Sunday, February 26, 2023

देवता और उनकी प्रतिमाएँ

जो ऐतिहासिक महापुरुष हुये , जिन्हे देखा समझा गया उनकी  संस्मरण और जनश्रुति के आधार  हुबहू  प्रतिमा बनी ।  प्रतिमा का अर्थ  प्रति = उसी का ,उसका । मा = स्वरुप या  आकृति । उसका स्वरुप यानि जेराक्स कापी समझिए । उनके प्रति आदर व सम्मान प्रगट  किए गये ।
जो हुआ उनके स्वरुप का प्रतिमा बनी जैसे जो रहेगा उसका फोटो खिचाएगा उनकी मूर्ति आदि बनेगी ।
   पर जो नहीं है मिथक और कहानियों में वर्णित हैं। उसका कैसे स्वरुप कैसी प्रतिमा और फिर उनकी कैसी पूजा अर्चन और उनसे भाग्योदय या मनवांछित फल की प्राप्ति कैसी ?
         इस लिए संतो गुरुओ ने पौराणिक और मिथकीय  देव देवियों की मूर्तियों की पूजा करने तीव्र विरोध किया ।और निराकार उपासना योग साधना सात्विक जीवन शैली और परस्पर प्रेम व सौहार्दपूर्ण पूर्ण रहनी बसनी को‌ महत्वपूर्ण माना ।
    कलान्तर उनके अनुयाई श्रद्धा वश उनकी रुप रंग कद काठी स्वरुप के आधार पर अपने संतो गुरुओ पथ प्रदर्शकों की प्रतिमाएँ , चित्र आदि बनाने लगे ।

  अब वायु ,अग्नि ,पृथ्वी  ,आकाश,  जल देव -देवी   या ऊषा , पशु मित्र, वन , नदी , पर्वत की मुनष्य जैसा आकृति वाले  प्रतिमाएँ कैसी बनेगी? और बना भी लिए तो उनकी हास्यास्पद पूजा पाठ कैसे होगा ? पर होने लगा श्रद्धा भक्ति से बिना विवेक ज्ञान आदि के ।
   फिर दौर आया राजा महराजाओ और औपनिवेशिक युद्ऒ का जो जीता ओ सिंकदर देव बने जो हारे वे गुलाम दास  राक्षस शूद्र और अछूत हुए ।
  इन्ही राजा राजकुमारो जो ऐश्वर्य मान  देवता या ईश्वर हुए उन की मूर्तियाँ बनी कथा कहानिया और आरती भजन बने । गुलाम दास राक्षस शूद्रो अछूतो को निरंतर अपमानित और तिरस्कृत  होना  पड़ा । अब यही लोग  आधे अधुरे पढ लिखकर फिर उन्ही मिथकीय कपोल कल्पित  कथा पुराणो के परायण और अञध भक्ति मे डूब गये और उन्हे पूर्व जन्म का फल और कलियुग में नाम हरि  सुमरन या ईश्वर भक्ति कल्याणकारक है कहके भक्ति भाव पूजा पाठ व्रत तीर्थ में झोक दिए गये। उन्ही का अंधानुकरण सर्वत्र जारी है। ‌
   क्योकि धर्म आस्था का मामला है। तर्क और शंकाए नहीं  ञक्ति और अंध विश्वास ही चाहिए जो धर्म के फसलों के लिए खाद पानी होते हैं। जिससे वह लहलहाते है।

Saturday, February 18, 2023

प्रथम पंडवानी गायिका - सुखबती मुनगी वाली

#anilbhatpahari 

   
पंडवानी प्रसंग - २

 ।।प्रथम पंडवानी गायिका सुखबती मुनगी वाली ।।

      सामाजिक व पारिवारिक प्रतिरोध के बाद भी पुरुष  वेशभूषा में पंडवानी गाने वाली सुखबती मुनगी वाली को पंडवानी गायन में महिलाओं का प्रथम गुरु होने का सौभाग्य प्राप्त हैं। पर उनकी कोई उल्लेख या जिक्र नहीं यह विडंबना हैं। या कहे कि  पंडवानी के अध्येताओं की अल्पज्ञता हैं। इन पर नये ढंग से विश्लेषण की आवश्यकता हैं। 

     छत्तीसगढ़ में पंडवानी गायन की विशिष्ट परंपरा हैं। महाभारत और श्रीमद्भगवद्गीता ‌के आधार पर पंडवानी गायन की दो विधाएँ प्रचलित हैं-
   प्रथम :  वेदमती  जो कि शास्त्रानुरुप हैं। सबल सिंह चौहान कृत महाभारत ग्रंथ इनका आधार हैं। प्रायः कलावंत बैठकर दोहा चौपाई और विभिन्न छंद बंद शास्त्र सम्मत कथा गायन करते हैं। इनमें नारायण वर्मा ,  लक्ष्मीबाई बंजारे ,झाड़ू राम देवांगन पुनाराम निषाद  चेतन निषाद इत्यादि ख्यातिनाम 
    द्वितीय : कापालिक जो जनश्रुतियों पर आधारित ‌हैं। इसमें नाटकीयता और प्रसंगानुकूल प्रस्तुति होते हैं। यह अत्यंत रोचक और मनोरंजक होते हैं। इनमें प्रायः महिलाओं की सर्वाधिक प्रस्तुतियां देखने मिलती हैं। प्रमुखतः सुखबती मुनगी वाली ,  लक्ष्मीबाई ,तीजनबाई , शांतिबाई , समेशास्त्री देवी , ऊषा बारले , अमृता बारले ऋतु वर्मा इत्यादि ख्याति प्राप्त कलाकार हैं। 
     उक्त कलाकारों की प्रस्तुतीकरण में कभी कभी दोनो शैलियों का दिग्दर्शन होते हैं। इसलिए उक्त विभाजन को अनेक समीक्षक या गुणीजन कृत्रिम मानते हैं। 
    बहरहाल प्रसंग है प्रथम पंडवानी गायक और गायिका होने का श्रेय किसे प्राप्त हैं। प्राय: रावन झीपन वाले नारायण  जी को प्रथम पंडवानी भजन गायक माने जाते हैं। उसी तरह महिलाओं में सुखबती मुनगी वाली हैं।
      सुखबती को पंडवानी गायन से मना करते उनके पति ने उनका परित्याग कर दिए पर गायन में दक्ष और उनकी पंडवानी के प्रति समपर्ण ने उसे पुरुष रुप में रहने और उसी स्वरुप में प्रस्तुति देने लगी।
  अपने सभी पुरुष संगीतकारों के साथ वे परुष वेशभूषा में यात्राएँ करती और प्रस्तुतियां दिया करती थी।
   ऐसे महान कलावंतों का हमे पुण्य संस्मरण करना चाहिए। ताकि उन आरंभिक प्रस्तोताओं के प्रदेय से पंडवानी में साधक अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पद्म विभूषण तक अर्जित कर प्रदेश को गौरवान्वित किए गये हैं।
      सुखबती  व नारायण जैसे पंडवानी की नींव की पत्थरों के भरोषे पर ही देश - विदेश में  पंडवानी की   चतुर्दिक ख्याति  फैली हुई हैं।

पंडवानी पर ही विगत वर्ष हमारा आलेख था ।
सुधि / जिज्ञासु पाठकों के लिए उन्हें  यहाँ पेष्ट कर रहा  हूँ ताकि सभी जानकारी  एक जगह उपलब्ध हो सकें। 

     पंडवानी - प्रसंग १ 

https://www.facebook.com/groups/1948616105381097/permalink/2989212977988066

सतनाम संस्कृति में रहस  भागवत व पंडवानी 

        संदर्भ - प्रथम पंडवानी गायिका सतलोकी लक्ष्मी ‌ बाई बंजारे एंव साथी ।

  पंडवानी सत्य की जय गाथा हैं । पांच पांडव पंच कर्म इंद्रियाँ हैं। पंच ज्ञान इंद्रिय पांञ्चाजन्य हैं। जिसे मन को मोहित करने वाले सर्वगुण सम्पन्न साधक और नायक  मोहन अनुगूंजित कर जय घोष करते हैं।सौ कौरव सहित नव अक्षौणियों का कल्मष से धर्मयुद्ध करते विजय श्री होकर "जैतखाम"  गड़ाकर सत्य ध्वज "पालो "फहराते हैं। 
        सतनाम संस्कृति में रहस भागवत पंडवानी गायन आरंभ ‌से रहा हैं और इसे ये लोग नारनौल दिल्ली मथुरा से अपने साथ लाए हैं। छग के सतनामियों  में रहस भागवत और पंडवानी एक धार्मिक अनुष्ठान हैं। इसे मांगलिक कार्य एंव मनोवांछित फल प्राप्त करने  बदना के रुप में आयोजन करते आ रहे हैं। प्राचीन समय में पं सुखीदास , तुलम तुलाई ,  पं साखाराम बघेल , भिक्षु रामेश्वरम ( जो डा अम्बेडकर /मंत्री नकूल ढी ढी के प्रभाव से बौद्धिष्ट हो गये )  पं रामचरण भतपहरी , लक्ष्मी बाई ‌, तोरन बाई जुगा बाई , राम्हीनबाई इत्यादि ।
     वर्तमान में सतनाम  पंडवानी की साधकों में कन्हैया लाल , समेशास्त्री देवी, ऊषा बारले, शांति बाई चेलक सक्रिय व लोकप्रिय हैं।
    रहस पंडित में पं जगमोहन टंडन ,पं सिताबी , शास्त्री जी कोनारी वाले , पं लक्ष्मी प्रसाद , पं कदम जी    मा‌नदास टंडन , पं विश्राम प्रसाद , सहित अनेक कलावंत साधक हैं। सुश्री भारती जी अभी बेहद चर्चित भागवत कथा वाचिका  हैं। 
    रहस , भागवत ,पंडवानी में कृष्ण एंव कौरव पांडव -गाथा के साथ -साथ सतनाम मंगल भजन व गुरुघासीदास चरित गायन का विशिष्ट परंपरा हैं। इसमें कलावंत सादगी पूर्ण श्वेत वस्त्राभूषण एंव कंठी चंदन  तिलक से युक्त संत मंडली होते हैं जो बेहद प्रभावशाली प्रस्तुतियां देते ह हैं। इनके वाद्य भी विशिष्ट प्रकार के होते हैं। तंबुरा चिकारा हुड़का खंजेरी करताल  घंट घुम्मर   मृदंग शंख तुरही ।वर्तमान में हारमोनियम तबला बैंजो पेड सेंथेसाईजर जैसे आधुनिक वाद्य से प्रस्तुतियां होने लगी हैं।
    ऐसा लगता हैं कि अट्ठारहवीं सदी में गुरुघासीदास के अभ्युदय और उनके युगान्तरकारी पंथ प्रवर्तन के प्रभाव के चलते सतनामियों की रहस व पंडवानी परंपरा में गुरुगाथा व सतलोकी भजनों का समाहार हुआ। इस तरह  हम देखते है कि छत्तीसगढ़ी संस्कृति में एक नई समन्वयकारी लोक कला का विकास हुआ जो कि बहुत ही महत्वपूर्ण है। 
     अध्येताओं को इस विशिष्ट लोक कला मंच और उनसे  साधकों की प्रवृत्तियों और जनमानस में पड़ते प्रभाव का अनुशीलन करना चाहिए ।

                   धन्यवाद 
    -डाॅ. अनिल भतपहरी / 9617777514

Wednesday, February 15, 2023

समानता की सुसंस्कृति

#anilbhatpahari 

।।समानता की सुसंस्कृति ।।

सत्य और प्रेम सनातन हैं 
वैसे फरेब और नफ़रत भी 
तो सनातन ही  हैं 
उनकी सहचरी की तरह 
ठीक उजाला -अंधेरा 
या कहे,
दिन और रात की तरह 
सुख और दु:ख 
धूप और छांह की तरह 
तब उनकी दुहाई क्यों 
वहाँ जाने की ढिठाई क्यो 
क्योंकि यह तो
सदा से सर्वत्र  हैं 
हां सत्य , प्रेम 
उजाला, छांह 
और सुख ही 
क्षरित होते रहे हैं
तुम्हारे प्रबंधन से 
चिंतन मनन सृजन से 
तो मिथ्या और धृणा 
अंधेरा और फरेब 
दु:ख और नफ़रत 
ही फैले हुए है 
तुम्हारे धर्म संस्कृति में
राष्ट्र की नीति में...
 चाहते हो अगर अमन  
तो सुधारों धर्म संस्कृति 
और राष्ट्र की नीति 
कलुष हो चुके राजनीति 
व्याप्त हो रहे विकृति को 
मिटाओ विभेदकारी कृति को 
स्थापित करो 
समानता की सुसंस्कृति को
क्योंकि समानता ही संवाहक हैं
सनातन की 
आरंभ से ही विद्यमान 
करती आई गुणगान 
शाश्वत पुरातन की 

      - डॉ. अनिल भतपहरी / 9617777514

समानता की सुसंस्कृति

#anilbhatpahari 

।।समानता की सुसंस्कृति ।।

सत्य और प्रेम सनातन हैं 
वैसे फरेब और नफ़रत भी 
तो सनातन ही  हैं 
उनकी सहचरी की तरह 
ठीक उजाला -अंधेरा 
या कहे,
दिन और रात की तरह 
सुख और दु:ख 
धूप और छांह की तरह 
तब उनकी दुहाई क्यों 
वहाँ जाने की ढिठाई क्यो 
क्योंकि यह तो
सदा से सर्वत्र  हैं 
हां सत्य , प्रेम 
उजाला, छांह 
और सुख ही 
क्षरित होते रहे हैं
तुम्हारे प्रबंधन से 
चिंतन मनन सृजन से 
तो मिथ्या और धृणा 
अंधेरा और फरेब 
दु:ख और नफ़रत 
ही फैले हुए है 
तुम्हारे धर्म संस्कृति में
राष्ट्र की नीति में...
 चाहते हो अगर अमन  
तो सुधारों धर्म संस्कृति 
और राष्ट्र की नीति 
कलुष हो चुके राजनीति 
व्याप्त हो रहे विकृति को 
मिटाओ विभेदकारी कृति को 
स्थापित करो 
समानता की सुसंस्कृति को
क्योंकि समानता ही सनातन हैं 
आरंभ  अनादि और पुरातन हैं

      - डॉ. अनिल भतपहरी / 9617777514

रचना - 15-2-2023 दिन बुघवार रात्रि 11 बजे ।

प्रेम

।।प्रेम ।‌।

हो प्रेम जहाँ ‌
धर्म,जाति 
भाषा, कला
संस्कृति की 
क्या काम वहाँ
प्रेम नहीं जहाँ
धर्म ,जाति 
भाषा ,कला 
संस्कृति कहाँ 
यहाँ तक 
समाज, साहित्य 
इतिहास ,भूगोल 
राजनीति नहीं 
विधी ,वाणिज्य 
गणित ,बाटनी 
रसायन भौतिकी भी नहीं 
जीव- जन्तु में प्रेम नहीं तो 
कोई विषय नहीं 
स्कूल- कालेज 
शिक्षक- छात्र 
पात्र -अपात्र 
मातु -पिता 
भाई बंधु परिवार 
गाँव घर बार 
देश - परदेश 
हाट- बाजार 
ये सारे कारोबार 
द्वेष- द्वंद्व 
फरेब - नफरत 
मानव मन का 
फितरत 
कुछ भी नहीं 
प्रेम बिन 
कटे कैसे 
पल छिन 
जो भी जितना भी 
भरा है सद्भाव 
अपना कह सकने की भाव 
वह सब आया हैं प्रेम से 
तुम उगाओ फसल 
अलगाव की 
घृणा नफरत भेदभाव की 
सत्ता के लिए वोट की 
ज़ख्म गहरी चोट की 
परवाह नहीं 
भले एक-दूसरे की 
कोई चाह नहीं 
पर प्रेम प्रवाहित हैं 
सरिता की तरह
उजास है तमस में
उगते सविता की तरह 
हर होठ में थिरकते 
गीत -कविता की तरह 
लोग सुनते- समझते हैं
मस्त गाते और थिरकते हैं
लिया हैं जन्म तो
मौज से जीते हुए मरते हैं 
सच कहे तो  प्रेम  
जन्म- मरन में  हैं 
हंसी-खुशी ,रुदन में हैं 
हर रंग में रंगा हुआ 
इस जीवन में हैं 

- डॉ. अनिल भतपहरी   
    15-2-23 रात्रि 1-37  (रायपुर - बिलासपुर के मध्य  सफर के दरम्यान )