Saturday, February 18, 2023

प्रथम पंडवानी गायिका - सुखबती मुनगी वाली

#anilbhatpahari 

   
पंडवानी प्रसंग - २

 ।।प्रथम पंडवानी गायिका सुखबती मुनगी वाली ।।

      सामाजिक व पारिवारिक प्रतिरोध के बाद भी पुरुष  वेशभूषा में पंडवानी गाने वाली सुखबती मुनगी वाली को पंडवानी गायन में महिलाओं का प्रथम गुरु होने का सौभाग्य प्राप्त हैं। पर उनकी कोई उल्लेख या जिक्र नहीं यह विडंबना हैं। या कहे कि  पंडवानी के अध्येताओं की अल्पज्ञता हैं। इन पर नये ढंग से विश्लेषण की आवश्यकता हैं। 

     छत्तीसगढ़ में पंडवानी गायन की विशिष्ट परंपरा हैं। महाभारत और श्रीमद्भगवद्गीता ‌के आधार पर पंडवानी गायन की दो विधाएँ प्रचलित हैं-
   प्रथम :  वेदमती  जो कि शास्त्रानुरुप हैं। सबल सिंह चौहान कृत महाभारत ग्रंथ इनका आधार हैं। प्रायः कलावंत बैठकर दोहा चौपाई और विभिन्न छंद बंद शास्त्र सम्मत कथा गायन करते हैं। इनमें नारायण वर्मा ,  लक्ष्मीबाई बंजारे ,झाड़ू राम देवांगन पुनाराम निषाद  चेतन निषाद इत्यादि ख्यातिनाम 
    द्वितीय : कापालिक जो जनश्रुतियों पर आधारित ‌हैं। इसमें नाटकीयता और प्रसंगानुकूल प्रस्तुति होते हैं। यह अत्यंत रोचक और मनोरंजक होते हैं। इनमें प्रायः महिलाओं की सर्वाधिक प्रस्तुतियां देखने मिलती हैं। प्रमुखतः सुखबती मुनगी वाली ,  लक्ष्मीबाई ,तीजनबाई , शांतिबाई , समेशास्त्री देवी , ऊषा बारले , अमृता बारले ऋतु वर्मा इत्यादि ख्याति प्राप्त कलाकार हैं। 
     उक्त कलाकारों की प्रस्तुतीकरण में कभी कभी दोनो शैलियों का दिग्दर्शन होते हैं। इसलिए उक्त विभाजन को अनेक समीक्षक या गुणीजन कृत्रिम मानते हैं। 
    बहरहाल प्रसंग है प्रथम पंडवानी गायक और गायिका होने का श्रेय किसे प्राप्त हैं। प्राय: रावन झीपन वाले नारायण  जी को प्रथम पंडवानी भजन गायक माने जाते हैं। उसी तरह महिलाओं में सुखबती मुनगी वाली हैं।
      सुखबती को पंडवानी गायन से मना करते उनके पति ने उनका परित्याग कर दिए पर गायन में दक्ष और उनकी पंडवानी के प्रति समपर्ण ने उसे पुरुष रुप में रहने और उसी स्वरुप में प्रस्तुति देने लगी।
  अपने सभी पुरुष संगीतकारों के साथ वे परुष वेशभूषा में यात्राएँ करती और प्रस्तुतियां दिया करती थी।
   ऐसे महान कलावंतों का हमे पुण्य संस्मरण करना चाहिए। ताकि उन आरंभिक प्रस्तोताओं के प्रदेय से पंडवानी में साधक अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पद्म विभूषण तक अर्जित कर प्रदेश को गौरवान्वित किए गये हैं।
      सुखबती  व नारायण जैसे पंडवानी की नींव की पत्थरों के भरोषे पर ही देश - विदेश में  पंडवानी की   चतुर्दिक ख्याति  फैली हुई हैं।

पंडवानी पर ही विगत वर्ष हमारा आलेख था ।
सुधि / जिज्ञासु पाठकों के लिए उन्हें  यहाँ पेष्ट कर रहा  हूँ ताकि सभी जानकारी  एक जगह उपलब्ध हो सकें। 

     पंडवानी - प्रसंग १ 

https://www.facebook.com/groups/1948616105381097/permalink/2989212977988066

सतनाम संस्कृति में रहस  भागवत व पंडवानी 

        संदर्भ - प्रथम पंडवानी गायिका सतलोकी लक्ष्मी ‌ बाई बंजारे एंव साथी ।

  पंडवानी सत्य की जय गाथा हैं । पांच पांडव पंच कर्म इंद्रियाँ हैं। पंच ज्ञान इंद्रिय पांञ्चाजन्य हैं। जिसे मन को मोहित करने वाले सर्वगुण सम्पन्न साधक और नायक  मोहन अनुगूंजित कर जय घोष करते हैं।सौ कौरव सहित नव अक्षौणियों का कल्मष से धर्मयुद्ध करते विजय श्री होकर "जैतखाम"  गड़ाकर सत्य ध्वज "पालो "फहराते हैं। 
        सतनाम संस्कृति में रहस भागवत पंडवानी गायन आरंभ ‌से रहा हैं और इसे ये लोग नारनौल दिल्ली मथुरा से अपने साथ लाए हैं। छग के सतनामियों  में रहस भागवत और पंडवानी एक धार्मिक अनुष्ठान हैं। इसे मांगलिक कार्य एंव मनोवांछित फल प्राप्त करने  बदना के रुप में आयोजन करते आ रहे हैं। प्राचीन समय में पं सुखीदास , तुलम तुलाई ,  पं साखाराम बघेल , भिक्षु रामेश्वरम ( जो डा अम्बेडकर /मंत्री नकूल ढी ढी के प्रभाव से बौद्धिष्ट हो गये )  पं रामचरण भतपहरी , लक्ष्मी बाई ‌, तोरन बाई जुगा बाई , राम्हीनबाई इत्यादि ।
     वर्तमान में सतनाम  पंडवानी की साधकों में कन्हैया लाल , समेशास्त्री देवी, ऊषा बारले, शांति बाई चेलक सक्रिय व लोकप्रिय हैं।
    रहस पंडित में पं जगमोहन टंडन ,पं सिताबी , शास्त्री जी कोनारी वाले , पं लक्ष्मी प्रसाद , पं कदम जी    मा‌नदास टंडन , पं विश्राम प्रसाद , सहित अनेक कलावंत साधक हैं। सुश्री भारती जी अभी बेहद चर्चित भागवत कथा वाचिका  हैं। 
    रहस , भागवत ,पंडवानी में कृष्ण एंव कौरव पांडव -गाथा के साथ -साथ सतनाम मंगल भजन व गुरुघासीदास चरित गायन का विशिष्ट परंपरा हैं। इसमें कलावंत सादगी पूर्ण श्वेत वस्त्राभूषण एंव कंठी चंदन  तिलक से युक्त संत मंडली होते हैं जो बेहद प्रभावशाली प्रस्तुतियां देते ह हैं। इनके वाद्य भी विशिष्ट प्रकार के होते हैं। तंबुरा चिकारा हुड़का खंजेरी करताल  घंट घुम्मर   मृदंग शंख तुरही ।वर्तमान में हारमोनियम तबला बैंजो पेड सेंथेसाईजर जैसे आधुनिक वाद्य से प्रस्तुतियां होने लगी हैं।
    ऐसा लगता हैं कि अट्ठारहवीं सदी में गुरुघासीदास के अभ्युदय और उनके युगान्तरकारी पंथ प्रवर्तन के प्रभाव के चलते सतनामियों की रहस व पंडवानी परंपरा में गुरुगाथा व सतलोकी भजनों का समाहार हुआ। इस तरह  हम देखते है कि छत्तीसगढ़ी संस्कृति में एक नई समन्वयकारी लोक कला का विकास हुआ जो कि बहुत ही महत्वपूर्ण है। 
     अध्येताओं को इस विशिष्ट लोक कला मंच और उनसे  साधकों की प्रवृत्तियों और जनमानस में पड़ते प्रभाव का अनुशीलन करना चाहिए ।

                   धन्यवाद 
    -डाॅ. अनिल भतपहरी / 9617777514

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