Thursday, August 25, 2022

हड्डी की जीभ नहीं कि न फिसले

[3/27/2020, 13:22] Anil Bhatpahari: प्रकृति तुम कितनी बेरहम हो‌

लातूर ,उस्मानाबाद 
तुम्हारें प्रति 
व्यक्त नहीं कर पा रहा हूँ
संवेदनाएं 
सांत्वना के शब्द 
किल्लारी के घाव को 
भर नहीं सकती 
पल‌ में प्रलय 
एकाएक उड़ गयें 
हाथो सें तोतें 
शताब्दी का महाविनाश सुन 
हृदय स्तब्ध 
मन द्रवित 
आवाक् ज़ुबान 
निरंतर बहते अश्रुधारा 
महाराष्ट्र को भिंगा नहीं सकते 
किस मुँह और हाथ से 
ईश्वर की प्रार्थना करु 
मृतकों की आत्मा को शांति दें
अर्सा बीत गये 
ईश्वर की मृत्यु हुए 
ऩीत्से की धोषणा के बाद 
न वे मंदिर में हैं न मस्जिद
 न मठ ,गिरिजा 
 न  ही गुरुद्वारे में
ईंट पत्थर का ढ़ाचा 
ध्वस्त हो गये 
उन्ही मलबे में 
दब गये आदमी
अपने-अपने 
अराध्यों के साथ 
हजारों- लाखों 
माल्थस की उलाहना 
काँटे सी चूभ गई  
प्रकृति तुम कितनी बेरहम हो 

- डां. अनिल भतपहरी / 9617777514

रचना काल -2-10-1993 शनिवार रात्रि 10-30 बजे  गुरुघासीदास छात्रावास आमापारा, रायपुर
[3/27/2020, 15:30] Anil Bhatpahari: "प्रयोजन‌"

मोक्ष नहीं धर्म नहीं अर्थ नहीं आत्म प्रशंसा मेरी नजर में व्यर्थ सही  
जो सत्य हैं उसे कहने आया हूँ 
तुम सोये रहोगे कब तक जगाने आया हूँ
[3/27/2020, 15:33] Anil Bhatpahari: छलनामृग 
यह जगरीति हैं छलनामृग 
करों तुम इन पर सर संधान 
सद्गुरु ने भेजा जग में 
देकर शबद बान 
देकर शबद बान बनाया 
माता -पिता  ने विवेकी 
कहे अनिल अशांत छलना 
यह जगरीति
[3/27/2020, 16:32] Anil Bhatpahari: कल तुम्हें ईश्वर बनना हैं

विनाश की विभीषिका से 
सशंकित 
रे मन 
अधीर न हो 
तुम्हें ज्ञात नहीं 
महाप्लावन में 
हज़रत नूंह
शेष था सत्यव्रत मनु 
लंका में विभीषण 
कुरुक्षेत्र में परीक्षित 
कितना सुन्दर मोहक‌
नई सृष्टि रचें
आदमी के प्रवृत्ति से 
डरकर
इंसान बनने की 
ललक त्यागकर 
भूल रहें हो 
कि तुम में  
विद्यमान ‌हैं इंसान 
ईश्वरत्व हैं भीतर हैं
कल तुम्हें ईश्वर बनना हैं
[3/27/2020, 17:07] Anil Bhatpahari: दो कुत्ते 

एक ही कुतिया से उत्पन्न‌
दो सुकुमार पिल्ले 
भारतीय समाज के 
दो घरों में पलें 
‌संस्कार के अनुरुप 
नामकरण हुआ 
डेविड और कल्लू 
*            *           *

डेविड रहता मालिक के साथ 
दिन भर होटल, कार -उद्यान में 
कल्लू भी अपने स्वामी  संग 
रहता खेत और खलिहान में
वे खाते ब्रेड बिस्कुट चपाती 
ये  खाते बासी, सुखी रोटी 
उनके दि‌न कटते ऐशो अराम से 
इनके भी गाते भजन सत राम के 
डेविड के मालिक ने 
दो नई फैक्ट्री लगवाए 
कल्लू के स्वामी ऋणमक्ति हेतु 
अपने दोनो खेत बेच आए 
उस दिन दोनों के लिए 
समान अवसर आया 
जलसा में  स्वादिष्ट 
भोजन भरपेट खाया 
व्यवसायी  सफलता के नाम‌
भव्यतम पार्टी दिया था
किसान भूमिहीन होकर 
ग़म से मर गया था 
एक की दावत 
दूसरें की पंगत 
कुत्ता भेद नहीं जानता 
क्या दावत और क्या पंगत ?
डेविड लकी हो 
हर जगह पुचकारा गया 
कल्लू लावारिस हो 
हर जगह से दुत्कारा गया 

   *              *            *
जीवन के मोड़ पर 
एक दोनो भाई मिलें‌
एक- दूसरे  के सेहत देख 
आश्चर्य चकित हुए 
डेविड ने कहां चलो मेरे साथ 
कल्लू ने कहां नहीं भाई करना माफ़
अभी मुझे बहुत सा कर्ज़ चुकाना हैं
मेरे स्वामी के खेत में बने 
फैक्ट्री के मालिक से निपटना है 
इतना सुन डेविड गुर्राया 
कहां क्या बकते हो 
इसे मेरे मालिक ने बनाया हैं 
दोनो एक ही मां के दूध पिये थे 
स्वामि भक्ति हेतु अपने 
जात पर उतर आये थे

*               *              *

लेकिन वाह रे आदमी 
तुम कब अपनी जात पर 
आओ गे 
एक- दूसरे पर छूरा भोंक 
कब तक रोज़  ऐश़ करोगे 
रोज़ दावत रोज़ पंगत 
कब तक कराओ गे 
और इस तरह श्रेष्ठतम 
होने का दंभ भरोगे 

*       *          *

कल्लू और डेविड की लाशें 
 इधर - उधर पड़ा था
दोनो को आपस में लड़ते  देख 
पागल कुत्ते समझ 
मार दिया गया था
[3/27/2020, 18:12] Anil Bhatpahari: ६ 
बस्तरिहा 
सभ्यता से निर्वासित 
सदियों से शोषित उपेक्षित 
जंगल पहाड़ों की कंदराओं में 
दुर्गम बीहड़ गुफ़ाओं में हव
आज भी आखेट युग के 
जीवन जीने बेबस 
ये माड़िया मुरिया  हल्बी 
गोड़  भुंजियां अबुझमाड़ी 
मस्त हैं अपने में 
कोई शिकायत नहीं हमसे 
सरल सहज प्रकृतस्थ जीवन 
सार्थकता वन में जी जीवन 
तेंदू चार करील लांदा 
कोदो कुटकी मड़िया सांवा 
मंद मउंहा सल्फी ताड़ी 
माखुर चोंगी और बिड़ी 
जात्रा हाट तीज त्योंहार 
थिरकते लयबद्ध  पांव  
ढ़ोल संग रात- रात भर 
लया चेलिक मुटियारी 
लइका जवान जम्मों 
 डोकरा अउ डोकरी 
नादकंठ से झरते जगार 
सजते नित मुरगा बजार 
लगते बाजी यह कौतुक खेल 
काटते हंसते जीवन जेल 
नहीं कोई टेंसन कितना सरल 
अधरों पर सदैव हंसी निश्छल 
गरीबी भुखमरी या प्रचंड बिमारी 
पेचिस दस्त मलेरिया या महामारी 
अधनंगे अभावग्रस्त जीवन जीते हैं 
पता नहीं ये क्यों इतना दर्द पीते हैं
अगर ये दर्द पीना छोड़ दे 
तो कल सभ्य हो जाएन्गे 
बिल्कुल शहर की तरह 
ये बातें गांठ जोड़ ले 
पर वे शहर नहीं 
सरग की तलाश में हैं 
सत्य प्रेम करुणा के 
उजास में हैं 
उन्मत्त बस्तरिया 
जय जय बस्तरिया ...
[3/28/2020, 13:16] Anil Bhatpahari: ७
बसंतगीत

आये आये सखि ऋतुराज बसंत 
झुमें सेमल झुमें पलाश 
उड़े महुयें कस गंध 

पंचम सुर में कोयल गाए 
मन मयुर सुन झुमर नाचे 
नस नस  में छाये उमंग 

बेला चमेली मिल करे श्रृंगार 
भंवर भृंग खग करत मनुहार 
कण - कण झंकृत प्रेम प्रसंग 

नवल किसलय कोमल गात 
चंद्रमुखी सम धवल प्रभात 
रति मदन का नित  संगम‌
[3/28/2020, 13:55] Anil Bhatpahari: ८

देश का क्या होगा ? 

 सेवानिवृत्त हो चुके दादा जी के
आँखों में चश्मा चढ़े मालूम नहीं
घर बैठें सूई- धागों से नित खेलते 
रंग-बिरंगें फूल चिड़िया बनातें हुए  
अपनी सद्गति का बाट जोह रहे हैं 
प्रेम सदभाव का मिश्री घोल रहे हैं
दूसरी ओर मैं सड़कों पर बेख़ौफ
निकल पड़ता हूँ कुछ लोगों के साथ  
लड़ाई रोज कभी पान वाले कभी खोमचे वाले से 
कभी स्वयंभू सज्जन बुद्धिजीवी से 
करते उदंड्ताएं गाली गलौच करीबी से 

क्योंकि देते हैं मुफत में  हरदम नसीहत 
सीखाते हैं सलीका व करते फजीहत 
उच्चादर्शों की कोरे उपदेश नहीं चाहिए 
 कोई सहानुभूति और आदेश नहीं चाहिए 
नहीं चाहिए उनके गौरव मय अतीत 
ऐसा कह जगाते हमारी जमीर 
नहीं चाहते गाहे बगाहे लड़ना झगड़ना 
फिर भी आदत हैं कि छुटती 
बात बात पर झगड़ा 
सिगरेट कभी पान-चाय गुटका 
*             *           *

पढ़ने के लिए पढ़ते हैं रोज अखबार 
पर हम पढ़ नहीं पाते समाचार 
दादा जी सुबह चाय पीते 
एक एक अक्षर को बांचते 
कहते हमारे घर से १०० गज दूर 
एक लड़की का शाम हो गया बल्ताकार 
उदंड लड़के मिकलर कर रहे
अत्याचार 
बाजा़र के निकट मंदिर के पीछे 
बड़ा  संघात हो गया 
मस्जिद के समीप गुरुद्वारा गली में 
दंगा फसाद हो गया 
समझ नहीं आता देश का क्या होगा ? 
ठंडी आह! के साथ कांपते हाथ से रखते अखबार 
विषाद से भरा उनके सुख सारे होते तार तार 
दादाजी को एक टक देखता हूँ 
और उसे चिन्ता मुक्त रखने  की 
कोशिश करता हूँ 
फल फूल दूध दवाई हर चीज प्रस्तुत करता हूँ
पर वे दिनोंदिन होते चिन्तातुर 
और हम सपरिवार व्याकूल 
चश्मा चढे आखों से वह सब पढ पाता हैं
पर  मै क्यों नहीं पढ पाता 
और क्यो नही  कह पाता
कि देश का क्या होगा ?
[3/28/2020, 17:58] Anil Bhatpahari: 9
आव्हान 

शस्य श्यामला वसुंधरा पर 
प्रज्ञा शील करुणा भूमि पर 
यह कैसी परिस्थिति वर्तमान 
अखिल विश्व मानव जननि‌ पर 

हैं वेदना अंत:करण में आपार 
देख सुन  कर स्थिति वर्तमान 
उद्वेलित करते मस्तिष्क को 
छीड़ा हृदय में घोर संग्राम‌

जाति धर्म भाषा की झगड़े 
नित हो रहे हैं देश में 
स्वार्थ और सम्प्रदाय का विष 
नित घुल रहा परिवेश में 

यही आपसी झगड़े का रुप 
हैं विश्व में अत्यंत विकराल 
रहा न  तीर -कमान  अब तो 
परमाणु शस्त्र धातक जैव हथियार

मानवता के ऊपर तांडव 
यह कैसा प्रलय मय सुर तान 
तब हृदय के कोने से ऊपजा 
यह मंगलमय जय गान 

आव्हान हे युवा शक्ति तुम्हें 
इन विपत्तियों के ख़िलाफ 
जिन कुरीतियों से यह वटवृक्ष 
जलकर हो रहा हैं ख़ाक 

फैलाना हैं  पुनः तुम्हें
सर्वत्र मानवता का संदेश 
राम-रहीम,बुद्ध-ईसा की वाणी से 
मिटा‌ना हैं यह सब क्लेश 

महागर्त में डूब रहे 
मानव को ऊपर लाना हैं
इन आँखों के अंधों को‌ 
प्रकाश तुम्हे दिखलाना हैं 

इन मूक बधिरों को 
राष्ट्र- प्रेम गीत सीखाना हैं
तभी हे हिन्द नवयुवक 
तुम्हारा सार्थक जीना हैं 

   -डा. अनिल‌ भतपहरी / 9617777514
[3/29/2020, 18:08] Anil Bhatpahari: 10 - 
  
"निरंतर"

प्रात: दैनिक कार्य  से निवृत 
स्नान ध्यान पूजा 
फिर अंगो में अत्तर लगा 
कर के पेट पूजा  
पापी पेट के लिए प्रस्थान 
संधर्ष आपाधापी रोज 
श्रृंगार करुणा कभी ओज 
नित उद्वेलित करते 
मन मतिष्क अंत:स्थान 
द्रवित प्रवाहित कराते 
मानव होने का अहसास 
फिर भी क्या हमारी 
पाशविकता में आया फर्क
कटुता मे मिठास 
या कुलुप में कुछ  उजास 
सोचो जरा क्या नहीं चाहते
करे /मिले लोगों से  सम्मान 
केवल मान भर नहीं 
बल्कि रोटी ,कपड़ा- मकान 
 सहजता से या किभी भी तरह 
प्रेम से हो या भय से 
पाने में प्रेम प्राय: चलता नहीं 
देश नफरतों और धृणा से भरा हैं 
इसलिए दिखाते हैं भयानकता 
और इसी के साया में 
रोज चलता हैं पेट 
भले किसी का कटे 
किसी का भरे 
इससे क्या ? 
हमारी रोजनामचा में 
आने न पाये कोई परिवर्तन 
बल्कि जो है उससे श्रेष्ठ 
हो सदैव नित्य नूतन 
स्वभाविक है, हम मानव हैं 
आखेट युग से अब तक 
विकास करते आए हैं
पता नहीं मनुष्य सिद्ध करने 
कितनों को पशु बनाए हैं 
या पशु  बने है
कल भी आज भी और कल ..  
जीवन वृत्त  है
चल रहा निरंतर 
घट रहा  सब भाव 
मानव के भीतर
[3/29/2020, 18:49] Anil Bhatpahari: 11

प्रतिक्रिया 

एक वर्ष और बीत गये 
मै मात्र गिनता रहता हूँ
एक तटस्थ दर्शक की तरह 
सिर्फ देखता रहता हूँ 
कि लोग आते हैं जाते हैं
अपनी प्रतिक्रिया सुना नहीं पाता 
आपके आना अच्छा लगा 
आपके जाना अच्छा लगा 
आपके कहना अच्छा लगा 
आपके करना अच्छा लगा 
उनकी वाणी सम्मोहित  
उनकी सुनाने की जिद  
से मिला नहीं अवसर 
कुछ कहने की 
युं बीतते रहा दिन महिने वर्ष 
उनके होते उत्कर्ष 
स्थगित अपने विमर्श 
ऐसे में कह ही नहीं सका  
कि बुरा वक्त बितते रहा 
अच्छे में अच्छा नहीं दिखना 
खुद की बेवकूफी हैं
हंसते हुओं में रोना 
कैसी नाइंसाफी हैं 
क्या करें न चाहते दबाए रहे 
भावनाओं को अपनी 
रेतते रहे गले रात- दिन 
विचारों की अपनी 
क्योंकि मेरी वाणी और भाषा 
अभिव्यक्त नहीं करती 
भावनाओं को 
और व्यवस्था प्रकट नहीं होने देती 
विचारों को 
अपनी भावनाओं को व्यक्त करने 
भटकटे अमूल्य समय नष्ट करता हूँ
विचारों को प्रगट करने 
सर्वत्र संशाधने तलाशता हूँ
देखते- देखते एक वर्ष और बीत गये 
कुछ न  लिपिबद्ध हुआ न व्यक्त 
महज भूमिका बांधते 
आलोचनाएँ करते 
कमियाँ निकालते 
कोरे कागज रचने से 
प्रयोजन क्या 
हजारों अखबारों 
के प्रकाशन से क्या 
सभी वर्ष बिताने के तथ्य 
जितने भी देखा पढ़ा सुना कथ्य 
पतन- महापतन 
ये मैं नहीं कहता 
संपादक कहलवाता हैं
फाड़ कर गले विपक्ष कहता हैं
स्तरहीन- दिशाहीन 
अनर्गल बातें प्रकाशित कर 
आरोपित -प्रक्षेपित कर 
वर्ष बीतने के कगार पर खड़ा 
कोई तो कोई  मिल ही जातें हैं  
कहने वाला 
कुछ न कुछ सटीक 
प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाला
[3/29/2020, 18:49] Anil Bhatpahari: 12
मानवता रोई हैं

अंग्रेजों की नीति 
राज करों डालकर फूट 
मस्जिद गया फूट 
मंदिर  गया  टूट 
लोगों में भय आतंका का 
तमस पुनः छा गया 
चुपचाप इतिहास 
अपने को दुहरा गया 
अफ़सोस कि अंग्रेजों के औलाद 
आजतक भारत नहीं छोड़ा हैं
ये दौड़ते-भागते दिखाते 
धडियाली आँसू  
उन्ही के छोड़ा अश्वमेघ
यज्ञ का घोड़ा हैं
इनके काले करतूत से 
मानवता रोई हैं
मां भारती पुनः 
लहुलुहान हुई हैं
जलियांवाला बाग
 फिर से धूं धूं जली हैं
 रामसेवा  के नाम पर 
 सर्वत्र कोहराम मची है
[3/31/2020, 10:57] Anil Bhatpahari: 13
बेबस 
चिलचिलाती मई  का धूप
पिघले तारकोल‌ सड़क के 
हाशिए पर 
जहां लाल मूरम बिछी हैं
चलकर नंगे पैर 
मैलें - कुचैलें फटे वस्त्र को 
देंह में चिपटाए 
कंधें पर एक बोरी लटकाएं 
तेरह चौदह बरस की छोकरी 
और पांत सात बरस का छोकरा 
आया कबाड़ी वाले के पास 
कहां सा'ब एक गिलास पानी 
क्या लाया ?
दो- चार बोतल , आध किलो टीन टप्पर 
तभी चहकती स्वर कानों घुली में घुली 
मालिक दो तीन  किलों  रद्दी  

बस ! 
पाव भर प्लास्टिक माई बाप , पानी ! 
दूर हट बे, जा प्याउ में जा 
वह लड़का चला गया 
कस्बा के एक मात्र 
दूषित तालाब की ओर 
क्योंकि वे प्याऊ से 
प्यासा दूत्कार पीकर 
आया हुआ था 
क्योंकि वह हराम का,
और न ही सुअर का बच्चा था 
बल्कि हम आप जैसे 
आदमी का बच्चा था।
 उधर उस छोकरी के लिए 
द्रवित दया उमड़ आए थे 
बेचारी मुग्धा मुग्ध 
गन्ने रस पी रही थी 
और निंगाहे ढूंढ रही थी 
छुपकर कोई पन्नी 
जिसमें बचाकर -भरकर 
ले जाती पियासे भाई के लिए ...
पर एकटक निगाहबान से 
विचलित छोकरी भीतर से 
दलहते जा रही थी 
बर्फ के गोले अंगारे सा 
गले में अटकते जा रही थी
मजबूर - बेबस ! 
पता नहीं कैसे
सांसे लिये जा रही थी ..
[4/2/2020, 08:53] Anil Bhatpahari: "वहम "

दिखता हैं पीठ 

हर किसी का 

पर चेहरा क्यु 

दिखता नहीं

हर किसी का 

लगे है लोग 

दर्पण दिखाने 

पर दिखता नही 

चेहरा किसी का 

खोट दर्पण में है 

या दिखाने वालों में 

या कही देखने वालों में 

क्योकि अब चेहरे  

कहां है ?

पीठ में बदल चुके हैं 

सारे जहां 

असानी से इसलिये 

हर कोई भोंक रहे है छूरे
 
लहुलुहान चेहरा नही 

पीठ हो रहे हैं जमुरे 

यह दौर स्कार्फों 

और मुखौटे का हैं

कहीं जाने का नहीं 

बस लौटने का हैं

जब ज़मीन पर नर्क हैं कायम
 
तब स्वर्ग पाने पाले क्युं वहम 

-डा. अनिल भतपहरी
[4/2/2020, 10:38] Anil Bhatpahari: ।।राम की सद्गति ।।

वन में वनवासियों के 
बीच रम कर ही
आर्यपुत्र राम हुए 
रहा साकेत में 
सत्ता-सिंहासन से
संशकित -भ्रमित
लांछित- निर्वासित
मंथरा -कैकेयी प्रफूल्लित  
सीता-शंबूक से उद्वेलित 
ब्राह्मण से हुआ छलित
उज्ज्वल गाथा 
हुआ कलंकित 
कांटों की ताज से 
मस्तक लोहित  
मर्यदाएं हुई खंडित 
नर श्रेष्ठ स्व अपमानित 
अंततः लिए सरयु में 
जल समाधि 
इस तरह हुआ 
पुरुषोत्तम की सद्गति
मिला रजक को‌ 
उनके उत्तरीय वसन 
किया ब्राह्मण ने
लेकर अकूत धन
राम का तर्पण

     -डां. अनिल भतपहरी
[4/3/2020, 15:11] Anil Bhatpahari: सुनसान होगे खोर गली कोरोना के सेती‌
भांय भांय लागे संगी चारों मुड़ा चारो कोती 

१ खोर किंदरा रहिस तेमन होगिन   घर खुसरा
 खोली मं धंधाय बहुमन होगिन मुड़ उधरा 
नता गोता सब धरे रहिगे परान बचा ले पहिली ...

रोजी रोजगार छुटगे संगी , छुटगे निशा पानी 
कत्कोन छुटगे बइमारी ,छुटगे सुजी पानी
[4/3/2020, 16:06] Anil Bhatpahari: सुनसान होगे खोर गली कोरोना के सेती‌
भांय भांय लागे संगी चारों मुड़ा चारो कोती 

१ खोर किंदरा रहिस तेमन होगिन   घर खुसरा
 खोली मं धंधाय बहुमन होगिन मुड़ उधरा 
नता गोता सब धरे रहिगे परान बचा ले पहिली ...

रोजी रोजगार छुटगे संगी , छुटगे निशा पानी 
नानमुन छुटगे बेमारी ,छुटगे सुजी पानी 
समे समे अब तो असनेच करे परही ...
[4/3/2020, 23:57] Anil Bhatpahari: 16
"यथास्थिति से मुक्ति की युक्ति  "

शी़रत न दिखती 
न पकड़ में आती 
तब भला  
कैसे उसे चमकाएं 
किसे रिझानें सजाएं
लोग चेहरे के पीछे 
लगे हुए हैं
इसलिये भी 
कई चेहरे लिए 
घुमने होते हैं
पल-पल परिवर्तित 
इस दौर में
कोई एक ही चीज  से 
एक ही गेटअप से 
कैसे निर्वाह कर सकते हैं
कपड़े जूते चश्में 
घड़ी मोबाइल कलमें
जब  नहीं एक
तब चेहरे कैसे 
होन्गे भला एक 
वह भी नेक !
फिर एक चीज से 
आएगी नहीं उबकाई 
कैसे चलेगा 
बताओं  मेरे भाई 
केवल खाने के लिए ही नहीं
हर चींज के लिए 
लोग जायके बदल रहे हैं
चंचल मन कब से 
मचल रहे हैं 
आखिर रुढ़ता-मूढ़ता को 
क्यो ढ़ोतें रहेन्गे 
कह सनातन स्थिति 
जीवन हैं छण भंगुर
पुनश्च आने का 
सवाल नहीं लंगूर 
तब कोई क्यों 
रखेन्गे यथास्थिति 
कैसी मिथकीय अभिव्यक्ति 
सहेजे बनाकर संपत्ति 
यही सबसे बड़ी विपत्ति 
पाने इ‌नसें मुक्ति 
करें संधान 
हैं जेंहन में युक्ति....!!!

-डा. अनिल भतपहरी

चित्र - महानदी तट मांघी पुन्नी मेला परिसर राजिम
[4/5/2020, 15:48] Anil Bhatpahari: लाली रे दुलहनियां के लाली रे चुनरिया 
लाल लाल मन होके गावे गीत ददरिया ...

हाथ मं मेहदी रचाए पांव मं महावर 
किंदर के आए अंगना मं जोही संग भांवर 
 कुलकत मन उड़े जस आगास म बदरिया ...

छुटत हे मइके अउ मया दुरिहावन लगाय 
कनेखी देखत पिया बड़ मनभावन लागय 
 हिरदे म उठत हवे  पिरित के लहरिया...

खन खन बाजे हाथ के चुरी छन छन रे पैजनियां 
सर सर उडे गोरी के अंचरा 
मोहे रे नथुनियां 
देखब म बड़ नीक लागे 
मोहिनी सुरतियां ...
[4/6/2020, 08:10] Anil Bhatpahari: 17

हिमाच्छादित पर्वत शिखर 
मेघ कुहरों में धसीं
प्रथम प्रिय दर्शन 
नववधु चंद्रमुखी 
पेड़- पौधे, पशु पंछी
चांद -तारे ,और सभी
उंघतें अनमने 
आहट मधुर स्पर्श कोमल 
ठंडी बहती आसक्त अनिल 
मौन आमंत्रण 
केवल मैं तन्हा वो
दिव्य प्रणय 
मिलन एक दूजे का 
साक्षी चीड़ -देवदार
पंछी घंटी और अज़ान
तुम लाख पुछों रहस्य
छुपाए रहेन्गे अंतस में
रे जिज्ञासु बन सैलानी 
चलें आओं कौशानी 
    -डां.अनिल भतपहरी
[4/6/2020, 10:01] Anil Bhatpahari: 18

"सड़क" 

मिट्टी -गिट्टी, मूरम -डामर
और लोहे- सीमेंट की  
 यह सड़क नहीं 
जो  गांव नगर देश को 
में जोड़े 
जिन पर  बैलगाड़ी
से लेकर रेलगाड़ी 
बेधड़क दौड़े 
सब तरह के आवागमन 
निर्बाध चले 
चलते  हैं जहां  मेधा 
जोड़ते हैं  जहां हृदय से हृदय 
मिलते हैं मन से मन 
काव्य नहीं उपनिवेश के लिए 
सुख और शांति के प्रांत में 
चाहते हो आना 
तो स्वागत हैं दू मन आगर 
कुछ पल बिताओं आकर 
सुलभ सुगम सहज हैं 
ये सड़क तुम्हारे लिए
[4/6/2020, 10:17] Anil Bhatpahari: 19

।।अकाल ।।

कालाहांडी सरगुजा 
और पलामू में 
एक एक दाने को 
तरसते- झगड़ते 
एक-एक  बच्चे
युवाओं वृद्धों को 
एक छण
जी पाने की आस 
निटोरते आकाश  
पटापट मरते 
नर कंकालों को डोलते 
मृत जानवरों के 
मांस को गिद्ध की तरह 
नोचते झपटते चीथते 
देखा हैं मैने 
पेटाग्नि बुझाने 
कुछ भी करने को तत्पर 
मौत के आलिंगन से 
बचे छटपटाते 
दर्द से कराहते 
लोग कह रहे हैं-
मार दो गोली 
गिरा दो बम 
अब और जीया नहीं जाता 
देख सून उनकें दर्द 
लगा ''पर्ल एस बक " जी उठी 
उनकी पात्र एकाएक 
नोबल पा गये 
जवाहर रोजगार 
लहुं पसीना बहाकर 
मुठ़ठी भर अन्न पाकर 
जी रहें हैं मूरख 
अगले इलेक्शन 
और नोबल के लिए ...
[4/6/2020, 11:16] Anil Bhatpahari: मोहिनी सुरतिया तोर  नैना मारे बान 
जीव होगे हलकान अउ छुटत हे
 परान‌
 नजर भर देखे नहीं ओ, न गुठियाए नहीं ओ ...

कोजनी का गलती होइस मोर से 
कइसे पिरित  रानी जागिस तोर से
कहना मोर चिटिक, पतियाये नहीं ओ ...

दुरिहावत हस त एक जिनिस बतादे 
झटकुन मर जांव अइसे लिगिरी लगा दे 

महुरा घोर के तय काबर पियाए नहीं हो ..
[4/9/2020, 07:52] Anil Bhatpahari: "जीवन "
वन मे जी उसे कहते है जीवन 
पर  विकल वहा सभी हैं बेमन 
व्याकूल वन में भटकते वन्यप्राणी 
पीने को न मिले  एक बुन्द पानी 
चले  गांव जहां मिल जाय जिनगानी
पर भैय्ये यहां जीवन ही हैं  हलकानी 
तो चले शहर चलकर देख ले 
उखडती हुई  कुछ सांसे बचा ले ....

पर क्या शहरों में जीवन बचा है
मरने के कगार पर वह खडा है
तब से यह कहावत हुआ चरितार्थ 
जब मौत समीप हो तो आते शहर की याद
 

 

(आज प्रात: सोनारदेवरी पलारी में प्यासे भालू भटकते आकर बेर पेड में चढ गये उसी से प्रेरित चंद पंक्ति) 
- डा. अनिल भतपहरी
प्राध्यापक ,
शा बृजलाल वर्मा महा पलारी
[4/9/2020, 08:26] Anil Bhatpahari: ।।मन रमता नहीं।। 

नगर की स्थिति ख़राब हैं
मन रमता नहीं

सड़कों पर लोग
 चल नहीं सकते 
बिजली खंबे की तरह
 खड़े पाकेटमार हैं
गाँव फ़रियाद लेकर 
शहर आ नहीं सकते 
जंजालों का यहाँ
नित नी बाहार हैं
अंदर से कुछ
बाहर से कुछ 
हर चेहरें पर 
पड़ी हुई नकाब़ हैं 
मां-बहनें इतिहास के 
पन्नों पर कैद 
नारी देह- पूजा 
 स्वागत -सत्कार 
निकल नहीं सकती 
वनिताएं अकेली 
यहाँ पर रोज  
बालात्कार हैं
इधर- उधर 
फिसलती आँखें
हरदम हवस मिटाने 
 बेताब हैं
चौंक- चौराहें पर 
खड़े होकर चिल्लाओं‌
सफेद बगुलों में
सारस कहां हैं
सप्रेम भेंट केले छिलके 
सड़े टमाटर- अंडे
सफेद पत्थरों में
पारस कहां हैं
सौं बातों की 
एक बात 
आपका विवेक भी 
लगता लाज़वाब हैं
अलविदा होते सभी 
रहता शेष कोई एक हैं
कहता वह पारखी 
यह तो हैं असली 
लेकिन स्वर्ण - छीर का 
वह मोहताज हैं
नियति अपनी -अपनी 
उनकें स्पर्श से खराब 
यह आफ़ताब हैं
विज्ञान विकास के साथ 
विनाश भी करा रहा हैं
कुछ पाने के लिए 
सर्वस्व खोने से अच्छा
दिल यह कह रहा हैं
अभिशप्त अभिजात्यों का 
विसर्जन कर
समता के मांदर बजाऊ
गीत नव सर्जन का गांऊ 
यही परमार्थ हैं...
मन रमता नहीं 
नगर की स्थिति खराब हैं

-डां. अनिल भतपहरी 

टीप- केडेट डायरी पृ क 43 रचनाकाल 28-9-1994
[4/9/2020, 09:18] Anil Bhatpahari: शिकारी और भिखारी 

तब पचासों चिड़ियों का झुंड 
फूर्र से उड़ गया 
मैंनें देखा उस अधनंगें
काले -कलुटे पारधी के बच्चे को
जा़ल समेटते , मन मसोसते 
कह रहा था 
बाबुजी चिड़िया फंसी तो शिकारी 
या नहीं भिखारी 
*             *           *
कुछ दिन हुए मैं इनके 
बस्ती में आया 
इसलिए कि यहाँ से 
शहर समीप हैं
और ग्रामीण सचिवालय भी 
बचपन से आदतन
मैं प्रकृति प्रेमी रहा हूँ
खीच लिया यह वन प्रांतर 
और नल सेप्टिक छोड़कर 
दिशा- मैदान जाता हूँ
लोटा लेकर 
तब स्मरण हो आतें हैं 
बचपन मेरा 
वन ग्राम में बीता 
पिताश्री के मास्टरी के संग
विरासत में मिला मुझे एकांत 
खूब दोहन किया 
चिंतन मनन अध्ययन किया 
*                *               *
कुंचालें भरती हिरणियों के झुंड 
सुमन -सौरभ  लुटाते भंवर वृंद 
कोंपल फूटते सल्फी 
बौराते चार आम्र मंजरी 
कुचियाएं महुए का गंघ 
रात रात भर बजते 
ढ़ोल- मंजीरे नाद कंठ 
उन्मुक्त विचरण 
अल्हड़ ग्राम बालाएं 
तीर धनुष से सजे-संवरे 
भुंजियां माड़ियां छोकरे 
थिरकते लया चेलिक के पांव 
आज भी आंखों में तैरते वह गांव 
आंचलिकता से सिक्त
शब्दों से मिला मुझे प्रसिद्धि 
किशोरावय से ही उपलब्धि 
मन दौड़ता हैं उन्ही के समीप 
शहरी मित्रों का उपहास 
कि आज तक मैं देहाती हूँ
तथाकथित प्रोगेसिंव 
नारी मुक्ति पर बीसियों पेज 
लिख मारने के बाद 
मांस मच्छी मंद 
बालाओं के संग
पंच मकार की अनुगामी 
रे अघोरी खल दुष्ट कामी 
साले कोरे बुद्धिजीवी 
बने हो इसलिये पड़ोसी 
*           *             *
 एक नर्स यहाँ रहने आई 
एकदम तन्हा 
पारधी के लड़के ने बताया 
बाबु जी बहुत अच्छी हैं
उनके तीतर-बटेर की तरह
लगने लगी स्वादिष्ट  
कभी-कभी तृप्ति की डकार सी 
आने लगी स्वप्नारिष्ट
उस दिन दौड़ते आया 
ये पत्तर दिए हैं आपको 
तब एक पल  लगा 
कि उस सुन्दर नर्स के आने से
मैं भी कही 
शिकारी से भिखारी न हो जाऊं
टूटी तन्द्रा देख पोष्ट लिफाफा 
पर थामते नर्स की थैला 
और पाकेट पर रखते पैसा 
लानी हैं गृहस्थी के सामान 
होते रहा खुश और हैरान 
इस तरह कैसे वो अपना बना ली 
अपने मरीज से मिलने 
नर्स रोज सपने में आने लगी  

    -डां. अनिल भतपहरी 

     रचनाकाल  सितबंर १९९४
[4/9/2020, 14:16] Anil Bhatpahari: एक नज़र 

ऐसा लगता हैं कि हम
फिर से  भिल्ल होन्गे 
महाभारत के एकलव्य की तरह तीर -कमान युक्त अधनंगे नहीं
न चिंपाजी ओरांग-उटांग की तरह   बिल्कुल नंगे भी नहीं 
बल्कि इक्कीसवीं सदी का सुटेट- बुटेट 
पर भीतर से एकदम  नंगे  होन्गे 
यह नगर जो चमक-दमक रहे हैं
ईट,कांक्रीट, लोहे का 
कट -कट जंगल होन्गे 
*             *           *
पल रहे जन वन में 
कईं हिंसक पशु 
जो आँखे नचाकर करते शिकार   करते समक्ष आड़े-तिरछे  वार 
लिचलीची शहदी वाणी में फांसकर 
मृगजन को कच्चे ही खाकर 
लेते नहीं डकार 
उस हिंसक के अगल-बगल 
दूम हिलाते कुत्ते की तरह 
उनके चमचें मिलेंगे 
हर महकमें गाँव-शहर 
चारों ओर अगल-बगल 
कही भी हो इधर- उधर 
राह चलते डगर -डगर 
कराते हत्या लूट बालात्कार 
चोरी डकैती काला बाज़ार 
इनकी यह सब आम पेशा हैं
गौतम गाँधी के देश ये सब कैसा हैं
*           *               * 
आज अर्धनग्न किशोर 
जो डूबे हैं पश्चिम की ऐश में 
सत्संग प्रवचन छोड़कर 
जुआ वेश्या की रेश में 
विकसित कुटिल दर्शन ने 
सिखाया इसे 
उन्मुक्त विहार 
समर्पण नहीं केवल आकर्षण 
इमकी ग्लेमर्श चकाचौंध ने 
परंपरा ही नहीं रिश्तों को तोड़ा 
नारी श्रद्धा नहीं 
नारी अबला नहीं 
नारी भोग्या नहीं 
नारी त्यजा नहीं 
नारी बला नहीं 
ना री सबला नहीं  
नारी सबका नर सबका
उन्मुक्तता का यह 
विकृत परिणाम 
कालाजार मलेरिया नहीं 
एड्स से करने लगी 
प्रकति संतुलन 
आधुनिकता की मोहफांस में
उलझा एक किशोर मन 
अंतस भीतर चोट पहुचता 
चारों ओर विकृत मानसिकता 
क्या यही हैं आधुनिकता 
जीवन मूल्यों की चहुंओर  रिक्तता
सभी को सब कूछ पता हैं
शर्मशार पडे  साधे हुए मौन 
हमाम में सब नंगे हैं 
कहे एक -दूसरे को कौन 
*           *              *              * 
ये विकसित भिल्ल ग्राम 
पतन होते नगर महानगर में 
डूब रही मानवता यहाँ 
इस मायावी सागर में 
आज वही नाव हैं वही पतवार 
वही सवार और वही खेवार  
जिसमें पार हो रहे हैं
हत्या लूट फरेब बालात्कार ...
[4/9/2020, 23:01] Anil Bhatpahari: गीत 

आखी मं गड़ मोर चढती जवानी 
बडे बडे पखरा होवय पानी पनी‌
राम ब इरी जवानी ...

बिहने खेत जाथव मंय बोह के नांगर 
बचावत   पनिहारिन मन सो  नजर 
छलक जाय राम उकर हवला के पानी... 

मंझनिया आथव ,खाथव पखाले बासी 
चउरा ल सुनाथे मुटियारिन के हांसी 
 मुचमुचहिन टुरी मन मारत हे छैलानी ...

संझाकन  सायकिल मं जाथव पलारी 
थेंकत कहिथय बइठा ले गा  सवारी 
देख गीत गावय ओमन आनी बानी ...
[4/10/2020, 07:45] Anil Bhatpahari: प्रतिक्रिया 

माली जानता हैं
ये डाली पर खिलें फूल‌
औरों के लिए हैं
फिर भी यत्नपूर्वक 
बड़ी लगन से जतन करता हैं
जहां भी जाएगा 
सुगंध ही फैलाएगी 
आत्म संतुष्टि मिलेगा मुझे 
पर निरुदेश्य 
कोई तोड़ता हैं
या टूटता हैं
तो हृदय में 
क्रोधमय पीड़ा का 
आविर्भाव होता हैं।
[4/10/2020, 07:49] Anil Bhatpahari: ।।भूख।। 
भूख से बिलबिलाते 
बच्चें को सुलाते 
चांद को दिखाते
मां लोरी सुनाते 
रोटी समझ 
खाऊंगा तांद को 
तंदुली लोटी हैं ओ 
बच्चें के तुतलाते 
जुबान मां को रुलाते
[4/10/2020, 08:05] Anil Bhatpahari: काव्यार्पण 
मेरी कलम की स्याही 
आँसू हैं जो टप टप चू कर 
काग़ज में कविता बनती हैं
मानवता एंव सत्यता पर 
फिसलते ये कलम 
सिर्फ़ विचार प्रगट करते हैं
मार्क्सवादियों की तरह 
आज हर कवि/ रचनाकार 
सिर्फ़ भावनाओं से शोषित हैं
और जो वाकिय में शोषित हैं
वे लिख नहीं सकते 
गा -बोल नही सकते  
ले देकर जीते हैं
अंत में मर खप जाते हैं
कार्ल मार्क्स और अंबेडकर की तरह 
ये कम्बख्त कविओं/ वक्ताओं
बहुत सम्मानित होते हैं
उनके वाणी 
महल ड्राइंगरुम में 
सरकारी सभागारों में 
कैद हो जाते हैं 
ठीक कीचड़ के कमल की तरह 
खूबसूरत मंदिर के 
खूबसूरत मूरत के 
खूबसूरत चरण में ...
[4/10/2020, 08:57] Anil Bhatpahari: सोच 
प्रतिक्रिया में 
गुस्से से बिफरती 
मुंगियां कह क्या सोच रही हैं 
मरद घुम फिर कर 
अपने जात पर उतर आते हैं
*             *     ‌‌‌‌‌        *
गाँव -कस्बा,शहर -महानगर 
स्त्री -पुरुष और उनके खिलौने बच्चें 
प्रजातंत्र में राजतंत्र का छौक 
से उत्पन्न  अराजकताएं 
असामाजिक अव्यवस्थाएं
पंगु होती  मानवता 
विकृत होती मानसिकता 
कीड़े -मकोड़े सदृश्य 
रेंगते आदमी का झुंड 
जीने के लिए संधर्ष 
करते होते खंड चूर्ण 
धूटन शीलन चौतरफा 
बड़ा ही चाक चौबंद 
ताकि चलता रहे राज 
ऐसा किए गये प्रबंध 
ऊब -चूब  करती जिनगानियां 
सुनो ऐसी में मनोहर कहानियां
कुछ माह  बिहारी के प्रेम में 
पगलायी गाँव शहर आई 
इसी बदबूदार झोपड़ पट्टी में 
पास ही धुंए उगलती फैक्ट्री में
रोजी के लिए देकर अर्जियां‌
करते रहे मुंगियां से मनमानियां‌
पर होने एकाएक छटनियां 
बढ़ने लगी परेशानियां ‌
रोजी क्या ठीक से रोटी तक  नहीं 
साथ लाएं रुपये जेवर 
पेट में समा गये 
पर यह क्या? मुंगिया के 
पेट बाहर निकलने लगे 
सोच गहन सोच 
पेट चलाने के लिए 
*           *          *

एक रात बिहारी
 बाहों में बाहें डाल 
प्रेमासिक्त बातें 
चुमकर मुंगियां के गाल 
कहां पेट शरीर हैं
क्यों न शरीर के लिए 
शरीर बेचकर 
पेट चलाया जाय 
शरीर बचाया जाय 
मुंगिया रो रही हैं
उनकी आँसू 
लोहे की तवा सा तप्त 
मरद पर टपक कर 
भाप हो रही रही हैं
[4/10/2020, 14:39] Anil Bhatpahari: टेबलेट्स 

प्रिय आत्मन्

 आरस्तु के गुरु प्लेटो साहित्य सृजन के खिलाफ थे। उन्होने राजाज्ञा जारी करवा दिया था कि जो व्यक्ति साहित्य (काव्य ) रचता है,उसे मृत्युदण्ड दिया जाय।
     उपर्युक्त फ़रमान के ख़िलाफ आरस्तु ने रचनाकारों एंव साहित्य के हित के लिए "विरेचन सिद्धान्त " का प्रतिपादन किया।
     विरेचन शब्द चिकित्सा शास्त्र से लिया गया है। जिसका अर्थ रेचक औषधि हैं, जिससे रोगी को स्वस्थ किया जाता हैं। यही katharsis method हैं।
         इस प्रकार हम देखते है कि कविता या साहित्य समाज में व्याप्त बुराईयों से लड़ने के लिए रामबाण दवा साबित हुआ हैं।
      वर्तमान में रोगग्रस्त भारत वर्ष  नामक मरीज के ईलाज हेतु हमने युनानी होम्योपैथिक , आयुर्वेद या ऐलिपैथ  को छोड़कर आरस्तु का विरेचन पैथ ( शुद्धता एंव पवित्रता  का मार्ग ) से करने का प्रयास किया हैं -
आश्वासन 
नेता का 
जनता से
हर इलेक्शन बाद 
भूल जाने के लिए 
प्रवचन 
संत का 
भक्तों से 
भक्तों ‌को नर्क में ढ़केल‌
स्वयं स्वर्ग में ऐश करने के लिए 
समाधान 
शंकाओं का 
संकट 
उत्पन्न करने के लिए 
प्रणय 
वर का वधु से 
दहेज न मिलने के बाद 
जलाने के लिए 
५ 
चयन 
बेरोजगारों का 
शादी कर 
बच्चे पैदाकर 
बेरोजगारी बढाने के लिए 

६ 
उत्पादन 
खाद्य सामग्रियों का 
अस्पताल में 
भीड़ बढ़ाने के लिए 
प्रकाशन 
समाचार पत्रों का 
चाय पीकर 
समोसा बांध 
घर ले जाने के लिए 

अध्ययन 
पुस्तकों का 
छात्रों से 
परीक्षोपरान्त 
भूल जाने के लिए 

क्रिन्यावयन 
सरकारी योजनाओं का 
वोट की फसल उगाने के लिए
[4/12/2020, 17:32] Anil Bhatpahari: जय हो जय नकूल मंत्री ढ़ीड़ही 
तोर पूजा करही पीढ़ही पीढ़ही 

गुरु बाबा के जयंती  निकाले 
नवा चलागन समाज म चलाये 
संगठित होही समाज हर  तभेच आधु बढ़ही ...

अंबेडकर संग मिलके तय  समाज ल जगाए 
 हक अउ अधिकार सेती  लडे बर सिखाए 
कानून के राज हवे , कहे काकरो बाप के नहीं ...

कत्कोन केश पेशी लडे गये  छत्तीसगढ बर जेल 
करे निछावर गौटियाई फेर जनता  लिए सकेल
करनी जबर तोर जुग जुग नांव अमर र इही ...
[4/13/2020, 15:32] Anil Bhatpahari: केडेट डायरी के पृष्ठ क्रमांक 65

बसंत के नाम पैगाम‌ 

ओ रहस्य बसंत 
तुम्हारा आना 
हमने नहीं जाना 
अख़बार के पृष्ठ 
न रंगीन थे न कविताएँ थीं
बागों में न फूल खिले 
पेड़ पर्वत नाले 
खेत और खलिहान 
सभी वीरान 
कहीं भी तेरी तरुणाईं नहीं 
जीने की हवस में 
सच!हमसें भूल हुई 
तुम्हारा स्वागत न कर सका 
आख़िर हम आदमी ही तो हैं
अपने में ही जीते हैं
एक बार सिर्फ एक बार 
हमें क्षमा कर दों 
प्लीज़!

डा. अनिल भतपहरी 
रचनाकाल 10-2-1991,रवि. रात्रि10-30
प्रकाशित - रौद्रमुखी स्वर ,आज की जनधारा एंव अन्य
[4/14/2020, 09:06] Anil Bhatpahari: ।।बसंत के नाम पैगाम 2।।

बसंत जी 
हमें हरियाली से क्या लेना 
हम सावन के अंधे नहीं ‌
तुम्हारें तरुणाई से क्या मोह 
हम इनके दिवाने नहीं 
हम तो आदमी हैं
प्रकृति से कटकर 
शेष प्राणियों से हटकर 
अपने में रमकर 
हम में नई चेतना आई हैं
यहीं स्वर्ग बनायेन्गे 
सुरा- सुंदरी से 
घर सजाएन्गे 
इसलिये तो  संधर्ष करते 
छीनते झपटते हैं 
जो नहीं हैं उसे पाने 
सामूहिक संग्राम  करते 
रक्त बहाये हैं
इंद्रासन बचाने के लिए 
क्या नहीं किए  
आखिर वे हमारे पूर्वज हैं
प्यारे बसंत
 हमारे ये संदेश ले जाना 
वापसी में उनके 
आशीर्वाद लेकर ही आना ...
[4/14/2020, 09:11] Anil Bhatpahari: फूल 

जीने की कला सीखें फूलों से 
काटों में रहकर वो मुस्कुराते है
गैरों  के लिए  ही तो जनमते हैं
दर्द ले अपना  सर्वस्व लुटाते हैं
फूल तुम महान हो 
तुमसे प्रफूल्लित सारा ब्रम्हाण्ड 
तुम्हें क्या दे सकते हैं अनिल 
सुमन तुम्हे सुमन समर्पण
[4/14/2020, 09:15] Anil Bhatpahari: भीख 
पेट- पीठ चिपकाए मांगता हैं भीख 
उखड़ते सांस बचाने के लिए 
पेट- पीठ तोंद फुलाये मांगता हैं भीख 
गद्दी में आराम फ़रमाने के लिए 
जीने की हवस में गरीब बिक जाते हैं
सत्ता पाकर नेता अपना औकात भूल जाते हैं
[4/14/2020, 09:18] Anil Bhatpahari: श्रम की मुस्कान 

लंबी अंतराल 
लाखों धाटा सहने के बाद 
कुछ लम्हा फायदे के मिलने पर 
एक छण उनके अधरों पर 
फैली थी एक मीठी मुस्कान 
विकृत दर्द रेखाओं के बीच 
कितना मनमोहक यह मुस्कान ...
[4/14/2020, 09:23] Anil Bhatpahari: ॐ नम: कविताम् 

         कहते है वाल्मीकि दस्यु थे ,कालिदास गवार चरवाहे तो तुलसी निरीह भिक्षुक व पत्नी पीड़ित। फाकामस्ती करते  कबीर, अपमान के विषपान कर  बेफिक्र रैदास, तो गांव- गांव सतनाम का अलख जगाते मनखे- मनखे एक कहते तमाम अवहेलना को नजर अंदाज करते  गुरुघासीदास ।
     परन्तु इन्ही लोगों के चलते दुनिया कुछ हद तक मानवीय हो सका ।काश ये नही होते तो शायद मानवता जमींदोज हो गये होते।
    भारतवर्ष के इन महान युगद्रष्टा महाकवियों को विश्व कविता दिवस पर सत -सत नमन ..कोटिश  प्रणाम 

 "कविता"
मरा- मरा जपते दस्यु वाल्मीकि 
रचे रामायण दी जन को नवदृष्टी 
जिस शाखा मे बैठे कालिदास
उसी को काटते रचे रघुवंशम् 
लिखे अभिज्ञान शाकुन्तलम्
फाकामस्ती करते गा उठे 
कबीर गीत ईमान का 
अपमान के विषपान कर रैदास
गाये गीत सबन के कल्यान का 
नगर वधु के प्रेम पर पगलाये सूर
कुल वधु से मागते रतिदान 
गाये अजब महारास का गान  
पत्नी की फटकार से फटे 
निरीह तुलसी का प्रेमल मान
फूट पड़े सोता मानस गान 
गुरुघासीदास  गांव- गांव रमते कहे 
मनखे मनखे एक समान 
इन सबसे धरा पर 
धन्य हुई मानवता
मानव मन की गुह्य गह्वर को
आलोकित करती आ रही कविता 

 -डा.अनिल भतपहरी 
🌲💐🌻🍁🌺🌸?🌹💐?🌴
[4/15/2020, 08:35] Anil Bhatpahari: भीख 

पेट -पीठ चिपकाए मांगता है भीख 
उखड़ते सांस बचाने के लिए 
पेट-पीठ तोंद फूलाए मांगता भीख 
सत्ता सुख पाने के लिए 
जीने की हवस में गरीब बिक जाते हैं
सत्ता पाकर नेता अपना औकात भूल जाते हैं
[4/15/2020, 08:38] Anil Bhatpahari: नसीब 
नौजवानों के
 सीने पर 
घाव बनाती 
आज वह 
परिस्थितियों में 
कैद छटपटाती 
उनकें पिताओं को 
हैं रिझाती 
इस समाज में 
रहने वालें 
अजीब हैं
दोनों के 
विचित्र नसीब हैं
[4/15/2020, 08:44] Anil Bhatpahari: फ़र्क

दूध शरीर को 
तंदरुस्त करता हैं
यह सोचकर 
गाँधी जी ने 
एक बकरी 
पाली थी 
आज गाँधीवादी 
तंदरुस्ती के लिए 
बकरी कटवाते हैं
बड़े चाव से खाते हैं
और हां 
दूध के लिए 
घर में 
भैंस पाल रखे हैं

कक्षा ग्यारहवीं में अध्ययनरत 16-6-1986  कोसरंगी में प्रणयन
[4/16/2020, 08:13] Anil Bhatpahari: कभी -कभी ऐसा लगता हैं ऐसी रचना अनायस कैसे  जेंहन में उतर आते हैं । द्रष्टव्य हैं-

बेरोज़गार 

वक़्त कें अँधेरें 
आलम में छा रहे थे 
परेशानियाँ लिए 
ठिठके- ठिठके 
आ रहे थे
शाम की गर्दिश में 
अचेत सा 
अदद आशियाना 
तलाशते हुए 
कई  दफ़्तरों के 
लगाते  चक्कर 
बेरोजगारी का 
गीत गाते हुए 
शाम के बाद
रात होगी 
सभी जानते हैं
परन्तु रात के बाद 
प्रात: न होगी 
केवल अकेला 
मानते हैं

            - डां. अनिल भतपहरी 
रचनाकाल -25-5-1986 कक्षा ग्यारहवीं , बासटाल रायपुर में ‌।
[4/16/2020, 14:46] Anil Bhatpahari: "मानव तेरा जय हो "

जय हो सदा मानव का  विजय हो 
ज्ञान विज्ञान की हर तरफ उदय हो 
करोना का यह कैसा  कहर 
वीरान  होते गांव कस्बा शहर 
चहुंओर हो रहे हैं हाहाकार 
स्तब्ध संस्थाएँ  और सरकार 
कोई आयोजन नही न हैं समारोह 
दुबके  अपने घरों में भयभीत लोग 
खाली चलती  बस ,रेल और विमान 
स्कूल कालेज वीरान  थिएटर और उद्यान
लगता हैं छिड़ चुका हैं विश्वयुद्ध 
संकट विकट चल गया  भयावह  आयुध
करोड़ों अरबों संपदा  की हो रही क्षति
बचने- बचाने  की कोई नहीं  हैं युक्ति 
ऊपर से प्रकृति का यह कैसा हैं तांडव 
बिन मौसम बरसात  होते विचित्र विप्लव 
फैलते वायरस इससे गुणात्मक‌ रुप‌
अब वर्ड फ्लू  का भी प्रकोप हो रहा संयुक्त 
हो रहे प्रकोप  हर तरफ भयंकर 
मचाए है प्रलय महामारी का रुप धरकर 
भीषण भय फैलाते अफवाहे  चहुं ओर हैं
देव धामी नबी संत गुरु हो रहे कमजोर हैं 
कोई न रहा अब देने मानव को आत्म संबल 
करे प्रार्थना किससे सभी हो रहे हैं निर्बल
मिट रही थी सदियों की अमानवीय प्रथाएँ
भेदभाव अस्पृश्यता जैसी  कुप्रथाएँ 
पुनश्च सजीव कर गई डायन करोना वायरस 
गले-हाथ मिलाकर होंगे कैसे अब हम  समरस  
जीत भी जाय पर भय रहेगी  कायम 
अभिशापित निगोड़ी करोना बेरहम 
क्षय हो तुम्हारा मानवता हो विजयी 
सुन लो अज्ञेय शक्ति अनिल की विनती 
जय हो सदा मानव का विजय हो 
ज्ञान-विज्ञान की हर तरफ उदय हो 
मिले कोई उपाय औषधियाँ विकसित हो टिकाएं
धैर्य  रखे सभी रहन सहन में स्वच्छता अपनाएं 
परस्पर मानव समुदाय रहे आपस में मिलकर 
महामारी से निपटे तृतीय विश्व युद्ध से जीतकर 

-डा.अनिल भतपहरी /9617777514
[4/17/2020, 10:35] Anil Bhatpahari: समानता 

लेखक कवि को 
मानता हूँ किसान 
किसान बंजर भूमि में 
अन्न ऊपजाता हैं
अथक श्रमकर 
कलमकर श्वेत कागज़ पर 
लिखता हैं साहित्य 
अथक श्रमकर 
कागज़ खेत हैं
कलम‌ हल 
विचार बीज 
लिखा हुआ सभी 
लेख कविताएँ 
मेहनत की फसल 
कवि-किसान दोनो को
समान स्नेह हैं
अपने-अपने पैदाइश 
अन्न पर 
एक मिटाते हैं 
तन की क्षुधा 
तो दूसरा मिटाते हैं 
मन की क्षुधा
[4/17/2020, 10:48] Anil Bhatpahari: विनय 

हृदय रुपी चमन में 
बेमतलब 
शब्द बीज 
पड़ा हुआ है
विचार रुपी
मेघजल से 
वह अंकुरित हो
आया हैं 
चिन्तन से
यह किसलय 
यौनावस्था में आ
खिल जातें हैं
अभिव्यक्ति इनकें
 सुगंध फैलाते हैं
विद्जन अनुग्रहित कर 
अवगत करावें 
क्या यह मोहक हैं
या केवल सम्मोहक हैं
[4/17/2020, 12:54] Anil Bhatpahari: सलाह  

सुविधाएँ भी 
उत्पन्न कराती हैं संकट
इसके पहले तो
थे नही कुछ झंझट 
हो गिरफ्त आदमी 
पराधीन हो गये 
सामर्थ्य होते भी 
बलहीन हो गये 
आत्मविश्वास भी 
छीना गया 
ये कैसा डर कर 
जीना हुआ 
एक पेट दो हाथ 
फिर काहे उदास 
अभावग्रस्त पुरखे 
सौ साल जीते थे 
कितने खुशहाल 
कष्टों को पीते थे 
उनके गीत संगीत 
उनकी कथा कहानी 
उनके शौर्य पराक्रम 
उनकी अमृत वाणी 
सोचों क्या ज़रा सा 
हमने ऐसा पाया 
संकट में धैर्य खोकर 
जार-जार आँसू बहाया 
उठो आगे बढ़ो 
करो प्रयाण हिम्मत से 
नायाब नया गढ़ो किस्मत से 
दास न बनो सुविधा के 
बल्कि दास रखों सुविधाओं को‌
मनोरंजन समझना मत‌‌ प्यारे 
 मेरी इ‌न कविताओं को‌...

     -डा. अनिल भतपहरी / 9617777514
[4/22/2020, 15:08] Anil Bhatpahari: बेटी के बिदा 

छोड़ चले मोर अंगना बेटी
मोर आँखी के तिसना ओ 
मोर आँखी के तिसना बेटी 
छोड़ चले मोर अंगना ओ 

सास ससुर के सेवा करबे 
हिरहंछा तय मन मं 
ननद जेठानी तोर संगवारी 
इहिबे मिलके संग मं
देवता असन तोर पति हे 
करबे अंतम मं ओ ...

मया ह दुरिहावत हवय 
आंखी ललियावत हे 
जायके बेरा होगे तोर त 
जिंवरा कइसे लागत हे 
आँसू के तय घुटका पीले 
मोर पिंजरा के मयना ओ ...

हांसत रोवत बेटी के बिदा 
सुनले मोर गोहार 
नयना बरसे रिमझिम सावन 
बहय मया के धार 
अंचरा भिंजय महतारी मन के 
कका बबा मन के नयना ओ ...

मया- पिरित के मोटरी बांधे 
आहु तोर दुवारी 
हांसत तोला देखंव बेटी 
जइसे रहय तोर घर देवारी 
सुख संपत्ति तोर घर मं बगरय 
ले ले मोर असीस ओ ...

    -डा. अनिल भतपहरी 

 रचना काल १९९०-९१ 


प्रकाशन - कब होही बिहान काव्य संग्रह 2007 में जतनाय हे।
[4/26/2020, 10:15] Anil Bhatpahari: ऐसे भी लोग 

ऐसे भी लोग 
रहते हैं जमीं पे 
निंदक को प्यारे
गुणी जनों के दुलारे 
हां में हां मिलाने वाले 
रहते हैं जमीं पे 
एकाएक दृढ़ 
पलभर में पिघल 
तलुवा चाटते 
मतलब के लिए 
नाक रगड़ने वाले 
रहते हैं जमीं पे 
छण में  तनता हैं 
युं ही सकुचाता हैं
पल में फैलता हैं 
स्वत: सिमटता हैं
सम‌प्रत्यावस्था गुणधारी
आकर्षक रुप मुग्धकारी  
रहते हैंजमीं पर 
इधर पलटते 
उधर पलटते 
अलट - पलट कर 
एक दूसरे को तोड़ते 
अपना उल्लू सीधा करते 
ऐसे सफलम लोग 
रहते हैं जमीं पर 
इतने कुशल अभिनेता 
किरदार में जान डाल दे 
अभिनय के बल पर 
जान लेने व देने वालें
रहते हैं जमीं पर 
ये तथाकथित सज्जन‌
अहिंसक बुद्धिजीवी 
कथित कल्याण कारक 
इन्हीं के बदौलत 
संप्रभुताओं को‌
भोगा जा रहा हैं सदा 
वाह क्या खूब इनकी अदा 
सच तो यह हैं
जब हो करोड़ों विष्णन 
मूढ़ क्षुधातुर और नग्न 
तब युं ही हो जाते अनावरण 
इन सभी का लोकार्पण 
धून और दीमक की तरह 
संचरे हैं सर्वत्र 
मिटाकर अस्तित्व किसी का  
हुआ हैं अस्तित्वान किसी के 
जी हां ऐसे लोग सम्मानित हैं
सदा इस जमीं पे 
रहते हैं आबाद 
ऐसे लोग इस जमीं पें  

-डा. अनिल भतपहरी 

रचनाकाल - ७-८-१९८५ 

केडेट डायरी पृ क्र ८७-८८
[5/1/2020, 08:40] Anil Bhatpahari: वाह ।

हमरे घर अउ हमरे छानी 
बेंदरा मनके देख करसतानी
चारों डहन इंकर उलानबाटी 
ओमन किंदरय पहिने टोपी
खाटी मन बर न मिले लगोटी  
उकर मालपुआ इकर खपुर्री रोटी  
काला सुनाबे गीत भजन कहानी
जम्मों तो लहुटगय अंधरी- कानी
[5/4/2020, 13:49] Anil Bhatpahari: आपके वास्ते छकड़ी हमरी 

           " लिमउ "
गरमी मं लिमउ सक्कर पानी मिले  से  मन थिरा जथे 
कत्कोन झोला गे रहिबे पीते साठ
कुहकुही सिरा जथे 
दार- भात संग ससन भर खाले 
एखर अचार 
बिटामिन सी रसा मं भरे हवय एखर अपार 
तिहि पाय के अंगना मं लगावव लिमउ पौंधा 
ममहई अउ सुघरई संधरा पावव संगी ठौका 

 बिंदास कहें -डां. अनिल भतपहरी
[5/13/2020, 13:32] Anil Bhatpahari: आत्मनिर्भर शब्द है बड़ा सुहाना 
पर कैसे हो यह बिल्कुल न जाना 
बिल्कुल न जाना है सब अनजान 
संकट में फंसे हुए हैं सबके प्राण 
ऐसे में कोई लूटे नमक नहीं घर पर
बताओं ऐसे में कैसे हो आत्मनिर्भर
[5/13/2020, 13:38] Anil Bhatpahari: आपके वास्ते छकड़ी हमरी 

       आत्मनिर्भर 

आत्मनिर्भर शब्द है बड़ा सुहाना 
पर कैसे हो यह बिल्कुल न जाना 
बिल्कुल न जाना है सब अनजान 
संकट में फंसे हुए हैं सबके प्राण 
ऐसे में कोई लूटे नमक नहीं घर पर
बताओं ऐसे में कैसे हो आत्मनिर्भर

बिंदास कहे डा अनिल भतपहरी
[5/28/2020, 14:02] Anil Bhatpahari: सतनाम-महामंत्र 

जो नर सुमरै नित सतनाम  
           जीयत पावै पद निरवान 
 जन्म धरै तो करो कर्म अच्छा 
      दु:ख न  पीरा हो जीवन सच्चा
खान-पान बेवहार हो पबरित
    अन खावै जल पीयय अमरित 
हिरदे सफ्फा मन रहे निश्चछल 
    तबहि पावै सुख सुन्दर सुफल 
सद्कर्म देव हिरदे मन धाम
        हिरदे भीतर बसै सतनाम
मान सम्मान सदा अजर-अमर 
       वंश विस्तार हो सेत -हरियर  
हंसा अकेला उड़ै सतलोक
    बहुरि न आवै कबहु मृतलोक 
जो नर सुमरै नित सतनाम 
     जीयत पावै पद निरवान ...
                 सतनाम
[5/30/2020, 22:06] Anil Bhatpahari: ।।जय जोगी ।।

माटी के बेटा जोगी  तय हर 
खाये  गोटी माटी 
गंगा अमली के बीजा अरझगे
होगे ओखी खोखी 
कलपय  लाखो‌ं नर‌ नारी 
धर धर रोवय छत्तीसगढ़ महतारी...
 
गांव गवई जंगल ले निकले 
 बनके तय ह हीरा 
चिन्हे तय जम्मों मनखे मनके 
 दु: ख अउ पीरा 
पोछे आंसू गरीबन के गुनवंता हस भारी ...

बने तय कप्तान कलेक्टर 
संसद अउ मुखमंत्री 
गरब न गुमान चिटिक तोर 
तय गरीबन के संगी 
जोर जुलुम बर टकराये बनके खाटी लोहाटी ...

तपोये तन मन ल करे 
पढ लिख के तप ल भारी  
अव्वल रहे सदा तय हर 
देखे किंदर दुनिया सारी  
मनवाए लोहा अचरुज देखे सब नर नारी ...

जय जोगी जय जोगी जय जोगी 
तोर परताप अचरुज हे  तोर  महिमा हे भारी ....

   डा. अनिल भतपहरी
[6/1/2020, 12:11] Anil Bhatpahari: ।।यक्ष प्रश्न ।।

एक हम हैं
जो तुम्हें बसाते हैं
अपने दिल में
एक तुम हो 
जो हमसें ही 
रहती मुश्किल में
बताओं अब 
तुम  या 
दिल बड़ा तुम्हारा 
कि हमारा 
तुम हो कि 
हम है प्यारा ?

-डा.अनिल भतपहरी
[6/18/2020, 16:35] Anil Bhatpahari: तेरी तरह कोई तो बसी हैं मेरे मन में 
पर क्यु कुछ खाली हैं मेरे जीवन में
आग लगी और पानी भी बरसा 

पर कुछ असर नहीं जलन-भींगन में 
ये मस्तानी शाम और रुहानी रातें

थकान मिटती नहीं कोई सींजन‌ में

अब तो तड़फ की लत ही लग गी

बिन इनके मज़ा क्या मेरे जीवन में  

     - डा अनिल भतपहरी
[6/19/2020, 13:44] Anil Bhatpahari: तेरा चेहरा है कि मयखाना मेरी आंख हैं कि शराबी 
डुबे हुए नशे में इनकी चाल बड़ी ही खराबी ...

न बुत परस्ती न सजदा न कोई इबादत 
इश्क-ए-आग की दरिया  में देखों इनकी बरबादी 

ओ बनाने लगे फ़िरके और ईजाद किए मज़हबें 
ये कैसा काफ़िर सज़दे करने लगे मज़हबी ...

लिखना- ए -तवारिख शागिर्द हैं अनिल 
ओ कलंदर हुए मस्त मौला हुश्न -ए नबी ...
[6/22/2020, 16:46] Anil Bhatpahari: जुबान तेरी मरदूद तीखी बहुत हैं 
तभी तो लब तेरे पानी पीती बहुत हैं

 बेफिक्र परिंदे उडे़ तो कैसे आसमां पे 
ये तीर -ए -नज़र आपकी तीखी बहुत हैं

उगलती हुई ज़हर बिताई उम्र -ए-तमाम 
इतनी कटुता लेकर क्यों कोई जीती बहुत हैं

रही अस्त -व्यस्त और पैंबद भरा जीवन 
ता उम्र लोगों की फटी सीती बहुत हैं। 

चलों यहाँ गुज़ारा नहीं बस्ती तंग दिलों की हैं
निकलेगी गाड़ी कैसी सकरी गली  बहुत हैं

     -डॉ. अनिल भतपहरी
[6/23/2020, 19:04] Dr.anilbhatpahari: काढ़े गये पैबंद हैं

बातों ही बातों में मुस्कुराना पसंद हैं।
तेरा युं ही हरदम मुस्कुराना पसंद हैं।
गर डूबे रहे रंज -ओ - ग़म की दरिया में
तो ख़ाक क्या जीवन में आनंद हैं 

तकलीफ़ किसे ,कहाँ नहीं है ऐ दोस्त 
हरदम रोते रहना भी क्या कोई ढंग हैं

एक पल सुख और एक पल दु:ख 
जिन्दगी के चादर में काढ़े गये पैबंद हैं।

  डाॅ. अनिल भतपहरी
[6/24/2020, 13:35] Anil Bhatpahari: कुछ तो हुआ है पर कुछ बोल नहीं सकता 
ये उम्र रफ्तां को‌ चाहकर रोक नहीं सकता 

जब से आई है जवानी और रंगीन लगे दुनियां
कोशिश लाख करे जमाना पर रोक नहीं सकता 

जैसा भी हो वो सच में लख़्त-ए- ज़िगर हैं
फितरत किसी को कही झोंक नहीं सकता 

माना बेमुरौव्वत हैं पर वे नुर-ए- नज़र हैं
ऐसों से वफ़ा का कभी सोच नहीं सकता 

इस तरह वार होने लगे हम पर चारों तरफ से 
खुद को ही बचाने कभी सोच नहीं सकता 

-डाॅ.अनिल भतपहरी
[6/26/2020, 16:32] Anil Bhatpahari: सुन कर अस़आर मेरी ओ तारिफ़ में कही 
दिल कत़र के लिखे है जो सीधे  दिल में लगी हैं

सच डूबाएं है ऩीब खुन-ए -ज़िगर में
तभी बिन रुके यह कागज़ में चली हैं

पढ़कर  हुई ख़राब अनिल अपनी भी हालात 
पल भर लगा कि अपनी बात चली हैं

हैरत है सभी कि मंजर लाल क्युं हुआ  
आँसू नहीं धर-धर लहु आँखों से बही हैं

      -डाॅ.अनिल भतपहरी
[6/27/2020, 09:03] Anil Bhatpahari: दौर-ए-ख़िलाफ़ हैं मुहब्बत की कुछ कह नहीं सकतें
उल्फ़त से भरी नगरी में अब कुछ पल‌ रह नहीं सकतें

शक-ए-सुबहा से होती है उनकी सुबह शुरु 
रात तक कुछ मिल सके यह कह नहीं सकते 

हर कोई लगाए हैं जाल फंसे उनके हिस्से का माल 
ये सब्र बगुला कैसे कब टूटे यह कह नहीं सकते 

 हर कोई एयार हैं दिल साफ़ नहीं किसी का 
ऐसे में कोई पीर बने यह कह नहीं सकते 

खत्म दौर हुआ नबियों का अब शोहदे ही गुलजार हैं
ऐसे में जन्नत कहीं और है यह कह नहीं सकते 
निकले ढूढ़ने बुरा पर बुराई ही सब ओर हैं 
कही गर अच्छाई मिले यह कह नही सकते 

लत तो लगी है रह सकते नहीं कोई इनके बिन 
हम इस दौर के नहीं ऐसा कह नहीं सकते

         -डॉ. अनिल भतपहरी /9617777514
[6/30/2020, 17:10] Anil Bhatpahari: तय हर मुस्काए त करेजा होगे चानी 
निकलत हे मुखले बोल बचन आनी-बानी 

पुछंता नहीं हमर रहेन परे अउ डरे 
देखे एक नंजर त होगेन भागमानी 

घुरवा कस हमरो भाग हर बहुरगे 
जब ले सुनेन मयारुक बचन बानी 

घाद सरु मनखे रहेन कोंदा अउ ब उला 
तोरे सेती पंचैती मं लागय चलन    सियानी

कर दे इसारा  लानबोन बरतिया बाजा 

तियार मटुक खापे  बइठे हन रानी 

डॉ. अनिल भतपहरी / 9617777514
[7/13/2020, 16:45] Dr.anilbhatpahari: सुनार की सौ टक टक लुहार की होते एक 
ऐसे ही संतो की बानी जे पड़त  कलेजे छेक...


काले हो या गोरे देश के हो या परदेश 
कहे गुरु घासीदास मनखे -मनखे एक

एक चाम एक मल मुतर 
कौन भला कौन मंदे 
उनके सब बंदे कहे नानक  नूर-ए- उपजे एक

माला फेरत जग हया गया न मन का फेर 
कबीर कहे मनका डारिके फेर मनके एक  

ऐसा राज चाहु मै मिले सबको  सम अन्न भाव 
कहे रैदास रहियो सदा मन चंगे एक 

जो तु तु मै मै करता फिरता मानुष मुरुख मन

कहत साई परसन होवै मालिक सबके एक
[8/10/2020, 16:31] Anil Bhatpahari: ।।मज़ा और सज़ा ।।

कहते हैं वो कि उनकी ,मज़ा ही मज़ा हैं
पर सच कहे ज़िन्दगी, सज़ा ही सज़ा हैं

 दिखने लगा सब साफ़, चढ़कर ऊँचाई 
आए हाथ  दूर सब ,तन्हाई ही सज़ा हैं 

यकीन है दूर कर लेगें ,उनकी नाराज़गी 
हर अदा पर उनकी, दिल अपनी रज़ा हैं

उसे पता है कि ये ,आदमी है बेवकूफ़ 
पर न जाने क्युं, उनसे ही वफ़ा हैं

झुके थे सज़दे में तभी ख़बर आया 
आ रही ओ इस तरफ़ हो गई कज़ा हैं 

जैसा भी है अब तो मस्ती में मलंग है 
 आने से उनकी अब तो रंगीन ही फिज़ा हैं
  -डाॅ. अनिल भतपहरी

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