सम्राट अशोक के बौद्ध अपनाते ही भारत वर्ष सहित उनके आधिपत्य क्षेत्रों के प्रजाओ का धर्म भी बौद्ध धर्म हो गया। फलस्वरुप उन सभी जगहों पर बौद्ध स्थापत्य के अवशेष विद्यमान है।
सम्राट अशोक के नाती वृहदत्त की हत्या कर पुष्प मित्र शुंग ने बौद्ध शासन का तख्ता पलट कर मनुस्मृति लागू किया और उन्हीं के अनुरुप असमानता युक्त वर्ण व्यवस्था जाति प्रथा कठोरता से लागू हुआ। अनेक पुराण शास्त्र रचे गए। शंकराचार्य आए और मठ मंदिर बने इस तरह भारत अस्तित्वमान हुआ। भेदभाव जन्य और देशी रियासतों की परस्पर प्रतिद्वंदिता ने विदेशी आक्रांताओं खासकर मुगल पठान आकर सत्तासीन हुए फिर अंग्रेजों की बारी आई। इस हजारों साल की दसता भुगतने विवश हुए। इसके प्रमुख कारण अमानवीय वर्ण/ जाति व्यवस्था ही है। विदेशी शासको के दरबार में ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य प्रभावशाली पदों पर रहे और इस कुप्रथा को यथावत कायम रखें। जबकि प्राचीन बौद्धों को चौथे वर्ण शूद्र घोषित कर उनके साथ अमानवीय व्यवहार किए गए। इन पर मुस्लिम शासकों और मुगलो ने हस्तक्षेप नहीं किया लेकिन आधुनिक शिक्षा और वेतन भोगी अंग्रेज अधिकारियों ने अनेक आदिम बर्बर प्रथाओ को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसलिए भी अंग्रेजों की हस्तक्षेप से बचने कुछेक राजघराने उच्च वर्गीय लोगो ने विद्रोह किया। कालांतर में आम जनमानस शूद्रों के जुड़ने के बाद हिन्दू धर्म का कांसेप्ट लाया गया । हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग कांग्रेस की अगुवाई से वह स्वतंत्रता आंदोलन में बदल गया। अंततः आजादी मिली पर धर्म के कारण दो देश बने परन्तु मानव समुदाय में भेदभाव आज पर्यंत खत्म नहीं हुआ बल्कि वोट बैंक के रुप में लामबंद हो गए।
बौद्ध धर्म के अनुयाई चौथे वर्ण के शूद्र घोषित कर दिए और उनकी 6हजार जाति उपजाति बनाकर जाति भास्कर रचकर तीन वर्ण के लोग देश की संप्रभुता पर एकाधिकार कर लिए। यह रोचक दास्तान है और उसे जानने समझने के लिए हर जाति वंश लोक में चलने वाली प्रथाएं हैं।
लोक पर्व हैं। आपने जो बलि प्रथा का जिक्र किया वह सामाजिकता और उस समय की सामूहिकता को व्यक्त करते हैं न कि गैर बराबरी बर्बर व्यवस्था को ।
यह महात्मा बुद्ध की मानवता और समानता पर आधारित धम्म का ही प्रभाव है न कि वेद शास्त्र पुराण आधारित वर्ण जाति व्यवस्था। इनका जमींदोज हो जाना ही बेहतर हैं। तभी राष्ट्र समृद्ध और अक्षुण्ण बना रहेगा।
वैदिक सभ्यता की यज्ञ बलि प्रथा से युक्त थे गोमेघ यज्ञ, अश्व मेघ यज्ञ नरमेघ यज्ञ इत्यादि थे।
इसलिए "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" कहकर बलि प्रथा को महिमा मंडित किए गए। राजा से लेकर पुरोहित तक बलि के मांस खाते और मदिरा पान कर उन्मत्त रहते थे। इसलिए भी यज्ञों का प्रतिरोध होने लगा था।
सभी समाज में बलि प्रथा रहा हैं। संतो गुरुओं के कारण बलि प्रथा बंद हुई।
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