Thursday, November 25, 2021

संसो

अभीच ले मोला  अबड़ संसो होत हवे भाई 
अवइय्या दस बीस बछर मं  अलकर होही 
काबर कि बड़े-बड़े मूर्ति बन जाही
त "हवई जहाज" कइसे उड़ियाही ?
परदेशिया मन इहा आए बर  डराही 
काबर कि उकर जिहाद ओमा टकराही 
अउ भंग -भंग ले  जर- बर  के लेसा जाही .
बिचारा मन के हाड़ा-गोड़ा के पता नई चलही

Thursday, November 11, 2021

अक्लदाढ़ और अक्लवान

"अक्कलदाढ़  और अक्लवान "

   तुलसी के सिवाय बत्तीसों दांत वाले व्यक्ति बड़े भाग्यशाली रहते है। क्योकि जिनके पास यह होता है वह दक्ष , कुशल, प्रवीण और ताकतवर होते है। और यह न रहे तब तक वह, वह नही होते जो उपर्युक्त उल्लेखित हैं। बाहरहाल जो आरंभ से बत्तीसी वाले होन्गे वे तुलसी की तरह दुत्कारे ही नही परित्यक्त कर दिए जाएन्गे । आजकल कोई बाबा नरहरि दास नही जो अनाथ का नाथ हो उन्हे प्रशिछित कर युगद्रष्टा बना दे। भले उनकी गृहस्थी का बेड़ा गर्क हो पर तुलसी दुत्कारे जाने और अपने एकनिष्ठ प्रेम के बावजूद तिरस्कृत हुए यह उनका अभाग्य नही तो क्या ? भले उसे  मरणोपरांत भारतरत्न जैसे घर- घर पूजने का  सम्मान का प्रचलन हो गया हो पर उससे क्या? 
    सचमुच समय से पहले और समय से बाद का हर चीज जमाने को अग्राह्य है। भले आजकल उन्नत तकनीक से हर चीज समय बे समय उपलब्ध होने लगे है शायद इसलिए अब चीजे महत्वपूर्ण नही रहे ।लोगों की शौक महत्वपूर्ण होने लगे है।
इसलिए अब समय- समय पर होने वाले उत्सव पर्व फीके होते जा रहे है और  परिजनों- दोस्तो - परिचीतों के हर समय होने जनमदिन, विवाहदिन ,गृह प्रवेशदिन  आदि की उत्सव रंगीन व सितारा मय होने लगे है ।जहां हर वो चीज है जिनके आकर्षण से लोग खींचे चले आते -जाते  है।
    तो बात बत्तीसी वालों की सफलताओं से है।जिनके है वह वाकिय में ऐश्वर्यवान है क्योकि तब वह कृपण भले रहे रुपवान तो है।चेहरे भरापुरा और अक्ल व सेहत सुदृढ़ जो रहते है। कहे जाते कि ३२ दांत २५ के बाद पूर्ण होते है और ४५ तक  बिना यत्नपूर्वक रखे जा सकते है।हां इस बीच यदि मां - बाप रहे तो जरुर बेअक्ल और जोरु के गुलाम कहाते रहें... पर अपने इर्द - गिर्द जरुर प्रभावशाली रहते है।और यदि परिजन न रहे तो खुद मुख्तार हो पत्नी बच्चों और परिजनों में  ऐश्वर्यवान  रहते है।
     अकलदाढ़ २५ के पहले नही उगते जिनके उगते है वह अलग तरह के फर्टीलाइजर वाले होते है बेचारे रामबोला पेट में उगाने का उपक्रम फलस्वरुप उनकी गति कैसी हुई यह जग जाहिर है। इसलिए बिना अकलदाढ़ उगे होशियारी नही  दिखाना व बधार‌ना चाहिए । 
       कुछ लोग अकलदाढ़ उखड़वाने के बाद भी अकलवाले होने के भ्रम में जीते है। क्योकि यह आखिर में उगता है । जो कि बिन बुलाए मेहमान की तरह सबसे पीछे खड़े रहते है।  मिल गये तो खाय या  पीछे खड़े  लुलवाए या पछताते रहते है।
        अब कोई दीन दयाल तो नही जो अंत्योदय कहते कहते किसी अनजान जगह पर अनजान जैसे  चल बसे। भले उनके जाने के बाद वही भारतीय संस्कृति में पूज्यनीय या सम्मानीय बने।पर दूर्भाग्य अकलदाढ़ का कि बेचारे का आना भी दुखदाई और जाना भी दुखदाई।
        अक्लदाढ़ उगते समय बेहद कष्ट होता है ठीक हठयोग की तरह जबड़े सुज जाते है अन्नजल जल का परित्याग करने होते है।यह अनुक्रम हफ्तो - महिनो और कभी कभी ठहर -ठहर कर २८-३० मे से ४- २ को उगाते वर्ष दो वर्ष साधना में गुजारने होते है तब कही जाकर सिद्धि मिलती है।  इस तरह  कठोर संताप से गुजरना होते है।मुझे तो २-३ साल लग गये जब पूर्णत: बत्तीसी हुए तब तक एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हो गये। तब जाके मां की बातें सच साबित हुई कि-" बाप बनबे तब पता चलही  ददा !"
         पर अब जैसे ही पैंतालिस पार करने हुए कि यह जबरिया मेहमान  जिसे  अन्यान्नभाव या अत्यं मे रहने से राज करते लोगों के नजरों से ओझल रहे और शोषित पीड़ित रहे उन्हे  सही पोषण नही मिला। टुथब्रश दातुन मंजन पेष्ट  आदि वहां नही पहुंचा और स्वादिष्ट व्यंजन भोजन  व मिठाई को वह लालची संग्रहित रखा .... जो अभावग्रस्त होते है अक्सर वही व्यर्थ को एकत्र करते रहते है फलस्वरुप वे कैवीटिग्रस्त  होकर   जल्द ही सेन्सटिव होते गया । वैसे भी वह लोग समाज सर्वाधिक संवेदनशील होते है जो अभावग्रस्त होते है।उन्हे खाने चबाने की जरुरत नही पड़ा अत: उनके हिस्से में उनके अवशेष मिले जिसे वह बेवकूफ घुरवा जैसे कचरों को संजोकर  पकड़े रहा ,फलस्वरुप  गर्म ठंडा पानी मिठा या तीखा  सब वर्ज्येत है। क्योकि जब यह लगता तो यह जालिम असहनीय दर्द देता ..और सारा शरीर तड़फता ।जब यह सब उनके चलते अग्राह्य तब यही हमारे लिए ग्राह्य क्यो? और यह असह्य वेदना के कारक क्यो कर धारणीय इनका परित्याग ही धर्म है। आज वह जबरिया उखवाड़े और बेदखल होने की ओर प्रयाण कर रहे है। सनसनाहट और फिर असहनीय दर्द इही कलमुंहे के चलते होने लगा ।इसलिए डेन्टीस्ट ने साफ-  साफ  दो टूक कहा कि " इनकी कुर्बानी आवश्यक है, अन्यथा यह बाकी के लिए घातक है। यह वो मछली है जो तालाब को गंदा करने लगे है इसे निकाल फेकों!
   वाकिय में जब किसी के अक्ल की आंतक  से लोग परीचित होते है तो उन्हे बेअक्ल करने की ठानते है। आज हमारे अक्लदाढ़ अपनी इसी नियति के कारण ..
उखड़ने जा रहें  है।
   अच्छा है अब इस अड़तालिसवें में बेअक्ल हो जाना बड़े होते  बच्चों और पत्नी व उनके मायकों वालों के लिए अत्युत्तम है। हमने ऐसा होने ठान लिए और बीच में रुट केनाल करवाकर /कैप लगाकर कृत्रिम रुप से अक्लवान बने रहने की प्रवृत्ति को बदलकर जब तक रहे बिना अक्लदाढ़ के बेअक्ल रहने की मंसूबे पालने  लगे है।
   क्योंकि अब इस उम्र में जब सब कुछ उसी अक्ल के चलते खाने- पीने का प्रबंधन कर लिए तब नकली ही सही दांतो से खाने के लिए अक्ल की क्या जरुरत ?जब तेजी से बच्चे अक्लवान होने की अग्रसर है!आखिर कबतक अपने अकल को रगड़ते और खरच करते रहे भाया ! तभी तो  पोली जगह को भरवाने की फिक्र छोड़  केवल रुई ठुसवाकर बे अक्ल जैसे अपने महाविद्यालयीन विद्यार्थियो को विशाखापट्टनम शैक्षणिक भ्रमण मे ले गये । 
         पी-एच.डी. धारी अक्ल वाले  अनगिनत बहाना कर फंसने से मुक्त हो गये क्योकि किसी के बच्चे की परीक्षा है। किसी के  बुजुर्ग माता पिता है । यात्रा मे उल्टी व चक्कर आते है तो किसी के दूर के रिश्ते मे शादी है। हां  एक यही तो बेअक्ल है जो हर जगह अपनी ना न कह सकने की प्रवृत्तियों के चलते फंस जाते है। अब भुगतों और भूख लगे तो तरल पीयो या साफ्ट दाल भात खिचड़ी एक ही तरफ  खाकर  गुजारा करों।क्योकि बेचारे ग्राम्य परिवेश के बच्चों को समुद्र और पानी जहाज देखने के मौका को यूं गंवाने नही देना है ।क्या पता इन्ही मे कोई नेवी अफसर बन जाय और देश रक्षा मे तैनात हो जाय।
      -डां. अनिल भतपहरी
9617777514

Sunday, November 7, 2021

अधिक और लंबी धार्मिक आयोजन और उनका प्रतिफल‌

#anilbhatpahari द
ेष
।।अधिक और लंबी धार्मिक आयोणजन और उनका प्रतिफल ।।

      प्राय: देखने में आते है जो समुदाय अधिक और लंबी धार्मिक आयोजन में उलझा हुआ है ,वही सर्वाधिक पिछड़ा  दीन -हीयन गरीब है।यहां तक शोषित भी। उनके अराध्य और कर्मकांड उन्हे उनकी वर्तमान हालात् से उबारते क्यों नही? और तो और प्रभावी आयोजन की होड़ लिए अनुयाई परस्पर प्रतिद्वंद्वी और प्रतिस्पर्धी भी हो जाते है ।फलस्वरुप उनमें वर्चस्व के होड़ और उनसे लड़ाई -झगडे तक हो जाते हैं।  नेपथ्य में आयोजक और प्रायोजक के पौ बारह हो जाते हैं।  और विडंबनाएं देखिए यही तबका  स्वर्ग सम सुख धरा पर भोगते अतिशय सम्मनित भी होते है। इसलिए भी उक्त प्रथाओं के ये प्रवर्तक और संरक्षक बने हुए होते हैं।
           हमारे संतो -गुरुओं ने बड़ी  ही सुन्दर ढ़ग से दृष्टान्त देते  नैतिक सीख भी दी -" तय अपन बर बारा महिना के खरचा जोड़ ले तब भक्ति कर न इते झन कर । "     परन्तु नक्कार खाने में ऐसे प्रवर्तन कारी  स्वर विलिन हो गये या उन्हे और उनकी वाणियों और स्थापनाओं को बहिष्कृत कर दिए गये।
    पाश्चात्य जगत मे इसके तरफ ध्यान आकर्षित करते मार्क्स का भी उद्भव हुआ पर उनकी विचार यहां के पारंपरिक व शास्त्रीय मनो मस्तिष्क में समाए भी नही। 
    ऐसा लगता है कि सोची समझी रणनीति के तहत धार्मिक आयोजन और अनुष्ठान आदि ईजाद किए गये ताकि जनता उनमें आकंठ डूबी रहें। चंद समर्थवान यदा- कदा धार्मिक होने और बड़ी दान दक्षिणा कर इसी मनोवृत्ति को बढाने में लगे होते हैं।
    धर्म को अफीम कह उनसे बचने की सलाह यहां के कथित  जपी -तपी  द्रष्टाओं / व्याख्याकारों को बचकाना लगते हैं। इसलिए यहां खासकर बस्तर के  आदिवासियों की 72 दिनी बस्तर दशहरा और नेम जोग से मानने की सैकड़ों वर्ष की प्रतिबद्ध प्रथाएं वहां केवल लंगोटी और रोटी ही दे पाए हैं। आज भी अर्धनग्न समुदाय वनोपज और कठोर परिश्रम से ले दे कर जी रहे हैं। ऊपर से दो पाटन के बीच में  गेंहू की मानिंद अलग से  पिसा भी  रहा रहा हैं।
       उत्तर में भी करमा बार सैला सरहुल जैसे आयोजन राजतंत्र के प्रति अटूट निष्ठा और विभिन्न धार्मिक आयोजन धर्मांतरण के चक्रव्यूह में उलझे पड़े है।
        इसी तरह मध्य छत्तीसगढ़ के मैदान मे हरेली से होली तक कर्मकांड व तीज -त्योहार  जिसमें छक कर शराब  मुर्गा मटन  में निमग्न हैं।  और तो और  बीच- बीच मे गणेश दुर्गा  नवधा- भागवत  में अपने पेट काटकर पर- प्रांतिक कथावाचको के लिए दान- दक्षिणा की व्यवस्था में लगा हुआ हैं। परन्तु उनकी आर्थिक सामाजिक परिस्थिति में रंच मात्र परिवर्तन नही आया हैं।
          किसान बनिहार हो गये और बनिहार शहरों के सेठ साहूकारों के बहुमंजिला ईमारत  बनाने वाले फैक्ट्री मे काम करने वाले रेजा कुली बनकर रह गये हैं। गांवो मे  लघु किसान स्वयं अपने खेतों काम करने वाले खेतीहर श्रमिक हो गये है। यहां अधिकतर  बच्चे महिलाएं या बीमार वृद्ध ही रह गये है।  धान की कटोरा कहे जाने छत्तीसगढ़ मे औसत छत्तीसगढिया  आजकल गरीबी रेखा के नीचे  लाल पीले नीले राशन कार्डधारी होकर चावल की कटोरा थामे प्रतीक्षारत याचक सा होकर  रह गये है।  यह  कथित ग्राम स्वराज और पंचायती राज का साईड इफेक्ट है।
         इस तरह देखा जाय तो जो समुदाय अधिक धार्मिक और कर्मकांडी है , वह अपेक्षाकृत अधिक दु: खी पीड़ित व शोषित भी बावजूद वह कथित आत्म सुख भाव से  इन आयोजनों हर्षित व उल्लसित नज़र आते हैं।
          संतो -गुरुओं के अनुयाई भी ईश्वरवादियों की अनवरत आयोजन से प्रभावित होकर लंबी और बड़ी आयोजन करने लगे है फलस्वरुप चंद वर्गों के अतिरिक्त बहु वर्ग धार्मिक कर्मकांड मे उलझा हुआ है। उनके भगवान खुदा ईश्वर गुरु संत सभी मूकदर्शक है अनुयाईयों के जीवन स्तर पर उनकी कोई कृपा बरस नही रहे हैं। बल्कि कृपा उनके ऊपर बरस रहे है जो षडयंत्र खोर   सूद खोर और राज खोर है।  इनके चंगुल और अनावश्यक अंध श्रद्धा कर्मकांड या कहे जीर्ण शीर्ण परंपरा को ढोने से बचाने बौद्धिक लोगों का नैतिक कर्तव्य होना चाहिए। ताकि यहां के नागरिक और देश प्रदेश सुखी व समृद्ध हो सकें।

 निम्न विडियों को देखकर इसे और भी बेहतर ढंग से समझे जा सकते है।

            - डा. अनिल भतपहरी / 9617777514

Saturday, November 6, 2021

खुमान संगीत

खुमान संगीत 

       रविन्द्र संगीत की तरह खुमान संगीत एक अलग अहसास हैं संगीत प्रेमियों के लिए । बाल्यावस्था में ही पिता श्री (सुप्रसिद्ध रंगकर्मी व सतनाम संकीर्तन कार सुकालदास भतपहरी "गुरुजी"  ) के सानिध्य में गीत- संगीत अभिनय आदि सीखने और प्रदर्शन करने  का अवसर मिला । 

      गर्मी व दशहरा - दीवाली  छुट्टी में  गृहग्राम जुनवानी आते तो घर  के  आंगन में खाट पर बैठे पिता श्री बाँसुरी से "का धुन बाजव मय धुनही बसुरिया"  वाली गीत का  धून छेड़ते तो मैं हारमोनियम से  संगत करते चिटिक अंजोरी निरमल छंइहा ... बजाने कहता और फिर खुमान साव की अनेक धुन युं ही बिना लय तोड़े गीत बजते जाते ... आसपास के कथा कहानी  कहने वाले शोर गूल  करते रेशटीप और अंधियारी - अंजोरी खेलते  बाल टोलियां और निंदारस में डूबे रोचक वृतांत में उललझने वाले सब मोका जाते और हम दोनो बाप बेटे की जुगलबंदी सुनने सकला जाते ... फिर भजन गीत गाने फरमाइश भी होने लगते ... 
      आकाशवाणी रायपुर  में बुधवार को दोपहर  सुर श्रृंगार सुनने स्कूल बंक मारते ... और गणित रसायन वाले सर से डांट सुनते पर जब ज 
चौरा म गोंदा रसिया, मोर संग चलव रे काबर समाए  रे मोर बइरी नयना मं, पान ठेला वाला या मंगनी म मांगे मया न इ मिलय   जैसे  गीत सुनते  मन अल्हादित हो जाया करते और डाट फटकार होम वर्क की दंश से मुक्त भी।
 उनके  गीत सैकड़ों हजारों  बार विगत ४० वर्षों से  सुनते व गुनगुनाते आ  रहे पर मन नही अघाते .. .पता नही क्या चीज इनमें भरा हुआ हैं ?  फिल्मी गीत इनके समछ हल्के लगते ।
कारी  ( एक बार टेकारी आरंग में वही रामचंद देशमुख जी  को  देखे )व चंदैनी गोंदा   (अनेक बार अनेक जगहों पर में  झुलझुल कर सिगरेट पीते बिधुन हारमोनियम पर उंगुली थिरकाते खुमान साव जी का दर्शन और दुआ सलाम मंच पर जाकर कर आने का भाग्य हमें कई बार मिल चूका है।
...रामचंद खुमान लक्ष्मन के तिकड़ी ने वह किया कि छत्तीसगढ़ी की अस्मिता मुखरित हो उठी चहुंओर इनकी मधुरता फैल गई । ये तीन ही काफी है कही भी कभी भी इनके भरोसा  खोभिया के या अड़िया के खड़े होने के लिए हम जैसों के लिए ।
    अनेक  गीतों में अपनी  बेहतरीन संगीत संयोजन से जनमानस को मुग्ध व आनंदित करते छत्तीसगढ़ी संगीत को  शिखर तक ले जाने वाले महान संगीतकार खुमान साव जी  को ...विनम्र श्रद्धांजलि ! सत सत नमन।
     ।।वे गये नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ के फि़जा में बिखर गये ।।   
      -डा अनिल भतपहरी

निम्न लिंक पर जाकर उक्त माधुर्य का एहसास कीजिए ....

Friday, November 5, 2021

आस्तिक नास्तिक वास्तविक और बुतपरस्ती

#anilbhatpahari

चिंतन 
            
    ।।आस्तिक ,नास्तिक, वास्तविक और बुतपरस्ती ।।

            "संतो गुरुओ और प्रबुद्धों ने सदैव ज्ञान और सद्कर्म की शिक्षा दी। सतत ज्ञान का अन्वेषण और सद्कर्म का अनुपालन करने से ही व्यक्ति को सिद्धी और प्रसिद्धी मिलते है। न कि किसी की पूजा ,पाठ, इबादत प्रार्थना आदि से ।
   परन्तु मनुष्य आदतन श्रद्धालू और किसी विशिष्ट कृपा भाव वरदान आदि पाने की उत्कट आकांक्षा रखने वाले प्राणी है। फलस्वरुप अनेक तरह की अलौकिक शक्ति सम्पन्न देवी -देवता ,खुदा, गाड ,ईश्वर भगवान ईजाद कर  उनकी छवि / मूर्ति आदि गढ़ लिए है। जो है या नही, यही अज्ञात है। आज तक न किसी ने देखा न अनुभव किए। बावजूद कथा -कहानियों के आधार पर मूर्तियां गढ लिए गये है और अनेक तरह के कर्मकाञड / विधि विधान से पूजने ,जपने ,मानने  के तरीके अपनाकर आकंठ डूबे हुए है।  राज करने के निमित्त सामंतों ने जनमानस को जानबुझर  डूबा दिए है। अनेक शास्त्र और धर्म स्थल रचे व बना लिए गये है। ऐसा लगता है इन धर्मों और उनके अराध्यों की श्रेष्टता और  वर्चस्वता के चलते  अनुयाइयों में प्रतिद्वंदिता हुई और भीषण  रक्तपात भी फलस्वरुप मानवता कलंकित हुई। 
        देखा जाय तो अब तक किसी परम भक्त को उनके ईश्वर अपने कथित धाम ले जाने न आया न किसी दूत को भेज सशरीर ले गया हो ,ऐसा एक भी उदाहरण नही हैं। बावजूद स्वर्ग जन्नत हैवन की परिकल्पना और वहां जाने की जुगत मे लगे हुए अनेक तपी जपी और धनी मनी‌ जन लगे नजर आते है। कही कही कुछेक की उत्कट साधना आदि के प्रति जरुर आकर्षण का कौतुहल जन मानस में देखने मिल जाते है जो कि शैन: शैन: श्रद्धा भक्ति मे परिवर्तित होने लगते है।
   ऐसे मे उन्हे जो सद् ज्ञान देने वाले महापुरुष है उन्हे भी उस अलौकिक देव -देवियों ईश्वर आदि  के अंश / बताकर सामाहित कर लिए जाते है। यहां तक कि उनकी भी चित्र / मूर्ति प्रतिमा बना लिए जाते है मठ मंदिर गुरुद्वारा बना लेते है ।क्योकि मत पञथ धर्म आदि को गतिमान करने /उन्हे व्यवस्थित करने  यह सब आवश्यक है अन्यथा उनके द्वारा स्थापित मत  पंथ प्रणाली जमींदोज हो जाएन्गे। उनके विचार और दर्शन विस्मृत कर दिए जाएन्गे।
     अब तटस्थ रुप से विचार कर देखे कि जो मिथक है उनकी प्रतिमाए सही है या जो वास्तविक  है , इतिहास पुरुष है उनकी प्रतिमा सही है ?
   बुद्ध ने कल्पित ईश्वर की प्रतिमा नही पूजने कहा यह सच भी है परन्तु अनुयाई बुद्ध की ही प्रतिमा बना लिए  । संसार में सर्वाधिक  प्रतिमा उसी का देखने मिलता है। उनके देखा- देखी ही अनेक धर्म मत पंथ में बुतपरस्ती होने लगे, पूजना आरंभ किए गये। बुद्ध वास्तविक इतिहास पुरुष है,उनके स्वरुप देखे -समझे गये थे ।उसे उसी रुप मे अजंता एलोरा मे चित्रित किए और अनेक स्थलो पर प्रतिमाएं बनाए गये।
     बुद्ध की मानिंद अनेक ऐतिहासिक संत गुरुओ जैसे कबीर नानक रैदास गुरुघासीदास इत्यादि  का भी चित्र / प्रतिमाए बने और अनुआई  उन्हे पूजने लगे साथ ही उनके वाणी व सिद्धान्त को मानने लगे।
      यहां चित्र/ प्रतिमाए उनकी वास्तविक होने के साक्ष्य है। अनुयाई उसे साक्षात अपने समक्ष पाते है और उनके सिद्धान्तो / उपदेशों मे चलने प्रेरित होते है। इस दृष्टि से बुतपरस्ती जायज भी लगते है।
     इसलिए चैत्य विहार मंदिर गुरुद्वारा सतनाम भवन निर्माण गद्दी  आसन ग्रंथ  प्रतिमा चित्र आदि का प्रचलन होना आवश्यक है अन्यथा मिथकीय संसार मे खोए रहने होन्गे ।
   बहरहाल हमे किसका विरोध करना और किसे आत्मसात करना चाहिए इस अंतर को समझने होन्गे 
सच तो यह है कि आस्तिक- नास्तिक के चक्कर छोड़कर   वास्तविक को अपनाना चाहिए और उनकी शिक्षा और उन्हे सम्मान देना चाहिए।"
     सतनाम
डा अनिल भतपहरी /9617777514

Thursday, November 4, 2021

पहेली

।।पहेली ।।

सब कुछ साफ दिखाई देते  है 
पर कोई भी चीज ज्ञात नही 
सारे चेहरे जाने- पहचाने है 
पर सब लगते  अज्ञात सही 
क्योंकि जिनके इहलोक सुधरे है 
वे परलोक सुधारने मे लगे है 
और जिनके इहलोक बिगड़े है 
वे परलोक सुधारकों को मनाने मे लगे है 
आज तक उनके परलोक सुधरा हो 
यह तो  ज्ञात नही 
इनके इहलोक कोई सुधारे 
यह भी ज्ञात नही 
कितना जटिल है समझना
आखों के सामने घटते घटनाओं  को 
कितना कठिन है  बयां करना 
आंखो के समक्ष सच्चाइयों को 

-डा. अनिल भतपहरी /      9617777514

Tuesday, November 2, 2021

छत्तीसगढ़ी शिष्ट साहित्य के उद्गाता : गुरुघासीदास

"छत्तीसगढ़ी  शिष्ट साहित्य के उद्गाता गुरु घासीदास" 

   डॉ॰ अनिल कुमार भतपहरी
 
 
 
छत्तीसगढ़ में लेखन अन्य प्रान्त के हिन्दी या ब्रज ,अवधि ,मैथिली मराठी भाषियों ने यहाँ की लोक जीवन से प्रभावित होकर पहले पहल सृजन आरंभ किए ।

छत्तीसगढ़ में लेखन अन्य प्रान्त के हिन्दी या ब्रज अवधि मैथिली मराठी भाषियों ने यहाँ की लोक जीवन से प्रभावित होकर पहले पहल सृजन आरंभ किए पर वे छत्तीसगढी नहीं है। छत्तीसगढ वनाच्छादित अंचल रहा है। जहां कोई शिक्षण संस्थान नहीं थे। रायपुर और रतनपुर में केवल पूजा पाठ आदि के लिए संस्कृत पाठशालाओं का निजी संचालन कान्यकुब्ज ब्राह्मणों द्वारा मौखिक रुप से संचालित थे जहां सीमित मात्रा में केवल ब्राह्मण युवकों को शिक्षा दी जाती थी। वे लोग भी कही संस्कृत में काव्य या कोई ग्रंथादि रचे यह ज्ञात नहीं है

। दंतेश्वरी मंदिर में जो शिलालेख है और जिसकी लिपि ब्राम्ही है वह पाली या प्राकृत है जो जन भासा छत्तीसगढ़ी जैसी लगती हैं पर वह छत्तीसगढ़ी नहीं है। क्योंकि बस्तर में गोंडी भतरी बोलियाँ हैं। जिसमें कुछ कुछ शब्द छत्तीसगढ़ी के मिलते हैं।

अमुमन सभी राजा और राजघराने जो आदिवासी थे वे और उनके परिवार प्राय: निरक्षर रहे । फलत: राज दरबार या नगर में छिटपुट लेखन करते जिनकी मातृ भाषा या बोली ब्रज ,अवधि मैथिली बघेलखंडी या मराठी थे। जो जीविकोपार्जन हेतु यहां आकर आश्रय लिये थे। वही लोग देवनागरी लिपि में अपनी अपनी मातृ भाषा में लेखन किया। यह वह दौर रहा जब हिन्दी भाषा के रुप में आकार ले रही थी। यह समय साहित्य के काल क्रम में रीतिकाल का था। जब श्रृंगार और भक्ति का अप्रतिम सृजन चल रहा था। राम- कृष्ण नायक के रुप में महिमामय हो चुके थे उनके मानवीय करण कर उनके लौकिक लोकाचारण से जनमन को अनुरंजित किए जा रहे थे। हर सामंत राजा जमीन्दार के चरित्र को राम कृष्ण के वैभव से जोड़कर उनके मनोहारी वर्णन तक किए जाने लगे । प्रतिभाशाली आसुकवियों को पनाह मिलने लगे ये लोग राग रंग मनोरंजन के गीत गाकर जीविकोपार्जन करने लगे । कवियों कलाकारों को राजदरबार में आश्रय मिलने लगे। इन्ही राज्याश्रित कवियों में दलपत राव खैरागढ, बाबू रेखाराव रतनपुर, और सिमगावासी खाण्डेराव का नाम उल्लेखनीय है। इनकी रचनाओं में वे अपने आश्रय दाता राजाओं के प्रशंसा के साथ- साथ समकालीन छत्तीसगढ़ की छवि परिलक्षित होते हैं।

इसी समय बांधवगढ़ वासी धनी धरमदास जी का वृद्धावस्था में कबीर पंथ के प्रचारार्थ आगमन हुआ। वे कोमलकांत पदावलि प्रेम भक्ति के पद कवित्त रचे जिन पर कबीर की वाणियों के अनुगूंज हैं। उनकी भाषा बघेलखंडी और ब्रज है।

छत्तीसगढ़ में शिक्षा का द्वार लार्ड मैकाले के शिक्षा नीति के चलते १८५० के आसपास स्कूल खुलना आरंभ हुआ। और १९०० तक शहरों कस्बों में पाठ शालाएं धीरे धीरे खुलने लगी इस दरम्यान प्रथम पीढी के लोग साक्षर हुए वही लोग छिटपुट छत्तीसगढ़ी में गीत भजन और धार्मिक कथा कहिनी लेखन आरंभ किए।‌

तब तक बीज स्वरुप जनमानस में गुरु बाबा के वाणियों का अनुगूंज गूंजने लगा वही आगे सतनाम साहित्य जिसे छत्तीसगढ़ी का शिष्ट साहित्य कह सकते हैं, का क्रमशः सृजन आरंभ हुआ।

इस तरह हम पाते हैं कि -

विशुद्ध छत्तीसगढ़ी में नवीन विचार -धारा और दर्शन को जनमानस में प्रसारित करने सर्व प्रथम सूक्तों, अमृतवाणियों ,उपदेशों  ,पंथी मंगल भजनों दृष्टान्त या बोधकथाओं के माध्यम से गुरु घासीदास और उनके पुत्र गुरु अम्मरदास जी ने १७९० के आसपास सतनाम पंथ की स्थापना की। और उनके प्रचारार्थ रामत -रावटी किए। इन्हीं आयोजनों में सत्संग- प्रवचन और पंथी -मंगल भजनों द्वारा सतनाम के गूढ़ंतम सिद्धान्तों को सरलतम ढंग से जनभासा छत्तीसगढ़ी में व्यक्त किए जो शिष्ट साहित्य की कोटि में पणिगणित होने हुए।

सतनाम -पंथ के अभ्युदय के पूर्व छत्तीसगढ़ी में लेखन और सृजन इसलिये भी संभाव्य नहीं हुआ क्योंकि यहाँ शिक्षा और अक्षरग्यान जनमानस में थे ही नहीं। इसलिए अधिकतर लोकगीतों का मौखिक स्वरुप रहा है। और लोग अपनी यादृच्छिक क्षमता के अनुरुप उन्हें कंठ दर कंठ प्रवाहित करते लाए। इनमें प्रमुखतः करमा ददरिया रीलो बार डंडा नृत्य गीत बांसगीत बसदेवा सुआ इत्यादि। इनके साथ- साथ बिहाव गीत गौरागीत जसगीत जैसे आनुष्ठानिक गीत जो लोकगीतों के रुप में रहा। तो अहिमन कैना केवला कथा दसमत कैना लोरिक चंदा सीत बंसत लछ्मनजति भरथरी गोपीचंद आल्हा जैसे पात्रों चरित गायन भी वाचिक परंपरा में रहा। पंडवानी इसी तरह कलान्तर में विकसित हुई।

सतनाम -पंथ का प्रवर्तन गुरु घासीदास ने धर्म-कर्म में व्याप्त अराजकता, अंध विश्वास, ढोंग- पाखंड के विरुद्ध उनमें अपेक्षित सुधार हेतु किया गया। फलस्वरुप अनेक सकारात्मक लोग उनसे जुड़ते गये। पुरातन प्रेमी और रुढिवादियों ने इनका प्रतिकार किया साथ ही अनेक तरह के अवरोध पैदा किए गये। ताकि इससे नवीन सतनाम विचार-धारा का प्रवाह अवरुद्ध हो जाए। परन्तु जो सत्य और लोककल्याणकारी तत्व है वह सारे अवरोध अपनी सर्व ग्राह्यता से हटा लेता है। और ऐसा ही हुआ। सारे अवरुद्ध उनके प्रवाह से उखड़ गये और भारतीय संस्कृति में जातिविहीन नये धर्म का संस्थापना हुआ। समकालीन समय में उनकी अनुगूंज से जो सृजित हुआ वह वाकिये में चमत्कृत करने वाला रहा। फलस्वरुप यह बडी तेजी से लोक जीवन में प्रचारित-प्रसारित हुआ।

परन्तु गुरु घासीदास विरचित शिष्ट साहित्य और सतनाम -दर्शन केवल अनुयायियों तक क्यों सीमित रहे और गैर अनुयाई उनसे क्यों मुखापेक्षी रहे यहां तक कि सतनाम- पंथ के साहित्य को जातीय साहित्य कहे जाने लगे? यह विचारणीय और खारिज करने योग्य है। क्योंकि यह. सुविधाभोगियों और शोषकों द्वारा फैलाए गये भ्रम रहा है। वाकिये में यह जाति -पांति आदि से मुक्त मानव मुक्ति के महाकाव्यात्मक गान है। यह बाते अब प्रज्ञावानों को समझ आने लगी है। इन भावप्रवण रचनाओं के माध्यम से छत्तीसगढ़ी को वैश्विक पटल पर संस्थापित किए जा सकते है। अनेक प्रसिद्ध रचनाकार और समीक्षक एक सुर में कहते है कि छत्तीसगढ़ के महान संत गुरु घासीदास से नि:सृत छत्तीसगढ़ी देव वाणी संस्कृत सम महिमामय हो गई ।

सिरजादे मनखे के हृदय म धाम ।

सतनाम साहित्य मानव हृदय को धाम बनाती है। और उन्हें समानता के धरातल पर खड़ा कर प्रकृति और प्राणियों के प्रति संवेदनशील बनाती है।

ऐसे दिव्य और महिमामय भाव प्रवण छत्तीसगढ़ी में गद्य पद्य रचनाएँ जो बाबाजी के मुख से नि:सृत है ,वह द्रष्टव्य है-

सप्त सतनाम सिद्धान्त -

१ सतनाम ल मानव अउ सतनाम के रद्दा म रेगव

२ पर नारी ल माता बहिन मानव

३ मांस त मास ओकर सहिनाव तको ल झन खाव

४ मंद माखुर चोगी झन पियव

५ मंझनिया नागर झन जोतव

६ मूर्ति पूजा झन करव अउ ओमा बलि झन चढावय

७ गाय अउ भ इसी ल नागर म झन फांदव

उक्त दिव्य सतनाम सिद्धान्त के अनुरुप ही अनगिनत उक्ति व गीत उपदेश अमृतवाणियों का अवतरण हुआ-

१ सत म धरती टिके हे सत खडे हे अगास ,कहे

सत म चंदा सूरुज ह बरत हे दिनरात ,कहे घासीदास।।

२ कटही कुलुप स इता राख ।

ये दे सुकवा उवत हे पहाही रात ।।


 

 
३ मंदिरवा म का करे ज इबोन। अपन घट के देव ल मनइ बोन ।।

४ चलो चलो हंसा अम्मर लोख ज इबोन ।

अम्मर लोख जाइके ये हंसा उबारबोन ।।

५ ये माटी के काया हर न इ आवय कहू काम ।

तय सुमर ले सतनाम तय सुमर ले सतनाम ।।

६ सतनाम एक वृछ हे निरंजन बनगे डार

तीन देव साखा भये पन्ना भये संसार

७ मोरा हीरा गंवागे बन कचरन म

मुड पटक -पटक रोले पथरन म

८ हंसा कायागढ म लगे हे बजार समझके कर ले स उदा ल हो

९ अमरित पावन लगे सुहावन सतनाम मीठ बानी

सतनाम तय जप ले रे मनवा करले सुफल जिनगानी

१० बीच गंगा बहत हे मंझधारा हो मिले बर होही संतो मिल जाहु न ....

इसी तरह अमृतवाणियों का यह गद्यात्मक रुप दर्शनीय है-

१ करिया होय कि गोरिया होय ये पार के होय कि ओ पार के मनखे हर मनखेच आय।

२ झगरा के जर न इ होय ओखी के खोखी होथय।

३ पितर मन ई हर मोला ब इहाय कस लागथे।

४ मंदिर झन बना न संतद्वारा बना तोला बनायेच बर हवे त कुआ तरिया सराय नियाला बना ।दुरगम ल सरल‌ बना।

५ तोर भगवान बहेलिया आय मोर भगवान धट धट म बिराजे सतनाम हर आय।

६ मंदरस के सुवाद ल जान डरे त सब ल जान डरे।

७ एक धूबा मारे तहु तोर बराबर आय।

८ मोर सब हर संत के आय तोर हीरा ह मोर बर कीरा आय

९ अव इय्या ल रोकव नहीं जव इय्या ल टोकव नहीं

१० ये भुइंय्या तोर आय येखर तय मिहनत करके सिंगार कर अन्न धन उपजा अउ सुध्धर सत इमान म अपन जीनगी बिता।

इन अलंकृत व भावप्रवण अमृतवाणियों के साथ साथ अनगिनत उपदेश ,दृष्टान्त व बोधकथाएं हैं।

इस तरह देखें तो भावप्रवण व संपूर्ण व्याकरणिक कोटि से अलंकृत महिमामय वाक्य संरचना है जिस पर अनेक तरह से मुग्धकारी साहित्य सृजन संभाव्य है। और रचे जा रहे हैं।१९२५ मे सतनाम सागर के प्रकाशन कलकत्ता से सतनाम साहित्य का सोता अजस्र प्रवाहमान हो मानव के अंत:करण को आप्लावित करते आ रही है।

अब तक ३५० से अधिक स्वतंत्र पुस्तकें पत्र पत्रिकाएं प्रकाशित हैं । कई खंड व महाकाव्य हैं उनमें प्रमुख निम्नवत हैं-

१ सतनाम सागर - पं सुखीदास


 
२ गुरुघासीदास नामायण

३ समायण - पं सुकुलदास -मनोहर दास नृसिंह

४ सत्यायण- पं साखाराम बधेल

५ सतनाम- संकीर्तन- सुकालदास भतपहरी गुरुजी

६ सत सागर - प नम्मूराम‌ मनहर

७ सतनाम धर्मग्रंथ - नंकेशरलाल. टंडन

८ सतनाम खंड काव्य - डा मेधनाथ कन्नौजे

९ गुरु उपकार - साधू बुलनदास

१० श्री प्रभात सागर - मंगत रविन्द्र

इसी तरह गद्य में अनेक रचनाएँ है उनमें प्रमुखतः १० रचनाओं की सूची निम्नवत् है

१ सतनाम आन्दोलन और गुरु घासीदास - ले शंकरलाल टोडर

२ सतनाम - दर्शन इंजी टी आर खुन्टे

३ सतनाम दर्शन भाऊराम धृतलहरे

४ सत्य प्रभात - डा आई आर सोनवानी

५ सतनाम के अनुयायी - डा जे आर सोनी

६ गुरुघासीदास संधर्ष समन्वय और सिद्धान्त- डा. हीरालाल शुक्ल

७ गुरु घासीदास की मानवता  - साधु सर्वोत्तम साहेब

८ सत्य दर्शन - घनाराम ढिन्ढे

९ गुरु घासीदास चरित - सुखरु प्रसाद बंजारे

१० सतनामी कौन? -    शंकरलाल टोडर

गद्य पद्य के अतिरिक्त अनेक पंथी मंगल चौका आरती संग्रह और चंपू काव्य हैं। महाकवि द्वय नोहरदास नृसिंह और नम्मूराम मनहर नंकेसर लाल टंडन साधु बुलनदास जी ने सतनाम धर्म संस्कृति से संदर्भित अनेकानेक रचनाएँ समाज को दिए और जनमानस में प्रचार प्रसार किए।

उक्त महत्वपूर्ण ग्रंथों पुस्तकों के साथ इतिहास राजनीति समाज दर्शन एवं साहित्य में गुरु घासीदास के प्रदेय व्यक्तित्व व कृतित्व पर अनेक लेखकों विचारकों के आलेख से संगृहीत पत्र पत्रिकाएँ और स्मारिकाएं उपलब्ध हैं इन सबके आधार पर कई विश्वविद्यालयों में अनेक शोध प्रबंध उपलब्ध हैं ।जिसके प्रकाशन होने पर सतनाम धर्म- संस्कृति के वृहत् स्वरुप का दिग्दर्शन होंगे।

इस तरह देखा जाय तो गुरु घासीदास बाबा और उनके पुत्र द्वय गुरु अम्मरदास व राजा गुरु बालकदास ने १७९०-१८६० तक विशुद्ध छत्तीसगढ़ी में सिद्धान्त उपदेश अमृतवाणी मुक्तक बोध व दृष्टान्त कथाओं को रामत - रावटी में सत्संग प्रवचन पंथी नृत्य गान द्वारा जनमानस में विशिष्ट प्रयोजन खाकर जनकल्याणार्थ प्रस्तुत किए। वह वर्तमान में शिष्ट साहित्य के रुप में प्रतिष्ठापित हुआ। इस तरह गुरु घासीदास को शिष्ट साहित्य के उद्गाता कहे जा सकते हैं। अनेक विद्वान उन्हें छत्तीसगढ़ी का आदि कवि और लोक साहित्य और शिष्ट साहित्य का सेतु कहते हैं। और वे है ही।

जय सतनाम - जय छत्तीसगढ़ जय भारत

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डॉ- अनिल कुमार भतपहरी



ऊंजियार-सदन,सेन्ट जोसेफ टाउन आदर्श नगर अमलीडीह रायपुर छग