Tuesday, July 30, 2019

श्रमण -गुरुमुख सञस्कृति

आदिधर्म सतनाम श्रमण संस्कृति का अभिन्न श्रुति परंपरा  हैं। इनमें वक्ता "गुरु" और श्रोता शिष्य या अनुयाई हैं। यह गुरु चेला के मध्य वार्तालाप परीक्षण प्रसंस्करण द्वारा जनमानस में अजस्त्र प्रवाहमान हैं। इसलिए यहा गुरुमुखी संस्कृति का दिग्दर्शन होते हैं-

गुरुमुख गुरुमुख पार उतरगे नेगुरा ह गये भुंजाय
          जैसे साखी से यह प्रमाणित होते हैं। साधना सिद्धि कर कोई भी प्रग्यावान  सतनाम के स्वरुप को जान समझकर  गुरुत्व भार गुरुपद धारण करते है। तथा अपनी वाणी ध्यान स्पर्श व आशीर्वाद से शिष्य के अन्तर्मन को प्रकाशमान करता है। उनके अंदर की आत्महीनता तमस आलस्य प्रमाद को हटाकर उन्हे ओजस्वी तेजस्वी और विवेकी बनाते हैं।
        ऐसे ही समर्थवान शिष्य ही गुरु के निर्देशानुसार जनकल्याण के निमित्त अनेक रचनात्मक कार्य में प्रवृत्त होते हैं।
            मन वचन कर्म से यदि कोई व्यक्ति इन मह्ती कार्य को करे तो वह निर्मल यश के प्रतिभागी होकर जीते जी  परमपद व सतलोक प्राप्त करता हैं।
           यह सतनाम संस्कृति बौद्ध धम्म ,खालसा पंथ ,कबीर पंथ ,साध पंथ ,सतनामी पंथ, राधास्वामी  मानव धर्म, प्रेम पंथ,जैसे अनेक मत पंथ सम्प्रदाय में अस्तित्व मान होकर इसी श्रुति परंपरा संगत पंगत अंगत द्वारा वैश्विक विस्तार की ओर अग्रसर है।
             ।।सतनाम ।। 
      संसार सतनाम मय हो
             सतश्रीसतनाम

डा- अनिल भतपहरी
चित्र - सतनाम धाम नारनौल दोशी पहाड़ समीप नई दिल्ली  भारत

Wednesday, July 24, 2019

छ ग मे कबीर - सतनाम पंथ

कबीर पंथ हिन्दू धर्म के ईश्वर के  निर्गुण स्वरुप का उपासक लोगों के समूह थे और समाज मे व्याप्त  यथास्थिति वाद के समर्थक व संवाहक भी  उनके शिष्य धर्मदास जी कबीर की प्रखरता को साफ्ट हिन्दूत्व रुप दिए क्योकि वे आरंभ से वैष्णव थे वही छत्तीसगढ मे कबीर पंथ का प्रवर्तन ४२ वंश की आशिर्वाद लेकर किए फलस्वरुप कबीर के मूल स्वर यहां अनुगंजित नही हुई।बल्कि अनेक शाखाओं प्रशाखाओं में विभक्त वर्णाश्रम व जातिय व्यवस्था में आबद्ध रहे और कर्मकांड आदि संलिप्त भी ।
     जबकि गुरुघासीदास ने ईश्वर के कथित सगुण - निर्गुण से परे बुद्ध की तरह नजरांदाज करके मानवीय व्यवहार व लोकाचार और कृत्रिम जात- पात से विमुक्त कराकर परस्पर सद्भाव व समानता से युक्त सतनाम पंथ प्रवर्तन किया फलस्वरुप अनेक प्रग्यावान और (अ)धर्म -कर्मकांड आदि  से उत्पीडित  लोग तिलांजलि देकर जातिविहिन वर्गविहिन सतनाम पंथ अंगीकृत कर लिए।
   उनकी इस कदम से आह्त सुविधाभोगियों ने अपनी अस्मिता बचाने  गुरुघासीदास व  सतनामियों के प्रति अनेक तरह के नकरात्मक भ्रम फैलाए ताकि उनके आकर्षण से  तेजी से हो रहे पंथ प्रवर्तन थम जाय ।इस अनुक्रम उनके पुत्र राजा गुरुबालक दास की हत्या और सतनामियों को ग्रामों से बेदखल और संपत्ति हडपने जैसे कुचक्र भी चला । १८५०-१९५०  करीब १०० वर्षो तक निरंतर उत्पीड़न का दौर जारी रहा। कमोबेश अब भी इन समुदाय के प्रति नकरात्मक रुप से शेष अनुजाति वर्ग से अलग व्यवहार हिन्दुओं और उनके देखा देखी आदिवासी व अन्य प्रांतिक व धर्मी लोगों मे है।
     छत्तीसगढ के ग्रामों मे हिन्दू बनाम सतनामी की अवस्था ठीक वैसे ही है जैसे अखिल भारतीय स्वरुप मे हिन्दू बनाम मुस्लिम यह स्पष्ट विभाजन आज भी देखे जा सकते है।

Saturday, July 13, 2019

जीने का मजा

" जीने का मजा"
  हर किसी को जीने की स्वतंत्रता और मजे लेने का नैसर्गिक  अधिकार है ।  इसलिए व्यक्ति समाज और देश सभ्य सुखी व समृद्ध है। जहां ऐसा न हो वह जो हो पर सभ्य कतई  नही ।
      देश की संप्रभूताओं का  असमान वितरण और भौतिक संसाधन का असमान उपभोग भी कही -कही हस्यापद या व्यंग्यार्थ लगते है।शायद इसलिए "अरहर‌ की टट्टी  गुजराती ताला" या "रेशमी कालीन में  में टाट के पैबंद  अशोभनीय होते है जैसे  मुहावरे  गढ़ लिए  गये‌ जो सच जैसा  लगने लगे  है।
               पक्के और  छत वाले घरों में  एसी लगे ऐसी  मनोधारणा को  बदलने होन्गे। और शूट- बूट वाले ही कार और प्लेन में यात्राएं करेन्गे ऐसी मिथकों भ्रमों का रुढताओं को ध्वस्त करने होन्गे। शुक्र है उक्त चित्र में  अग्यात गृह स्वामी एसी लगाकर यह कार्य आरंभ तो किया यह स्वागतेय है। शासन प्रशासन को चाहिए की जरुरत मंदो के लिए इस भीषण गर्मी से निजात देने पंखे कुलर एसी आसान किस्त या अनुदान से उपलब्ध कराने चाहिए। आखिर सुख -सुविधा  किसी की बपौती नही है।और इन्हे अर्जित करना सबके अधिकार छेत्र मे होना चाहिए। अन्यथा यह कैसी बर्बर असभ्य व फूहड़पना‌ रहा  है कि कोई किसी के घर से बड़ा घर न बना सके। किसी के आगे छतरी जूते चप्पल न पहन सके।और तो और घोड़ी पालकी से अपनी  दुल्हन न ला सके।कितनी वर्जनाओं विभीत्साओं और दारुण दु:खो को झेलते अभाव ग्रस्त जन जीवन रहा है। क्या उनके जीवन में उजाले न आए ... या उनके सूखी होने मात्र से ही देश या यहां की समाज की अधोपतन हो जाए या वज्राधात हो जाय!!
   
      खैर अपेछित परिवर्तन होने से अब  जाकर कही कही "  लोगन मन  सउक से झोपड़ी अउ काटेज मं रहे लगे हे प्रकृति के संग ! भलुक अमीरी- गरीबी के खाई साधन अउ सुविधा के विभेद ल पाटा जाय ।नही त मनखे मनखेच ल खाही अउ सरग असन धरती ल नरक कर देही ।
                 नव सांस्कृतिक जागरण का आगाज हो चूका है और प्रग्यावान लोग समानता की बाते हर तरफ करने लगे है। वैसे भी बोधिसत्व सदृश्य फैशन ही सही
  अमीरी से उबे हुए पश्चिम जगत के लोग शौक से गरीबी को अपनाने लगे है,और जीवन का लुत्फ उठा रहे है। नव धनाड्य भारतीयों को उनसे प्रेरणा लेना चाहिए ।फैशन मे फटे -पुराने जींस चलन में है‌।और मोटे -सोटे लोग रुखी- सुखी खाने लगे है ।डायटिंग के नाम पर अल्पाहारी हो रहे है। भले कबख्त मर्सडीज व  फरारी में घूमे । खैर  गरीबी और अभाव में इंटरटेनिक मजा लेने के लिए अनेक एजेंसियां उद्यम कर  मौका क्रियेट भी कर रहे है।जैसे कोई निर्जन द्वीप या जंगल के सेफ जोन में रसद पानी ले  जाकर  लडक़ी एकत्र कर चूल्हे से या पत्थर के तीन टुकडे मे लकडी जला कर खाना बना खा कर महीनो किसी भी कनेक्टीवीटी से  कटकर, यहा तक बिना मोबाइल ,फोन, टीवी -रेडियो, समाचार पत्र के बि‌ना   प्रकृतिस्थ  जीवन जीने लगे है। यह अनोखा पर्यटन पालिसी  के रुप में प्रचलन होने लगा है।
    बहरहाल कुछ लोग  शौक से कैशलेश होकर मगन है।
    मै भी सोचता हू कभी- कभी ऐसे ही  जनजीवन व लोगों से महीनों कटकर किसी सागर तट या पहाड़ जंगल में डेरा डाल लू ।
    पर साहस नही न इतनी लंबी छुट्टी नही .पर हां जब भी गांव जाता हूं  और घूमने निकलता हूं तो पाकेट में बिना पैसा डाले तब कुछ बाल मित्रों का उपहास भी सुनकर आनंदित  होते है (बड़ कंजूस हस भाई ) और जिद करते तब किसी दूकान वाले से उधारी कर शाम या अगले दिन चूका देते है। यह अलग बात है गांव निकासी और ग्राम प्रवेश के टेक्स पटाने की मीठी धमकी बालमित्रों / रिश्तों
..नीम या बबूल के दातुन घीसते  स्नानादि हेतु महानदी  जाना और काली मिट्टी लेप कर या रेत से रगड़ कर -नहाकर वापस तीव्र भूख सहते  आकर  हबर- हबर खाने और तृप्त होने का  सुकून पाते है। सच कहे तो कुछ दिन ही सही गांव जुनवानी जाने और" प्रकृतितस्थ जीवन जीने का  मजा आ जाता है। "हालांकि  गांव में शहर  की सारी सुविधाओं फैशन और पारंपरिक मंद नशा जुआ चालबाजी  रुपी  बिमारी सचर गये है। और पढे लिखे नौकरिहा सहित १०-१५ एकड़ जोतनदार मन एकाद दू एकड़ निकाल तीर तखार के शहर धरे के जोखा लगाय कहते फिरते है कि अब गांव नरक होत हे रहे के मन नई करत हे। 
     अब वाकिय में हम जैसे खोजने  वाले कहां - कैसे सरग ढूंढे?   सुख शांति सुकून तलाशे ?कोई तो गुरुमंतर बतावें!  सूत्र दें... !

    -डा. अनिल भतपहरी

शाकाहार बनाम मांसाहार

शाकाहार बनाम मांसाहार

मांसाहार और धर्म यह दोनो अलग मुद्दा हैं।
इन्हे मिलाकर गड़बड़ झाला नहीं करना चाहिए।
शाकाहारी भी अधर्मी व पापी होते रहे हैंऔर मांसाहारी भी धर्मी व पुण्यात्मा होते रहे हैं। इस तरह देखे तो सद्गुणी व व्यवहारिक  होने के लिए शाकाहार- मांसाहार कोई कारक नही है। सच तो यह है कि धर्म सद्गुण को धारण करना होता हैं,शाकाहार -मांसाहार को नहीं। वैसे देखा जाय तो सभी प्राणियों में मानव प्रकृति से सर्वाहारी है उनके दो आतें है संवभवत: इसलिए भी वे अन्य प्राणियों में विशिष्ट है और सर्वोत्तम भी
    बहरहाल गुरुओं और संतो ने मांसाहार इसलिए मना किया कि इन्हे  कुछ शातिर धूर्तों  ने धर्म -कर्म में  में ‌ इसे जोड़ पवित्र/ अपवित्र  छूत- अछूत में श्रेणीबद्ध कर दिए थे। अतः उन्हें उन्ही की भाषा -शैली और प्रवृत्तियों में जवाब दिए गये और जनमानस में आत्मसंबल लाए गये।
    समकालीन समय और अब भी  प्राय: सभी धर्मों में हिंसा है बध यग्य  बलि कुर्बानी  और फिर प्रसाद स्वरुप मांसाहार रहा । बल्कि इन धर्म के अनुयाई में परस्पर ईर्ष्या द्वेष भाव होने से  हिंसक भिंडत होते रहते है सबसे अधिक रक्तपात व वैचारिक खाई व वैमनष्यता  तो इन धर्म वालों  ने फैलाए थे।
उन विकृतियों से मानव  को बचाने नीरिह पशुओं पछी को बचाने भी संतो गुरुओ ने द्वारा  शाकाहार का उपदेश रहा हैं।
      इसके मतलब यह नहीं कि मांसाहारी अधर्मी दुष्टात्मा  है और शाकाहारी धर्मी  व पुण्यात्मा हैं‌।यह सब  शिगुफे  है इनसे बचना चाहिए।
निर्धन ग्रामीण स्कूली बच्चों  में  कुपोषण  आदि से बचने  भोजन को रुचि अनुरुप  मल्टी विटामिन से युक्त ऐच्छिक करना चाहिए अनिवार्य नहीं ।
     डा. अनिल भतपहरी

Friday, July 12, 2019

सच का आत्मार्पण

"सच का आत्मार्पण"

जितने तथ्य है
वह आपके है
जितने कथ्य है
वह हमारे है
कहें हम देख कर
रखे तुम सुन कर
फर्क तो है
देखने-भोगने मे
सुनने-सुनाने में
गढ़ने- गढा़ने में
तथ्यों के निर्धारण मे
उनके संरछण में
सावधानी क्यो
सच पर रंगानी क्यो
कुछ तो रहा प्रयोजन
उनसे विष्णन जन मन
यह उत्कट प्रशस्ति 
कहके प्राचीन
पर कैसी मन:स्थिति
जो है अर्वाचीन   
तथ्य सच होते है
ऐसा है नही
पर सच तथ्य होते है
यह है सही
आवरण बद्ध सच का
होन्गे आनावरण
मिथक और भ्रम
का  उचित निवारण
तथ्यों का पुनश्च
करने होन्गे लोकार्पण
तभी होन्गे जन-मन में
सच का आत्मार्पण...
- डा. अनिल भतपहरी

Sunday, July 7, 2019

देवी करमसेनी / करमा माता

देवी करमसेनी या कर्मा माता
    
कर्मा माता को नरवर नरेश की पुत्री और कृष्ण भक्त कहे जा रहे  है । जबकि करमसेनी के नाम से छत्तीसगढ मे यह श्रमिक जातियों की  आराध्य देवी है।उनकी अराधना सदियों से है और उनसे एक विशिष्ट संस्कृति विकसित हुई  है ।
  करमा माता  कृष्ण उपासिका थी और  पुरी यात्रा करती है और वहां पंडे पुजारी से अपमानित भी होती है ।पर उनकी अनन्य भक्ति से सकरात्मक प्रभाव पड़ते है  अत: समुदाय मे वे पूज्य हो जाती है। इसे  तैलिक समुदाय से संबंधित होने के दावा भी है ।  (ग्यात हो कि  राजिम माता  को  यह समुदाय  अधिष्टात्री मानते रहे हैै )
        फलस्वरुप विगत कुछ वर्षो छग मे उनकी बहुलता होने के कारण उनके नाम पर सार्वजनिक रुप से अवकाश धोषित हुई और अब इस तरह कर्मा माता चर्चा में है।
    सच तो  यह है कि कर्मा माता को छत्तीसगढ़ करमसेनी के नाम से अनादि काल से पूजते आ रहे है।करम देवता के नाम से यह पुरुष रुप में भी वंदित है।
    श्रमिक व शिल्पी  जातियां जिन्हे अस्पृश्य माने जाते रहे है के लिए भी करमसेनी अराध्य है। तेली कलार  गाडा घसिया देवार कोष्टा कुम्हार लुहार चमार आदि समुदाय के अराध्य  करमसेनी परिश्रम की देवी है।यही समुदाय मे   उनके सेवा मे पारंपरिक रुप से  करमा गीत गाए जाते है जो एक तरह से भक्ति मय जस गीत जैसा है।
    कहे जाते है कि झारखंड व छत्तीसगढ सीमावर्ती छेत्र मे स्थित सीया पहाड़ मे करमसेनी देवी का उपजन  जन्मन बाढ़न है ।
   बाद मे करमा मे श्रृगांर आदि सम्मलित होकर युवा और प्रेमी वर्ग मे लोकप्रिय हो गये।दादर परिछेत्र मे युवाओ के प्रेमल गान के साथ करमा की युति हो ग ई और करमा ददरिया छत्तीसगढ की सांस्कृतिक पहचान भी ।
     बहरहाल करमा जंयती की अवकाश होने पर उनके नाम पर अब इन सभी श्रमिक जातियों का अपना उत्सव प्रदेश में एक अलग सांस्कृतिक अनुष्ठान स्थापित होन्गे और समस्त श्रमिक समुदाय इस बहाने संगठित होकर अपने विकास के आयाम तलाशेन्गे  ऐसा उम्मीद है।
      ।।जय करमसेनी जय करमा ।।

Saturday, July 6, 2019

प्रतिमुखी

"प्रतिमुखी "

सुख मिलने की
प्रतीछा में
माना जीवन
बरबाद किए
पर जो दु:ख मिला   
उससे भी तो 
जीवन आबाद किए
जैसा भी हो
मिली तो उपलब्धि
जीवन भर की
साधना और सिद्धी
चलिए कोई
हुआ तो सुखी
बनिस्पत हमारे
प्रतिमुखी...

-डा.अनिल भतपहरी

Friday, July 5, 2019

रचनाए - प्रतिमुखी आइना

[6/16, 23:11] Anil Bhatpahari: संगी तोर मया महुरा हे 
मय पी के‌ मर जातेंव
संगी मोर मया अमरित हे गा
तय पी के जी जाबे

पी के मर जातेंव ...
पी के जी जाबे ....
संगी मोर मया अमरित हे तय पी के जी जाबे ...

रुप नगर के तय हर रानी
प्रेम नगर के मय राजा
लगन घरा ले गवन करा ले
लान  बरतिया  बाजा
किंदरा के भांवर ले  जाबे....
[7/3, 16:03] Anil Bhatpahari: आईना

आईना में भी

दिखते नहीं शक्ल

पीठ ही दिखाई देते

हर तरफ आजकल

चेहरे विहिन होते मंजर

अच्छा है या बुरा

हुआ नही निर्धारण

अभी पूरा

प्रक्रिया जारी हैं

वैसे चेहरें ने सबको लूटा

और अनगिनत आईना टूटा...
         -डा.अनिल भतपहरी
[7/3, 16:05] Anil Bhatpahari: आईना

आईना में भी
दिखते नहीं शक्ल
पीठ ही दिखाई देते
हर तरफ आजकल
चेहरे विहिन होते मंजर
अच्छा है या बुरा
हुआ नही निर्धारण
अभी पूरा
प्रक्रिया जारी हैं
वैसे चेहरें ने सबको लूटा
और अनगिनत आईना टूटा...

         -डा.अनिल भतपहरी
[7/5, 11:39] Anil Bhatpahari: प्रतिमुखी
सुख मिलने की
प्रतीछा में
माना जीवन
बरबाद किए
पर जो दु:ख मिला   
उससे भी तो 
जीवन आबाद किए
जैसा भी हो
मिली तो उपलब्धि
जीवन भर की
साधना और सिद्धी
चलिए कोई
हुआ तो सुखी
बनिस्पत हमारे
प्रतिमुखी...

आशिक

वाह क्या कहने ...
मदहोशी की खुमार में बिताते है दिन
आशिक काटते है रातें तारे गिन गिन ...