शनिचरी चिंतन
ये क्या हो रहा है ?
मिथक का इतिहास या इतिहास का मिथकीय करण !!!
और हा अब तक की सभ्यताओं मे मानव तो मानव बने ही नही ।जाति प्रजाति धर्म वाले जरुर बनते रहे ...
सचमूच आज गुरुघासीदास बाबा स्मृत होने लगे जब वे जगन्नाथपुरी के सागर तट पर सहजता पूर्वक उद्धोष करते दो टूक कहे थे - " मनखे करिया होय कि गोरिया, ये पार के( सागर पार ) होय या ओ पार के मनखे मनखे एकेच आय।"
पर कोई उनकी यह बात समझे तब ?
विभेद ही सारे संधर्ष द्वंद और युद्ध का मूल है और अब तक यही होते आ रहे है।येन केन प्रकरेण विजेता श्रेष्ठ ,आर्य व देव और हारे हुए लोग अश्रेष्ठ ,अनार्य व दानव धोषित होकर हेय ,दास ,दस्यु, राक्षस कहलाएं।
और हजारों वर्ष हुए संधर्ष जो मिथकीय भी हो सकते हो को धार्मिक आधार देकर आज तक इन वर्गों के ऊपर संधातिक हमले और अनेक तरह के जुल्मों सितम होते आ रहे हैं। ऐसा लगता है कि किसी से लड़ने और जीत कर अपने अहं भाव को तुष्ट करना ही मानवीय प्रवृत्तियाँ बन चूके हैं। उन्हें अनेक तरह के जाति -उपजाति गोत्र आदि में विभाजित कर भेदभाव छूत -अछूत धोषित कर धार्मिक मुलम्मा चढा दिए गये जो आज भी कथित धार्मिकों के सर चढ़कर बोलते हैं। दुर्भाग्यवश ऐसा करने वाले ही धर्मनिष्ठ व संस्कारी समझे जाते हैं। फलस्वरुप आम जन जीवन में होड़ लगी हुई हैं कि कैसे कितने लोगों से अमानवीय जुल्म करे भेदभाव करे तो हमारी भी सनातन या हिन्दू संस्कृति में अच्छी रेटिंग होगी ।हमें धर्मनिष्ठ माने जाएन्गे इस मुगालते में शुद्रों में भी यहाँ तक एक ही जाति संवर्गों में भी खान पान रहन सहन में भेदभाव परिव्याप्त है। प्रभावी कानुन के बावजूद देश भर में यह कुप्रथा विद्यमान हैं। आए दिन लोमहर्षक और दिल दहलाने वाली घटनाएँ घटती हैं।
यदि वर्गीकरण आवश्यक है तो गुण व स्वभाव के अनुरुप श्रेणी बद्ध होते तो देश व समाज की स्थित आज अलग होता। परन्तु वह परिक्षेत्र प्रजाति रंग व बनावट के आधार पर भेदभाव जन्य हुआ। यही मानवता के लिए अभिशाप हुआ। फलस्वरुप भारत की छवि शेष विश्व में अच्छी नहीं हैं। और न यहाँ की समाजिक व्यवस्था प्रशंसनीय हैं। भले हम मुगालते में रहे कि हमारी सभ्यता आजतक कायम हैं। पर पशुवत बने हुए होना कीर्तिमान नहीं हैं।
इकबाल का शेर का सही भावार्थ -"कुछ बात की हस्ती मिटती नहीं हमारी " यह साफ समझ आते हैं कि यह परस्पर सौहार्द नहीं बल्कि जातिवाद ही हैं। जो कभी जाती नहीं ।शायद इसलिए वजूद कायम हैं, इसलिए भी शायद चंद सुविधा भोगी तत्व इन्हे कायम रखने संस्कृति संरक्षण करते आ रहे हैं।
जबकि आरंभ से जन्मना ऊच नीच भाग्य भगवान के अपेक्षा सद्व्यहार कर्म आदि की बातें भी छिटपुट हुआ भी परन्तु वह अनसुनी व अग्राह्य रहा। यह प्रवृत्तियाँ यथावत चला आ रहा हैं। इसका कारक केवल असमानताए ही नहीं अपितु आय का असमान वितरण और राजतंत्र व धार्मिक प्रतिष्ठानों में कैद संपदा के कारण ऊपजी मनोवृत्तियां हैं।
यदि इन संपदाओं को राजसात कर देश की आधारभूत समस्याओं के निदान हेतु कार्यारंभ करे तो भारतीय संविधान की मूल अवधारणाएं सहज ही साकार होगा। देशवासी सुखी व समृद्ध होंगे साथ ही वैश्विक कीर्तिमान स्थापित हो सकेगा। हमारे साधु संतो और राजनेताओं की आकांक्षा भी कि विश्वगुरु होन्गे वह भी चरितार्थ होगा। बशर्ते वे लोग कथनी -करनी समान रखे । क्योंकि जनमानस के ऊपर इनका गहरा प्रभाव हैं।
पर यह क्या देश की संपदा का आम जनता की गाढ़ी कमाई का दुरुपयोग करने के नये ढंग ( ढोंग ) आरंभ हो गया सभी राज्यों में ऊची प्रतिमा निर्माण की प्रतिस्पर्धा निकल पड़े हैं चाहे वह पटेल शिवाजी डा अम्बेडकर बुद्ध श्रीराम हनुमान जटायु आदि जैसे ऐतिहासिक या पौराणिक पात्र हो। पर्यटन उद्योग के बहाने से बातों को डायवर्ट तक किए जा रहे हैं।
बहरहाल यह सब जनमानस के दिलों में है उसे धूल- धक्कड़ खवाने कौव्वे चील गिद्धों के विष्टा गिराने की जरुरतें ही क्या है। पुल सड़क अस्पताल स्कूल कालेज प्रतिष्ठान बनावे और राष्ट्र को समृद्ध करे।
डा. अनिल भतपहरी
प्रात: परिभ्रमण करते नीलगिरी के तले से ...