भारतीय जनमानस में सतनाम की सात तरह की विशिष्ठ ध्वनि है - सत्थनाम , सच्चनाम , सत्तनाम , सत्यनाम सतिनाम सतनाम और शतनाम । ऐसा जान पड़ता है कि सतनाम शब्द प्राचीन सिन्धु घाटी सभ्यता मे भी व्यवहृत होते रहे है। श्रमण और कृषि संस्कृति में सतनाम साधक व सुमरन करने वाले समुदाय बेहद प्राचीन संस्कृति के लोग हैं। वयोवृद्ध पुरातत्व वेत्ता पद्म श्री अरुण शर्मा जी ने यह स्थापित किया है कि सिन्धु घाटी मे प्राकृतिक विपदा के उपरान्त वहां से लोग आव्रजन कर इधर ऊधर बिखर गये उनमे कुछेक लोग महानदी घाटी सभ्यता मे आ बसे मातृका पूजा और शव दफनाने की क्रिया तथा सतनाम सुमरन आदि वर्तमान सतनामी करते है यह गौर वर्णी चित्ताकर्षक और सिन्धु घाटी के नस्ल से बहुत समनाताए रखने वाले समुदाय हैं। "
बुद्ध पूर्व 26 बुद्ध और हो चूके है । बुद्ध का आशय बुद्धि या ज्ञान से है। जिन्हे मर्म का सत्य का ज्ञान हो चुका जो सब कुछ को समझ गया वही बुद्ध या ज्ञानी हैं। राजकुमार सिद्धार्थ को सत्य का बोध ( ज्ञान) हुआ तो वे ज्ञानी अर्थात् बुद्ध हुआ ।
बहरहाल बुद्ध के अनेक नाम मे सच्चनाम भी एक नाम हैं।
यह नाम भावनात्मक रुप से है।
क्योकि वे राग द्वेष मोह से रहित होकर उनका चित्त मन हृदय सत मय हो गया था इसलिए उसे सच्चनाम कहे गये। आगे वही क्रमिक विकास मे सत्तनाम हुआ।
सत्तनाम संत मत का लोकप्रिय शब्द है और यह कल्पित या मिथकीय ईश्वर से अलग यथार्थ व ऐतिहासिक शब्द नाम हैं। सतपुरुष भी इसी तरह संत मत में ईश्वर के समनान्तर शब्द हैं।
सतनाम पंथ में गुरुघासीदास को सतनाम बाबा भी कहे जाते है ।इसका मतलब गुरु घासीदास सतनाम हो गया ऐसा नही हैं।
सच्चनाम ठीक सतनाम बाबा जैसा संतो या अनुयाई द्वारा श्रद्धावश पुकारे गये नाम हैं।
एक प्राचीन पंथी गीत मे सतनाम का वर्णन इस तरह से मिलता है -
जपो जपो सतनाम मनखे के नोहय एहर नाम
सत एक रद्दा ये जीव के सहारा ये
ये ला पकडे ले भवसागर पारा हे
सोचो समझो गा आज देखो परखो गा आज
मनखे के नोहय एहर काखरों नाम ...
बहरहाल इतना तो अवश्य है कि भारत वर्ष में प्राचीन वैदिक या सनातन मत भी प्रचलन मे है जो आगे चलकर पौराणिक स्वरुप मे अलग - अलग सम्प्रदाय के रुप में संगठित होकर क्रमश: शैव ,शाक्त वैष्णव के रुप में विकसित हुए इनमे घोर प्रतिद्वंद्विता भी रही पर शैन: शैन : लोकायत व बौद्ध जैन आदि के अभ्युदय के बाद समन्वित होकर अवतार वाद लाकर सबको समन्यव किए गये । वैदिक व पौराणिक मान्यताओं को स्थापित कर एक अभियान के तरहत प्रतिष्ठापित कर दिए गयें।
आगे चलकर त्रिदेव सहित राम कृष्ण और उनके परिजन आदि को मानने लगे है। इन के प्रतिरोधी स्वर को साम दाम दंड भेद जैसे नीति के चलते बहुतों को शूद्र वर्ण देकर मिला लिए गये और बहुतों का बहिष्कृत कर दिए गयें। उन्हे अवर्ण या अस्पृश्य धोषित कर दिए गये।
यह समुदाय जो कभी प्राचीन बौद्ध धर्म के महायानी हीनयानी और सहजयानी थे उन्ही वर्गो समुदायों मे संतो गुरुओ का आगमन हुआ और वही लोग सतनाम का अलख जगाए।वर्तमान मे सिख सतनामी कबीरपंथी रैदासी वगैरह तमाम समुदायों मे केवल " सतनाम " के कारण परस्पर सौहार्द्र स्थापित होने लगे है। उपसना और कुछेक मान्यताओं मे अंतर हो सकते है पर सत ज्ञान और परस्पर सहयोग के मामले मे सभी सतनाम के अनुयाई अपने अपने धर्म गुरुओ और प्रवर्तकों के संदेशों के अनुरुप समान ही हैं।
ढोंग पांखड और चमत्कार आदि के जगह कर्मवादी और पुरुषार्थ से भरा हुआ आदर्श समाज की संरचना गुरुओं के कारण हुआ हैं।
वे लोग जाने- अनजाने में छोटी- मोटी संकीर्णताओं व मान्यताओ के आधार पर सतनाम के मार्ग से न भटके और न ही परस्पर प्रतिद्वंदिता रखें। अन्यथा सदियों से यथास्थितिवादी लोग सतनाम की नव प्रवर्तन स्वरुप को विकसित और प्रतिष्ठित होने ही नही देंगें।
सतनाम
No comments:
Post a Comment