम ... इस प्रवृत्ति का दिन लद चुका है । अब तो कर्मो से ही गुजारा चल पाएगा । इसलिए भाग्यवादी के जगह कर्मवादी बने । यह सद्गुरु घासीदास बाबा के अमृत वाणी भी है- "तय अपन बर बारा महिना के खर्चा जोर ले तब भक्ति कर न इते झन कर।"
इस तरह की विरासत और संस्कृति के संवाहक सतनाम पंथ और उनके अनुयाई जीवन में लक्ष्य प्राप्ति हेतु प्रतिबद्ध ढंग से सतत परिश्रम में लगना चाहिए चाहे पुश्तैनी खेती हो या पढाई लिखाई या उद्यम व व्यापार रुचि अनुसार इन सब कार्यो में नवयुवकों को प्रवृत्त होना चाहिए ।आर्थिक विकास अनेक विकासों के सहचरी है इसलिए आत्म निर्भरता बेहद आवश्यक हैं।
बहरहाल ज्ञानार्जन और मनोरंजन हेतु अनेक ग्रामों में 1-2-3-5-7 दिवसीय सतनाम सत -संगत भजन कीर्तन का प्रचलन तेजी से चल रहा है जो स्वागतेय पहल है । इससे समाज सुसंगठित व सुसंस्कारित होते है और न ई पुरानी पीढ़ी परस्पर सार्वजनिक जीवन व्यवहार के कदाचार सीखते -सीखाते हैं।
गुरुघासीदास बाबा जी ने इसलिए रामत रावटी जैसे सांस्कृतिक अनुष्ठानों का प्रवर्तन किया । हमारे पास एक उच्च स्तरीय आध्यात्मिक विरासत और श्रेष्ठतम आयोजन है उनका क्रिन्वायन आयोजन समितियां गठित कर अपने आय से कुछ बचत कर परस्पर बरार से सहयोग से सार्वजनिक व धार्मिक आयोजन करे और समाज में सांस्कृति सुरभि का प्रसारण करें।
ऐसी उम्मीद के साथ हमारे नवयुवकों की उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हुए कृषक समाज को आने वाला "बीज बौनी बर बतर बेरा " के बधाई ।
जय सतनाम ....
डा. अनिल कुमार भतपहरी
प्रबंध संपादक
सतनाम संदेश
प्रगतिशील छत्तीसगढ़ सतनामी समाज